+ वसुराजा की कथा -
वसुराजा की कथा

  कथा 

कथा :

संसार के बन्धु और देवों द्वारा पूज्य श्रीजिनेन्द्र को नमस्कार कर झूठ बोलने से नष्ट होने वाले वसुराजा का चरित्र मैं लिखता हूँ ।

स्वस्तिकावती नाम की एक सुन्दर नगरी थी । उसके राजा का नाम विश्वावसु था । विश्वावसु की रानी श्रीमती थी । उसके एक वसु नाम का पुत्र था । वहीं एक क्षीरकदम्ब उपाध्याय रहता था । वह बड़ा सुचरित्र और सरल स्वभावी था । जिनभगवान का वह भक्त था और होम, शान्ति-विधान आदि जैन क्रियाओं द्वारा गृहस्थों के लिए शान्ति-सुखार्थ अनुष्ठान करना उसका काम था । उसकी स्त्री का नाम स्वस्तिमती था । उसके पर्वत नाम का एक पुत्र था । भाग्य से वह पापी और दुर्व्यसनी हुआ । कर्मों की कैसी विचित्र स्थिति है जो पिता तो कितना धर्मात्मा और सरल, और उसका पुत्र दुराचारी । इसी समय एक विदेशी ब्राह्मण नारद, जो कि निरभिमानी और सच्चा जिनभक्त था, क्षीरकदम्ब के पास पढने के लिए आया । राजकुमार वसु, पर्वत और नारद ये तीनों साथ पढने लगे ।

वसु और नारद की बुद्धि अच्छी थी, सो वे तो थोड़े ही समय में अच्छे विद्वान हो गये । रहा पर्वत सो एक तो उसकी बुद्धि ही खराब, उस पर पाप के उदय से उसे कुछ नहीं आता जाता था । अपने पुत्र की यह हालत देखकर उसको माता ने एक दिन अपने पति से गुस्सा होकर कहा – जान पड़ता है, आप बाहर के लड़कों को तो अच्छी तरह पढ़ाते हैं और खास अपने पुत्र पर आपका ध्यान नहीं है, उसे आप अच्छी तरह नहीं पढ़ाते । इसीलिए उसे इतने दिन तक पढते रहने पर भी कुछ नहीं आया । क्षीरकदम्ब ने कहा - इस में मेरा कुछ दोष नहीं है, मैं तो सब के साथ एक ही सा श्रम करता हूँ । तुम्हारा पुत्र ही मूर्ख है, पापी है, वह कुछ समझता ही नहीं । बोलो, अब इस के लिए मैं क्या करूँ ? स्वस्तिमती को इस बात पर विश्वास हो, इसलिए उसने तीनों शिष्यों को बुलाकर कहा - पुत्रो, देखो तुम्हें यह एक-एक पाई दी जाती है, इसे लेकर तुम बाजार जाओ; और अपने बुद्धिबल से इसके द्वारा चने लेकर खा आओ और पाई पीछी वापिस भी लौटा लाओ । तीनों गये । उनमें पर्वत एक जगह से चने मोल लेकर और वहीं खा पीकर सूने हाथ घर लौट आया । अब रहे वसु और नारद, सो इन्होंने पहले तो चने मोल लिये और फिर उन्हें इधर-उधर घूमकर बेचा, जब उनकी पाई वसूल हो गई तब बाकी बचे चनों को खाकर वे आये । आकर उन्होंने गुरूजी की अमानत उन्हें वापिस सौंप दी । इसके बाद क्षीरकदम्ब ने एक दिन तीनों को आटे के बने हुए तीन बकरे देकर उनसे कहा - देखो, इन्हें ले जाकर और जहाँ कोई न देख पाये ऐसे एकान्त स्थान में इनके कानों को छेद लाओ । गुरू की आज्ञानुसार तीनों फिर इस नये काम के लिए गये । पर्वत ने तो एक जंगल में जाकर बकरे का कान छेद डाला । वसु और नारद बहुत जगह गये सर्वत्र उन्होंने एकान्त स्थान ढूँढ डाला, पर उन्हें कहीं उनके मन लायक स्थान नहीं मिला । अथवा यों कहिए कि उनके विचारानुसार एकान्त स्थान कोई था ही नहीं वे जहाँ पहुँचते और मन में विचार करते वहीं उन्हें चन्द्र, सूर्य, तारा, देव, व्यन्तर, पशु, पक्षी और अवधिज्ञानी मुनि आदि जान पड़ते । वे उस समय यह विचार कर कि ऐसा कोई स्थान ही नहीं है, जहाँ कोई न देखता हो, वापिस घर लौट आये । उन्होंने उन बकरों के कानों को नहीं छेदा आकर उन्होनें गुरूजी को नमस्कार किया और अपना सब हाल उन से कह सुनाया सच है बुद्धि कर्म के अनुसार ही हुआ करती है । उनकी बुद्धि की इस प्रकार चतुरता देखकर उपाध्याय जी ने अपनी प्रिया से कहा - क्यों ! देखी सबकी बुद्धि और चतुरता ? अब कहो, दोष मेरा या पर्वत के भाग्य का ?

