
कथा :
केवलज्ञान रूपी नेत्र के धारक श्री जिनेन्द्र भगवान् को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर मैं अहिंसाव्रत का फल पाने वाले एक धीवर की कथा लिखता हूँ । सब सन्देहों को मिटाने वाली, प्रीति पूर्वक आराधना करने वाले प्राणियों के लिये सब प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाली, जिनेन्द्र भगवान् की वाणी संसार में सदैव बनी रहे । संसार रूपी अथाह समुद्र से भव्य पुरूषों को पार कराने के लिये पुल के समान ज्ञान के सिन्धु मुनिराज निरन्तर मेरे हृदय में विराजमान रहें । इस प्रकार पंचपरमेष्ठी का स्मरण और मंगल करके कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने के लिये मैं अहिंसा व्रत की पवित्र कथा लिखता हूँ । जिस अहिंसा का नाम ही जीवों को अभय प्रदान करने वाला है, उसका पालन करना तो निस्सन्देह सुख का कारण है । अत: दयालु पुरूषों को मन, वचन और काय से संकल्पी हिंसा का परित्याग करना उचित है । बहुत से लोग अपने पितरों आदि की शान्ति के लिये श्राद्ध वगैरह में हिंसा करते हैं, बहुत से देवताओं को सन्तुष्ट करने के लिये उन्हें जीवों की बलि देते हैं और कितने ही महामारी, रोग आदि के मिट जाने के उद्देश्य से जीवों की हिंसा करते है; परन्तु यह हिंसा सुख के लिए न होकर दु:ख के लिये ही होती है । हिंसा द्वारा जो सुख की कल्पना करते हैं, यह उनका अज्ञान ही है । पाप कर्म कभी सुख का कारण हो ही नहीं सकता । सुख है अहिंसाव्रत के पालन करने में । भव्य जन ! मैं आपको भव भ्रमण का नाश करने वाला तथा अहिंसाव्रत का माहात्म्य प्रकट करने वाली एक कथा सुनाता हूँ; आप ध्यान से सुनें । अपनी उत्तम सम्पत्ति से स्वर्ग को नीचा दिखाने वाले सुरम्य अवन्ति देश के अन्तर्गत शिरीष नाम के एक छोटे से सुन्दर गाँव में मृगसेन नाम का एक धीवर रहा करता था । अपने कंधों पर एक बड़ाभारी जाल लटकाए हुए एक दिन वह मछलियाँ पकड़ने के लिये क्षिप्रा नदी की ओर जा रहा था । रास्ते में उसे यशोधर नामक मुनिराज के दर्शन हुए । उस समय अनेक राजा महाराजा आदि उनके पवित्र चरणों की पर्युपासना कर रहे थे, मुनिराज जैन सिद्धान्त के मूल रहस्य स्याद्वाद के बहुत अच्छे विद्वान् थे, जीवमात्र का उद्धार करने हेतु वे सदा कमर कसे तैयार रहते थे, जीवमात्र का उपकार करना ही एक मात्र उनका व्रत था, धर्मोपदेश रूपी अमृत से सारे संसार को उन्होंने सन्तुष्ट कर दिया था, अपने वचन रूपी प्रखर किरणों के तेज से उन्होंने मिथ्यात्व रूपी गाढ़ान्धकार को नष्ट कर दिया था, उनके पास वस्त्र वगैरह कुछ नहीं थें, किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी इन तीन मौलिक रत्नों से वे अवश्य अलंकृत थे । मुनिराज को देखते ही उसके कोई ऐसा पुण्य का उदय आया, जिससे उसके हृदय में कोमलता ने अधिकार कर लिया । अपने कंधे पर से जाल हटा कर वह मुनिराज के समीप पहुँचा, बहुत भक्तिपूर्वक उनके चरणों में प्रणाम कर उसने उनसे प्रार्थना की कि हे स्वामी ! कामरूपी हाथी को नष्ट करने वाले हे केसरी !! मुझे भी कोई ऐसा व्रत दीजिए, जिससे मेरा जीवन सफल हो । ऐसी प्रार्थना कर विनय-विनीत मस्तक से वह मुनिराज के चरणों में बैठ गया । मुनिराज ने उसकी ओर देखकर विचार किया कि देखो ! कैसे आज इस महाहिंसक के परिणाम कोमल हो गये हैं और इसकी मनोवृत्ति व्रत लेने की हुई है । सत्य है- युक्तं स्यात्प्राणिनां भावि शुभाशुभनिभं मन: । --ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्- आगे जैसा अच्छा या बुरा होना होता है, जीवों का मन भी उसी अनुसार पवित्र या अपवित्र बन जाता है, अर्थात् जिसका भविष्यत् अच्छा होता है, उसका मन पवित्र हो जाता है और जिसका बुरा होनहार होता है उसका मन भी बुरा हो जाता है । इसके बाद मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा मृगसेन के भावी जीवन पर जब विचार किया तो उन्हें ज्ञान हुआ कि इसकी आयु अब बहुत कम रह गई है । यह देख उन्होंने करूणाबुद्धि से उसे समझाया कि हे भव्य ! मैं तुझे एक बात कहता हूँ, तू जब तक जीए तब तक उसका पालन करना । वह यह कि तेरे जाल में पहली बार जो मछली आये उसे तू छोड़ देना और इस तरह जब तक तेरे हाथ से मरे हुए जीव का मांस तुझे प्राप्त न हो, तब