
कथा :
मैं देव, गुरु, और जिनवाणी को नमस्कार कर यम मुनि की कथा लिखता हूँ, जिन्होंने बहुत ही थोड़ा ज्ञान होने पर भी अपने को मुक्ति का पात्र बना लिया और अंत में वे मोक्ष गये । यह कथा सब सुख की देने वाली है । उड्रदेश के अंतर्गत एक धर्म नाम का प्रसिद्ध और सुन्दर शहर है । उसके राजा थे यम । वे बुद्धिमान और शास्त्रज्ञ थे । उनकी रानी का नाम धनवती था । धनवती के एक पुत्र और एक पुत्री थी । उनके नाम थे गर्दभ और कोणिका । कोणिका बहुत सुन्दरी थी । धनवती के अतिरिक्त राजा की और भी कई रानियाँ थीं । उनके पुत्रों की संख्या पाँचसौ थी । ये पाँचसौ ही भाई धर्मात्मा थे और संसार से उदासीन रहा करते थे । राजमंत्री का नाम था दीर्घ । वह बहुत बुद्धिमान और राजनीति का अच्छा जानकार था । राजा इन सब साधनों से बहुत सुखी थे और अपना राज्य भी बड़ी शांति से करते थे । एक दिन एक राजज्योतिषी ने कोणिका के लक्षण वगैरह देखकर राजा से कहा- महाराज, राजकुमारी बड़ी भाग्यवती है । जो उसका पति होगा वह सारी पृथ्वी का स्वामी होगा । यह सुनकर राजा बहुत खुश हुए और उस दिन से वे उसकी बड़ी सावधानी से रक्षा करने लगे, उन्होंने उसके लिये एक बहुत सुन्दर और भव्य तलग्रह बनवा दिया । वह इसलिये कि उसे और छोटा-मोटा बलवान राजा न देख पाये । एक दिन उसकी राजधानी में पाँचसौ मुनियों का संघ आया । संघ के आचार्य थे महामुनि सुधर्माचार्य । संसार का हित करना उनका एक मात्र व्रत था । बड़े आनन्द उत्साह के साथ शहर के सब लोग अनेक प्रकार के पूजन द्रव्य हाथों में लिये हुए आचार्य की पूजा के लिये गये । उन्हें जाते हुए देख राजा भी पाण्डित्य के अभिमान में आकर मुनियों की निन्दा करते हुए उनके पास गये । मुनिनिन्दा और ज्ञान का अभिमान करने से उसी समय उनके कोई ऐसा कर्मों का तीव्र उदय आया कि उनकी सब बुद्धि नष्ट हो गई । वे महामूर्ख बन गये । इसलिये जो उत्तम पुरुष हैं और जो ज्ञानी बनना चाहते हैं, उन्हें उचित है कि वे कभी ज्ञान का गर्व न करें और ज्ञान का ही क्यों ? किंतु कुल, जाति, बल, ऋद्धि, ऐश्वर्य, शरीर, तप, पूजा, प्रतिष्ठा आदि किसी का भी गर्व, अभिमान न करें । इनका अभिमान करना बड़ा दुःख दायी है । अपनी यह हालत देखकर राजा का होश ठिकाने आया । वे एक साथ ही दाँतरहित हाथी की तरह गर्व रहित हो गये । उन्होंने अपने कृत कर्मों का बहुत पश्चात्ताप किया और मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, जो कि जीवमात्र को सुख देने वाला है । धर्मोपदेश से उन्हें बहुत शांति मिली । उसका असर भी उन पर बहुत पड़ा । वे संसार से विरक्त हो गये । वे उसी समय अपने गर्दभ नाम के पुत्र को राज्य सौंपकर अपने अन्य पाँचसौ पुत्रों के साथ, जो कि बालपन ही से वैरागी रहा करते थे, मुनि हो गये । मुनि हुए बाद उन सबने खूब शास्त्रों का अभ्यास किया । आश्चर्य है कि वे पाँचसौ भाई तो खूब विद्वान हो गये, पर राजा को (यम मुनिको) पंच नमस्कार मंत्र का उच्चारण करना तक भी नहीं आया । अपनी यह दशा देखकर यम मुनि बड़े शर्मिन्दा और दुःखी हुए । उन्होंने वहाँ रहना उचित न समझ अपने गुरु से तीर्थयात्रा करने की आज्ञा ली और अकेले ही वहाँ से वे निकल पड़े । यम मुनि अकेले ही यात्रा करते हुए एक दिन स्वच्छन्द होकर रास्ते में जा रहे थे । जाते हुए उन्होंने एक रथ देखा । रथ में गधे जुते हुए थे और उसपर एक आदमी बैठा हुआ था । गधे उसे एक हरे धान के खेत की ओर लिये जा रहे थे । रास्ते में मुनि को जाते हुए देखकर रथ पर बैठे हुए मनुष्य ने उन्हें पकड़ लिया और लगा वह उन्हें कष्ट पहुँचाने । मुनि ने कुछ ज्ञान का क्षयोपशम हो जाने से एक खण्ड गाथा बनाकर पढ़ी । वह गाथा यह थी- कट्टसि पुण णिक्खेवसि रे गद्दहा जवं पेच्छसि । --खादिदुमिति अर्थात्- रे गधो, कष्ट उठाओगे तो तुम जब भी खा सकोगे । इसी तरह एक दिन कुछ बालक खेल रहे थे । वहीं कोणिका भी न जाने किसी तरह पहुँच गयी । उसे देखकर सब बालक डरे । उस समय कोणिका को देखकर यम मुनि ने एक और खण्ड गाथा बनाकर आत्मा के प्रति कहा । वह गाथा यह थी- अण्णत्थ किं पलोवह तुम्हे पत्थणिबुर्द्धि, या छिद्दे अच्छई कोणिआ इति । अर्थात्- दूसरी ओर क्या देखते हो? तुम्हारी पत्थर सरीखी बुद्धि को तोड़ने वाली कोणिका तो है। एक दिन यम मुनि ने एक मेंढक को कमल पत्र की आड़ में छुपे हुए सर्प की ओर आते हुए देखा । देखकर वे मेंढक से बोले- अम्हादो णत्थि भयं दीहादो दीसदे भयं तुम्हे ति । अर्थात्- मुझे मेरे आत्मा को तो किसी से भय नहीं है । भय है, तो तुम्हें । बस, यम मुनि ने जो ज्ञान सम्पादन कर पाया वह इतना था । वे इन्हीं तीन खण्ड गाथाओं का स्वाध्याय करते, पाठ करते और कुछ उन्हें आता नहीं था । इसी तरह पवित्रात्मा और धर्मानुयायी यम मुनि ने अनेक तीर्थों की । यात्रा करते हुए धर्मपुर की ओर आ निकले । वे शहर के बाहर एक बगीचे में कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे । उनके पीछे लौट आने का हाल उनके पुत्र गर्दभ और राजमंत्री दीर्घ को ज्ञात हुआ । उन्होंने समझा कि ये हम से राज्य लेने को आये हैं । सो वे दोनो मुनि के मारने का विचार कर आधी रात के समय वन में गये । और तलवार खींचकर उनके पीछे खड़े हो गये । आचार्य कहते हैं कि- धिक् राज्यं धिङ्मूर्खत्वंकातरत्वं च धिक्तराम् । निस्पृहाच्च मुनेर्येन शंका राज्येSभक्त्तयोः ।। अर्थात्- ऐसे राज्य को, ऐसी मूर्खता और ऐसे डरपोकपने को धिक्कार है, जिससे एक निस्पृह और संसारत्यागी मुनि के द्वारा राज्य के छिन जाने का भय उन्हें हुआ । गर्दभ और दीर्घ, मुनि की हत्या करने को तो आये पर उनकी हिम्मत उन्हें मारने की नहीं पड़ी । वे बार-बार अपनी तलवारों को म्यान में रखने लगे और बाहर निकालने लगे । उसी समय यम मुनि ने अपनी स्वाध्याय की पहली गाथा पढ़ी, जो कि ऊपर लिखी जा चुकी है । उसे सुनकर गर्दभ ने अपने मंत्री से कहा- जान पड़ता है मुनि ने हम दोनो को देख लिया । पर साथ ही जब मुनि ने आधी गाथा फिर पढ़ी तब उसने कहा- नहीं जी, मुनिराज राज्य लेने को नहीं आये हैं । मैंने जो वैसा समझा था वह मेरा भ्रम था । मेरी बहिन कोणिका को प्रेम के वश कुछ कहने ये आये हुए जान पड़ते हैं । उसके बाद जब मुनिराज ने तीसरी आधी गाथा भी पढ़ी तब उसे सुनकर गर्दभ ने अपने मन में उसका अर्थ यह अर्थ समझा कि “मंत्री दीर्घ बड़ा कूट है, और मुझे मारना चाहता है,” यही बात पिताजी प्रेम के वश हो तुझे कहकर सावधान करने को आये हैं । परंतु थोड़ी देर बाद ही उसका यह सन्देह भी दूर हो गया । उन्होंने अपने हृदय की सब दुष्टता छोड़कर बड़ी भक्ति के साथ पवित्र चारित्र के धारक मुनिराज को प्रणाम किया और उनसे धर्म का उपदेश सुना, जोकि स्वर्ग-मोक्ष का देने वाला है । उपदेश सुनकर वे दोंनो बहुत प्रसन्न हुए । इसके बाद वे श्रावकधर्म ग्रहण कर अपने स्थान लौट गये । इधर यमधर मुनि भी अपने चारित्र दिन दूना निर्मल करने लगे । परिणामों को वैराग्य की ओर खूब लगाने लगे । उसके प्रभाव से थोड़े ही दिनों में उन्हें सातों ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं । अहा ! नाम मात्र ज्ञान द्वारा भी यम मुनिराज बड़े ज्ञानी हुए, उन्होंने अपनी उन्नति को अंतिम सीढ़ी तक पहुँचा दिया । इसलिये भव्य पुरुषों को संसार का हित करने वाले जिन भगवान के द्वारा उपदिष्ट सम्यग्ज्ञान की सदा आराधना करना चाहिये । देखो, यम मुनिराज को बहुत थोड़ा ज्ञान था, पर उसकी उन्होंने बड़ी भक्ति और श्रद्धा के साथ आराधना की । उसके प्रभाव से वे संसार में प्रसिद्ध हुए और सातों ऋद्धियाँ उन्हें प्राप्त हुईं । इसलिये सज्जन धर्मात्मा पुरुषों को उचित है कि वे त्रिलोकपूज्य जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट, सब सुखों का देने वाला और मोक्ष-प्राप्ति का कारण अत्यंत पवित्र सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का यत्न करें । |