कथा :
स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले श्री जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं जिनेन्द्रभक्त की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने कि सम्यग्दर्शन के उपगूहन अंग का पालन किया था । नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र और दयालु पुरुषों से परिपूर्ण सौराष्ट्र देश के अंतर्गत एक पाटलिपुत्र नाम का शहर था । जिस समय की कथा है, उस समय उसके राजा यशोध्वज थे । उनकी रानी का नाम सुसीमा था । वह बड़ी सुन्दर थी । उसका एक पुत्र था । उसका नाम था सुवीर । बेचारी सुसीमा के पाप के उदय से वह महाव्यसनी और चोर हुआ । सच तो यह है कि जिन्हें आगे कुयोनिओं के दुःख भोगने होते हैं, उनका न तो अच्छे कुल में जन्म लेना काम आता है और न ऐसे पुत्रों से बेचारे माता-पिता को कभी सुख होता है । गोड़ देश के अंतर्गत ताम्लिप्ता नाम की नगरी है । उसमें एक सेठ रहते थे । उनका नाम था जिनेन्द्रभक्त । जैसा नाम है वैसे ही वे जिन-भगवान् के भक्त हैं भी । जिनेन्द्रभक्त सच्चे सम्यग्दृष्टि थे और अपने श्रावक धर्म का बराबर सदा पालन भी करते थे । उन्होंने विशाल जिनमन्दिर बनवाए, बहुत से जीर्ण मन्दिरों का उद्धार किया, जिन-प्रतिमायें बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करवाई और चारों संघों को खूब दान दिया, उनका खूब सत्कार किया । सम्यग्दृष्टि शिरोमणि जिनेन्द्रभक्त का महल सात मंजिला था । उसकी अंतिम मंजिल पर एक बहुत ही सुन्दर जिन चैत्यालय था । चैत्यालय में श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की बहुत मनोहर और रत्नमयी प्रतिमा थी । उस पर तीन छत्र जो रत्नों के बने हुए थे, बड़ी शोभा दे रहे थे । उन छत्रों पर एक वैडूर्यमणि नाम का अत्यंत कांतिमान बहुमूल्य रत्न लगा हुआ था । इस रत्न का हाल सुवीर ने सुना । उसने अपने साथियों को बुलाकर कहा- सुनते हो, जिनेन्द्रभक्त सेठ के चैत्यालय में प्रतिमा पर लगे हुए छत्रों में एक रत्न लगा हुआ है, वह अमोल है । क्या तुम लोगों मे से कोई उसे ला सकता है ? सुनकर उनमें से एक सूर्यक नाम का चोर बोला, यह तो एक अत्यंत साधारण बात है । यदि वह रत्न इन्द्र के सिर पर भी होता, मैं उसे क्षणभर में ला सकता था । यह सच भी है कि जो जितने ही दुराचारी होते हैं वे उतना ही पाप कर्म भी कर सकते हैं । सूर्यक के लिए रत्न लाने की आज्ञा हुई । वहाँ से आकर उसने मायावी क्षुल्लक का वेष धारण किया । क्षुल्लक बनकर वह व्रत उपवासादि करने लगा । उससे उसका शरीर बहुत दुबला-पतला हो गया । इसके बाद वह अनेक शहरों और ग्रामों में घूमता हुआ और लोगों को अपने कपटी वेश से ठगता हुआ कुछ दिनों में तामलिप्तापुरी में आ पहुँचा । जिनेन्द्रभक्त सच्चे धर्मात्मा थे, इसलिए उन्हें धर्मात्माओं को देखकर बड़ा प्रेम होता था । उन्होंने जब इस धूर्त क्षुल्लक का आगमन सुना तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । वे उसी समय घर का सब कामकाज छोड़कर क्षुल्लक महाराज की वन्दना करने के लिए गए । उसका तपश्चर्या से क्षीण शरीर देखकर उनकी उस पर और अधिक श्रद्धा हुई । उन्होंने भक्ति के साथ क्षुल्लक को प्रणाम किया और बाद वे उसे अपने महल लिवा लाये । सच बात यह है कि- अहो धूर्त्तस्य धूर्त्तत्वं लक्ष्यते केन भूतले । यस्य प्रपंचतो गाढं विद्वांसश्चापि वंचिता । ।--ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-- जिनकी धूर्तता से अच्छे-अच्छे विद्वान भी जब ठगा जाते हैं, तब बेचारे साधारण पुरुषों की क्या मजाल जो वे उनकी धूर्त्तता का पता पा सकें । क्षुल्लकजी ने चैत्यालय में पहुँचकर जब उस मणि को देखा तो उनका हृदय आनन्द के मारे बाँसों उछलने लगा । वे बहुत संतुष्ट हुए । जैसे सुनार अपने पास कोई रकम बनवाने के लिये लाये हुए पुरुष के पास का सोना देखकर प्रसन्न होता है । क्योंकि उसकी नीयत सदा चोरी की ओर ही लगी रहती है । जिनेन्द्रभक्त को उसके मायाचार का कुछ पता नहीं लगा । इसलिये उन्होंने उसे बड़ा धर्मात्मा समझकर और मायाचारी से क्षुल्लक के मना करने पर भी जबरन अपने जिनालय की रक्षा के लिये उसे नियुक्त कर दिया और आप उससे पूछकर समुद्र यात्रा करने के लिये चल पड़े । जिनेन्द्रभक्त के घर के बाहर होते ही क्षुल्लकजी की बन पड़ी । आधी रात के समय आप उस तेजस्वी रत्न को कपड़ों में छिपाकर घर के बाहर हो गये । पर पापियों का पाप कभी नहीं छुपता । यही कारण था कि रत्न लेकर भागते हुए उसे सिपाहियों ने देख लिया । वे उसे पकड़ने को दौड़े । क्षुल्लकजी दुबले-पतले तो पहले ही से हो रहे थे, इसलिये वे अपने को भागने में असक्त समझ लाचार होकर जिनेन्द्रभक्त की ही शरण में गये और प्रभो, बचाइये ! बचाइये !! यह कहते हुए उन के पाँवों में गिर पड़े । जिनेन्द्रभक्त ने, ‘चोर भागा जाता है ! इसे पकड़ना’ ऐसा हल्ला सुनकर जान लिया कि यह चोर है और क्षुल्लक वेष में लोगों को ठगता फिरता है । यह जानकर भी सम्यग्दर्शन की निन्दा के भय से जिनेन्द्रभक्त ने क्षुल्लक को पकड़ने को आये हुए सिपाहियों से कहा -- आप लोग बड़े कम समझ हैं ! आपने बहुत बुरा किया जो एक तपस्वी को चोर बतला दिया । रत्न तो ये मेरे कहने से लाये हैं । आप नहीं जानते कि ये बड़े सच्चरित्र साधु हैं ? अस्तु । आगे से ध्यान रखिये । जिनेन्द्रभक्त के वचनों को सुनते ही सब सिपाही लोग ठण्डे पड़ गये और उन्हें नमस्कार कर चलते बने । जब सब सिपाही चले गये तब जिनेन्द्रभक्त ने क्षुल्लकजी से रत्न लेकर एकांत में उनसे कहा -- बड़े दुःख की बात है कि तुम ऐसे पवित्र वेष को धारण कर उसे ऐसे नीच कर्मों से लजा रहे हो ? तुम्हें यही उचित है क्या ? याद रक्खो, ऐसे अनर्थों से तुम्हें कुगतियों में अनंत काल दुःख भोगना पड़ेंगे । शास्त्रकारों ने पापी पुरुषों के लिये लिखा है कि— ये कृत्वा पातकं पापाः पोषयंति स्वकं भुवि । त्यक्वा न्यायक्रमं तेषां महादुःखं भवार्णवे । ।--ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात् - जो पापी लोग न्यायमार्ग को छोड़कर और पाप के द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार समुद्र में अनंत काल दुःख भोगते हैं । ध्यान रक्खो कि अनीति से चलने वाले और अत्यंत तृष्णावान तुम सरीखे पापी लोग बहुत ही जल्दी नाश को प्राप्त होते हैं । तुम्हें उचित है तुम बड़ी कठिनता से प्राप्त हुए इस मनुष्य जन्म को इस तरह बर्बाद न कर कुछ आत्महित करो । इस प्रकार शिक्षा देकर जिनेन्द्रभक्त ने अपने स्थान से उसे अलग कर दिया । इसी प्रकार और भी भव्य पुरुषों को, दुर्जनों के मलिन कर्मों से निन्दा को प्राप्त होने वाले सम्यगदर्शन की रक्षा करना उचित है । जिनभगवान का शासन पवित्र है, निर्दोष है, उसे जो सदोष बनाने की कोशिश करते हैं, वे मूर्ख हैं, उन्मत्त हैं । ठीक भी है उन्हें वह निर्दोष धर्म अच्छा भी जान नहीं पड़ता । जैसे पित्तज्वर वाले को अमृत के समान मीठा दूध भी कड़वा ही लगता है । |