
सत्तर सुहुमसरागे पंचऽणियट्टिम्हि देसगे तदियं ।
अयदे बिदियकसायं होदि हु उक्कस्सदव्वं तु ॥212॥
छण्णोकसायणिापयलातित्थं च सम्मगो य जदी ।
सम्मो वामो तेरं णरसुरआऊ असादं तु ॥213॥
देवचउक्कं वज्जं समचउरं सत्थगमणसुभगतियं ।
आहारमप्पमत्तो सेसपदेसुक्कडो मिच्छो ॥214॥
अन्वयार्थ : 17 प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में होता है । पाँच का नवमें गुणस्थान में, प्रत्याख्यान-4 का देशविरत गुणस्थान में, अप्रत्याख्यान-4 कषायों का चौथे असंयत गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है ॥212॥
छ: नोकषाय, निद्रा, प्रचला, और तीर्थंकर प्रकृति - इन नौ का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्यग्दृष्टि करता है । तथा मनुष्यायु, देवायु, असाता वेदनीय, देवचतुष्क, वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभगत्रिक - इन तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि दोनों ही करते हैं । और आहारकद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशबंध अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती करता है । इन 54 के बिना अवशेष 66 प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट योगों से करता है ॥213-214॥
| उत्तर प्रकृतियों में उत्कृष्ट प्रदेशबंध के गुणस्थान |
| उत्तर प्रकुतियाँ | कुल | गुणस्थान |
| 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय, यश:कीर्ति, उच्च गोत्र, सातावेदनीय | 17 | 10 |
| पुरुषवेद, 4 संज्वलन कषाय | 5 | 9 |
| 4 प्रत्याख्यानावरण कषाय | 4 | 5 |
| 4 अप्रत्याख्यानावरण कषाय | 4 | 4 |
| 3 वेद छोड़कर 6 नोकषाय, निद्रा, प्रचला, तीर्थंकर प्रकृति | 9 | सम्यग्दृष्टि |
| मनुष्यायु, देवायु, असातावेदनीय, देवचतुष्क, वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभगत्रिक | 13 | सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों |
| आहारकद्विक | 2 | |
| उपरोक्त 54 छोड़कर शेष प्रकृतियाँ | 66 | मिथ्यादृष्टि |