+ धन के लोभ से भ्रम में पड़े कुबेरदत्त की कथा -
धन के लोभ से भ्रम में पड़े कुबेरदत्त की कथा

  कथा 

कथा :

जिनेन्‍द्र भगवान् को, जो सारे संसार द्वारा पूज्‍य हैं, और सबसे उत्तम गिनी जाने वाली जिनवाणी को तथा गुरूओं को भक्तिपूर्वक नमस्‍कार कर परग्रिह के सम्‍बन्‍ध की कथा लिखी जाती है ।

मणिवत देश में मणिवत ही नाम का एक शहर था । उसके राजा का नाम भी मणिवत था । मणिवत की रानी पृथिवीमति थी । इसके मणिचन्‍द्र नाम का एक पुत्र था । मणिवत विद्वान्, बुद्धिमान् और अच्‍छा शूरवीर था । राजकाज में उसकी बहुत अच्‍छी गति थी ।

राजा पुण्‍योदय से राजकाज योग्‍यता के साथ चलाते हुए सुख से अपना समय बिताते थे । धर्म पर उनकी पूरी श्रद्धा थी । वे सुपात्रों को प्रतिदिन दान देते, भगवान की पूजा करते और दूसरों की भलाई करने में भरसक यत्‍न करते । एक दिन रानी पृथिवीमति महाराज के बालों को सँवार रही थीं कि उनकी नजर एक सफेद बाल पर पड़ी । रानी ने उसे निकालकर राजा के हाथ में रख दिया । राजा उस सफेद बाल को काल का भेजा दूत समझ कर संसार और विषयभोगों से बड़े विरक्‍त हो गये । उन्‍होंने अपने मणिचन्‍द्र पुत्र को राज्‍य का सब कारोबार सौंप दिया और आप भगवान् की पूजा, अभिषेक कर तथा याचकों को दान दे जंगल की ओर रवाना हो गये और दीक्षा लेकर तपस्‍या करने लगे । वे अब दिनों दिन आत्‍मा को पवित्र बनाते हुए परमात्‍मा–स्‍मरण में लीन रहने लगे ।

मणिवत मुनि नाना देशों में धर्मोपदेश करते हुए एक दिन उज्‍जैन के बाहर मसान में आये । रात के समय वे मृतक शय्या द्वारा ध्‍यान करते हुए शान्ति के लिए परमात्‍मा का स्‍मरण-चिन्‍तन कर रहे थे । इतने में वहाँ एक कापालिक बैताली विद्या साधन के लिए आया । उसे चूल्हा बनाने के लिए तीन मुर्दों की जरूरत पड़ी । सो एक तो उसने मुनि को समझ लिया और दो मुर्दों को वह और घींस लाया । उन तीनों के सिर का चूल्‍हा बनाकर उस पर उसने एक नर-कपाल रक्‍खा और आग सुलगाकर कुछ नैवेद्य पकाने लगा । तब एकदम मुनि का हाथ ऊपर की ओर उठ जाने से सिर पर का कपाल गिर पड़ा । कापालिक उस से डरकर भाग खड़ा हुआ । मुनिराज मेरू समान वैसे के वैसे ही अचल बने रहे । सबेरा होने पर किसी आते-जाते मनुष्‍य ने मुनि की यह दशा देख जिनदत्त को यह सब हाल कह सुनाया । जिनदत्त उसी समय दौड़ा-दौड़ा मसान में गया । मुनि की दशा देखकर उसे बे‍हद दु:ख हुआ । मुनि को अपने घर पर लाकर उसने एक प्रसिद्ध वैद्य से उनके इलाज के लिए पूछा । वैद्य महाशय ने कहा- सोमशर्मा भट्ट के यहाँ लक्षपाक नाम का बहुत ही उम्‍दा तैल है उसे लाकर लगाओ । उससे बहुत जल्‍दी आराम होगा, आग का जला उससे फौरन आराम होता है । सेठ सोमशर्मा के घर दौड़ा हुआ गया । घर पर भट्ट महाशय नहीं थे, इसलिए उसने उनकी तुंकारी नाम की स्‍त्री से तैल के लिए प्रार्थना की । तैल के कई घड़े उसके यहाँ भरे रक्‍खे थे । तुंकारी ने उनमें से एक घड़ा ले जाने को जिनदत्त से कहा । भाग्य से सीढ़ियाँ उतरते समय पाँव फिसल जाने से घड़ा उसके हाथों से छूट पड़ा । घड़ा फूट गया और तेल सब रेलम-ठेल हो गया । जिनदत्त को इसमें बहुत भय हुआ । उसने डरते-डरते घड़े के फूट जाने का हाल तुंकारी से कहा । तब तुंकारी ने दूसरा घड़ा ले आने को कहा । उसे पहले घड़े के फूट जाने का कुछ भी ख्‍याल नहीं हुआ । सच है, सज्‍जनों का हृदय समुद्र से भी कहीं अधिक गम्‍भीर हुआ करता है । जिनदत्त दूसरा घड़ा लेकर आ रहा था । अब की बार तैल से चिकनी जगह पर पाँव पड़ जाने से फिर भी वह फिसल गया और घड़ा फूटकर उसका सब तैल वह गया । इसी तरह तीसरा घड़ा भी फूट गया । अब तो जिनदत्त के देवता कूँच कर गये । भय के मारे वह थर-थर काँपने लगा । उसकी यह दशा देखकर तुंकारी ने उससे कहा कि घबराने और डरने की कोई बात नहीं । तुमने कोई जानकर थोड़े ही फोड़े हैं । तुम किसी तरह की चिन्‍ता-फिकर मत करो । जब तक तुम्‍हें जरूरत पड़े तुम प्रसन्‍नता के साथ तैल ले जाया करो । देने से मुझे कोई उजर न होगा । कोई कैसा ही सहनशील क्‍यों न हो, पर ऐसे मौके पर उसे भी गुस्‍सा आये बिना नहीं रहता । फिर इस स्‍त्री में इतनी क्षमा कहाँ से आई ? इसका जिनदत्त को बड़ा आश्‍चर्य हुआ । जिनदत्त ने तुंकारी से पूछा भी, कि माँ, मैंने तुम्‍हारा इतना भारी अपराध किया उस पर भी तुमको रत्ती भर क्रोध नहीं आया, इसका कारण क्‍या है ? तुंकारी ने कहा- भाई, क्रोध करने का फल जैसा चाहिए वैसा मैं भुगत चुकी हूँ ।

