
कथा :
मैं संसार पूज्य जिन-भगवान् को नमस्कार कर श्री वारिषेण-मुनि की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने सम्यग्दर्शन के स्थितिकरण नामक अंग का पालन किया है । अपनी सम्पदा से स्वर्ग को नीचा दिखाने वाले मगधदेश के अंतर्गत राजगृह नाम का एक सुन्दर शहर है । उसके राजा हैं श्रेणिक । वे सम्यग्दृष्टि हैं, उदार हैं और राजनीति के अच्छे विद्वान हैं । उनकी महारानी का नाम चेलना है । वह भी सम्यक्त्व-रूपी रत्न से सुशोभित है, बड़ी धर्मात्मा है, सती है, और विदुषी है । उसके एक पुत्र है । उसका नाम है वारिषेण । वारिषेण बहुत गुणी है, धर्मात्मा है और श्रावक है । एक दिन मगधसुन्दरी नाम की वेश्या राजगृह के उपवन में क्रीड़ा करने को आयी हुई थी । उसने वहाँ श्रीकीर्ति नामक सेठ के गले में बहुत ही सुन्दर रत्नों का हार पड़ा हुआ देखा । उसे देखते ही मगधसुन्दरी उसके लिये लालायित हो उठी । उसे हार के बिना अपना जीवन निरर्थक जान पड़ने लगा । सारा संसार उसे हारमय दिखने लगा । वह उदास मुँह घर पर लौट आई । रात के समय जब उसका प्रेमी विद्युतचोर घर पर आया तब उसने मगधसुन्दरी को उदास मुँह देखकर बड़े प्रेम से पूछा -- प्रिये, आज मैं तुम्हें उदास देखता हूँ, क्या इसका कारण तुम बताओगी ? तुम्हारी यह उदासी मुझे अत्यंत दुखी कर रही है । मगधसुन्दरी ने विद्युत पर कटाक्षबाण चलाते हुए कहा -- प्राणवल्लभ, तुम मुझ पर इतना प्रेम करते हो, पर मुझे तो जान पड़ता है कि यह सब तुम्हारा दिखाऊ प्रेम है और सचमुच ही तुम्हारा यदि मुझ पर प्रेम है तो कृपा कर श्रीकीर्ति सेठ के गले का हार, जिसे कि आज मैंने बगीचे में देखा है और जो बहुत ही सुन्दर है, लाकर मुझे दीजिये; जिससे मेरी इच्छा पूरी हो । तब ही मैं समझूँगी कि आप मुझ से सच्चा प्रेम करते हैं और तब ही मेरे प्राणवल्लभ होने के अधिकारी हो सकेंगे । मगधसुन्दरी के जाल में फँसकर उसे इस कठिन कार्य के लिये भी तैयार होना पड़ा । वह उसे संतोष देकर उसी समय वहाँ से चल दिया और श्रीकीर्ति सेठ के महल पहुँचा । वहाँ से श्रीकीर्ति के शयनागार में गया और अपनी कार्यकुशलता से उसके गले में से हार निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ वहाँ से चल दिया । हार के दिव्य तेज को नहीं छुपा सका । सो भागते हुए उसे सिपाहियों ने देख लिया । वे उसे पकड़ने को दौड़े । वह भागता हुआ श्मशान की ओर निकल आया । वारिषेण इस समय श्मशान में कायोत्सर्ग ध्यान कर रहा था । सो विद्युत चोर मौका देखकर पीछे आने वाले सिपाहियों के पंजे से छूटने के लिये उस हार को वारिषेण के आगे पटक कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ । इतने में सिपाही भी वहाँ आ पहुँचे, जहाँ वारिषेण ध्यान किये खड़ा हुआ था । वे वारिषेण को हार के पास खड़ा देखकर भौंचक्के से रह गये । वे उसे उस अवस्था में देखकर हँसे और बोले -- वाह चाल तो खूब खेली गई ? मानो मैं कुछ जानता ही नहीं । मुझे धर्मात्मा जानकर सिपाही छोड़ जायेंगे । पर याद रखिये हम अपने मालिक की सच्ची नौकरी करते हैं । हम तुम्हें कभी नहीं छोड़ेंगे ! यह कहकर वे वारिषेण को बांधकर श्रेणिक के पास ले गये और राजा से बोले -- महाराज, ये हार