तक तू पाप से मुक्त ही रहेगा । इसके अतिरिक्त मैं तुझे पंचनमस्कार मंत्र सिखाता हूँ जो प्राणी मात्र का हित करनेवाला है, उसका तू सुख में, दु:ख में, सरोग या नीरोग अवस्था में सदैव ध्यान करते रहना । मुनिराज के स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले इस प्रकार के वचनों को सुनकर मृगसेन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने यह व्रत स्वीकार कर लिया । जो भक्तिपूर्वक अपने गुरूओं के वचनों को मानते हैं, उनपर विश्वास लाते हैं, उन्हें सब सुख मिलता है और वे परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त करते है । व्रत लेकर मृगसेन नदी पर गया । उसने नदी में जाल डाला । भाग्य से एक बड़ाभारी मत्स्य उसके जाल में फँस गया । उसे देखकर धीवर ने विचारा- हाय ! मैं निरन्तर ही तो महापाप करता हूँ और आज गुरू महाराज ने मुझे व्रत दिया है, भाग्य से आज ही इतना बड़ामच्छ जाल में आ फँसा । पर जो कुछ ही, मैं तो इसे कभी नहीं मारूँगा । यह सोचकर व्रती मृगसेन ने अपने कपड़े की एक चिन्दी फाड़कर उस मत्स्य के कान में इसलिये बाँध दी कि यदि वही मच्छ दूसरी बार जाल में आ जाय तो मालूम हो जाये । इसके बाद वह उसे बहुत दूर जाकर नदी में छोड़ आया । सच है, मृत्युपर्यन्त निर्विघ्न पालन किया हुआ व्रत सब प्रकार की उत्तम सम्पत्ति को देने वाला होता है । वह फिर दूसरी ओर जाकर मछलियाँ पकड़ने लगा । पर भाग्य से इस बार भी वही मच्छ उसके जाल में आया । उसने उसे फिर छोड़ दिया । इस तरह उसने जितनी बार जाल डाला, उसमें वही-वही मत्स्य आया पर उससे वह क्षुब्ध नहीं हुआ अपितु अपने व्रत की रक्षा के लिए खूब दृढ़ हो गया । उसे वहाँ इतना समय हो गया कि सूर्य भी अस्त हो चला, पर उसके जाल में उस मत्स्य को छोड़कर और कोई मत्स्य नहीं आया । अन्त में मृगसेन निरूपाय होकर घर की ओर लौट पड़ा । उसे अपने व्रत पर खूब श्रद्धा हो गई । वह रास्ते भर गुरू महाराज द्वारा सिखाए पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करता हुआ चला आया । जब वह अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा तो उसकी स्त्री उसे खाली हाथ देखकर आग बबूला हो उठी उसने गुस्से से पूछा- रे मूर्ख घर पर खाली हाथ तो चला आया, पर बतला तो सही कि खायगा क्या पत्थर ? इतना कहकर वह घर के भीतर चली गई और गुस्से में उसने भीतर से किवाड़ बन्द कर लिए । सच है- छोटे कुल की स्त्रियों का अपने पति पर प्रेम, लाभ होते रहने पर ही अधिक होता है । अपनी स्त्री का इस प्रकार दुर्व्यवहार देखकर बेचारा मृगसेन किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया । उसकी कुछ नहीं चली । उसे घर के बाहर ही रह जाना पड़ा । बाहर एक पुराना बड़ा भारी लकड़ा पड़ा हुआ था । मगृसेन निरूपाय होकर पंचनमस्कार मंत्र का ध्यान करता हुआ उसी पर सो गया । दिन भर के श्रम के कारण रात में वह तो भर नींद में सोया हुआ था कि उस लकड़े में से एक भयंकर और जहरीले साँप ने निकल कर उसे काट खाया । वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ । प्रात:काल होने पर जब उसकी पत्नी ने मृगसेन की यह दुर्दशा देखी तो उसके दु:ख का कोई ठिकाना नहीं रहा । वह रोने लगी, छाती कूटने लगी और अपने नीच कर्म का बार-बार पश्चात्ताप करने लगी । उसका दु:ख बढ़ता ही गया । उसने भी यह प्रतिज्ञा ली कि जो व्रत मेरे स्वामी ने ग्रहण किया था वही मैं भी ग्रहण करती हूँ और निदान किया कि ‘‘ ये ही मेरे अन्य जन्म में भी स्वामी हों ।” अनन्तर साहस करके वह भी अपने स्वामी के साथ अग्नि प्रवेश कर गई । इस प्रकार अपघात से उसने अपनी जान गँवा दी । विशाला नाम की नगरी में विश्वम्भर राजा राज्य करते थे । उनकी प्रिया का नाम विश्वगुणा था । वहीं एक सेठ रहते थे । गुणपाल उनका नाम था । उनकी स्त्री का नाम धनश्री था । धनश्री के सुबन्धु नाम की एक अतिशय सुन्दरी और गुणवती कन्या थी । पुण्योदय से मृगसेन धीवर का जीव धनश्री के गर्भ में आया । अपने नर्मधर्म नामक मंत्री के अत्यन्त आग्रह और प्रार्थना से राजा ने सेठ गुणपाल से आग्रह किया कि वह मंत्रीपुत्र नर्मधर्म के साथ अपनी पुत्री सुबन्धु का ब्याह कर दे । यह जानकर गुणपाल को बहुत दु:ख हुआ । उसके सामने एक अत्यन्त