भाई, क्रोध के नाम से ही मेरा जी काँप उठता है । यह सुनकर जिनदत्त का कौतुक और बढ़ा , तब उसने पूछा यह कैसे ? तुंकारी कहने लगी - “चन्‍दनपुर में शिवशर्मा ब्राह्मण रहता है । वह धनवान् और राजा का आदरपात्र है । उसकी स्‍त्री का नाम कमलश्री है । उसके कोई आठ तो पुत्र और एक लड़की है । लड़की का नाम भट्टा है और वह मैं ही हूँ । मैं थी बड़ी सुन्‍दरी, पर मुझमें एक बड़ा दुर्गुण था । वह यह कि मैं अत्‍यन्‍त मानिनी थी । मैं बोलने में बड़ी ही तेज थी और इसीलिए मेरे भय का सिक्‍का लोगों के मन पर ऐसा जमा हुआ था कि किसी की हिम्‍मत मुझे ''तू'' कहकर पुकारने की नहीं होती थी । मुझे ऐसी अभिमानी देखकर मेरे पिता ने एक बार शहर में डोंड़ी पिटवा दी कि मेरी बेटी को कोई ‘ तू ’ कहकर न पुकारे । क्‍योंकि जहाँ मुझसे किसी ने ‘तू’ कहा कि मैं उससे लड़ने-झगड़ने को तैयार ही रहा करती थी और फिर जहाँ तक मुझमें शक्ति जोर होता मैं उसकी हजारों पीढ़ियों को एक पलभर में अपने सामने ला खड़ा करती और पिताजी इस लड़ाई-झगड़े से सौ हाथ दूर भागने की कोशिश करते । जो हो, खोटे भाग्‍य से उनका डौंडी़ पिटवाना मेरे लिए बहुत ही बुरा हआ । उस दिन से मेरा नाम ही ‘तुकारी’ पड़ गया और सब ही मुझे इस नाम से पुकार-पुकार कर चिढ़ा ने लगे । सच है, अधिक मान भी कभी अच्‍छा नहीं होता । और इसी चिड़ के मारे मुझसे कोई ब्‍याह करने तक के लिए तैयार न होता था । मेरे भाग्‍य से इन सोमशर्मा जी ने इस बात की प्रतिज्ञा की कि मैं कभी इसे ‘तू’ कहकर न पुकारूँगा । तब इनके साथ मेरा ब्‍याह हो गया । मैं बड़े उत्‍साह के साथ उज्‍जैन में लाई गई । सच कहूँगी कि इस घर में आकर मैं बड़े सुख से रही । भगवान् की कृपा से घर सब तरह हरा भरा है । धन सम्‍पत्ति भी मनमानी है ।