एक दिन की बात है कि वसु से कोई ऐसा अपराध बन गया, जिससे उपाध्याय ने उसे बहुत मारा । उस समय स्वस्तिमती ने बीच में पड़कर वसु को बचा लिया । वसु ने अपनी बचाने वाली गुरूमाता से कहा - माता, तुमने मुझे बचाया इससे मैं बड़ा उपकृत हुआ । कहो तुम्हें क्या चाहिए ? वही लाकर मैं तुम्हें प्रदान करूँगा स्वस्तिमती ने उत्तर में राजकुमार से कहा - पुत्र, इस समय तो मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, पर जब होगी तब मागूँगी तू मेरे इस वर को अभी अपने ही पास रख ।

एक दिन क्षीरकदम्ब के मन में प्रकृति की शोभा देखने के लिए उत्कंठा हुई । वह अपने साथ तीनों शिष्यों को भी इसलिए ले गये कि उन्हें वहीं पाठ भी पढ़ा दूँगा । वह एक सुन्दर बगीचे में पहुँचा । वहाँ कोई अच्छा पवित्र स्थान देखकर वह अपने शिष्यों को बृहदारण्य का पाठ पढ़ाने लगा । वहीं और दो ऋद्धिधारी महामुनि स्वाध्याय कर रहे थे । उनमें से छोटे मुनि ने क्षीरकदम्ब को पाठ पढ़ाते देखकर बड़े मुनिराज से कहा - प्रभो, देखिए कैसे पवित्र स्थान में उपाध्याय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा है । गुरू ने कहा - अच्छा है, पर देखो इनमें से दो तो पुण्यात्मा हैं और वे स्वर्ग में जायेंगे और दो पाप के उदय से नर्कों के दु:ख सहेंगे । सच है -

कर्मों के उदय से जीवों को सुख या दु:ख भोगना ही पड़ता है । मुनि के वचन क्षीरकदम्ब ने सुन लिए वह अपने विद्यार्थियों को घर भेजकर मुनिराज के पास गया । उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा - हे भगवान, हे जैन सिद्धान्त के उत्तम विद्वान, कृपाकर मुझे कहिए कि हममें से कौन दो तो स्वर्ग जाकर सुखी होंगे और कौन दो नर्क जायेंगें । काम के शत्रु मुनिराज ने क्षीरकदम्ब से कहा - भव्य, स्वर्ग जाने वालो में एक तो तू जिनभक्त और दूसरा धर्मात्मा नारद है और वसु तथा पर्वत पाप के उदय से नर्क जायेंगें । क्षीरकदम्ब मुनिराज को नमस्कार कर अपने घर आया । उसे इस बात का बड़ा दु:ख हुआ कि उसका पुत्र नरक में जायगा । क्योंकि मुनियों का कहा अनन्त काल में भी झूठा नहीं होता ।