चुराकर लिये जाते थे, सो हमने इन्हें पकड़ लिया । सुनते ही श्रेणिक का चेहरा क्रोध के मारे लाल सुर्ख हो गया, उनके ओंठ काँपने लगे, आँखों से क्रोध की ज्वालायें निकलने लगीं । उन्होंने गरज कर कहा -- देखो इस पापी का नीच कर्म जो श्मशान में जाकर ध्यान करता है और लोगों को यह बतलाकर कि मैं बड़ा धर्मात्मा हूँ, ठगता है, धोखा देता है । पापी ! कुल कलंक ! देखा मैंने तेरा धर्म का ढोंग ! सच है, दुराचारी, लोगों को धोखा देने के लिये क्या-क्या नहीं करते ? जिसे मैं राज्यसिंहासन पर बिठाकर संसार का अधीश्वर बनाना चाहता था, मैं नहीं जानता था कि वह इतना नीच होगा ? इससे बढ़कर और क्या कष्ट हो सकता है ? अच्छा तो जो इतना दुराचारी है और प्रजा को धोखा देकर ठगता है उसका जीता रहना सिवा हानि के, लाभदायक नहीं हो सकता । इसलिये जाओ इसे ले जाकर मार डालो । अपने खास पुत्र के लिये महाराज की ऐसी कठोर आज्ञा सुनकर सब चित्र-लिखे से होकर महाराज की ओर देखने लगे । सबकी आँखों में पानी भर आया । पर किस की मजाल जो उनकी आज्ञा का प्रतिवाद कर सके । जल्लाद लोग उसी समय वारिषेण को वध्यभूमि में ले गये । उनमें से एक ने तलवार खींचकर बड़े जोर से वारिषेण की गर्दन पर मारी, पर यह क्या आश्चर्य ? जो उसकी गर्दन पर कोई घाव नहीं हुआ; किंतु वारिषेण को उल्टा यह जान पड़ा, मानो किसी ने उस पर फूलों की माला फेंकी है । जल्लाद लोग देखकर दाँतों में अंगुली दबा गये । वारिषेण के पुण्य ने उसकी रक्षा की । सच है -- अहो पुण्येन तीव्राग्निर्जलत्वं याति भूतले, समुद्रः स्थलतामेति दुर्विषं च सुधायते । शत्रुर्मित्रत्वमाप्नोति विपत्तिः सम्पदायते, तस्मात्सुखेषिणो भव्याः पुण्यं कुर्वन्तु निर्मलम् ॥ --ब्रह्म नेमिदत्त् अर्थात् -- पुण्य के उदय से अग्नि जल बन जाती है, समुद्र स्थल हो जाता है, विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है और विपत्ति सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है । इसलिये जो लोग सुख चाहते हैं, उन्हें पवित्र कार्यों द्वारा सदा पुण्य उत्पन्न करना चाहिये । जिनभगवान् की पूजा करना, दान देना, व्रत उपवास करना, सदा विचार पवित्र और शुद्ध रखना, परोपकार करना, हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कर्मों का न करना, ये पुण्य उत्पन्न करने के कारण हैं । वारिषेण की यह हालत देखकर सब उसकी जय जयकार करने लगे । देवों ने प्रसन्न होकर उस पर सुगन्धित फूलों की वर्षा की । नगरवासियों को इस समाचार से बड़ा आनन्द हुआ । सबने एक स्वर से कहा कि, वारिषेण तुम धन्य हो, तुम वास्तव में साधु पुरुष हो, तुम्हारा चरित्र बहुत निर्मल है, तुम जिनभगवान् के सच्चे सेवक हो, तुम पवित्र पुरुष हो, तुम जैनधर्म के सच्चे पालन करने वाले हो । पुण्य-पुरुष, तुम्हारी जितनी प्रशंसा की जाय उतनी थोड़ी है । सच है, पुण्य से क्या नहीं होता ? श्रेणिक ने जब इस अलौकिक घटना का हाल सुना तो उन्हें भी अपने अविचार पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे दुःखी होकर बोले -- ये कुर्वन्ति जड़ात्मानः कार्यं लोकेअविचार्य च । ते सीदन्ति महन्तोपि मादृशा दुःख सागरे ॥ --ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात् -- जो मूर्ख लोग आवेश मे आकर बिना विचारे किसी काम को कर बैठते हैं, वे फिर बड़े भी क्यों न हों, उन्हें मेरी तरह दुःख ही उठाने पड़ते हैं । इसलिये चाहे कैसा ही काम क्यों न हो, उसे बड़े विचार के साथ करना चाहिए । श्रेणिक बहुत कुछ पश्चात्ताप कर के पुत्र के पास श्मशान में आये । वारिषेण की पुण्य मूर्ति को देखते ही उनका हृदय पुत्र प्रेम से भर आया । उनकी आँखों से आँसू बह निकले । उन्होंने पुत्र को छाती से लगाकर रोते-रोते कहा -- प्यारे पुत्र, मेरी मूर्खता को क्षमा करो ! मैं क्रोध के मारे अन्धा बन गया था, इसलिए आगे पीछे का कुछ सोच विचार न कर मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया । पुत्र, पश्चाताप से मेरा हृदय जल रहा है; उसे अपने क्षमारूप जल से बुझाओ ! दुःख के समुद्र में गोते खा रहा हूँ, मुझे सहारा देकर निकालो ! अपने पूज्य पिता की यह हालत देखकर वारिषेण को बड़ा कष्ट हुआ । वह बोला -- पिताजी, आप यह क्या कहते हैं ? आप अपराधी कैसे ? आपने तो अपने कर्तव्य का पालन किया है और कर्तव्य का पालन करना कोई अपराध नहीं है । मान लीजिये कि यदि आप पुत्र-प्रेम के वश होकर मेरे लिये ऐसे दण्ड की आज्ञा न देते, उस से प्रजा क्या समझती ? चाहे मैं अपराधी नहीं भी था तब भी क्या प्रजा इस बात को देखती ? वह तो यही समझती कि आपने मुझे अपना पुत्र जानकर छोड़ दिया । पिताजी, आपने बहुत ही बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का काम किया है । आपकी नीतिपरायणता देखकर मेरा हृदय आनन्द के समुद्र में लहरें ले रहा है । आपने पवित्र वंश की आज लाज रख ली । यदि आप ऐसे समय में अपने कर्त्तव्य से जरा भी खिसक जाते, तो सदा के लिये अपने कुल में कलंक का टीका लग जाता । इसके लिये तो आपको प्रसन्न होना चाहिये न कि दुःखी । हाँ इतना जरूर हुआ कि मेरे इस समय पाप का उदय था; इसलिये मैं निरपराधी होकर भी अपराधी बना । पर इसका मुझे कुछ खेद नहीं । क्योंकि -- अवश्य ह्यनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाऽशुभम् । --वादीभ सिंह अर्थात् -- जो जैसा कर्म करता है उसका शुभ या अशुभ फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है । फिर मेरे लिए कर्मों का फल भोगना कोई नई बात नहीं है । पुत्र के ऐसे उन्नत और उदार विचार सुनकर श्रेणिक बहुत आनन्दित हुए । वे सब दुःख भूल गये । उन्होंने कहा, पुत्र, सत्पुरुषों ने बहुत ठीक लिखा है -- चंदनं घृष्यमाणं च दह्यमानो यथाऽगुरुः । न याति विक्रियां साधुः पीडितो पि तथाऽपरैः ॥ अर्थात् -- चन्दन को कितना भी घिसिये, अगुरु को खूब जलाइये, उससे उनका कुछ न बिगड़ कर उलटा उन में से अधिक-अधिक सुगन्ध निकलेगी । उसी तरह सत्पुरुषों को दुष्ट लोग कितना ही सतावें, कितना ही कष्ट दें, पर वे उससे कुछ भी विकार को प्राप्त नहीं होते, सदा शांत रहते हैं और अपनी बुराई करने वाले का भी उपकार करते हैं । वारिषेण के पुण्य का प्रभाव देखकर विद्युतचोर को बड़ा भय हुआ । उसने सोचा कि राजा को मेरा हाल मालूम हो जाने से वे मुझे बहुत कड़ी सजा देंगे । इससे अच्छा यही है कि मैं स्वयं ही जाकर उनसे सब सच्चा-सच्चा हाल कह दूँ । ऐसा करने से वे