मणुवेसु ण वेगुव्वदु पणवण्णं संति तत्थ भोगेसु ।
हारदुसंढविवज्जिद दुवण्णऽपुण्णे अपुण्णे वा ॥३१॥
मनुजेषु न वैक्रियिकद्विकं पंचपंचाशत् सन्ति तत्र भोगेषु ।
आहारद्विकषंढविवर्जितं द्विपंचाशत् १अपूर्णे अपूर्णे इव ॥
अन्वयार्थ : कर्मभूमिज मनुष्यों के वैक्रियकद्विक के बिना ५५ आस्रव होते हैं । भोगभूमिज मनुष्यों में आहारकद्विक और नपुंसकवेद रहित ५२ होते हैं एवं लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य में लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच के समान ४२ आस्रव होते हैं अर्थात् आहारकद्विक, मनोयोग चार, वचनयोग चार, औदारिक, वैक्रियकद्विक, स्त्री, पुरुषवेद इन १५ से रहित ४२ आस्रव होते हैं ॥३१॥
लब्ध्यपर्याप्त में ४३ आस्रव एवं प्रथम ही गुणस्थान है ।