एक दिन कोई ऐसा कारण दिख पड़ा, जिससे वसु के पिता विश्वावसु अपना राजकाज वसु को सौंपकर आप साधु हो गये । राज्य अब वसु करने लगा । एक दिन वसु वन विहार के लिए उपवन में गया हुआ था । वहाँ उसने आकाश से लुढ़ककर गिरते हुए एक पक्षी को देखा । देखकर उसे आश्चर्य हुआ । उसने सोचा पक्षी के लुढ़कते हुए गिरने का कोई कारण यहाँ अवश्य होना चाहिए । उसको शोध लगाने को जिधर से पक्षी गिरा था उधर ही लक्ष्य बाँधकर उसने बाण छोड़ा । उसका लक्ष्य व्यर्थ न गया । यद्यपि उसे ये नहीं जान पड़ा कि क्या गिरा, पर इतना विश्वास हो गया कि उसके बाण के साथ ही कोई भारी वस्तु गिरी जरूर है । जिधर से किसी वस्तु के गिरने की आवाज उसे सुन पड़ी थी वह उधर ही गया पर तब भी उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ा । यह देख उसने उस भाग को हाथों से टटोलना शुरू किया । हस्तस्पर्श से उसे एक बहुत निर्मल खम्भा, जो कि स्फटिकमणि का बना था जान पड़ा । बसु राजा उसे गुप्त रीति से अपने महल पर ले आया । वसु ने उस खम्भे के चार पाये बनवाये और उन्‍हें अपने न्याय-सिंहासन के लगवा दिये । उन पायों के लगने से सिंहासन ऐसा जान पड़ने लगा मानों वह आकाश में ठहरा हुआ हो । धूर्त वसु अब उसी पर बैठकर राज्यशासन करने लगा उसने सब जगह यह प्रगट कर दिया कि ‘राजा वसु बड़ा ही सत्यवादी है, उसकी सत्यता के प्रभाव से उसका न्याय-सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है’ । इस प्रकार कपट की आड़ में वह सर्वसाधारण के बहुत ही आदर का पात्र हो गया । सच है - मायावी पुरूष संसार में क्या ठगाई नहीं करते! इधर सम्यग्दृष्टि जिनभक्त क्षीरकदम्ब संसार से विरक्त होकर तपस्वी हो गया और अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या कर अन्त में समाधिमरण द्वारा उसने स्वर्ग लाभ किया । पिता का उपाध्याय पद अब पर्वत को मिला । पर्वत को जितनी बुद्धि थी, जितना ज्ञान था, उसके अनुकूल वह पिता के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगा । उसी वृत्ति के द्वारा उसका निर्वाह होता था । क्षीरकदम्ब के साधु हुए बाद ही नारद भी वहाँ से कहीं अन्यत्र चल दिया । वर्षों तक नारद विदेशों में घूमा । घूमते फिरते वह फिर भी एक बार स्वस्तिपुरी की ओर आ निकला । वह अपने सहाध्यायी और गुरू-पुत्र पर्वत से मिलने को गया । पर्वत उस समय अपने शिष्यों को पढ़ा रहा था । साधारण कुशल प्रश्न के बाद नारद वहीं बैठ गया और पर्वत का अध्यापन कार्य देखने लगा । प्रकरण कर्मकाण्ड का था । वहाँ एक श्रुति थी – ‘अज्जैर्यष्टव्यमिति ।‘ दुराग्रही पापी पर्वत ने उसका अर्थ किया कि ‘अजैश्छागै:प्रयष्टव्यमिति’ अर्थात् बकरों की बलि देकर होम करना चाहिए । उसमें बाधा देकर नारद ने कहा - नहीं इस श्रुति का यह अर्थ नहीं है । गुरूजी ने तो हमें इसका अर्थ बतलाया था कि ‘अजैस्त्रिवार्षिकैर्धान्यै:प्रयष्टव्यम्’ अर्थात् तीन वर्ष के पुराने धान से जिसमें उत्पन्न होने की शक्ति न हो, होम करना चाहिए । पापी, तू यह क्या अनर्थ करता है जो उल्टा ही अर्थ कर दिया ? उस पर पापी पर्वत ने दुराग्रह के वश हो यही कहा कि नहीं तुम्हारा कहना सर्वथा मिथ्या है । असल में अज शब्द का अर्थ बकरा ही होता है और उसी से होम करना चाहिए । ठीक कहा है - जिसे दुर्गति में जाना होता है वही पुरूष जानकर भी ऐसा झूठ बोलता है ।

