
कथा :
केवलज्ञान रूपी नेत्रों के द्वारा समस्त संसार के पदार्थों के देखने जानने वाले और जगत् पूज्य जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर मैं राजा श्रेणिक की कथा लिखता हूँ, जिसके पढ़ने से सर्वसाधारण का हित हो । श्रेणिक मगध देश के अधीश्वर थे । मगध की प्रधान राजधानी राजगृह थी । श्रेणिक कई विषयों के सिवा राजनीति के बहुत अच्छे विद्वान् थे । उनकी महारानी चेलना बड़ी धर्मात्मा, जिनभगवान् की भक्त और सम्यग्दर्शन से विभूषित थी । एक दिन श्रेणिक ने उनसे कहा— देखो, संसार में वैष्णव धर्म की बहुत प्रतिष्ठा है और वह जैसा सुख देने वाला है, वैसा और धर्म नहीं । इसलिये तुम्हें भी उसी धर्म का आश्रय स्वीकार करना उचित है । सुनकर चेलना देवी, जिसे कि जिनधर्म पर अगाध विश्वास था, बड़े विनय से बोली— नाथ, अच्छी बात है, समय पाकर मैं इस विषय की परीक्षा करूँगी । इस के कुछ दिनों बाद चेलना ने कुछ भागवत साधुओं का अपने यहाँ निमंत्रण किया और बड़े गौरव के साथ उन्हें अपने यहाँ बुलाया । वहाँ आकर अपना ढोंग दिखलाने के लिये वे कपट मायाचार से ईश्वराराधन करने को बैठे । उस समय चेलना ने उनसे पूछा, आप लोग क्या करते हैं ? उत्तर में उन्होंने कहा— देवी, हम लोग मलमूत्रादि अपवित्र वस्तुओं से भरे हुए शरीर को छोड़कर अपने आत्मा को विष्णु अवस्था में प्राप्त कर स्वानुभवजन्य सुख भोगते हैं । सुन कर देवी चेलना ने उस मण्डप में, जिसमें सब साधु ध्यान करने को बैठे थे, आग लगवा दी । आग लगते ही वे सब कौए की तरह भाग खड़े हुए । यह देखकर श्रेणिक ने बड़े क्रोध के साथ चेलना से कहा— आज तुमने साधुओं के साथ बड़ा अनर्थ किया । यदि तुम्हारी उन पर भक्ति नहीं थी, तो क्या उसका यह अर्थ है कि उन्हें जान से ही मार डालना ? बतलाओ तो उन्होंने तुम्हारा क्या अपराध किया जिससे कि तुम उनके जीवन की ही प्यासी हो उठी ? रानी बोली— नाथ, मैंने तो कोई बुरा काम नहीं किया और जो किया वह उन्हीं के कहे अनुसार उनके सुख का कारण था । मैंने तो केवल परोपकार बुद्धि से ऐसा किया था । जब वे लोग ध्यान करने को बैठे तब मैंने उन लोगों से पूछा कि आप लोग क्या करते हैं ? तब उन्होंने मुझे कहा था कि हम अपवित्र शरीर छोड़कर उत्तम सुखमय विष्णुपद प्राप्त करते हैं । तब मैंने सोचा कि ओहो, ये जब शरीर छोड़कर विष्णुपद प्राप्त करते हैं तब तो बहुत ही अच्छा है और इससे उत्तम यह होगा कि यदि ये निरंतर विष्णु बने रहें । संसार में बार-बार आना और जाना यह इनके पीछे पचड़ा क्यों ? यह विचारकर वे निरंतर विष्णुपद में रहकर सुखभोग करें, इस परोपकार बुद्धि से मैंने मंडप में आग लगवा दी थी । आप ही अब विचार कर बतलाइये कि इसमें मैंने सिवा परोपकार के कौन बुरा काम किया ? और सुनिये मेरे वचनों पर आपको विश्वास हो, इसलिये एक कथा भी आपको सुना देती हूँ । “जिस समय की यह कथा है, उस समय वत्सदेश की राजधानी कौशाम्बी के राजा प्रजापाल थे । वे अपना राज्य शासन नीति के साथ करते हुए सुख से समय बिताते थे । कौशाम्बी में दो सेठ रहते थे । उनके नाम थे समुद्रदत्त और सागरदत्त । दोनों सेठों में परस्पर बहुत प्रेम था । उनका प्रेम उन्होंने सदा दृढ़ बना रहे, इसलिये परस्पर में एक शर्त की । वह यह कि, “मेरे यदि पुत्री हुई तो मैं उसका ब्याह तुम्हारे लड़के के साथ कर दूँगा और इसी तरह मेरे पुत्र हुआ तो तुम्हें अपनी लड़की का ब्याह उसके साथ कर देना पड़ेगा ।“ दोनों ने उक्त शर्त स्वीकार की । इसके कुछ बाद सागरदत्त के घर पुत्रजन्म हुआ । उसका नाम वसुमित्र था । उसमें एक बड़े भारी आश्चर्य की बात थी । वह यह कि वसुमित्र न जाने किस कर्म उदय से रात के समय तो एक दिन दिव्य मनुष्य होकर रहता और दिन में एक भयानक सर्प । उधर समुद्रदत्त के घर कन्या हुई । उसका नाम रक्खा गया नागदत्ता । वह बड़ी खूबसूरत सुन्दरी थी । उसके पिता ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसका ब्याह वसुमित्र के साथ कर दिया । सच है— नैव वाचा चलत्वं स्यात्सतां कष्टशतैरपि । --ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्—सत्पुरुष सैकड़ों कष्ट सह लेते हैं, पर अपनी प्रतिज्ञा से कभी विचलित नहीं होते । वसुमित्र का ब्याह हो गया । वह अब प्रतिदिन दिन में तो सर्प