
कथा :
मोक्ष राज्य के अधीश्वर श्रीपंचपरम गुरु को नमस्कार कर श्रीनागदत्त मुनि का चरित मैं लिखता हूँ । मगध देश की प्रसिद्ध राजधानी राजगृह में प्रजापाल नाम के राजा हैं । वे विद्वान हैं, उदार हैं, धर्मात्मा हैं, जिनभगवान के भक्त हैं और नीति पूर्वक प्रजा का पालन करते हैं उनकी रानी का नाम है प्रियधर्मा । वह भी बड़ी सरल स्वभाव की और सुशीला है । उसके दो पुत्र हुए । उन के नाम थे प्रियधर्म और प्रियमित्र । दोनों भाई बड़े बुद्धिमान और सुचरित थे । किसी कारण से दोनों भाई संसार से विरक्त होकर साधु बन गये । और अंतसमय समाधि मरण कर अच्युत स्वर्ग में जाकर देव हुए । उन्होंने वहाँ परस्पर में प्रतिज्ञा की कि, ‘जो दोनों में से पहले मनुष्य पर्याय प्राप्त करे उसके लिये स्वर्गस्थ देव का कर्त्तव्य होगा कि वह उसे जाकर सम्बोधे और संसार से विरक्त कर मोक्ष सुख की देने वाली जिन दीक्षा ग्रहण करने के लिये उसे उत्साहित करे ।‘ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे वहाँ सुख से रहने लगे । उन दोनों में से प्रियदत्त की आयु पहले पूर्ण हो गयी । वह वहाँ से उज्जयिनी के राजा नागधर्म की प्रिया नागदत्ता के, जो बहुत ही सुन्दरी थी, नागदत्त नामक पुत्र हुआ । नागदत्त सर्पों के साथ क्रीड़ा करने में बहुत चतुर था, सर्प के साथ उसे विनोद करते देखकर सब लोग बड़ा आश्चर्य प्रगट करते थे । एक दिन प्रियधर्म, जो कि स्वर्ग में नागदत्त का मित्र था, गारुड़ि का वेष लेकर नागदत्त को सम्बोधने को उज्जयिनी में आया । उसके पास दो भयंकर सर्प थे । वह शहर में घूम-घूमकर लोगों को तमाशा बताता और सर्व साधारण में यह प्रगट करता कि मैं सर्प-क्रीड़ा का अच्छा जानकार हूँ । कोई और भी इस शहर में सर्प क्रीड़ा का अच्छा जानकार हो, तो फिर उसे मैं अपना खेल दिखलाऊँ । यह हाल धीरे-धीरे नागदत्त के पास पहुँचा । वह तो सर्प क्रीड़ा का पहले ही से बहुत शौकीन था,फिर अब तो एक और उसका साथी मिल गया । उसने उसी समय नौकरों को भेजकर उसे अपने पास बुला मँगाया । गारुड़ि तो इस कोशिश में था ही कि नागदत्त को किसी तरह मेरी खबर लग जाय और वह मुझे बुलावे । प्रियधर्म उसके पास गया । उसे पहुँचते ही नागदत्त ने अभिमान में आकर कहा - मंत्रवित्त तुम अपने सर्पों को बाहर निकालो न ? मैं उनके साथ कुछ खेल तो देखूँ कि वे कैसे जहरीले हैं । प्रियधर्म बोला - मैं राजपुत्रों के साथ ऐसी हँसी, दिल्लगी या खेल करना नहीं चाहता कि जिसमें जान की जोखिम तक हो । बतलाओ मैं तुम्हारे सामने सर्प निकाल कर रख दूँ और तुम उनके साथ खेलो, इस बीच में कुछ तुम्हें जोखम पहुँच जाय तब राजा मेरी क्या बुरी दशा करेंगे ? क्या उस समय वे मुझे छोड़ देंगे ? कभी नहीं । इसलिये न तो मैं ही ऐसा कर सकता हूँ और न तुम्हें ही इस विषय में कुछ आग्रह करना उचित है । हाँ तुम कहो तो मैं कुछ खेल दिखा सकता हूँ । नागदत्त