कठिन समस्या उत्पन्न हुई । उसने विचारा कि पापी राजा, मेरी प्यारी सुन्दरी सुबन्धु का, जो कि मेरे कुलरूपी बगीचे पर प्रकाश डालने वाली है, नीच कर्म करने वाले नर्मधर्म के साथ ब्याह कर देने को कहता है । उसने इस समय मुझे बड़ा संकट में डाल दिया । यदि सुबन्धु का नर्मधर्म के साथ ब्याह कर देता हूँ, तो मेरे कुल का क्षय होता है और साथ ही अपयश होता है और यदि नहीं करता हूँ, तो सर्वनाश होता है । राजा न जाने क्या करेगा ? आखिर उसने निश्चय किया जो कुछ हो, पर मैं ऐसे नीचों के हाथ तो कभी अपनी प्यारी पुत्री का जीवन नहीं सौपूंगा- उसकी जिन्दगी बरबाद नहीं करूँगा । इसके बाद वह अपने श्रीदत्त मित्र के पास गया और उससे सब हाल कह कर तथा उसकी सम्मति से अपनी गर्भिणी स्त्री को उसी के घर पर छोड़ कर आप रात के समय अपना कुछ धन और पुत्री को साथ लिये वहाँ गुपचुप से निकल खड़ा हुआ । वह धीरे-धीरे कौशाम्बी आ पहुँचा । सच है, दुर्जनों के सम्बन्ध से देश भी छोड़ देना पड़ता है । श्रीदत्त के घर के पास ही एक श्रावक रहता था । एक दिन उस के यहाँ पवित्र चारित्र के धारक शिवगुप्त और मुनिगुप्त नाम के दो मुनिराज आहार के लिये आये । उन्हें श्रावक महाशय ने अपने कल्याण की इच्छा से विधिपूर्वक आहार दिया, जो कि सर्वोत्तम सम्पत्ति की प्राप्ति का कारण है । मुनिराज को आहार देकर उसने बहुत पुण्य उत्पन्न किया, जो कि दु:ख दरिद्रता आदि का नाश करने वाला है । मुनिराज आहार के बाद जब वन में जाने लगे तब उनमें से मुनिगुप्त की नजर धनश्री पर पड़ी, जो कि श्रीदत्त के आँगन में खड़ी हुई थी । उस समय उसकी दशा अच्छी नहीं थी । बेचारी पति और पुत्रों के वियोग से दु:खी थी, पराये घर पर रह कर अनेक दु:खों को सहती थी, आभूषण वगैरह सब उसने उतार डालकर शरीर को शोभाहीन बना डाला था, कुकवि की रचना के समान उसका सारा शरीर रूक्ष और श्रीहीन हो रहा था और इन सब दु:खों के होने पर भी वह गर्भिणी थी, इससे और अधिक दुर्व्यवस्था में वह फँसी थी । उसे इस हालत में देखकर मुनिगुप्त ने शिवगुप्त मुनिराज से कहा- प्रभो, देखिये तो इस बेचारी की कैसी दुर्दशा हो रही है, कैसे भयंकर कष्ट का इसे सामना करना पड़ा है ? जान पड़ता है इससे गर्भ में किसी अभागे जीव ने जन्म लिया है, इसी से इसकी यह दीन-हीन दशा हो रही है । सुनकर जैनसिद्धान्त के विद्वान् और अवधिज्ञानी श्रीशिवगुप्त मुनि बोले- मुनिगुप्त, तुम यह न समझो कि इसके गर्भ में कोई अभागा आया है; किन्तु इतना अवश्य है कि इस समय उसकी अवस्था ठीक नहीं है और यह दु:खी है; परन्तु थोड़े ही दिनों के बाद इसके दिन फिरेंगे और पुण्य का उदय आवेगा । इसके यहाँ जिसका जन्म होगा, वह बड़ामहात्मा, जिनधर्म का पूर्ण भक्त और राज सम्मान का पात्र होगा । होगा तो वह वैश्यवंश में पर उसका ब्याह इन्हीं विश्वंभर राजा की पुत्री के साथ होगा, राजवंश भी उसकी सेवा करेगा । मुनिराज की भविष्य वाणी पापी श्रीदत्त ने भी सुनी । वह था तो धनश्री के पति गुणपाल का मित्र, पर अपने एक जातीय बन्धु का उत्कर्ष होना उसे सहा नहीं हुआ । उसका पापी हृदय मत्सरता के द्वेष से अधीर हो उठा । उसने बालक को जन्मते ही मार डालने का निश्चय किया । अब से वह बाहर कहीं न जाकर बगुले की तरह सीधा साधा घर ही में रहने लगा । सच है- कारणेन बिना वैरी दुर्जन: सुजनो भवेत्। -ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्- दुर्जन-शत्रु बिना कारण के भी सुजन-मित्र बन जाया करते हैं । सो पहले तो श्रीदत्त बेचारी धनश्री को कष्ट दिया करता था और अब उसके साथ बड़ी सज्जनता का बर्ताव करने लगा । धनश्री सेठानी ने समय पाकर पुत्र को प्रसव किया । वास्तव में बालक बड़ा भाग्यशाली हुआ । वह उत्पन्न होते ही ऐसा तेजस्वी जान पड़ता था, मानो पुण्य समूह हो । धनश्री पुत्र की प्रसव वेदना से मूर्छित हो गई । उसे अचेत देखकर पापी श्रीदत्त ने अपने मन में सोचा- बालक प्रज्वलित अग्नि की तरह तेजस्वी है, अपने को आश्रय देने वाले का ही क्षय करने वाला होगा, इसलिये इसका जीता रहना ठीक नहीं । यह विचार कर उसने अपने घर की बड़ी बूढी़ स्त्रियों द्वारा यह प्रगट करवा कर, कि बालक मरा हुआ पैदा हुआ था, बालक को एक भंगी के हाथ सौंप दिया और उससे कह दिया कि इसे ले