मुझे क्षमा भी कर सकेंगे । यह विचार कर विद्युतचोर महाराज के सामने जा खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर उनसे बोला -- प्रभो, यह सब पाप कर्म मेरा है । पवित्रात्मा वारिषेण सर्वथा निर्दोष है । पापिनी वेश्या के जाल में फँसकर मैंने यह नीच काम किया था; पर आज से मैं कभी ऐसा काम नहीं करूँगा । मुझे दया करके क्षमा कीजिये । विद्युत चोर को अपने कृतकर्म के पश्चात्ताप से दु:खी देख श्रेणिक उसे अभय देकर अपने प्रिय पुत्र वारिषेण से बोले -- पुत्र, अब राजधानी में चलो, तुम्हारी माता तुम्हारे वियोग से बहुत दुखी हो रही होंगी । उत्तर में वारिषेण ने कहा -- पिताजी, मुझे क्षमा कीजिये । मैंने संसार की लीला देख ली । मेरा आत्मा उसमें प्रवेश करने से मुझे रोकता है । इसलिये मैं अब घर पर न जाकर जिनभगवान् के चरणों का आश्रय ग्रहण करूँगा । सुनिये, अब से मेरा कर्त्तव्य होगा कि मैं हाथ ही में भोजन करूँगा, सदा वन में रहूँगा और मुनि मार्ग पर चलकर अपना आत्महित करूँगा । मुझे अब संसार में घूमने की इच्छा नहीं, विषय वासना से प्रेम नहीं । मुझे संसार दुःख मय जान पड़ता है, इसलिये मैं जान-बूझकर अपने को दुःखों में फँसाना नहीं चाहता । क्योंकि -- निजे पाणौ दीपे लसति भुवि कूपे निपततां फलं किं तेन स्यादिति-- जीवंधर चम्पू अर्थात् -- हाथ में प्रदीप लेकर भी यदि कोई कुएँ में गिरना चाहे, तो बतलाइये उस दीपक से क्या लाभ ? जब मुझे दो अक्षरों का ज्ञान है और संसार की लीला से मैं अपरिचित नहीं हूँ; इतना होकर भी फिर मैं यदि उसमें फँसूं, तो मुझसा मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये आप मुझे क्षमा कीजिये कि मैं आपकी पालनीय आज्ञा का भी बाध्य होकर विरोध कर रहा हूँ । यह कहकर वारिषेण फिर एक मिनट के लिए भी न ठहर कर वन की ओर चल दिए और श्री सूरदेव मुनि के पास जाकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली । तपस्वी बनकर वारिषेण मुनि बड़ी दृढ़ता के साथ चारित्र का पालन करने लगे । वे अनेक देशों-विदेशों में घूम-घूम कर धर्मोपदेश करते हुए एक बार पलाशकूट नामक शहर में पहुँचे । वहाँ श्रेणिक का मंत्री अग्निभूति रहता था । उसका एक पुष्पडाल नामक पुत्र था । वह बहुत धर्मात्मा था और दान, व्रत, पूजा आदि सत्कर्मों के करने में सदा तत्पर रहा करता था । वह वारिषेण मुनि को भिक्षार्थ आये हुए देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ उनके सामने गया और भक्ति-पूर्वक उनका आह्वान कर उसने नवधा भक्ति सहित उन्हें प्रासुक आहार दिया । आहार करके जब वारिषेण मुनि वन में जाने लगे तब पुष्पडाल भी कुछ तो भक्ति से, कुछ बालपने की मित्रता के नाते और कुछ राज पुत्र होने के लिहाज से उन्हें थोड़ी दूर पहुँचा आने के लिए अपनी स्त्री से पूछ कर उनके पीछे-पीछे चल दिया । वह दूर तक जाने की इच्छा न रहते हुए भी मुनि के साथ-साथ चलता गया । क्योंकि उसे विश्वास था कि थोड़ी दूर गये बाद ये मुझे लौट जाने के लिये कहेंगे ही । पर मुनि ने उसे कुछ नहीं कहा, तब उसकी चिंता बढ़ गई । उसने मुनि को यह समझाने के लिये, कि मैं शहर से बहुत दूर निकल आया हूँ, मुझे घर पर जल्दी लौट जाना है, कहा -- कुमार, देखते