
कथा :
जिन्हें स्वर्ग के देवता बड़ी भक्ति के साथ पूजते हैं, उन सुख के देने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर मैं श्रीभूति-पूरोहित का उपाख्यान कहता हूँ, जो चोरी करके दुर्गति में गया है । सिंहपुर नामक एक सुन्दर नगर था उसका राजा सिंहसेन था । सिंहसेन की रानी का नाम रामदत्ता था । राजा बुद्धिमान् और धर्म परायण था । रानी भी बड़ी चतुर थी । सब कामों को वह उत्तमता के साथ करती थी । राज का पुरोहित श्रीभूति था । उसने मायाचारी से अपने सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध कर रक्खी थी कि मैं बड़ा सत्य बोलने वाला हूँ । बेचारे भोले लोग उस कपटी के विश्वास में आकर अनेक बार ठगे जाते थे । पर उसके कपट का पता किसी को नहीं पड़ पाता था । ऐसे ही एक दिन एक विदेशी उसके चंगुल में आ फँसा । इसका नाम समुद्रद्रत्त था । यह पद्मखण्डपुर का रहने वाला था । इसके पिता सुमित्र और माता सुमित्रा थी । समुद्रद्रत्त की इच्छा एक दिन व्यापारार्थ विदेश जाने की हुई । इसके पास पाँच बहुत कीमती रत्न थे । पद्मखण्डपुर में कोई ऐसा विश्वस्त पुरूष इसके ध्यान में नहीं आया, जिसके पास यह अपने रत्नों को रखकर निश्चिंत हो सकता था । इसने श्रीभूति की प्रसिद्धि सुन रक्खी थी । इसलिए उसके पास रत्न रखने का विचार कर यह सिहंपुर आया । यहाँ श्रीभूति से मिलकर इसने अपना विचार उसे कह सुनाया । श्रीभूति ने इसके रत्नों का रखना स्वीकार कर लिया । समुद्रदत्त को इससे बड़ी खुशी हुई और साथ ही वह उन रत्नों को श्रीभूति को सौंपकर आप रत्नद्वीप के लिए रवाना हो गया । वहाँ कई दिनों तक ठहरकर इसने बहुत धन कमाया । जब यह वापिस लौटकर जहाज द्वारा अपने देश की ओर आ रहा था । तब पाप कर्म के उदय से इसका जहाज टकराकर फट गया । बहुत से आदमी डूब मरे । बहुत ठीक लिखा है, कि बिना पुण्य के कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । समुद्रदत्त इस समय भाग्य से मरते-मरते बच गया । इसके हाथ जहाज का एक छोटा सा टुकड़ा लग गया । यह उसपर बैठकर बड़ी कठिनता के साथ किसी तरह राम-राम करता किनारे आ लगा । यहां से यह सीधा श्रीभूति पुरोहित के पास पहुंचा । श्रीभूति इसे दूर से देखकर ही पहचान गया । वह धूर्त तो था ही, सो उसने अपने आस-पास के बैठे हुए लोगों से कहा - देखिये, वह कोई दरिद्र, भिखमंगा आ रहा है । अब यहां आकर व्यर्थ सिर खाने लगेगा । जिनके पास थोड़ा बहुत पैसा होता है या जिनके मान मर्यादा लोगों में अधिक होती है तो उन्हें इन भिखारियों के मारे चैन नहीं । एक न एक हर समय सिर पर खड़ा ही रहता है । हम लोगों ने जो सुना था कि कल एक जहाज फटकर डूब गया है, मालूम होता है कि यह उसी पर का कोई यात्री है और इसका सब धन नष्ट हो जाने से यह पागल हो गया जान पड़ता है । इसकी दुर्दशा से ज्ञात होता है कि यह इस समय बड़ा दुखी है और इसी से संभव है कि यह मुझ से कोई बड़ी भारी याचना करे । श्रीभूति तो इस तरह लोगों को कह ही रहा था कि समुद्रदत्त उसके सामने जा खड़ा हुआ । वह श्रीभूति को नमस्कार कर अपनी हालत सुनाना आरम्भ करता है