बोला - तुम्हें पिताजी की ओर से कुछ भय नहीं करना चाहिये । वे स्वयं अच्छी तरह जानते हैं कि मैं इस विषय में कितना विज्ञ हूँ और इस पर भी संतोष न हो तो आओ मैं पिताजी से तुम्हें क्षमा करवाये देता हूँ । यह कहकर नागदत्त प्रियदत्त को पिता के पास ले गया और मारे अभिमान में आकर बड़े आग्रह के साथ महाराज से उसे अभय दिलवा दिया । नागधर्म कुछ तो नागदत्त का सर्पों के साथ खेलना देख चुके थे और इस समय पुत्र का बहुत आग्रह था, इसलिये उन्होंने विशेष विचार न कर प्रियदत्त को अभय प्रदान कर दिया । नागदत्त बहुत प्रसन्न हुआ । उसने प्रियदत्त से सर्पों को बाहर निकालने के लिये कहा । प्रियदत्त ने पहले एक साधारण सर्प निकाला । नागदत्त उसके साथ क्रीड़ा करने लगा और थोड़ी देर में उसे उसने पराजित कर दिया; निर्विष कर दिया । अब तो नागदत्त का साहस खूब बढ़ गया । उसने दूने अभिमान के साथ कहा कि तुम क्या ऐसे मुर्दे सर्प को निकालकर और मुझे शर्मिन्दा करते हो ? कोई अच्छा विषधर सर्प निकालो न ? जिससे मेरी शक्ति का तुम भी परिचय पा सको । प्रियधर्म बोला - आपका कहा पूरा हुआ । आपने एक सर्प को हरा भी दिया है । अब आप अधिक आग्रह न करें तो अच्छा है । मेरे पास एक सर्प और है, पर वह बहुत जहरीला है; दैवयोग से उसने काट खाया तो समझिये फिर उसका कुछ उपाय ही नहीं है । उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है । इसलिये उसके लिये मुझे क्षमा कीजिये । उसने नागदत्त से बहुत-बहुत प्रार्थना की पर नागदत्त ने उसकी एक नहीं मानी । उलटा उस पर क्रोधित होकर बोला - तुम अभी नहीं जानते कि इस विषय में मेरा कितना प्रवेश है ? इसीलिये ऐसी डरपोकपने की बातें करते हो । पर मैनें ऐसे-ऐसे हजारों सर्पों को जीतकर पराजित किया है । मेरे सामने यह बेचारा तुच्छ जीव कर ही क्या सकता है ? और फिर इसका डर तुम्हें हो या मुझे ? वह काटेगा तो मुझे ही न ? तुम मत घबराओ, उसके लिये मेरे पास बहुत से ऐसे साधन हैं, जिससे भयंकर सर्प का जहर भी क्षण-मात्र में उतर सकता है । प्रियधर्म ने कहा - अच्छा यदि तुम्हारा अत्यंत ही आग्रह है तो उससे मुझे कुछ हानि नहीं । इसके बाद उसने राजा आदि की साक्षी से अपने दूसरे सर्प को पिटारे में से निकाल बाहर कर दिया । सर्प निकलते ही फुंकार मारना शुरु किया । वह इतना जहरीला था कि उसके साँस की हवा ही से लोगों के सिर घूमने लगते थे । जैसे ही नागदत्त उसे हाथ में पकड़ने को उसकी ओर बढ़ा कि सर्प ने उसे बड़े जोर से काट खाया । सर्प का काटना था कि नागदत्त उसी समय चक्कर खाकर धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा और अचेत हो गया । उसकी यह दशा देखकर हाहाकार मच गया । सबकी आँखों से आँसू की धारा बह चली । राजा ने उसी समय नौकरों को दौड़ाकर सर्प का विष उतारने वालों को बुलवाया । बहुत से तांत्रिक-मांत्रिक इकट्ठे हुए । सबने अपनी-अपनी