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दृढ़सूर्य की कथा

  कथा 

कथा :

लोका लोक के प्रकाश करने वाले, केवल ज्ञान द्वारा संसार के सब पदार्थों को जानकर उनका स्वरूप कहने वाले और देवेन्द्रादि द्वारा पूज्य श्रीजिनभगवान को नमस्कार कर मैं दृढ़सूर्य की कथा लिखता हूँ, जो कि जीवों को विश्वास की देने वाली है ।

उज्जयिनी के राजा जिस समय धनपाल थे, उस समय की यह कथा है । धनपाल उस समय के राजाओं में एक प्रसिद्ध राजा थे । उनकी महारानी का नाम धनवती था । एक दिन धनवती अपनी सखियों के साथ वसन्तश्री देखने को उपवन में गयी । उसके गले में एक बहुत कीमती रत्नों का हार पड़ा हुआ था । उसे वहीं आयी हुई एक बसंतसेना नाम की वेश्या ने देखा । उसे देखकर उसका मन उसकी प्राप्ति के लिये आकुलित हो उठा । उसके बिना उसे अपना जीवन निष्फल जान पड़ा । वह दुःखी होकर अपने घर लौटी । सारे दिन वह उदास रही । जब रात के समय उसका प्रेमी दृढ़सूर्य आया तब उसने उसे उदास देखकर पूछा— प्रिये, कहो ! कहो ! जल्दी कहो !! तुम आज अप्रसन्न कैसी ? बसंतसेना ने उसे अपने लिये इस प्रकार खेदित देखकर कहा— आज मैं उपवन गयी हुई थी । वहाँ मैंने राजरानी के गले में एक हार देखा है । वह बहुत ही सुन्दर है । उसे आप लाकर दें तब ही मेरा जीवन रह सकता है और तब ही आप मेरे सच्चे प्रेमी हो सकते हैं ।

दृढ़सूर्य हार के लिये चला । वह सीधा राजमहल पहुँचा व भाग्य से हार उसके हाथ पड़ गया । वह उसे लिये हुए राजमहल से निकला । सच है लोभी, लंपटी कौन काम नहीं करते ? उसे निकलते ही पहरेदारों ने पकड़ लिया । सवेरा होने पर वह राजसभा में पहुँचाया गया । राजा ने उसे शूली की आज्ञा दी । वह शूली पर चढ़ाया गया । इसी समय धनदत्त नाम के एक सेठ दर्शन करने को जिनमन्दिर जा रहे थे दृढ़सूर्य ने उनके चेहरे और चाल-ढाल से उन्हें दयालु समझ कर उनसे कहा— सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान हैं, इसलिये आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहीं से थोड़ा सा जल लाकर मुझे पिला दें, तो आपका बड़ा उपकार हो । धनदत्त ने उसकी भलाई की इच्छा से कहा—भाई, मैं जल तो लाता हूँ, पर इस बीच तुम्हें एक बात करनी होगी । वह यह कि- मैंने कोई बारह वर्ष के कठिन परिश्रम द्वारा अपने गुरुमहाराज की कृपा से एक विद्या सीख पाई है, सो मैं तुम्हारे लिये जल लेने को जाते समय कदाचित उसे भूल जाऊँ तो उससे मेरा सब श्रम व्यर्थ जायगा और मुझे बहुत हानि भी उठानी पड़ेगी, इसलिये उसे मैं तुम्हें सौंप जाता हूँ । मैं जब जल लेकर आऊँ तब तुम मुझे पीछी लौटा देना । यह कहकर परोपकारी धनदत्त स्वर्ग-मोक्ष का सुख देनेवाला पंचनमस्कार मंत्र उसे सिखाकर आप जल लेने को चला गया । वह जल लेकर वापिस लौटा, इतने में दृढ़सूर्य की जान निकल गई, वह मर गया । पर वह मरा नमस्कार मंत्र का जाप करता हुआ । उसे सेठ के इस कहने पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि वह विद्या महाफल के देने वाली है । नमस्कार मंत्र के प्रभाव से वह सौधर्मस्वर्ग में जाकर देव हुआ । सच है— पंच नमस्कारमंत्र के प्रभाव से मनुष्य को क्या प्राप्त नहीं होता ?