कि इतने में श्रीभूति बोल उठा कि मुझे इतना समय नहीं कि मैं तुम्हारी सारी दुख: कथा सुनूँ । हाँ तुम्हारी इस हालत से जान पड़ता है कि तुम पर कोई बड़ी भारी आफत आई है । अस्तु, मुझे तुम्हारे दु:ख में सम्वेदना है । अच्छा जाइये, मैं नौकरों से कहे देता हूँ, कि वे तुम्हें कुछ दिनों के लिए खाने का सामान दिलवा दें । यह कहकर ही उसने नौकरों की ओर मुँह फेरा और आठ दिन तक का खाने का सामान समुद्रदत्त को दिलवा देने के लिए उनसे कह दिया । बेचारा समुद्रदत्त तो श्रीभूति की बातें सुनकर हत-बुद्धि हो गया । उसे काटो तो खून नहीं । उसने घबराते-घबराते कहा - महाराज, आप यह क्या करते हैं ? मेरे जो आपके पास पाँच रत्न रखे हैं, मुझे तो वे ही दीजिए । मैं आपका सामान-वामान नहीं लेता । श्रीभूति ने रत्न का नाम सुनते ही अपने चेहरे पर का भाव बदला और त्यौरी चढ़ाकर जोर के साथ कहा - रत्न ! अरे दरिद्र ! तेरे रत्न और मेरे पास ? यह तू क्या बक रहा है ? कह तो सही वास्तव में तेरी मंशा क्या है ? क्या मुझे तू बदनाम करना चाहता है ? तू कौन, और कहाँ का रहने वाला है ? मैं तुझे जानता तक नहीं फिर तेरे रत्न मेरे पास आये कहाँ से ? जा-जा, पागल तो नहीं हो गया है ? ठीक ध्यान से विचारकर । किसी और के यहाँ रखकर उसके भ्रम से मेरे पास आ गया जान पड़ता है । इसके बाद ही उसने लोगों की ओर नजर फेरकर कहा - देखिये साहब, मैंने कहा था न कि यह मेरे से कोई बड़ी भारी याचना न करे तो अच्छा । ठीक वही हुआ । बतलाइए इस दरिद्र के पास रत्न आ कहाँ से सकते हैं ? धन नष्ट हो जाने से जान पड़ता है यह बहक गया है । यह कहकर श्रीभूति ने नौकरों द्वारा समुद्रदत्त को घर से बाहर निकलवा दिया । नीतिकार ने ठीक लिखा है – जो लोग पापी होते हैं और जिन्हें दूसरों के धन की चाह होती है, वे दुष्ट पुरूष ऐसा कौन बुरा काम है, जिसे लोभ के वश हो न करते हों ? श्रीभूति ऐसे ही पापियों से एक था, तब वह कैसे ऐसे निंद्य कर्म से बचा रह सकता था ? पापी श्रीभूति से ठगा जाकर बेचारा समुद्रदत्त सचमुच पागल हो गया । वह श्रीभूति के मकान से निकलते ही यह चिल्लाता हुआ, कि पापी श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता है, सारे शहर में घूमने लगा । पर उसे एक भिखारी के वेश में देखकर किसी ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया । उलटा उसे ही सब पागल बताने लगे । समुद्रदत्त दिनभर तो इस तरह चिल्लाता हुआ सारे शहर में घूमता फिरता और जब रात होती तब राजमहल के पीछे एक वृक्ष पर चढ़ जाता और सारी रात उसी तरह चिल्लाया करता । ऐसा करते-करते उसे कोई छह महिने बीत गये । समुद्रदत्त का इस तरह रोज-रोज चिल्लाना सुनकर एक दिन महारानी रामदत्ता ने सोचा कि बात वास्तव में क्या है, इसका पता जरूर लगाना चाहिये । तब एक दिन उसने अपने स्वामी से कहा - प्राणनाथ, मैं रोज एक गरीब की पुकार सुनती हूँ मैं आज तक तो यह समझती रही कि वह पागल हो गया है और इसी से दिनरात चिल्लाया करता है कि श्रीभूति मेरे रत्न नहीं देता पर प्रतिदिन उसके मुँह से एक ही वाक्य सुनकर मेरे मन में