पर ‘पड़ा स्‍वभाव जाय जीव से’ इस कहावत के अनुसार मेरा स्‍वभाव भी सहज में थोड़े ही मिट जाने वाला था । सो एक दिन की बात है कि मेरे स्‍वामी नाटक देखने गये । नाटक देखकर आते हुए उन्‍हें बहुत देर लग गई । उनकी इस देरी पर मुझे अत्‍यन्‍त गुस्‍सा आया । मैनें निश्‍चय कर लिया कि आज जो कुछ हो, मैं कभी दरवाजा नहीं खोलूँगी और मैं सो गई । थोड़ी देर बाद वे आये और दरवाजे पर खड़े रहकर वे बार-बार मुझे पुकारने लगे । मैं चुप्‍पी साधे पड़ी रही, पर मैंने किवाड़ न खोले । बाहर से चिल्‍लाते-चिल्‍लाते वे थक गये, पर उसका मुझ पर कुछ असर न हुआ । आखिर उन्‍हें भी बड़ा क्रोध हो आया । क्रोध में आकर वे अपनी प्रतिज्ञा तक भूल बैठे । सो उन्‍होंने मुझे ‘तू’ कहकर पुकार लिया । बस, उनका ‘तू’ कहना था कि मैं सिर से पाँव तक जल उठी और क्रोध से अन्‍धी बनकर किवाड़ खोलती हुई घर से निकल भागी । मुझे उस समय कुछ न सूझा कि मैं कहाँ जा रहीं हूँ । मैं शहर बाहर होकर जंगल की ओर चल धरी । रास्‍ते में चोरों ने मुझे देख लिया । उन्‍होंने मेरे सब गहने-दागीने और वस्‍त्र छीन-छीनकर विजयसेन नाम के एक भील को सौंप दिया । मुझे खूबसूरत देखकर इस पापी ने मेरा धर्म बिगाड़ना चाहा, पर उस समय मेरे भाग्‍य से किसी दिव्‍य स्त्री ने आकर, मुझे बचाया, मेरे धर्म की रक्षा की । भील ने उस दिव्य स्‍त्री से डरकर मुझे एक सेठ के हाथ सौंप दिया । उसकी नीयत भी मुझ पर बिगड़ी । मैंने उसे खूब ही आड़े हाथों लिया । इससे वह मेरा कर तो कुछ न सका, पर गुस्‍से में आकर उस नीच ने मुझे एक ऐसे मनुष्‍य के हाथ सौंप दिया जो जीवों के खून से रँगकर कम्‍बल बनाया करता था । वह मेरे शरीर पर जौंके लगा-लगाकर मेरा रोज-रोज बहुत सा खून निकाल लेता था और उसमें फिर कम्‍बल को रंगा करता था । सच है, एक तो वैसे ही पाप कर्म का उदय और उस पर ऐसा क्रोध, तब उससे मुझ सरीखी हत-भागिनियों को यदि पद-पद पर कष्‍ट उठाना पड़े तो उसमें आश्‍चर्य ही क्‍या ?

इसी समय उज्‍जैन के राजा ने मेरे भाई को यहाँ के राजा पारस के पास किसी कार्य के लिये भेजा । मेरा भाई अपना काम पूरा कर पीछा उज्‍जैन की ओर जा रहा था कि अचानक मेरी उसकी भेंट हो गई । मैंने अपने कर्मों पर बड़ा पश्‍चात्ताप किया । जब मैंने अपना सब हाल उससे कहा तो उसे भी बहुत दु:ख हुआ । उसने मुझे धीरज दिया । इसके बाद वह उसी समय राजा के पास गया और सब हाल उससे कहकर उस कम्‍बल बनाने वाले पापी से उसने मेरा पंजा छुड़ाया । वहाँ से लाकर बड़ी आरजू-मिन्नत के साथ उसने फिर मुझे अपने स्‍वामी के घर ला रक्‍खा । सच है, सच्‍चे बन्‍धु वे ही है जो कष्‍ट के समय काम आवें । यह तो तुम्‍हें मालूम ही है कि मेरे शरीर का प्राय: खून निकल चुका था । इसी कारण घर पर आते ही मुझे लकवा मार गया । तब वैद्य ने यह लक्षपाक तैल बनाकर मुझे जिलाया । इसके बाद मैंने एक वीतरागी साधु द्वारा धर्मोपदेश सुनकर सर्वश्रेष्‍ठ और सुख देने वाला सम्‍यक्‍त्‍व व्रत ग्रहण किया और साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि आज से मैं किसी पर क्रोध नहीं करूँगी । यही कारण है कि मैं अब किसी पर क्रोध नहीं करती ।'' अब आप जाइए और इस तैल द्वारा मुनिराज की सेवा कीजिए । अधिक देरी करना उचित नहीं है ।