करनी में कोई बात उठा नहीं रक्खी । पर किसी का किया कुछ नहीं हुआ । सबने राजा को यही कहा कि महाराज, युवराज को तो काल-सर्प काटा है, अब ये नहीं जी सकेंगे । राजा बड़े निराश हुए । उन्होंने सर्पवाले से यह कहकर, कि यदि तू इसे जिला देगा तो मैं तुझे अपना आधा राज्य दे दूँगा, नागदत्त को उसी के सुपुर्द कर दिया । प्रियधर्म तब बोला - महाराज, इसे काटा तो है काल-सर्प ने, और इसका जी जाना भी असंभव है, पर मेरा कहा मानकर यदि यह जी जाय तो आप इसे मुनि हो जाने की आज्ञा दें तो, मैं भी एक बार इसके जिलाने का प्रयत्न कर देखूँ । राजा ने कहा - मैं इसे भी स्वीकार करता हूँ । तुम इसे किसी तरह जिला दो, यही मुझे इष्ट है । इसके बाद प्रियधर्म ने कुछ मंत्र पढ़-पढ़ाकर उसे जिन्दा कर दिया । जैसे मिथ्यात्वरूपी विष से अचेत हुए मनुष्यों को परोपकारी मुनिराज अपना स्वरूप प्राप्त करा देते हैं । जैसे ही नागदत्त सचेत होकर उठा और उसे राजा ने अपनी प्रतिज्ञा कह सुनाई । वह उससे बहुत प्रसन्न हुआ । पश्चात एक क्षण भी वह वहाँ न ठहर कर वन की ओर रवाना हो गया और यमधर मुनिराज के पास पहुँचकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । उसे दीक्षित हो जाने पर प्रियधर्म, जो गारुड़ि का वेष लेकर स्वर्ग से नागदत्त के सम्बोधने को आया था, उसे सब हाल कहकर और अंत में नमस्कार कर स्वर्ग चला गया । मुनि बनकर नागदत्त खूब तपश्चर्या करने लगे और अपने चारित्र को दिन पर दिन निर्मल करके अंत में जिनकल्पी मुनि हो गये । अर्थात् जिन-भगवान् की तरह अब वे अकेले ही विहार करने लगे । एक दिन वे तीर्थयात्रा करते हुए एक भयानक वन में निकल आये । वहाँ चोरों का अड्डा था, सो चोरों ने मुनिराज को देख लिया । उन्होंने यह समझकर कि ये हमारा पता लोगों को बता देंगे और फिर हम पकड़ लिए जायेंगे, उन्हें पकड़ लिया और अपने मुखिया के पास लिवा ले गये । मुखिया का नाम था सूरदत्त । वह मुनि को देखकर बोला - तुमने इन्हें क्यों पकड़ा ? ये तो बड़े सीधे और सरल स्वभावी हैं । इन्हें किसी से कुछ लेना देना नहीं, किसी पर इनका राग-द्वेष नहीं । ऐसे साधु को तुमने कष्ट देकर अच्छा नहीं किया । इन्हें जल्दी छोड़ दो । जिस भय की तुम इनके द्वारा आशंका करते हो, वह तुम्हारी भूल है । ये कोई बात ऐसी नहीं करते जिससे दूसरों को कष्ट पहुँचे । अपने मुखिया की आज्ञा के अनुसार चोरों ने उसी समय मुनिराज को छोड़ दिया । इसी समय नागदत्त की माता अपनी पुत्री को साथ लिये हुए वत्स देश की ओर जा रही थी । उसे उसका ब्याह कौशाम्बी के रहने वाले जिनदत्त सेठ के पुत्र धनपाल से करना था । अपने जमाई को दहेज देने के लिये उसने अपने पास उपयुक्त धन-सम्पत्ति भी रख ली थी । उसके साथ और भी पुरजन परिवार के लोग थे । सो उसे रास्ते में अपने पुत्र नागदत्त मुनि के दर्शन हो गये । उसने उन्हें प्रणाम कर पूछा - प्रभो, आगे रास्ता