कुछ खटका पैदा होता है । इसलिए आप उसे बुलाकर पूछिये तो कि वास्तव में रहस्य क्या है ? रानी के कहे अनुसार राजा ने समुद्रदत्त को बुलाकर सब बातें पूछीं । समुद्रदत्त ने जो यथार्थ घटना थी वह राजा से कह सुनाई । सुनकर राजा ने रानी से कहा कि इसके चेहरे पर से तो इसकी बात ठीक जँचती है । पर इसका भेद खुलने के लिए क्या उपाय है ? रानी ने थोड़ी देरतक विचारकर कहा - हाँ, इसकी आप चिन्ता न करें । मैं सब बातें जान लूँगी । दूसरे दिन रानी ने पुरोहित को अपने अन्त:पुर में बुलाया । आदर सत्कार होने के बाद रानी ने उन से कहा – मेरी इच्छा बहुत दिनों से आप से मिलने की थी, पर कोई ठीक समय ही नहीं मिल पाया था । आज बड़ी खुशी हुई कि आपने यहाँ आने की कृपा की । इसके बाद रानी ने पुरोहित से कुछ इधर-उधर की बातें कर के उन से भोजन का हाल पूछा । उनके भोजन का सब हाल जानकर उसने अपनी एक विश्वस्त दासी को बुलाया और उसे कुछ बातें समझा बुझाकर पीछे चली जाने को कह दिया । दासी के जाने के बाद रानी ने पुरोहित जी से एक नई ही बात का जिकर उठाया । वह बोली - पुरोहित जी, सुनती हूँ कि आप पासे खेलने में बड़े चतुर और बुद्धिमान हैं । मेरी बहुत दिनों से इच्छा होती थी कि आपके साथ खेलकर मैं भी एक बार देखूँ कि आप किस चतुराई से खेलते हैं । यह कहकर रानी ने एक दासी को बुलाकर चौपड़ के ले आने की आज्ञा की । पुरोहित जी रानी की बात सुनकर दंग रह गये । वे घबराकर बोले हैं ! हैं ! महारानी जी यह आप क्या करती हैं ? मैं एक भिक्षुक ब्राह्मण और आपके साथ मेरी यह धृष्टता । यदि महाराज सुन पावें तो वे मेरी क्या गत बनावेगें ? रानी ने कहा - पुरोहितजी, आप इतना घबराइए मत मेरे साथ खेलने में आपको किसी प्रकार के गहरे विचार में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं । महाराज इस विषय में आपसे कुछ नही कहेंगे आप डरिये मत । बेचारे पुरोहितजी बड़े पशोपेश में पड़े । रानी की आज्ञा भी वे नहीं टाल सकते और इधर महाराज का उन्हें भय, वे तो इस उधेड़-बुन में लगे हुए थे कि दासी ने चौपड़ लाकर रानी के सामने रख दी । आखिर उन्हें खेलना ही पड़ा । रानी ने पहली बाजी में पुरोहितजी की अँगूठी जिस पर कि उसका नाम खुदा हुआ था, जीत ली । दोनों फिर खेलने लगे । इतने में पहली दासी ने आकर रानी से कुछ कहा । रानी ने अब की बार पुरोहित जी की जीती हुई अँगूठी चुपके से उसे देकर चली जाने को कह दिया । दासी घण्टेभर बाद फिर आई । उसे कुछ निराश सी देखकर रानी ने इशारे से अपने कमरे के बाहर ही रहने को कह दिया और आप अपने खेल में लग गई । अबकी बार उसने पुरोहितजी का जनेऊ जीत लिया और किसी बहाने से उस दासी को बुलाकर चुपके से जनेऊ देकर भेज दिया । दासी के वापिस आने तक रानी और भी पुरोहितजी को खेल में लगाये रही । इतने में दासी भी आ गई । उसने उसी समय खेल बन्द किया और पुरोहितजी की अँगूठी और जनेऊ उन्हें वापिस देकर वह बोली – आप सचमुच खेलने में बड़े चतुर हैं आपकी चतुरता देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई । आज मैंने सिर्फ इस चतुरता को देखने के