जिनदत्त भट्टा को नमस्‍कार कर घर गया और तैल की मालिस वगैरह से बड़ी सावधानी के साथ मुनि की सेवा करने लगा । कुछ दिन तक बराबर मालिस करते रहने से मुनि को आराम हो गया । सेठ ने भी अपनी इस सेवा-भक्ति द्वारा बहुत पुण्‍य बन्‍ध किया । चौमासा आ गया था इसलिए मुनिराज ने कहीं अन्‍यत्र जाना ठीक न समझ यहीं जिनदत्त सेठ के जिन मंदिर में वर्षायोग ले लिया और यहीं वे रहने लगे।

जिनदत्त का एक लड़का था, नाम इसका कुबेरदत्त था । इसका चाल-चलन अच्‍छा न देखकर जिनदत्त ने इसके डर से कीमती रत्‍नों का भरा अपना एक घड़ा जहाँ मुनि सोया करते थे वहाँ खोद कर गाड़ दिया । जिनदत्त ने यह कार्य किया तो था बड़ी दुपका-चोरी से, पर कुबेरदत्त को इसका पता पड़ गया । उसने अपने पिता का सब कर्म देख लिया और मौका पाकर वहाँ से घड़े को निकाल मंदिर के आंगन में दूसरी जगह गाड़ दिया । कुबेरदत्त को ऐसा करते मुनि ने देख लिया था, परन्‍तु तब भी वे चुपचाप रहे और उन्‍होंने किसी से कुछ नहीं कहा । और कहते भी कहाँ से जब कि उनका यह मार्ग ही नहीं है ।

जब योग पूरा हुआ तब मुनिराज जिनदत्त को सुख-साता पूछकर वहाँ से विहार कर गये । शहर बाहर जाकर वे ध्‍यान करने बैठे । इधर मुनिराज के चले जाने के बाद सेठ ने वह रत्‍नों का घड़ा घर ले जाने के लिए जमीन खोद कर देखा तो वहाँ घड़ा नहीं । घड़े के एकाएक गायब हो जाने का उसे बड़ा अचंभा हुआ और साथ ही उसका मन व्‍याकुल भी हुआ । उसने सोचा कि घड़े का हाल केवल मु‍नि ही जानते थे, फिर बड़े अचंभे की बात है कि उनके रहते यहाँ से घड़ा गायब हो जाय ? उसे घड़ा गायब करने का मुनि पर कुछ सन्‍देह हुआ । तब वह मुनि के पास गया और उनसे उसने प्रार्थना की कि प्रभो, आप पर मेरा बड़ा ही प्रेम है, आप जब से चले गये है तबसे मुझे सुहाता ही नहीं, इसलिए चलकर आप कुछ दिनों तक और वहीं ठहरें तो बड़ी कृपा हो । इस प्रकार मायाचारी से जिनदत्त मुनिराज को अपने मंदिर पर लौटा लाया । इसके बाद उसने कहा, स्‍वामी, कोई ऐसी धर्म-कथा सुनाइए, जिसमें मनोरंजन हो । तब मुनि बोले- हम तो रोज ही सुनाया करते है, आज तुम ही कोई ऐसी कथा कहो । तुम्‍हें इतने दिन शास्‍त्र पढ़ते हो गये, देखे तुम्‍हें उनका सार कैसा याद रहता हैं ? तब जिनदत्त अपने भीतर कपट-भावों को प्रकट करने के लिये एक ऐसी ही कथा सुनाने लगा । वह बोला-

