
कथा :
केवल ज्ञान रूपी उज्ज्वल नेत्र द्वारा तीनों को देखने और जानने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन के लोभ से डरकर मुनि हो जाने वाले सागरदत्त की कथा लिखी जाती है । किसी समय धनमित्र, धनदत्त आदि बहुत से सेठों के पुत्र व्यापार के लिए कौशाम्बी से चलकर राजगृह की ओर रवाना हुए । रास्ते में एक गहन वनी में चोरों ने इन्हें लूट-लिया । इनका सब माल-असबाब छीन-छानकर वे चलते हुए । सच है, जिनके पल्ले में कुछ पुण्य नहीं होता वे कोई भी काम करें, उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ता है । उधर धन पाकर चोरों की नियत बिगड़ी । सब परस्पर में यह चाहने लगे कि धन मेरे ही हाथ पड़े और किसी को कुछ न मिले । और इसी लालसा से एक-एक के विरूद्ध जान लेने की कोशिश करने लगे । रात को जब वे सब खाने को बैठे तो किसी ने भोजन में विष मिला दिया और उसे खाकर सबके सब परलोक सिधार गये । यहाँ तक कि जिसने विष मिलाया था, वह भी भ्रम से उसे खाकर मर गया । उनमें एक सागरदत्त नामक वैश्यपुत्र बच गया । वह इसलिये कि उसे रात्रि में न खाने-पीने की प्रतिज्ञा थी । धन के लोभ में फँसने से एक साथ सबको मरा देखकर सागरदत्त को बड़ा वैराग्य हुआ । वह उस सब धन को वही छोड़-छाड़कर चल दिया और एक साधु के पास जाकर आप मुनि बन गया । रात्रिभुक्तत्यागव्रती सागरदत्त ने संसार की सब लीलाओं को दु:ख का कारण और जीवन को बिजली की तरह पलभर में नाश होने वाला समझ सब धन वहीं पर पड़ा छोड़कर आप एक ऊँचे आचरण का धारक साधु हो गया । वह सागरदत्त मुनि आप सज्जनों का कल्याण करें । |