लिए ही आपको यह कष्ट दिया था । आप इसके लिए मुझे क्षमा करें । अब आप खुशी के साथ जा सकते हैं । बेचारे पुरोहितजी रानी के महल से विदा हुए । उन्हें इसका कुछ भी पता नहीं पड़ा कि रानी ने मेरी आँखों में दिनदहाड़े धूल झोंककर मुझे कैसा उल्लू बनाया है । बात असल में यह थी कि रानी ने पहले पुरोहितजी की जीती हुई अँगूठी देकर दासी को उनकी स्त्री के पास समुद्रदत्त के रत्न लेने को भेजा, पर जब पुरोहितजी की स्त्री ने अँगूठी देखकर भी उसे रत्न नहीं दिये तब यज्ञोपवीत जीता और उसे दासी के हाथ देकर फिर भेजा । अबकी बार रानी का मनोरथ सिद्ध हुआ । पुरोहितजी की स्त्री ने दासी की बातों से डरकर झटपट रत्नों को निकाल दासी के हवाले कर दिया । दासी ने लाकर रत्नों को रानी को दे दिये । रानी प्रसन्न हुई पुरोहितजी तो खेलते रहे और उधर उनका भाग्य फूट गया, इसकी उन्हें रत्तीभर भी खबर नहीं पड़ी । रानी ने रत्नों को ले जाकर महाराज के सामने रख दिये और साथ ही पुरोहितजी के महल से रवाना होने की खबर दी । महाराज ने उसी समय उनके गिरफ्तार करने की सिपाहियों को आज्ञा दी । बेचारे पुरोहित जी अभी महल के बाहर भी नहीं हुए थे कि सिपाहियों ने जाकर उनके हाथों में हथकड़ी डाल दी और उन्हें दरबार में लाकर उपस्थित कर दिया । पुरोहितजी यह देखकर भौंचक से रह गये । उनकी समझ में नहीं आया कि यह एकाएक क्या हो गया और कौन मैंने ऐसा भारी अपराध किया जिससे मुझे एक शब्द तक न बोलने देकर मेरी यह दशा की गई । वे हतबुद्धि हो गये । उन्हें इस बात का और अधिक दु:ख हुआ कि मैं एक राजपुरोहित ऐसा-वैसा गैर आदमी नहीं और मेरी यह दशा ? और वह बिना किसी अपराध के ? क्रोध, लज्जा और आत्मग्लानि से उनकी एक विलक्षण ही दशा हो गई । रानी ने जैसे ही रत्नों को महाराज के सामने रखा महाराज ने उसी समय उन्हें अपने और बहुत से रत्नों में मिलाकर समुद्रदत्त को बुलाया और उससे कहा - अच्छा, देखो तो इन रत्नों में रत्न हैं क्या ? और हों तो उन्हें निकाल लो । महाराज की आज्ञा पाकर समुद्रदत्त ने उन सब रत्नों में से अपने रत्नों को पहिचान कर निकाल लिया । सच है, सज्जन पुरुष अपनी ही वस्तु को लेते हैं । दूसरों की वस्तु उन्हें विष समान जान पड़ती है । समुद्रदत्त ने अपने रत्न पहिचान लिए, यह देख महाराज उसपर इतने प्रसन्न हुए कि उसे उन्होंने अपना राजसेठ बना लिया । महाराज त्वरित ही दरबार में आये । जैसे ही उनकी दृष्टि पुरोहितजी पर पड़ी, उन्होंने बड़ी ग्लानि की दृष्टि से उनकी ओर देखकर गुस्से के साथ कहा - पापी, ठगी ! मैं नहीं जानता था कि तू हृदय का इतना काला होगा और ऊपर से ऐसा ढोंगी का वेष लेकर मेरी गरीब और भोली प्रजा को इस तरह धोखे में फँसायेगा ? न मालूम तेरी इस कपट वृत्ति ने मेरे कितने बन्धुओं को घर-घर का भिखारी बनाया होगा ? ऐ पाप के पुतले, लोभ के जहरीले सर्प, तुझे देखकर हृदय चाहता तो यह है कि तुझे इस की कोई ऐसी भयंकर सजा दी जाए, जिससे तुझे भी इस का ठीक प्रायश्चित मिल जाय और सर्वसाधारण को दुराचारियों के साथ मेरे कठिन शासन का ज्ञान हो जाय; उससे फिर कोई ऐसा अपराध