जाकर ही मार डालना । उचित तो यह था कि- शत्रुजोपि न हन्तव्यो बालक किं पुनर्वृथा । हा कष्टं किं न कुर्वन्ति दुर्जना: फणिनो यथा।। -ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्- शत्रु का भी यदि बच्चा हो, तो उसे नहीं मारना चाहिये, तब दूसरों के बच्चों के सम्बन्ध में तो क्या कहें ? परन्तु खेद है कि सर्प के समान दुष्ट पुरूष कोई भी बुरा काम करते नहीं हिचकते । चाण्डाल बच्चे को एकान्त में मारने को ले गया, पर जब उसने उजेले में उसे देखा तो उसकी सुन्दरता को देखकर उसे भी दया आ गई, करूणा से उसका हृदय भर आया । सो वह उसे न मारकर वहीं एक अच्छे स्थान पर रखरकर अपने घर चला गया । श्रीदत्त की एक बहिन थी । उसका ब्याह इन्द्रदत्त सेठ के साथ हुआ था । भाग्य से उसके सन्तान नहीं हुई थी । बालक के पूर्व पुण्य के उदय से इन्द्रदत्त माल बेचता हुआ इसी ओर आ निकला । जब वह ग्वाल लोगों के मोहल्ले में आया तो उसने गुवालों को परस्पर बातें करते हुए सुना कि ‘’एक बहुत सुन्दर बालक को न जाने कोई अमुक स्थान की सिला पर लेटा गया है, वह बहुत तेजस्वी है, उसके चारों ओर अपनी गायों के बच्चे खेल रहे हैं और यह उनके बीच में बड़े सुख से खेल रहा है ।'' उनकी बातें सुनकर ही इन्द्रदत्त बालक के पास आया । वह एक दूसरे बाल सूर्य को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसके कोई सन्तान तो थी ही नहीं, इसलिये बच्चे को उठाकर वह अपने घर ले आया और अपनी प्रिया से बोला- प्यारी राधा ? तुम्हें इसकी खबर भी नहीं कि तुम्हारे गूढगर्भ से अपने कुल का प्रकाशक पुत्र हुआ है ? और देखो वह यह है । इसे ले लो और पा लो । आज अपना जीवन कृतार्थ हुआ । यह कह कर उसने बालक को अपनी प्रिया की गोद में रख दिया । बालक की खुशी के उपलक्ष में इन्द्रदत्त ने खूब उत्सव किया । खूब दान दिया । सच है- प्राणिनां पूर्वपुण्यानामापदा सम्पदायते। –ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्- पुण्यवानों के लिये विपत्ति भी सम्पत्ति के रूप में परिणत हो जाती है । पापी श्रीदत्त को यह हाल मालूम हो गया । सो वह इन्द्रदत्त के घर आया और मायाचार से उसने अपने बहनोई से कहा- देखोजी, हमारा भानजा बड़ा तेजस्वी है, बड़ाभाग्यवान् है, इसलिये उसे हम अपने घर पर ही रक्खेंगे । आप हमारी बहिन को भेज दीजिये । बेचारा इन्द्रदत्त उसके पापी हृदय की बात नहीं जान पाया । इसलिये उसने अपने सीधे स्वभाव से अपनी प्रिया को पुत्र सहित उसके साथ कर दिया । बहुत ठीक लिखा है- अहो दुष्टाशय: प्राणी चित्तेडन्यद्वचनेडन्यथा । कायेनान्यत्करोत्येव परेषां वचन महत् ।। अर्थात्- जिन लोगों का हृदय दुष्ट होता है, उनके चित्त में कुछ और रहता है, वचनों से वे कुछ और ही कहते और शरीर से कुछ और ही करते हैं । दूसरों को ठगना, उन्हें धोखा देना ही एक मात्र ऐसे पुरूषों का उद्देश्य रहता है । पापी श्रीदत्त भी एक ऐसा ही दुष्ट मनुष्य था । इसीलिए तो वह निरपराध बालक के खून का प्यासा हो उठा । उसने पहले की तरह फिर भी उसे मार डालने की इच्छा से चाण्डाल को बहुत कुछ लोभ देकर उसके हाथ सौंप दिया । चाण्डाल ने भी बालक को ले तो लिया पर जब उसने उसकी स्वर्गीय सुन्दरता देखी तो उसके हृदय में भी दया देवी आ विराजी । उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि कुछ हो, मैं कभी इस बच्चे को न मारूँगा और इसे बचाऊँगा । वह अपना विचार श्रीदत्त से नहीं कहकर बच्चे को लिवा ले गया । कारण श्रीदत्त की पाप वासना उसे कभी जिन्दा रहने न देगी, यह उसे उसकी बातचीत से मालूम हो गया था । चाण्डाल बच्चे को एक नदी के किनारे पर लिवा ले गया । वही एक सुन्दर गुहा थी, जिसके चारों ओर वृक्ष थे । वह बालक को उस गुहा में रखकर अपने घर पर लौट आया । संध्या का समय था । ग्वाल लोग अपनी-अपनी गायों को घर पर लौटाये ला रहे थे । उनमें से कुछ गायें इस गुहा की ओर आ गई थीं, जहाँ गुणपाल का पुत्र अपने पूर्वपुण्य के उदय से रक्षा पा रहा था । धाय के समान उन गायों ने आकर उस बच्चे को घेर लिया । मानों बच्चा प्रेम से अपनी माँ की ही गोद में बैठा हो । बच्चे को देखकर गायों के थनों में से दूध झरने लग गया । ग्वाल लोग प्रसन्नमुख बच्चे को गायों से घिरा हुआ और निर्भय खेलता हुआ देखकर बहुत आश्चर्य करने लगे । उन्होंने जाकर अपनी जाति के मुखिया गोविन्द से यह सब हाल कह सुनाया । गोविन्द के कोई संतान नहीं थी, इसलिये वह दौड़ा गया और बालक को उठा लाकर उसने अपनी सुनन्दा नाम को प्रिया को सौंप दिया । उसका नाम उसने धनकीर्ति रखा । वहीं पर बड़े यत्न और प्रेम से उसका पालन व संरक्षण होने लगा । धनकीर्ति भी दिनों दिन बढ़ने लगा । वह ग्वाल महिलाओं के नेत्ररूपी कुमुद पुष्पों को प्रफुल्लित करने वाला चन्द्रमा था । उसे देखकर उनके नेत्रों को बड़ी शान्ति मिलती थी । वह सब सामुद्रिक लक्षणों से युक्त था । उसे देखकर सबको बड़ा प्रेम होता था । वह अपनी रूप मधुरिमा से कामदेव जान पड़ता था, कान्ति से चन्द्रमा और तेज से एक दूसरा सूर्य । जैसे-जैसे उसकी सुन्दरता बढ़ती जाती थी, वैसे-वैसे ही उसमें अनेक उत्तम-उत्तम गुण भी स्थान पाते चले जाते थे । एक दिन पापी श्रीदत्त घी की खरीद करता हुआ इधर आ गया । उसने धनकीर्ति को देखकर पहिचान लिया । अपना सन्देह मिटाने को और भी दूसरे लोगों से उसने उसका हाल जान किया । उसे निश्चय हो गया कि यह गुणपाल ही का पुत्र है । तब उसने फिर उसके मारने का षड्यंत्र रचा । उसने गोविन्द से कहा- भाई, मेरा एक बहुत जरूरी काम है, यदि तुम अपने पुत्र द्वारा उसे करा दो तो बड़ी कृपा हो । मैं अपने घर पर भेजने के लिये एक पत्र लिखे देता हूँ, उसे यह पहुँचा आवे । बेचारे गोविन्द ने कह दिया कि मुझे आपके काम से कोई इंकार नहीं है । आप लिख दीजिये, यह उसे दे आयगा । सच बात है- अहो दुष्टस्य दुष्टत्वं लक्ष्यते केन वेगत: । -ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्- दुष्टों की दुष्टता का पता जल्दी से कोई नहीं पा सकता। पापी श्रीदत्त ने पत्र में लिखा- ‘‘पुत्र महाबल, जो तुम्हारे पास पत्र लेकर आ रहा है, वह अपने कुल का नाश करने के लिये भयंकरता से जलता हुआ मानो प्रलय काल की अग्नि है, समर्थ होते ही यह अपना सर्वनाश कर देगा । इसलिये तुम्हें उचित है कि इसे गुप्तरीति से तलवार द्वारा वा मूसले से मार डालकर अपना कांटा साफ कर दो । काम बड़ी सावधानी से हो, जिसे कोई जान न पावे ।'' पत्र को अच्छी तरह बन्द कर के उसने कुमार धनकीर्ति को सौंप दिया । धनकीर्ति ने उसे अपने गले में पड़े हुए हार से बाँध लिया और सेठ की आज्ञा लेकर उसी समय वह वहाँ से निडर होकर चल दिया । वह धीरे-धीरे उज्जयिनी के उपवन में आ पहुँचा । रास्ते में चलते-चलते वह थक गया था । इसलिये थकावट मिटाने के लिये वह वहीं एक वृक्ष की ठंडी छाया में सो गया । उसे वहाँ नींद आ गई । इतने ही में वहाँ एक अनंगसेना नाम की वैश्या फूल तोड़ने के लिये आई । वह बहुत सुन्दरी थी । अनेक तरह के मौलिक भूषण और वस्त्र वह पहने थी । उससे उसकी सुन्दरता भी बेहद बढ़ गई थी । वह अनेक विद्या, कलाओं को जानने वाली और बड़ी विनोदिनी थी । उसने धनकीर्ति को एक वृक्ष के नीचे सोता देख पूर्वजन्म में अपना उपकार करने के कारण से उस पर उसका बहुत प्रेम हुआ । उसके वश होकर ही उसे न जाने क्या बुद्धि उत्पन्न हुई जो उसने उसके गले में बँधे हुए श्रीदत्त के कागज को खोल लिया । पर जब उसने उसे बाँचा तो उसके आश्चर्य का कुछ ठिकाना न रहा । एक निर्दोष कुमार के लिये श्रीदत्त का ऐसा घोर पैशाचिक अत्याचार का हाल पढ़कर उसका हृदय काँप उठा । वह उसकी रक्षा के लिये घबरा उठी । वह भी थी बड़ी बुद्धिमती सो उसे झट एक युक्ति सूझ गई । उसने उस लिखावट को बड़ी सावधानी से मिटाकर उसकी जगह अपनी आँखों में अंजे हुए काजल को पत्तों के रस से गीली की हुई सलाई से निकाल-निकाल कर उसके द्वारा लिख दिया कि -- ''प्रिये! यदि तुम मुझे सच्चा अपना स्वामी समझती हो, और पुत्र महाबल ! तुम यदि वास्तव में मुझे अपना पिता समझते हो तो इस पत्र लाने वाले के साथ श्रीमती का ब्याह शीघ्र कर देना । अपने को बड़े भाग्य से ऐसे वर की प्राप्ति हुई है । मैंने इसकी साखें वगैरह सब अच्छे तरह देख ली है । कहीं कोई बाधा नहीं आती है । इस काम के लिए तुम मेरी भी अपेक्षा नहीं करना । कारण, सम्भव है मुझे आने में कुछ विलम्ब हो जाय । फिर ऐसा योग मिलना कठिन है । वर के मान सम्मान में तुम लोग किसी प्रकार की कमी मत रखना । इस प्रकार पत्र लिखकर अनंगसेना ने पहले की