''एक दिन पद्मरथपुर के राजा वसुपाल ने अयोध्‍या के महाराज जितशत्रु के पास किसी काम के लिए अपना एक दूत भेजा । एक तो गर्मी का समय और ऊपर से चलने की थकावट सो इसे बड़े जोर की प्‍यास लग आई । पानी इसे कहीं नहीं मिला । आते-आते यह एक घनी बनी में आकर वृक्ष के नीचे गिर पड़ा । इसके प्राण कण्‍ठगत हो गये । इसकी यह दशा देखकर एक बन्‍दर दौड़ा-दौड़ा तालाब पर गया और उसमें डूबकर यह उस वृक्ष के नीचे पड़े पथिक के पास आया । आते ही इसने अपने शरीर को उस पर झिड़का दिया । जब जल उस पर गिरा और उसकी आँखे खुली तब बन्‍दर आगे होकर उसे इशारे से तालाब के पास ले गया । जल पीकर इसे बहुत शान्ति मिली । अब इसे आगे के लिए जल की चिन्‍ता हुई । पर इसके पास कोई बरतन बगैरह न होने से यह जल ले जा नहीं सकता था । तब इसे एक युक्ति सूझी । इसने उस बेचारे जीवनदान देने वाले बन्‍दर को बन्‍दूक से मारकर उसके चमड़े की थैली बनाई और उसमें पानी भरकर चल दिया ।'' अच्‍छा प्रभो, अब आप बतलाइए कि उस नीच, निर्दयी, अधर्मी को अपने उपकारी बन्‍दर को मार डालना क्‍या उचित था ? मुनि बोले- तुम ठीक कहते हो । उस दूत का यह अत्‍यन्‍त कृतघ्नता भरा नीच काम था । इसके बाद अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए मुनिराज ने भी एक कथा कहना आरम्‍भ की । वे कहने लगे- ‘’कौशाम्‍बी में किसी समय एक शिवशर्मा ब्राह्मण रहता था । उसकी स्‍त्री का नाम कपिला था । इसके कोई लड़का नहीं था । एक दिन शिवशर्मा किसी दूसरे गाँव से अपने शहर की ओर लौट रहा था । रास्‍ते में एक जंगल में उसने एक नेवला के बच्‍चे को देखा । शिवशर्मा ने उसे घर उठा लाकर अपनी प्रिया से कहा-ब्राह्मणीजी आज मैं तुम्‍हारे लिए एक लड़का लाया हूँ । यह कहकर उसने नेवले को कपिला की गोद में रख दिया । सच है, मोह में अन्‍धे हुए मनुष्‍य क्‍या नहीं करते ? ब्राह्माणी ने उसे ले लिया और पाल-पोस कर उसे कुछ सिखा-विखा भी दिया । नेवले में जितना ज्ञान और जितनी शक्ति थी वह उसके अनुसार ब्राह्मणी का बताया कुछ काम भी कर दिया करता था ।

भाग्‍य से अब ब्राह्मणी के भी एक पुत्र हो गया । सो एक दिन ब्राह्मणी बच्‍चे को पालने में सुलाकर आप धान को खाँड़ने चली गई और जाते समय पुत्र रक्षा का भार यह नेवले को सौंपती गई । इतने में एक सर्प ने आकर उस बच्‍चे को काट लिया । बच्‍चा मर गया । क्रोध में आकर नेवले ने सर्प के टुकड़े-टुकड़े कर डाले । उसके बाद वह खून भरे मुँह से ही कपिला के पास गया । कपिला उसे खून से लथ-पथ भरा देखकर काँप गई । उसने समझा कि इसने मेरे बच्‍चे को खा लिया । उसे अत्‍यन्‍त क्रोध आया । क्रोध के वेग में उसने न कुछ सोचा-विचारा और न जाकर देखा ही कि असल में बात क्‍या है, किन्‍तु एक साथ ही पास में पड़े हुए मूसले को उठा कर नेवले पर दे मारा । नेवला तड़फड़ा कर मर गया । अब वह दौड़ी हुई बच्‍चे के पास गई । देखती है तो वहाँ एक काला भुजंग सर्प मरा हुआ पड़ा है । फिर उसे बहुत पछतावा हुआ । ऐसे मूर्खों को धिक्‍कार है जो बिना विचारे जल्‍दी में आकर हर एक काम कर बैठते हैं ।'' अच्‍छा सेठ महाशय, कहिए तो सर्प के अपराध पर बेचारे नेवले को इस प्रकार निर्दयता से मार देना ब्राह्मणी को योग्‍य था क्‍या ? जिनदत्त कहा- नहीं ! यह उसकी बड़ी गलती हुई । यह कहकर उसने फिर एक कथा कहना आरम्‍भ की-

''बनारस के राजा जितशत्रु के यहाँ धनदत्त राज्‍यवैद्य था । इसकी स्‍त्री का नाम धनदत्ता था । वैद्य महाशय के धनमित्र और धनचन्‍द्र नाम के दो लड़के थे । लाड़-प्‍यार में रहकर इन्‍होंने अपनी कुलविद्या भी न पढ़ पाई । कुछ दिनों बाद वैद्यराज काल कर गये । राजा ने इन दोनों भाइयों को मूर्ख देख इनके पिता की जीविका पर किसी दूसरे को नियुक्‍त कर दिया । तब इनकी बुद्धि ठिकाने आई । ये दोनों भाई अब वैद्यशास्‍त्र पढ़ने की इच्‍छा से चम्‍पापुरी में शिवभूति वैद्य के पास गये । इन्‍होनें वैद्य से अपनी सब हालत कहकर उनसे वैद्यक पढ़ने की इच्‍छा जाहिर की । शिवभूति बड़ा दयावन् और परोपकारी था, इसलिए उसने इन दोनों भाइयों को अपने ही पास रखकर पढ़ाया । और कुछ ही वर्षों में इन्‍हें अच्‍छा होशियार कर दिया । दोनों भाई गुरू महाशय के अत्‍यन्‍त कृतज्ञ होकर पीछे बनारस को ओर रवाना हुए । रास्‍ते में आते हुए इन्‍होंने जंगल में आँख की पीड़ा से दुखी एक सिंह को देखा । धनचन्‍द्र को उस पर दया आई । अपने बड़े भाई के बहुत कुछ मना करने पर भी धनचन्‍द्र ने सिंह की आँखों का इलाज किया । उससे सिंह को आराम हो गया । आँख खोलते ही उसने धनचन्‍द्र को अपने पास खड़ा पाया । वह अपने जन्‍म स्‍वभाव को न छोड़कर क्रूरता के साथ उसे खा गया ।'' मुनिराज उस दुष्‍ट सिंह का बेचारे वैद्य को खा जाना क्‍या अच्‍छा काम हुआ ? मुनि ने ‘नहीं’ कहकर एक और कथा कहना शुरू की ।

‘’चम्‍पापुरी में सोमशर्मा ब्राह्मण की दो स्त्रियाँ थीं । एक का नाम सोमिल्‍या और दूसरी का सोमशर्मा था । सोमिल्‍या बाँझ थी और सोमशर्मा के एक लड़का था । यहीं एक बैल रहता था । लोग उसे ‘भद्र’ नाम से बुलाया करते थे । बेचारा बड़ा सीधा था । कभी किसी को मारता नहीं था । वह सबके घर पर घूमा-फिरा करता था । उसे इस तरह जहाँ थोड़ी बहुत घास खाने को मिलती वह उसे ही खाकर रह जाता था । एक दिन उस बाँझ पापिनी ने डाह के मारे अपनी सौत के बच्‍चे को निर्दयता से मार कर उसका अपराध बेचारे बैल पर लगा दिया । उसे ब्राह्मण बालक का मारने वाला समझ कर सब लोगों ने घास खिलाना छोड़ दिया और शहर से निकाल बाहर कर दिया । बेचारा भूख-प्‍यास के मारे बड़ा दु:ख पाने लगा । बहुत ही दुबला पतला हो गया । पर तब भी किसी ने उसे शहर भीतर नहीं घुसने दिया । एक दिन जिनदत्त सेठ की स्‍त्री पर व्‍यभिचार का अपराध लगा । वह अपनी निर्दोषता बतलाने के लिए चौराहे पर जाकर खड़ी हुई, जहाँ बहुत से मनुष्‍य इकट्ठे हो रहे थे । उसने कोई भयंकर दिव्‍य लेने के इरादे से एक लोहे के टुकड़े को अग्नि में खूब तपाकर लाल सुर्ख किया । इस मौके को अपने लिए बहुत अच्‍छा समझ उस बैल ने झट वहाँ पहुँच कर जलते हुए उस लोहे के टुकड़े को मुँह से उठा लिया । उसकी यह भंयकर दिव्‍य देखकर सब लोगों ने उसे निर्दोष समझ लिया ।'' अच्‍छा सेठ महाशय, बतलाइये तो क्‍या उन मूर्ख लोगों को बिना समझे-बूझे एक निरपराध पशु पर दोष लगाना ठीक था क्‍या ? जिनदत्त ने ‘नहीं’ कहकर फिर एक कथा छोड़ी। वह बोला-

