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शिवभूति पुरोहित की कथा

  कथा 

कथा :

मैं संसार के हित करने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर दुर्जनों की संगति से जो दोष उत्पन्न होते हैं, उससे सम्बन्ध रखने वाली एक कथा लिखता हूँ, जिससे कि लोग दुर्जनों की संगति छोड़ने का प्रयत्न करें ।

यह कथा उस समय की है, जब कि कौशाम्बी का राजा धनपाल था । धनपाल अच्छा बुद्धिमान और प्रजाहितैषी था । शत्रु तो उसका नाम सुनकर काँपते थे । राजा के यहाँ एक पुरोहित था । उसका नाम था शिवभूति । वह पौराणिक अच्छा था |

वहीं दो शूद्र रहते थे । उनके नाम कल्पपाल और पूर्णचन्द्र थे । उनके पास कुछ धन भी था । उनमें पूर्णचन्द्र की स्त्री का नाम था मणिप्रभा । उसके एक सुमित्रा नाम की लड़की थी । पूर्णचन्द्र ने उसके विवाह में उसके जातीय भाइयों को जिमाया और उसका राजपुरोहित से कुछ परिचय होने से उसने उसे भी निमंत्रित किया । पर पुरोहित महाराज ने उसमें यह बाधा दी कि भाई, तुम्हारा भोजन तो मैं नहीं कर सकता । तब कल्पपाल ने बीच में ही कहा- अस्तु ! आप हमारे यहाँ भोजन न करें । हम ब्राह्मणों के द्वारा आपके लिये भोजन तैयार करवा देंगे तब तो आपको कुछ उजर न होगा । पुरोहित जी आखिर थे तो ब्राह्मण ही न ? जिनके विषय में यह नीति प्रसिद्ध है कि “असंतुष्टा द्विजा नष्टाः” अर्थात् लोभ में फँसकर ब्राह्मण नष्ट हुए । सो वे अपने एक बार के भोजन का लोभ नहीं रोक सके । उन्होंने यह विचार कर, कि जब ब्राह्मण भोजन बनाने वाले हैं, तब तो कुछ नुकसान नहीं, उसका भोजन करना स्वीकार कर लिया । पर इस बात पर उन्होंने तनिक भी विचार नहीं किया कि ब्राह्मणों ने ही भोजन बना दिया तो हुआ क्या ? आखिर पैसा तो उसका है और न जाने उसने कैसे-कैसे पापों द्वारा उसे कमाया है ।

जो हो, नियमित समय पर भोजन तैयार हुआ । एक ओर पुरोहित देवता भोजन के लिये बैठे और दूसरी ओर पूर्णचन्द्र का परिवार वर्ग । इस जगह इतना और ध्यान में रखना चाहिये कि दोनों का चौका अलग-अलग था । भोजन होने लगा । पुरोहित जी ने मनभर माल उड़ाया । मानो उन्हें कभी ऐसे भोजन का मौका ही नसीब नहीं हुआ था । पुरोहित जी को वहाँ भोजन करते हुए कुछ लोगों ने देख लिया । उन्होंने पुरोहित जी की शिकायत महाराज से कर दी । महाराज ने एक शूद्र के साथ भोजन करने वाले, वर्ण व्यवस्था को धूल में मिलाने वाले ब्राह्मण को अपने राज्य में रखना उचित न समझ देश से निकलवा दिया । सच है—“कुसंगो कष्टदो ध्रुवम्” अर्थात् बुरी संगति दुःख देने वाली ही होती है । इसलिये अच्छे पुरुषों को उचित है कि वे बुरों की संगति न कर सज्जनों की संगति करें, जिससे वे अपने धर्म, कुल, मान, मर्यादा की रक्षा कर सकें |