
कथा :
परम भक्ति से संसार पूज्य जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं ब्रह्मदत्त की कथा लिखता हूँ । वह इसलिये कि सत्पुरुषों को इसके द्वारा कुछ शिक्षा मिले । कापिल्य नामक नगर में एक ब्रह्मरथ नाम का राजा रहता था । उसकी रानी का नाम था रामिली । वह सुन्दरी थी, विदुषी थी और राजा को प्राणों से भी प्यारी थी, बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त इसी के पुत्र थे । वे छह खण्ड पृथ्वी को अपने वश में करके सुख पूर्वक अपना राज्य शासन का काम परम भक्ति से संसार पूज्य जिनभगवान् को नमस्कार कर मैं ब्रह्मदत्त की कथा लिखता हूँ । वह इसलिये कि सत्पुरुषों को इसके द्वारा कुछ शिक्षा मिले । कापिल्य नामक नगर में एक ब्रह्मरथ नाम का राजा रहता था । उसकी रानी का नाम था रामिली । वह सुन्दरी थी, विदुषी थी और राजा को प्राणों से भी प्यारी थी, बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त इसी के पुत्र थे । वे छह खण्ड पृथ्वी को अपने वश में करके सुख पूर्वक अपना राज्य शासन का काम करते थे । एक दिन राजा भोजन करने को बैठे उस समय उनके विजयसेन नाम के रसोइये ने उन्हें खीर परोसी । पर वह बहुत गरम थी, इसलिये राजा खा न सके । उसे इतनी गरम देखकर राजा रसोइये पर बहुत गुस्सा हुए । गुस्से में आकर उन्होंने खीर के उसी बर्तन को रसोइये के सिर पर दे मारा । उसका सिर सब जल गया । साथ ही वह मर गया । हाय ! ऐसे क्रोध को धिक्कार है, जिससे मनुष्य अपना हिताहित न देखकर बड़े-बड़े अनर्थ कर बैठता है और फिर अनंत काल तक कुगतियों में भोगता रहता है । रसोइया बड़े दुःख से मरा सही, पर उसके परिणाम उस समय भी शांत रहे । वह मर कर लवण समुद्रान्तर्गत विशालरत्न नामक द्वीप में व्यन्तर देव हुआ । विभंगावधिज्ञान से वह अपने पूर्वभव की कष्ट कथाजानकर क्रोध के मारे काँपने लगा । वह एक संन्यासी के वेष में राजा के पास आया और राजा को उसने केला, आम, सेब, संतरा आदि बहुत से फल भेंट किये । राजा जीभ की लोलुपता से उन्हें खाकर संन्यासी से बोला—साधुजी, कहिये आप ये फल कहाँ से लाये ? और कहाँ मिलेंगे ? ये तो बड़े ही मीठे हैं । मैंने तो आज तक ऐसे फल कभी नहीं खाये । मैं आपकी इस भेंट से बहुत खुश हुआ । संन्यासी ने कहा, महाराज, मेरा घर एक टापू में है । वहीं एक बहुत सुन्दर बगीचा है । उसी के ये फल हैं । और अनंत फल उसमें लगे हुए हैं । संन्यासी की रसभरी बात सुनकर राजा के मुँह में पानी भर आया । उसने संन्यासी के साथ जाने की तैयारी की । सच है — शुभाअशुभं न जानाति हा कष्टं लंपटः पुमान । --ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्— जिह्वालोलुपी पुरुष भला बुरा नहीं जान पाते, यह बड़े दुःख की बात है । यही हाल राजा का हुआ । जब वह लोलुपता के वश हो उस संन्यासी के साथ समुद्र के बीच में पहुँचा, तब उसने राजा को मारने के लिये बड़ा कष्ट देना शुरु किया । चक्रवर्ती अपने को कष्ट में घिरा देखकर पंच नमस्कार मंत्र की आराधना करने लगा । उसके प्रभाव से कपटी संन्यासी की सब शक्ति रुद्ध हो गयी । वह राजा को कुछ कष्ट न दे सका । आखिर प्रगट होकर उसने राजा से कहा— दुष्ट, याद है ? मैं जब तेरा रसोइया था, तब तूने मुझे जान से मार डाला था ? वही आग आज मेरे हृदय को जला रही है, और उसी को बुझाने के लिये, अपने पूर्व भव का वैर निकालने के लिये मैं तुझे यहाँ छलकर लाया हूँ और बहुत कष्ट के साथ तुझे जान से मारूँगा, जिससे फिर कभी तू ऐसा अनर्थ न करे । पर यदि तू एक काम करे तो बच सकता है । वह यह कि तू अपने मुँह से पहले तो यह कह दे कि संसार में जिनधर्म ही नहीं है और जो कुछ है वह अन्य धर्म है । इसके सिवा पंच नमस्कार मंत्र को जल में लिखकर उसे अपने पाँव से मिटा दे, तब मैं तुझे छोड़ सकता हूँ । मिथ्यादृष्टि ब्रह्मदत्त ने उसके बहकाने में आकर वही किया जैसा उसे देव ने कहा था । उसका व्यंतर के कहे अनुसार करना था कि उसने चक्रवर्ती को उसी समय मार कर समुद्र में फेंक दिया । अपना वैर उससे निकाल लिया । चक्रवर्ती मरकर मिथ्यात्व के उदय से सातवें नरक गया । सच है मिथ्यात्व अनंत दुःखों का देने वाला है । जिसका जिनधर्म पर विश्वास नहीं, क्या उसे इस अनंत दुःखमय संसार में कभी सुख हुआ है ? नहीं । मिथ्यात्व के समान संसार में और कोई इतना निन्द्य नहीं है । उसी से तो चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त सातवें नरक गया । इसलिये आत्महित के चाहने वाले पुरुषों को दूर से ही मिथ्यात्व छोड़कर स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति का कारण सम्यक्त्व ग्रहण करना उचित है । संसार में सच्चे देव अरहंत भगवान् हैं, जो क्षुधा, तृषा, जन्म, मरण, रोग, शोक, चिंता, भय, आदि दोषों से और धन-धान्य, दासी-दास, सोना-चाँदी आदि दस प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, जो इन्द्र, चक्रवर्ती, देव, विद्याधरों द्वारा वन्द्य हैं, जिनके वचन जीव मात्र को सुख देने वाले और भव समुद्र से तिरने के लिये जहाज समान हैं, उन अरहंत भगवान् का आप पवित्र भावों से सदा ध्यान किया कीजिये कि जिससे वे आपके लिये कल्याण पथ के प्रदर्शक हों । |