''गंगा के किनारे कीचड़ में एक बार एक हाथी का बच्‍चा फँस गया । विश्‍वभूति तापस ने उसे तड़फते हुए देखा । वह कीचड़ से उस हाथी के बच्‍चे को निकालकर अपने आश्रम में लिवा ले आया । उसने उसे बड़ी सावधानी के साथ पाला-पोसा भी । धीरे-धीरे वह बड़ा होकर एक महान हाथी के रूप में आ गया । श्रेणिक ने इसकी प्रशंसा सुनकर इसे अपने यहाँ रख लिया । हाथी जब तक तापस के यहाँ रहा तब तक बड़ी स्‍वतंत्रता से रहा । वहाँ इसे कभी अंकुश बगैरह का कष्‍ट नहीं सहना पड़ा । पर जब यह श्रेणिक के यहाँ पहुँचा तब से इसे बन्‍धन, अंकुश आदि का बहुत कष्‍ट सहना पड़ता था । इस दु:ख के मारे एक दिन यह सांकल तोड़-तोड़ कर तापस के आश्रम में भाग आया । इसके पीछे-पीछे राजा के नौकर भी इसे पकड़ने को आये । तापसी मीठे-मीठे शब्‍दों से हाथी को समझा कर उसे नौकरों के सुपुर्द करने लगा । हाथी को इससे अत्‍यन्‍त गुस्‍सा आया । सो इसने उस बेचारे तापस की ही जान ले ली” । तो क्‍या मुनिराज, हाथी को यह उचित था, कि वह अपने को बचाने वाले को ही मार डाले ? इसके उत्तर में मुनि ‘ना’ कहकर और एक कथा कहने लगे । उन्‍होंने कहा-

“हस्तिनागपुर की पूरब दिशा में विश्‍वसेन राजा का बनाया आमों का एक बगीचा था । उसमें आम खूब लग रहे थे । एक दिन एक चील मरे साँप को चोंच में लिए आम के झाड़ पर बैठ गई । उस समय साँप के जहर से एक आम पक गया, पीला-सा पड़ गया । माली ने उस पके फल को ले जाकर राजा को भेंट किया । राजा ने उसे ''प्रेमोपहार के रूप में अपनी प्रिय रानी धर्मसेना को दिया । रानी उसे खाते ही मर गई । राजा को बड़ा गुस्‍सा आया और उसने एक फल के बदले सारे बगीचे को ही कटवा डाला । मुनिराज ने कहा, तो क्‍या सेठ महाशय, राजा का यह काम ठीक हुआ ? सेठ ने भी ‘ना’ कहकर और एक कथा कहना शुरू की । वह बोला -

''एक मनुष्‍य जंगल से चला जा रहा था । रास्‍ते में वह सिंह को देखकर डर के मारे एक वृक्ष पर चढ़ गया । जब सिंह चला गया, तब यह नीचे उतरा और जाने लगा । रास्‍ते में इसे राजा के बहुत से आदमी मिले, जो कि भेरी के लिए अच्‍छे और बड़े झाड़ की तालाश में आये थे । सो इस दुष्‍ट मनुष्‍य ने वह वृक्ष इन लोगों को बता दिया, जिस पर चढ़कर कि इसने अपनी जान बचाई थी । राजा के आदमी उस घनी छाया वाले सुन्‍दर वृक्ष को काटकर ले गये । ''मुनिराज, जिसने बन्‍धु की तरह अपनी रक्षा की, मरने से बचाया, उस वृक्ष के लिए इस दुष्‍ट को ऐसा करना योग्‍य था क्या ? मुनिराज ने ‘नहीं’ कहकर और एक कथा कही । वे बोले-