करने का साहस न करे । परन्तु तू ब्राह्मण है, इसलिए तेरे कुल के लिहाज से तेरी सजा के विचार का भार मैं अपने मंत्री-मण्डल पर छोड़ता हूँ । यह कहकर ही राजा ने अपने धर्माधिकारियों की ओर देखकर कहा – ‘इस पापी ने एक विदेशी यात्री के, जिसका कि नाम समुद्रदत्त है और वह यहीं बैठा हुआ भी है, कीमती पाँच रत्नों को हड़प कर लिया है, जिनको कि यात्री ने समुद्र यात्रा करने के पहले श्रीभूति को एक विश्वस्त और राजप्रतिष्ठित समझकर धरोहर के रूप में रक्खे थे । दैव की विचित्र गति से लौटते समय यात्री का जहाज एकाएक फट गया और साथ ही उसका सब माल असबाब भी डूब गया । यात्री किसी तरह बच गया । उसने जाकर पुरोहित श्रीभूति से अपनी धरोहर वापिस लौटा देने के लिए प्रार्थना की । पुरोहित के मन में पाप का भूत सवार हुआ । बेचारे गरीब यात्री को उसने धक्के देकर घर से बाहर निकलवा दिया । यात्री अपनी इस हालत से पागल-सा होकर सारे शहर में यह पुकार मचाता हुआ महिनों फिरा किया कि श्रीभूति ने मेरे रत्न चुरा लिये, पर उस पर किसी का ध्यान न जाकर उलटा सबने उसे ही पागल करार दिया । उसकी यह दशा देखकर महारानी को बड़ी दया आई । यात्री बुलाकर जाकर उससे सब बातें दर्याफ्त की गयीं । बाद में महारानी ने उपाय द्वारा वे रत्न हस्तगत कर लिये । वे रत्न समुद्रदत्त के हैं या नहीं, इसकी परीक्षा करने के आशय से उन पाँचों रत्नों को पहिचानकर बहुत से और रत्नों में मिला दिया । पर आश्चर्य है कि यात्री ने अपने रत्नों को पहिचान कर निकाल लिया । श्रीभूति के जिम्में धरोहर हड़प कर जाने का गुरूतर अपराध है । इसके सिवा धोखेबाजी, ठगाई आदि और भी बहुत से अपराध हैं । इसकी इसे क्या सजा दी जाए, इसका आप विचार करें ।‘ धर्माधिकारियों ने आपस में सलाह कर कहा – महाराज, श्रीभूति पुरोहित का अपराध बड़ा भारी है । इसके लिए हम तीन प्रकार की सजायें नियत करते हैं । उनमें से फिर जिसे यह पसंद करे, स्वीकार करे । या तो इसका सर्वस्व हरण कर लिया जाकर इसे देश बाहर कर दिया जाय, या पहलवानों की बत्तीस मुक्कियाँ इस पर पड़ें, या तीन थाली में भरे हुए गोबर को यह खा जाय । श्रीभूति से सजा पसन्द करने को कहा गया । पहले उसने गोबर खाना चाहा, पर खाया नहीं गया, तब मुक्कियाँ खाने को कहा । मुक्कियाँ पड़ना शुरु हुईं । कोई दस-पन्द्रह मुक्कियाँ पड़ी होंगी कि पुरोहितजी की अकल ठिकाने आ गई । आप एकदम चक्कर खाकर जमीन पर ऐसे गिरे कि पीछे उठे ही नहीं । महा आर्त्तध्यान से उनकी मृत्यु हुई । वे दुर्गति में गये । धन में अत्यन्त लम्पटता का उन्हें उपयुक्त प्रायश्चित मिला । इसलिये जो भव्य पुरूष हैं, उन्हें उचित है कि वे चोरी को अत्यन्त दु:ख का कारण समझकर उसका परित्याग करें और अपनी बुद्धि को पवित्र जैनधर्म की ओर लगावें, जो ऐसे महापापों से बचाने वाला है । वे जिनभगवान्, जो सब सन्देहों के नाश करने वाले और स्वर्ग के देवों और विद्याधरों द्वारा पूज्य हैं, वह जिनवाणी, जो सब सुखों की खान है, और मेरे गुरू श्रीप्रभाचन्द्र, ये सब मुझे मंगल प्रदान करें, मुझे कल्याण का मार्ग बतलावें । |