इसी समय किसी एक दुष्ट ने राजा से धनदत्त की शिकायत कर दी कि, महाराज धनदत्त ने चोर के साथ कुछ गुप्त मंत्रणा की है, इसलिये उसके घर में चोरी का धन होना चाहिये । नहीं तो एक चोर से बात-चीत करने का उसे क्या मतलब ? ऐसे दुष्टों को और उनके दुराचारों को धिक्कार है जो व्यर्थ ही दूसरों के प्राण लेने के यत्‍न में रहते हैं और परोपकार करने वाले सज्‍जनों को भी जो दुर्वचन कहते रहते हैं । राजा सुनते ही क्रोध के मारे आग बबूला हो गए । उन्‍होंने बिना कुछ सोचे विचारे धनदत को बाँध ले आने के लिये अपने नौकरों को भेजा । इसी समय अवधिज्ञान द्वारा यह हाल सौधर्मेन्‍द्र को, जो कि दृढ़सूर्य का जीव था, मालूम हो गया । अपने उपकारी को, कष्‍ट में फँसा देखकर यह उसी समय उज्‍जनियों में आया और स्‍वयं ही द्वार पाल बनकर उससे घर के दरवाजे पर पहरा देने लगा । जब राजनौकर धनदत्त को पकड़ने के लिये घर में घुस ने लगे तब देव ने उन्‍हें रोका । पर जब वे हठ करने लगे और जबरन घर में घुसने ही लगे तब देव ने भी अपनी माया से उन सब को एक क्षणभर में धराशायी बना दिया। राजा ने यह हाल सुनकर और भी बहुत से अपने अच्‍छे-अच्‍छे शूरवीरों को भेजा, देव ने उन्‍हें भी देखते-देखते पृथ्‍वीपर लोटा दिया । इससे राजा का क्रोध अत्‍यन्‍त बढ़ गया । तब वे स्‍वयं अपनी सेना को लेकर धनदत्त पर आ चढ़े । पर उस एक ही देव ने उनकी सारी सेना को तीन तेरह कर दिया । यह देखकर राजा भय के मारे भागने लगे । उन्‍हें भागते हुए देख कर देव ने उनका पीछा किया और वह उन से बोला- आप कहीं नहीं भाग सकते । आपके जीने का एक मात्र उपाय है, वह यह कि आप धनदत्त के आश्रय जाँय और उससे अपने प्राणों की भीख माँगे । बिना ऐसा किये आपकी कुशल नहीं । सुनकर ही राजा धनदत्‍त के पास जिनमंदिर गये और उन्‍होंने सेठ से प्रार्थना की कि-धनदत्त, मेरी रक्षा करो । मुझे बचाओ । मैं तुम्‍हारे शरण में प्राप्‍त हूँ । सेठ ने देव को पीछे ही आया हुआ देखकर कहा- तुम कौन हो ? और क्‍यों हमारे महराज को कष्‍ट दे रहे हो ? देव ने अपनी माया समेटी और सेठ को प्रमाण करके कहा- हे जिनभक्‍त सेठ, मैं वही पापी चोर का जीव हूँ, जिसे तुम ने नमस्‍कारमंत्र का उपदेश दिया था । उसी के प्रभाव से मैं सौधर्मस्‍वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ हूँ । मैंने अवधिज्ञान द्वारा जब अपना पूर्वभव का हाल जाना तब मुझे ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे उपकारी पर बड़ी आपत्ति आ रही है, इसलिये ऐसे समय में अपना कर्त्तव्‍य पूरा करने के लिये और आपकी रक्षा के लिये मैं आया हूँ । यह सब माया मुझ सेवक की ही की हुई है । इस प्रकार सब हाल सेठ से कहकर और रत्‍नमय भूषणादि से उसका यथोचित सत्‍कार कर देव स्‍वर्ग में चला गया । जिनभक्‍त धनदत्त की परोपकार बुद्धि और दूसरों के दु:ख दूर करने की कर्त्तव्‍यपरता देखकर राजा बगैरह ने उसका खूब आदर सम्‍मान किया । सच है-‘

‘धार्मिक: कैर्न पूज्‍यते’’ अर्थात् धर्मात्‍मा का कौन सत्‍कार नहीं करता ?

राजा और प्रजा के लोग इस प्रकार नमस्‍कारमंत्र का प्रभाव देखकर बहुत खुश हुए और पवित्र जिनशासन में श्रद्धानी हुए । इसी तरह धर्मात्‍माओं को भी उचित है कि वे अपने आत्‍महित के लिये भक्तिपूर्वक जिनभगवान् द्वारा उपदिष्‍ट धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर करें ।