बनकर एक पिटारे में रहता और रात में एक दिव्य पुरुष होकर अपनी प्रिया के साथ सुखोभोग करता । सचमुच संसार की विचित्र ही स्थिति होती है । इसी तरह उसे कई दिन बीत गये । एक दिन नागदत्ता की माता अपनी पुत्री को एक ओर तो यौवन अवस्था में पदार्पण करती हुई और दूसरी ओर उसके विपरीत भाग्य को देखकर दुखी होकर बोली—हाय ! देव की कैसी विडम्बना है; जो कहाँ तो देवबाला सरीखी सुन्दरी मेरी पुत्री और कैसा उसका अभाग्य जो उसे पति मिला एक भयंकर सर्प ? उसकी दुःख आह को नागदत्ता ने सुन लिया । वह दौड़ी आकर अपनी माता से बोली—माता, इसके लिये आप क्यों दुःख करती हैं ? मेरा जब भाग्य ही ऐसा था, तब उसके लिये दुःख करना व्यर्थ है । और अभी मुझे विश्वास है मेरे स्वामी का इस दशा से उद्धार हो सकता है । इसके बाद नागदत्ता ने अपनी माता को स्वामी के उद्धार सम्बन्ध की बात समझा दी । सदा के नियमानुसार आज भी रात के समय वसुमित्र अपना सर्प का शरीर छोड़कर मनुष्य रूप में आया और अपने शय्या भवन में पहुँचा । इधर समुद्रदत्ता छुपी हुई आकर वसुदत्त के पिटारे को वहाँ से उठा ले आयी और उसे उसी समय उसने जला डाला । तब से वसुमित्र मनुष्य रूप ही अपनी प्रिया के साथ सुख भोगता हुआ अपना समय आनन्द से बिताने लगा ।“ नाथ ! उसी तरह ये साधु भी निरंतर विष्णुलोक में रहकर सुख भोगें यह मेरी इच्छा थी; इसलिये मैंने वैसे किया था । महारानी चेलनी की कथा सुनकर श्रेणिक उत्तर तो कुछ नहीं दे सकें, पर वे उस पर बहुत गुस्सा हुए और उपयुक्त समय न देखकर वे अपने क्रोध को उस समय दबा भी गये । एक दिन श्रेणिक शिकार के लिये गये हुए थे । उन्होंने वन में यशोधर मुनिराज को देखा । वे उस समय आतप योग धारण किये हुए थे । श्रेणिक ने उन्हें शिकार के लिये विघ्नरूप समझकर मारने का विचार किया और बड़े गुस्से में आकर अपने क्रूर शिकारी कुत्तों को उन पर छोड़ दिया । कुत्ते बड़ी निर्दयता से मुनि को मारने को झपटे । पर मुनिराज की तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें कुछ कष्ट न पहुँचा सके । बल्कि उनकी प्रदिक्षणा देकर उनके पाँवों के पास खड़े रह गये । यह देखकर श्रेणिक को और भी क्रोध आया । उन्होंने क्रोधान्ध होकर मुनि पर शर चलाना आरम्भ किया । पर यह कैसा आश्चर्य जो शरीर के द्वारा उन्हें कुछ क्षति न पहुँचकर वे ऐसे जान पड़े मानो किसी ने उन पर फूलों की वर्षा की है । सच बात यह है कि तपस्वियों का प्रभाव कह कौन सकता है ? श्रेणिक ने मुनि हिंसारूप तीव्र परिणामों द्वारा उस समय सातवें नरक की आयु का बन्ध किया, जिसकी स्थिति तैतीस सागर की है । इन सभी अलौकिक घटनाओं को देखकर श्रेणिक का पत्थर के समान कठोर हृदय फूल सा कोमल हो गया । उनके हृदय की सब दुष्टता निकलकर उसमें मुनि के प्रति पूज्य भाव पैदा हो गया वे मुनिराज के पास गये और भक्ति से उन्होंने मुनि के चरणों को नमस्कार किया । यशोधर मुनिराज ने श्रेणिक के हित के लिये उपयुक्त समझकर उन्हें अहिंसामयी पवित्र जिनशासन का उपदेश दिया । उसका श्रेणिक के हृदय पर बहुत ही असर पड़ा । उसके परिणामों में विलक्षण परिवर्तन हुआ । उन्हें अपने कृतकर्म पर अत्यंत पश्चात्ताप हुआ । मुनिराज के उपदेशानुसार उन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण किया । उसके प्रभाव से, उन्होंने जो सातवें नरक की आयु का बन्ध किया था, वह उसी समय घटकर पहले नरक का रह गया, जहाँ की स्थिति चौरासी हज़ार वर्षों की है । ठीक है सम्यग्दर्शन के प्रभाव से भव्य पुरुषों को क्या प्राप्त नहीं होता ? इसके बाद श्रेणिक ने श्रीचित्रगुप्त मुनिराज के पास क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया और अंत में भगवान वर्धमान स्वामी के द्वारा शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व, जो कि मोक्ष का कारण है, प्राप्त कर पूज्य तीर्थंकर नाम प्रकृति का बन्ध किया । श्रेणिक महाराज अब तीर्थंकर होकर निर्वाण लाभ करेंगे । वे केवल ज्ञान रूपी प्रदीप श्रीजिनभगवान् संसार में सदा काल विद्यमान रहें, जो इन्द्र, देव, विद्याधर, चक्रवर्ती, द्वारा पूज्य हैं और जिनके पवित्र उपदेश के हृदय में मनन और ग्रहण द्वारा मनुष्य निर्मल लक्ष्मी को प्राप्त करने का पात्र होता है, मोक्षलाभ करता है । |