तब दोनों में सच्चा कौन है, इसके निर्णय के लिए उन्होंने राजा वसु को मध्यस्थ चुना । उन्होंने परस्पर में प्रतिज्ञा की कि जिसका कहना झूठ हो उसकी जबान काट दी जाय । पर्वत की माँ को जब इस विवाद का और परस्पर की प्रतिज्ञा का हाल मालूम हुआ तब उसने पर्वत को बुलाकर बहुत डाँटा और गुस्से में आकर कहा - पापी, तूने यह क्या अनर्थ किया ? क्यों उस श्रुति का उलटा अर्थ किया तुझे नहीं मालूम कि तेरा पिता जैन धर्म का पूर्ण श्रद्धानी था और वह ‘अजैर्यष्टव्यम्’ इसका अर्थ तीन वर्ष के पुराने धान से होम करने को कहता था । और स्वयं भी वह पुराने धान ही से सदा होमादिक किया करता था । स्वस्तिमती ने उसे और भी बहुत फटकारा पर उसका फल कुछ नहीं निकला पर्वत अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ बना रहा । पुत्र का इस प्रकार दुराग्रह देखकर वह अधीर हो उठी । एक ओर पुत्र के अन्याय पक्ष का समर्थन होकर सत्य की हत्या होती है और दूसरी ओर पुत्र-प्रेम उसे अपने कर्तव्य से विचलित करता है । अब वह क्या करे ? पुत्र-प्रेम में फँसकर सत्य की हत्या करे या उसकी रक्षा कर अपना कर्तव्य पालन करे ? वह बड़े संकट में पड़ी । आखिर दोनो शक्तियों-का युद्ध होकर पुत्र-प्रेम ने विजय प्राप्त कर उसे अपने कर्तव्य पथ से गिरा दिया, सत्य की हत्या करने को उसे सन्नद्ध किया । वह उसी समय वसु के पास पहुँची और उससे बोली - पुत्र, तुम्हें ! याद होगा कि मेरा एक वर तुमसे पाना बाकी है । आज उसकी मुझे जरूरत पड़ी है । इसलिए अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह कर मुझे कृतार्थ करो । बात यह है पर्वत और नारद का किसी विषय पर झगडा हो गया है । उसके निर्णय के लिए उन्होने तुम्हें मध्यस्थ चुना है । इसलिये मैं तुम्हें कहने को आई हूँ कि तुम पर्वत के पक्ष का समर्थन करना । सच है -

जो स्वयं पापी होते हैं वे दूसरो को भी बना डालते हैं । जैसे सर्प स्वयं जहरीला होता है और जिसे काटता है उसे भी विषयुक्त कर देता है । पापियों का यह स्वभाव ही होता है ।