तो अच्छा है न ? मुनिराज इसका कुछ उत्तर न देकर मौन सहित चले गये । क्योंकि उनके लिये तो शत्रु और मित्र दोनों ही समान हैं । आगे चलकर नागदत्ता को चोरों ने पकड़कर उसका सब माल असबाब छीन लिया और उसकी कन्या भी पापियों ने छुड़ा ली । तब सूरदत्त उनका मुखिया उनसे बोला - क्यों आपने देखी न उन मुनि की उदासीनता और निस्पृहता ? जो इस स्त्री ने मुनि को प्रणाम किया और उनकी भक्ति भी की, तब भी उन्होंने इससे कुछ नहीं कहा और हम लोगों ने उन्हें बाँधकर कष्ट पहुँचाया तब उन्होंने हमसे कुछ द्वेष नहीं किया । सच बात तो यह है कि उनकी वह प्रवृत्ति ही इतने ऊँचे दरजे की है, जो उसमें भक्ति करने वाले पर तो प्रेम नहीं और शत्रुता करने वाले से द्वेष नहीं । दिगम्बर मुनि बड़े ही शान्त, धीर, गम्भीर और तत्त्व-दर्शी हुआ करते हैं । नागदत्ता यह सुनकर, कि यह सब कारस्तानी मेरे ही पुत्र की है, यदि वह मुझे इस रास्ते का सब हाल कह देता, तो क्यों आज मेरी यह दुर्दशा होती ? क्रोध के तीव्र आवेग से थरथर काँपने लगी । उसने अपने पुत्र की निर्दयता से दुःखी होकर चोरों के मुखिया सूरदत्त से कहा - भाई, जरा अपनी छुरी तो मुझे दे, जिससे मैं अपनी कूँख को चीरकर शान्ति लाभ करूँ । जिस पापी का जिकर तुम कर रहे हो, वह मेरा ही पुत्र है । जिसे मैंने नौ महीने कूँख में रक्खा और बड़े-बड़े कष्ट सहे उसी ने मेरे साथ इतनी निर्दयता की कि मेरे पूछने पर भी उसने मुझे रास्ते का हाल नहीं बतलाया । तब ऐसे कुपुत्र को पैदाकर मुझे जीते रहने से ही क्या लाभ ? नागदत्ता का हाल जानकर सूरदत्त को बड़ा वैराग्य हुआ । वह उससे बोला - जो उस मुनि की माता है, वह मेरी भी माता है । माता क्षमा करो ! यह कहकर उसने उसका सब धन असबाब उसी समय लौटा दिया और आप मुनि के पास पहुँचा । उसने बड़ी भक्ति के साथ परम गुणवान नागदत्त मुनि की स्तुति की और पश्चात् उन्हीं के द्वारा दीक्षा लेकर वह तपस्वी बन गया । साधु बनकर सूरदत्त ने तपश्चर्या और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अनेक भव्य जीवों को कल्याण का रास्ता बतलाया और अंत में अघातिया कर्मों का भी नाश कर अविनाशी, अनंत, मोक्ष पद प्राप्त किया । श्री नागदत्त और सूरदत्त मुनि संसार के दुःखों को नष्ट कर मेरे लिये शांति प्रदान करें, जो कि गुणों के समुद्र हैं, जो देवों द्वारा सदा नमस्कार किये जाते हैं और जो संसारी जीवों के नेत्ररूपी कुमुद पुष्पों को प्रफुल्लित करने के लिये चन्द्रमा के समान हैं जिन्हें देखकर नेत्रों को बड़ा आनन्द मिलता है, शांति मिलती है । आत्मतत्त्व का श्रद्धान करना यही शुद्ध सम्यक्त्व है उसे जानना वही सम्यक्ज्ञान है और उसी में अपने मन को निश्चल कर ठहराना वही सम्यक्चारित्र है | यही रत्नत्रय है जो कि मोक्ष का मार्ग है अर्थात तत्त्व को देखना, जानना व उसी में लीन होना यही मोक्ष का निश्चल मार्ग है | |