हैं यह वही सरोवर है, जहाँ हम आप खेला करते थे; यह वही छायादार और उन्नत आम का वृक्ष है, जिस के नीचे आप हम बाललीला का सुख लेते थे; और देखो, यह वही विशाल भू भाग है, जहाँ मैंने और आपने बालपन में अनेक खेल खेले थे । इत्यादि अपने पूर्व परिचित चिह्नों को बार-बार दिखलाकर पुष्पडाल ने मुनि का ध्यान अपने दूर निकल आने की ओर आकर्षित करना चाहा, पर मुनि उसके हृदय की बात जानकर भी उसे लौट जाने को न कह सके । कारण वैसा करना उनका मार्ग नहीं था । इसके विपरीत उन्होंने पुष्पडाल के कल्याण की इच्छा से उसे खूब वैराग्य का उपदेश देकर मुनिदीक्षा दे दी । पुष्पडाल मुनि हो गया, संयम का पालन करने लगा और खूब शास्त्रों का अभ्यास करने लगा; पर तब भी उसकी विषय वासना नहीं मिटी, उसे अपनी स्त्री की बार-बार याद आने लगी । आचार्य कहते हैं कि -- धिक्कामं धिङ् महामोहं धिङ्भोगान्येस्तु वंचितः । सन्मार्गेपि स्थितो जंतुर्न जानाति निजं हितम् ॥ --ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात -- उस काम को, उस मोह को, उन भोगों को धिक्कार है, जिनके वश होकर उत्तम मार्ग में चलने वाले भी अपना हित नहीं कर पाते । यही हाल पुष्पडाल का हुआ, जो मुनि होकर भी वह अपनी स्त्री को हृदय से नहीं भुला सका । इसी तरह पुष्पडाल को बारह वर्ष बीत गये । उसकी तपश्चर्या सार्थक होने के लिये गुरु ने उसे तीर्थ यात्रा करने की आज्ञा दी और उसके साथ वे भी चले । यात्रा करते-करते एक दिन वे भगवान् वर्धमान के समवशरण में पहुँच गये । भगवान को उन्होंने भक्ति पूर्वक प्रणाम किया । उस समय वहाँ गन्धर्वदेव भगवान की भक्ति कर रहे थे । उन्होंने काम की निन्दा में एक पद्य पढ़ा । वह पद्य यह था -- मइलकुचेली दुम्मणी णाहे पवसियएण । कह जीवेसइ घणियधर उब्भते विरहेण ॥ --कोई कवि अर्थात् -- स्त्री चाहे मैली हो, कुचैली हो, हृदय की मलिन हो, पर वह भी अपने पति के प्रवासी होने पर, विदेश में रहने पर, पति वियोग से वन-वन, पर्वतों-पर्वतों में मारी-मारी फिरती है । अर्थात् काम के वश होकर नहीं करने के काम भी कर डालती है । उक्त पद्य को सुनते ही पुष्पडाल मुनि भी काम से पीड़ित होकर अपनी स्त्री की प्राप्ति के लिये अधीर हो उठे । वे व्रत से उदासीन होकर अपने शहर की ओर रवाना हुए । उनके हृदय की बात जानकर वारिषेण मुनि भी उन्हें धर्म में दृढ़ करने के लिये उनके साथ-साथ चल दिये । गुरु और शिष्य अपने शहर में पहुँचे । उन्हें देखकर सती चेलना ने सोचा कि -- जान पड़ता है, पुत्र चारित्र से चलायमान हुआ है । नहीं तो ऐसे समय इसके यहाँ आने की क्या आवश्यकता थी ? यह विचार कर उसने उसकी परीक्षा के लिये उसके बैठने को दो आसन दिये । उनमें एक काष्ठ का था और दूसरा रत्नजड़ित । वारिषेण मुनि रत्नजड़ित आसन पर न बैठकर काष्ठ के आसन पर बैठे । सच है -- जो सच्चे मुनि होते हैं, वे कभी ऐसा तप नहीं करते जिससे उनके आचरण पर किसी को सन्देह हो । इसके बाद वारिषेण मुनि ने अपनी माता के सन्देह को दूर करके उससे कहा -- माता, कुछ समय के लिये मेरी सब स्त्रियों को यहाँ बुलवा तो लीजिये । महारानी ने वैसा ही किया । वारिषेण की सब स्त्रियाँ खूब वस्त्राभूषणों से सजकर उनके सामने आ उपस्थित हुईं । वे बड़ी सुन्दरी थीं । देवकन्यायें भी उनके रूप को देखकर लज्जित होतीं थीं । मुनि को नमस्कार कर वे सब उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा के लिये खड़ी रहीं । वारिषेण तब अपने शिष्य पुष्पडाल से कहा -- क्यों देखते हो न ? ये मेरी स्त्रियाँ हैं, यह सम्पत्ति है, यदि तुम्हें ये अच्छी जान पड़ती हैं, तुम्हारा संसार से प्रेम है, तो इन्हें तुम स्वीकार करो । वारिषेण मुनिराज का यह आश्चर्य में डालने वाला कर्त्तव्य देखकर पुष्पडाल बड़ा लज्जित हुआ । उसे अपनी मूर्खता पर बहुत खेद हुआ । वह मुनि के चरणों को नमस्कार कर बोला -- प्रभो, आप धन्य हैं, आपने लोभरूपी पिशाच को नष्ट कर दिया है, आप ही ने जिनधर्म का सच्चा सार समझा है । संसार में वे ही बड़े पुरुष हैं, महात्मा हैं, जो आपके समान संसार की सब सम्पत्ति को लात मार कर वैरागी बनते हैं । उन महात्माओं के लिये फिर कौन वस्तु संसार में दुर्लभ रह जाती है ? दयासागर, मैं तो सचमुच जन्मान्ध हूँ, इसीलिये तो मौलिक तप रत्न को प्राप्त कर भी अपनी स्त्री को चित्त से अलग नहीं कर सका । प्रभो, जहाँ आपने बारह वर्ष पर्यंत खूब तपश्चर्या की वहाँ मुझ पापी ने इतने दिन व्यर्थ गँवा दिये -- सिवा आत्मा को कष्ट पहुँचाने के कुछ नहीं किया । स्वामी, मैं बहुत अपराधी हूँ, इसलिये दया करके मुझे अपने पाप का प्रायश्चित्त देकर पवित्र कीजिये । पुष्पडाल के भावों का परिवर्तन और कृतकर्म के पश्चात्ताप से उनके परिणामों की कोमलता तथा पवित्रता देखकर वारिषेण मुनिराज बोले -- धीर, इतने दुखी न बनिये । पाप कर्म के उदय से कभी-कभी अच्छे-अच्छे विद्वान् भी हतबुद्धि हो जाते हैं । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । यही अच्छा हुआ जो तुम पीछे अपने मार्ग पर आ गये । इसके बाद उन्होंने पुष्पडाल मुनि को उचित प्रायश्चित्त देकर धर्म में स्थिर किया, अज्ञान के कारण सम्यग्दर्शन से विचलित देख कर उन का धर्म में स्थितिकरण किया । पुष्पडाल मुनि गुरु महाराज की कृपा से अपने हृदय को शुद्ध बनाकर बड़े वैराग्य भावों से कठिन-कठिन तपश्चर्या करने लगे, भूख प्यास की परवाह न कर परीषह सहने लगे । इसी प्रकार अज्ञान व मोह से कोई धर्मात्मा पुरुष धर्म रूपी पर्वत से गिरता हो, उसे सहारा देकर न गिरने देना चाहिये । जो धर्मज्ञ पुरुष इस स्थितिकरण अंग का पालन करते हैं, समझो कि वे स्वर्ग और मोक्ष सुख देने वाले धर्म रूपी वृक्ष को सींचते हैं । शरीर, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदि अस्थिर हैं, विनाशीक हैं, इन की रक्षा भी जब कभी-कभी सुख देने वाली हो जाती है तब अनंत सुख देने वाले धर्म की रक्षा का कितना महत्त्व होगा, यह सहज में जाना जा सकता है । इसलिये धर्मात्माओं को उचित है कि वे दुःख देने वाले प्रमाद को छोड़कर संसार-समुद्र से पार करने वाले पवित्र-धर्म का सेवन करें । श्री वारिषेण मुनि, जो कि सदा जिन-भगवान् की भक्ति में लीन रहते हैं, तप पर्वत से गिरते हुए पुष्पडाल मुनि को हाथ का सहारा देकर तपश्चर्या और ध्यानाध्ययन करने के लिये वन में चले गये, वे प्रसिद्ध महात्मा आत्म-सुख प्रदान कर मुझे भी संसार-समुद्र से पार करें । |