तरह उसे धनकीर्ति के गले में बाँध दिया अथवा यों कह लीजिए कि उसने धनकीर्ति को मानो जीवन प्रदान किया । इस के बाद वह अपने घर पर लौट आई । अनंगसेना के चले जाने के बाद धनकीर्ति की भी नींद खुली, वह उठा और श्रीदत्त के घर पहुँचा । उसने पत्र निकाल कर श्रीदत्त की स्त्री के हाथ में सौंपा । पत्र को उसके पुत्र महाबल ने भी पढ़ा । पत्र पढकर उन्हें बहुत खुशी हुई । धनकीर्ति का उन्होने बहुत आदर-सम्मान किया तथा शुभ मुहुर्त में श्रीमती का ब्याह उसके साथ कर दिया । सच कहा है -- सम्भवेत्कृतपुण्यानांमहापायेपिसत्सुखम् । --ब्रह्मनेमिदत्त अर्थात- पुण्यवान जीवों को महासंकट के समय भी जीवन के नष्ट होने के कारणों के मिलने पर भी सुख प्राप्त होता है । यह हाल जब श्रीदत्त को ज्ञात हुआ तो वह घबराकर उसी समय दौड़ा हुआ आया । उसने रास्ते में ही धनकीर्ति को मार डालने की युक्ति सोचकर अपनी नगरी के बाहर पार्वती के मन्दिर में एक मनुष्य को इसलिए नियुक्त कर दिया कि मैं किसी बहाने से धनकीर्ति को रात के समय यहाँ भेजूँगा सो उसे तुम मार डालना । इसके बाद वह अपने घर पर आया और एकान्त में अपने जमाई को बुलाकर उसने कहा - देखो जी, मेरी कुल परम्परा में एक रीति चली आ रही है, उसका पालन तुम्हें भी करना होगा । वह यह है कि नवविवाहित वर रात्रि के आरम्भ में उड़द के आटे के बनाए हुए तोता काक मुर्गा आदि जानवरों को लाल वस्त्र से ढककर और कंकण पहने हुए हाथ में रखकर बड़े आदर के साथ शहर के बाहर पार्वती के मन्दिर में ले जाय और शान्ति के लिए उनकी बली दे । यह सुनकर धनकीर्ति बोला – जैसे आपकी आज्ञा ! मुझे शिरोधार्य है । इसके बाद वह बलि लेकर घर से निकला । शहर के बाहर पहुँचते ही उसे उसका साला महाबल मिला । महाबल ने उससे पूछा क्यों जी ! ऐसे अन्धकार में अकेले कहाँ जा रहे हो उत्तर में धनकीर्ति ने कहा आपके पिताजी की आज्ञा से मैं पार्वती जी के मन्दिर में बलि देने के लिए जा रहा हूँ । यह सुनकर महाबल बोला - आप बलि मुझे दे दीजिए मैं चला जाता हूँ । आपके वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । आप घर पधारिए । धनकीर्ति ने कहा - देखिए, इससे आपके पिताजी बुरा मानेंगे इसलिए आप मुझे ही जाने दीजिए । महाबल ने कहा - नहीं, मुझे बलि देने की सब विधि वगैरह मालूम है, इसलिए मैं ही जाता हूँ यह कहकर उसने धनकीर्ति को तो घर लौटा दिया और आप दुर्गा के मन्दिर आकर काल के घर का पाहुना बना । सचहै - पुण्यवानों के लिए काल रूपी अग्नि जल हो जाती है, समुद्र स्थल हो जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है, विष अमृत के रूप में परिणत हो जाता है, विपत्ति सम्पत्ति हो जाती है और विघ्न डर के मारे नष्ट हो जाते हैं । इसलिए बुद्धिमानों को सदा पुण्य कर्म करते रहना चाहिए । पुण्य उत्पन्न करने के कारण ये हैं – भक्ति से भगवान की पूजा करना, पात्रों को दान देना, व्रत पालना, उपवासादि के द्वारा इंद्रियो को जीतना, ब्रह्मचर्य रखना, दुखियों की सहायता करना, विद्या पढ़ाना, पाठशाला खोलना अर्थात अपने से जहाँ तक बन पड़े तन से, मन से और धन से दूसरों की भलाई करना । अपने पुत्र के मारे जाने की जब श्रीदत्त को खबर हुई तब वह बहुत दुखी हुआ । पर फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ । उसका ह्रदय अब प्रतिहिंसा से और अधिक जल उठा । उसने अपनी स्त्री को एकान्त में बुलाकर कहा - प्रिये, बतलाओ तो हमारे कुल रूपी वृक्ष को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने वाले इस दुष्ट की हत्या कैसे हो ? कैसे यह मारा जा सके ? मैंने इस के मारने को जितने उपाय किये, भाग्य से वे सब व्यर्थ गये और उलटा उनसे मुझे ही अत्यन्त हानि उठानी पड़ी । सो मेरी बुद्धि तो बड़े असमंजस में फँस गई है । देखो कैसे अचंभे की बात है जो इसके मारने के लिए जितने उपाय किये, उन सब से रक्षा पाकर और अपना ही बैरी बना हुआ यह अपने घर में बैठा है । श्रीदत्त की स्त्री ने कहा – बात यह है कि अब आप बूढे हो गये । आपकी बुद्धि अब काम नहीं देती । अब जरा चुप होकर बैठे रहें मैं आपकी इच्छा बहुत जल्दी पूरी करूँगी । यह कहकर उस पापिनी ने दूसरे दिन विष मिले हुए कुछ लडडू बनाये और अपनी पुत्री से कहा – बेटी श्रीमती, देख