''गन्‍धर्वसेन राजा की कौशाम्‍बी नगरी में एक अंगार देव सुनार रहता था । जाति का यह ऊँच था । यह रत्‍नों की जड़ाई का काम बहुत ही बढ़िया करता था । एक दिन अंगारदेव राजमुकुट के एक बहुमूल्‍य मणि को उजाल रहा था । इसी समय उसके घर पर मेदज नाम के एक मुनि आहार के लिए आये । वह मुनि को एक ऊँची जगह बैठाकर और उनके सामने उस मणि को रखकर आप भीतर स्‍त्री के पास चला गया । इधर मणि को मांस के भ्रम से कूंज पक्षी निगल गया । जब सुनार सब विधि ठीक-ठाककर पीछा आया तो देखता है वहाँ मणि नहीं । मणि न देखकर उसके तो होश उड़ गये । उसने मुनिराज से पूछा- मुनिराज, मणि को मैं आपके पास अभी रख कर गया हूँ, इतने में वह कहाँ चला गया ? कृपा करके बतलाइये । मुनि चुप रहे । उन्‍हें चुप्‍पी साधे देखकर अंगारदेव का उन्‍हीं पर कुछ शक कर गया । उसने फिर पूछा- स्‍वामी, मणि का क्‍या हुआ ? जल्‍द कहिए । राजा को मालूम हो जाने से वह मेरा और मेरे बाल-बच्‍चों तक का बुरा हाल कर डालेगा । मुनि तब भी चुप ही रहे । अब तो अंगारदेव से न रहा गया। क्रोध से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया । उसने जान लिया कि मणि को इसी ने चुराया है । सो मुनि को बांधकर उसने उन पर लकड़े की मार मारना शुरू की । उन्‍हें खूब मारा-पीटा सही, पर तब भी मुनि उसी तरह स्थिर बने रहे । ऐसे धन को, ऐसी मूर्खता को धिक्‍कार है जिससे मनुष्‍य कुछ भी सोच-समझ नहीं पाता और हर एक काम को जोश में आकर कर डालता है । अंगारदेव मुनि को लकड़े से पीट रहा था तब एक चोट उस कूंज पक्षी के गले पर भी जाकर लगी । उससे वह मणि बाहर आ गिरा । मणि को देखते ही अंगारदेव आत्‍मग्‍लानि, लज्‍जा और पश्‍चात्ताप के मारे अधमरा-सा हो गया । उसे काटो तो खून नहीं । वह मुनि के पाँवों में गिर पड़ा और रो-रो कर उनसे क्षमा कराने लगा ।'' इतना कह कर मुनिराज बोले- क्‍यों सेठ महाशय, अब समझे ? मेदज मुनि को उस मणि का हाल मालूम था, पर तब भी दया के वश हो उन्‍होंने पक्षी का मणि निगल जाना न बतलाया । इसलिए कि पक्षी की जान न जाय और न मुनियों का ऐसा मार्ग ही है । इसी तरह मैं भी यद्यपि तुम्‍हारे घड़े का हाल जानता हूँ, तथापि कह नहीं सकता । इसलिये कि संयमी का यह मार्ग नहीं है कि वे किसी को कष्‍ट पहुँचावे । अब जैसा तुम जानते हो और जो तुम्‍हारे मन में हो उसे करो । मुझे उसकी परवा नहीं ।

घड़े का छुपाने वाला कुबेरदत्त अपने पिता और मुनि का यह परस्‍पर का कथोपकथन छुपा हुआ सुन रहा था । मुनि का अन्तिम निश्‍चय सुन उसको उन पर बड़ी भक्ति हो गई । वह दौड़ा जाकर झट से घड़े को निकाल लाया और अपने पिता के सामने उसे रखकर जरा गुस्‍से से बोला- हाँ देखता हूँ आप मुनिराज पर अब कितना उपसर्ग करते है ? यह देखकर जिनदत्त बड़ा शर्मिन्‍दा हुआ । उसने अपने भ्रम भरे विचारों पर बड़ा ही पछतावा किया । अन्‍त में दोनों पिता-पुत्रों ने उन मेरू के समान स्थिर और तप के खजाने मुनिराज के पाँवों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा कराई ओर संसार से उदासीन होकर उन्‍हीं के पास उन्‍होंने दीक्षा भी ले ली, जो कि मोक्ष-सुख की देने वाली है । दोनों पिता-पुत्र मुनि होकर अपना कल्‍याण करने लगे ओर दूसरों के भी आत्‍मकल्‍याण का मार्ग बतलाने लगे ।

वे साधुरत्‍न मुझे सुख-शान्ति दें, जो भगवान के उपदेश किये सम्‍यज्ञान के उमड़े हुए समुद्र हैं, सम्‍यक्‍त्‍वरूपी रत्‍नों को धारण किये हैं, और पवित्र शील जिसकी लहरें हैं । ऐसे मुनिराजों को मैं भक्ति पूर्वक नमस्‍कार करता हूँ ।

मूलसंघ के मुख्‍य चलाने वाले श्रीकुन्‍दकुन्‍दाचार्य की परम्‍परा में भट्टारक मल्लिभूषण हुये हैं । वे मेरे गुरू हैं, रत्‍नत्रय-सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्‍चारित्र को धारण किये हैं और गुणों की खान हैं । वे आप लोगों का कल्‍याण करें ।