राजसभा लगी हुई थी । बड़े-बड़े कर्मचारी यथास्थान बैठे हुए थे । राजा वसु भी एक बहुत सुन्दर रत्न-जड़े सिंहासन पर बैठा हुआ था । इतने में पर्वत और नारद अपना न्याय कराने के लिए राजसभा में आये । दोनों ने अपना-अपना कथन सुनाकर अन्त में किसका कहना सत्य है और गुरूजी ने अपने को ‘अजैर्यष्टिव्यम्’ इसका क्या अर्थ समझाया था, इसका खुलासा करने का भार वसु पर छोड़ दिया । वसु उक्त वाक्य का ठीक अर्थ जानता था और यदि वह चाहता तो सत्य की रक्षा कर सकता था, पर उसे अपनी गुराणी जी के माँगे हुए वर ने सत्यमार्ग से ढकेलकर आग्रही और पक्षपाती बना दिया । मिथ्या आग्रह के वश हो उसने अपनी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा की कुछ परवा न कर नारद के विरूद्ध फैसला दिया । उसने कहा कि जो पर्वत कहता है वही सत्य है और गुरुजी ने हमें ऐसा ही समझाया था कि ‘अजैर्यष्ट्व्यम्’ इसका अर्थ बकरों को मारकर उनसे होम करना चाहिये । प्रकृति को उसका यह महा अन्याय सहन नहीं हुआ । उसका परिणाम यह हुआ कि राजा वसु जिस स्फटिक के सिंहासन पर बैठकर प्रति-दिन राजकार्य करता था और लोगों को यह कहा करता था कि मेरे सत्य के प्रभाव से मेरा सिंहासन आकाश में ठहरा हुआ है, वही सिंहासन वसु की असत्यता से टूट पड़ा और पृथ्वी में घुस गया । उसके साथ ही वसु भी पृथ्वी में जा धँसा । यह देख नारद ने उसे समझाया - महाराज, अब भी सत्य-सत्य कह दीजिए, गुरूजी ने जैसा अर्थ कहा था वह प्रकट कर दीजिए । अभी कुछ नहीं गया । सत्यव्रत आपकी इस संकट से अवश्य रक्षा करेगा । कुगति में व्यर्थ अपने आत्मा को न ले जाइए । अपनी इस दुर्दशा पर भी वसु को दया नहीं आई । वह और जोश में आकार बोला - नहीं , जो पर्वत कहता है वही सत्य है । उसका इतना कहना था कि उसके पाप के उदय ने उसे पृथ्वीतल में पहुँचा दिया । वसु काल के सुपुर्द हुआ । मरकर वह सातवे नरक गया । सच है जिनका हृदय दुष्ट और पापी होता है । उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । और पाप से बचना चाहते हैं उन्हें प्राणों पर कष्ट आने पर भी कभी झूठ न बोलना चाहिए । पर्वत की यह दुष्टता देखकर प्रजा के लोगों ने उसे गधे पर बैठाकर शहर से निकाल बाहर किया और नारद का बहुत आदर-सत्कार किया ।

नारद अब वहीं रहने लगा । वह बड़ा बुद्धिमान और धर्मात्मा था । सब शास्त्रों में उसकी गति थी । वह वहाँ रहकर लोगों को धर्म का उपदेश दिया करता, भगवान की पूजा करता, पात्रों को दान देता । उसकी यह धर्म परायणता देखकर वसु के बाद राज्य-सिंहासन पर बैठने वाला राजा उस पर बहुत खुश हुआ । उस खुशी में उसने नारद को गिरितट नामक नगरी का राज्य भेंट में दे दिया । नारद ने बहुत समय तक उस राज्य का सुख भोगा । अन्त में संसार से उदासीन होकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । मुनि होकर उसने जीवों को कल्याण के मार्ग में लगाया और तपस्या द्वारा पवित्र रत्नत्रय की आराधना कर आयु के अन्त में वह सर्वार्थसिद्धि गया, जो कि सर्वोत्तम सुख का स्थान है । सच है, जैनधर्म की कृपा से भव्य पुरूषों को क्या प्राप्त नहीं होता ?

निरभिमानी नारद अपने धर्म पर बड़ा दृढ़ था । उसने समय-समय पर और-और धर्मवालों के साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर जैनधर्म की खूब प्रभावना की । वह जिनशासन रूप महान् समुद्र के बढ़ानेवाला चन्द्रमा था । ब्राह्मण वंश का एक चमकता हुआ रत्न था । अपनी सत्यता के प्रभाव से उसने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी । अन्त में वह तपस्या कर सर्वाथसिद्धि गया । वह महात्मा नारद सबका कल्याण करे ।