मैं तो अब स्नान करने को जाती हूँ और तू इतना ध्यान रखना कि ये जो उजले लड्डू हैं; उन्हें तो अपने स्वामी को परोसना और जो मैले हैं, उन्हें अपने पिता को परोसना । यह कहकर श्रीमती की माँ नहाने को चली गई । श्रीमती अपने पिता और पति को भोजन कराने को बैठी । बेचारी श्रीमती भोलीभाली लड़की थी और न उसे अपनी माता का कूट-कपट ही मालूम था । इसलिए उसने अच्छे लड्डू अपने पिता के लिए ही परोसना उचित समझा, जिससे कि उसके पिता को अपने सामने श्रीमती का बरताव बुरा न जान पड़े और यही एक कुलीन कन्या के लिए उचित भी था । क्योंकि अपने माता पिता या बड़ों के सामने ऐसा बेहयापन का काम अच्छी स्त्रियाँ नही करतीं । इसलिये जो लड्डू उसके पति के लिए उसकी माँ ने बनाये थे, उन्हें उसने पिता की थाली मे परोस दिया । सच है --‘‘विचित्राकर्मणांगति:’’ अर्थात् कर्मों की गति विचित्र ही हुआ करती है । विष मिले हुए लड्डुओं के खाते ही श्रीदत्त ने अपने किए कर्म का उपयुक्त प्रायश्चित पा लिया, वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हुआ । ठीक ही कहा है कि पाप कर्म करने वालों का कभी कल्याण नहीं होता । श्रीमती की माँ जब नहाकर लौटी और उसने स्वामी को इस प्रकार मरा पाया तो उसके दु:ख का कोई पार नहीं रहा । वह बहुत विलाप करने लगी – परन्तु अब क्या हो सकता था ! जो दूसरों के लिए कुआँ खेादते हैं, उसमें पहले वे स्वयं ही गिरते हैं, यह संसार का नियम है । श्रीमती की माँ और पिता इसके उदाहरण हैं । इसलिए जो अपना बुरा नहीं चाहते उन्हें दूसरों का बुरा करने का कभी स्वप्न में भी विचार नहीं करना चाहिए । अन्त में श्रीमती की माता ने अपनी पुत्री से कहा – हे पुत्री ! तेरे पिता ने और मैनें निर्दय होकर अपने हाथों ही अपने कुल का सर्वनाश किया । हमने दूसरे का अनिष्ट करने के जितने प्रयत्न किए वे सब व्यर्थ गए और अपने नीच कर्मों का फल भी हमें हाथोंहाथ मिल गया । अब जो तेरे पिताजी की गति हुई, वही मेरे लिए भी इष्ट है । अन्त में मैं तुझे आशीर्वाद देती हूँ कि तू और तेरे पति इस घर में सुख शान्ति से रहें जैसे इन्द्र अपनी प्रिया के साथ रहता है । इतना कहकर उसने भी जहर के लड्डुओं को खा लिया । देखते-देखते उसकी आत्मा भी शरीर को छोड़कर चली गई । ठीक है- दुर्बुद्धियों की ऐसी ही गति हुआ करती है । जो लोग दुष्ट हृदय बनकर दूसरों का बुरा सोचते हैं, उनका बुरा करते हैं, वे स्वयं अपना बुरा कर अन्त में कुगतियों में जाकर अनन्त दुःख उठाते हैं । इस प्रकार धनकीर्ति पुण्य के प्रभाव से अनेक बड़ी-बड़ी आपत्तियों से भी सुरक्षित रहकर सुख पूर्वक जीवनयापन करने लगा । जब महाराज विश्वम्भर को धनकीर्ति के पुण्य, उसकी प्रतिष्ठा तथा गुणशालीनता का परिचय मिला तो वे उससे बहुत खुश हुए और उन्होंने अपनी राजकुमारी का विवाह भी शुभ दिन देखकर बड़े ठाटबाट सहित उसके साथ कर दिया । धनकीर्ति को उन्होंने दहेज में बहुत धन संपत्ति दी, उसका खूब सम्मान किया तथा ‘राज्य’ सेठ के पद भी उसे प्रतिष्ठित किया । इस पर किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि संसार में ऐसी कोई शुभ वस्तु नहीं जो जिनधर्म के प्रभाव से प्राप्त न होती हो । गुणपाल को जब अपने पुत्र का हाल ज्ञात हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। वह उसी समय कौशाम्बी से उज्जयिनी के लिए चला और बहुत शीघ्र अपने पुत्र से आ मिला । सबका फिर पुण्य मिलाप हुआ । धनकीर्ति पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों को भोगता हुआ अपना समय सुख से बिताने लगा । इस से कोई यह न समझ ले कि वह अब दिनरात विषयभोगों में ही फँसा रहता है, नहीं उसका अपने आत्म कल्याण की ओर भी पूरा ध्यान है । वह बड़ी सावधानी के साथ सुख देने वाले जिनधर्म की सेवा करता है, भगवान की प्रतिदिन पूजा करता है, पात्रों को दान देता है, दुखी अनाथों की सहायता करता है, और सदा स्वाध्याय-अध्ययन करता है । मतलब यह कि धर्म-सेवा और परोपकार करना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो गया है । पुण्य के उदय से जो प्राप्त होना चाहिए वह सब धनकीर्ति को इस समय प्राप्त है । इस प्रकार धनकीर्ति ने बहुत दिनों तक खूब सुख भोगा और सब को प्रसन्न रखने की वह सदा चेष्टा करता रहा । एक दिन धनकीर्ति का पिता गुणपाल सेठ अपनी स्त्री पुत्र मित्र बन्धु बान्धव को साथ लिए यशोध्वज मुनिराज को वन्दना करने को गया । भाग्य से अनंगसेना भी इस समय पहुँच गई। संसार का उपकार करने वाले उन मुनिराज की सभी ने बड़ी भक्ति के साथ वन्दना की । इसके बाद गुणपाल ने मुनिराज से पूछा – प्रभो, कृपाकर बतलाइए कि मेरे इस धनकीर्ति पुत्र ने ऐसा कौन महापुण्य पूर्वजन्म में किया है, जिससे इसने इस बाल्पन में ही भयंकर से भयंकर कष्टों पर विजय प्राप्त कर बहुत कीर्ति कमाई, खूब धन कमाया और अच्छे-अच्छे पवित्र काम किये, सुख भोगा और यह बड़ा ज्ञानी हुआ, दानी हुआ तथा दयालु हुआ । भगवन, इन सब बातों को मैं सुनना चाहता हूँ । करूणा के समुद्र और चार ज्ञान के धारी यशोध्वज मुनिराज ने मृगसेन धीवर के अहिंसाव्रत ग्रहण करने, जाल में एक ही एक मच्छ के बारबार आने, घर पर सूने हाथ लौट आने, स्त्री के नाराज हो कर घर में न आने देने आदि की सब कथा गुणपाल से कहकर कहा – वह मृगसेन जो अहिंसा व्रत के प्रभाव से यह धनकीर्ति हुआ, जो कि सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति का मालिक और महाभव्य है; और मृगसेन की जो घण्टा नाम की स्त्री थी, वह निदान करके इस जन्म में भी धनकीर्ति की श्रीमती नाम की गुणवती स्त्री हुई है और जो मच्छ पाँच बार पकड़ कर छोड दिया गया था, वह यह अनंगसेना हुई, जिसने कि धनकीर्ति को जीवनदान देकर अत्यन्त उपकार किया है, सेठ महाशय यह सब एक अहिंसाव्रत के धारण करने का फल है । और परम अहिंसामयी जिनधर्म के प्रसाद से सज्जनों को क्या प्राप्त नहीं होता ! मुनिराज के द्वारा इस सुखदायी कथा को सुनकर सब ही बहुत प्रसन्न हुए । जिनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई। अपने पूर्वभव का हाल सुनकर धनकीर्ति श्रीमती और अनंगसेना को जातिस्मरण हो गया । उससे उन्हें संसार की क्षणस्थायी दशा पर बड़ा वैराग्य हुआ । धर्मा-धर्म का फल भी उन्हें जान पड़ा । उनमें धनकीर्ति ने तो, जिसका कि सुयश सारे संसार में विस्तृत है, यशोध्वज मुनिराज के पास ही एक दूसरे मोहपाश की तरह जान पड़नेवाले अपने केश कलाप को हाथों से उखाड़कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली जो कि संसार के जीवों का उद्धार करने वाली है । साधु हो जाने के बाद धनकीर्ति ने खूब निर्दोष तपस्या की, अनेक जीवों को कल्याण के मार्ग पर लगाया, जिनधर्म की प्रभावना की, पवित्र रत्नत्रय प्राप्त किया और अन्त में समाधि सहित मरकर सवार्थसिद्धि का श्रेष्ठ सुखलाभ किया । धनकीर्ति आगे केवली होकर मुक्ति प्राप्त करेगा । और ऋषियों ने भी अहिंसाव्रत का फल लिखते समय धनकीर्ति की प्रशंसा में लिखा है – धनकीर्ति ने पूर्वभव में एक मच्छ को पाँच बार छोड़ा था उसके फल से वह स्वर्गीय श्री का स्वामी हुआ । इसलिए आत्महित की इच्छा करनेवालों को यह व्रत मन, वचन, काय की पवित्रता पूर्वक निरन्तर पालते रहना चाहिए । धनकीर्ति को दीक्षित हुआ देखकर श्रीमती और अनंगसेना ने भी ह्रदय से विषय वासना को दूरकर अपने योग्य जिनदीक्षा ग्रहण कर ली जो कि सब दु:खों का नाश करनेवाली है । इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर उन दोनों ने भी मृत्यु के अन्त में स्वर्ग प्राप्त किया । सच है -- जिनशासन की आराधना कर किस किस ने सुख प्राप्त न किया ! अर्थात जिसने जिनधर्म ग्रहण किया उसे नियम से सुख मिला है । इसप्रकार मुझ अल्पबुद्धि ने धर्मप्रेम के वश हो यह अहिंसाव्रत की पवित्रकथा जैनशास्त्र के अनुसार लिखी है । यह सब सुखों की देने वाली माता है और विघ्नों को नाश करने वाली है । इसे आप लोग ह्रदय में धारण करें । वह इसलिए कि इसके द्वारा आपको शान्ति प्राप्त होगी । मूलसंघ के प्रधान प्रवर्तक श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में मल्लिभूषण गुरू हुए । वे ज्ञान के समुद्र थे । उनके शिष्य श्रीसिंहनन्दीमुनि हुए । वे बड़े आध्यात्मिक विद्वान् थे । उन्हें अच्छे-अच्छे परमार्थवित्-अध्यात्म शास्त्र के जानकार विद्वान नमस्कार करते थे । वे सिंहनन्दी मुनि आप के लिए संसार-समुद्र से पार करने वाले होकर संसार में चिरकाल तक बढ़ें । उनका यश:शरीर बहुत समय तक प्रकाशित रहे । |