
कथा :
सुख देनेवाले और सारे संसार के प्रभु श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन लोभी पिण्याकगन्ध की कथा लिखी जाती है । रत्नप्रभ कांपिल्य नगर के राजा थे । उनकी रानी विद्युत्प्रभा थी । वह सुन्दर और गुणवती थी । यहीं एक जिनदत्त सेठ रहता था । जिनधर्म पर इसकी गाढ़ श्रद्धा थी । अपने योग्य आचार-विचार इसके बहुत अच्छे थे । राजदरबार में भी इसकी अच्छी पूछ थी, मान-मर्यादा थी । यहीं एक और सेठ था । इसका नाम पिण्याकगन्ध था । इसके पास कई करोड़ का धन था, पर तब भी यह मूर्ख बड़ा ही लोभी था, कृपण था । यह न किसी को कभी एक कौड़ी देता और न स्वयं आप ही अपने धन को खाने-पीने पहनने में खर्च करता; और न ही खाया करताथा । इसके पास सब सुख की सामग्री थी, पर अपने पाप के उदय से या यों कहो कि अपनी ही कंजूसी से यह सदा ही दु:ख भोगा करता था । इसकी स्त्री का नाम सुन्दरी था । इसके एक विष्णुदत्त नाम का लड़का था । एक दिन राजा के तालाब को खोदते वक्त उडु नाम के एक मजूर को सोने के सलाइयों की भरी हुई लोहे की सन्दूक मिल गई । यह सन्दूक यहाँ कोई हजारों वर्षो से गड़ी हुई होगी । यही कारण था कि उसे खूब ही कीट खा गया था । उसके भीतर की सलाइयों की भी यही दशा थी । उन पर भी बहुत मैल जमा हो गया था । मैल से यह नहीं जान पड़ता था कि वे सोने की हैं । उडु ने उसमें से एक सलाई लाकर जिनदत्त सेठ को लोहे के भाव बेचा । सेठ ने उस समय तो उसे ले लिया, पर जब वह ध्यान से धो-धाकर देखीं गई तो जान पड़ा कि वह एक सोने की सलाई है सेठ ने उसे चोरी का माल समझ अपने घर में उसका रखना उचित नहीं समझा । उसने उसकी एक जिनप्रतिमा बनवा ली और प्रतिष्ठा कराकर उसे मंदिर में विराजमान कर दिया । सच है, धर्मात्मा पुरूष पाप से बड़े डरते हैं । कुछ दिनों बाद उडु फिर एक सलाई लिए जिनदत्त के पास आया । पर अब की बार सेठ ने उसे नहीं खरीदा । इसलिए कि वह धन दूसरे का है । तब उडु ने उसे पिण्याकगन्ध को बेच दिया । पिण्याकगन्ध को भी मालूम हो गया कि वह सलाई सोने की है, पर तब भी लोभ में आकर उसने उडु से कहा कि यदि तेरे पास ऐसी सलाइयाँ और हों तो उन्हें यहाँ दे जाया करना । मुझे इन दिनों लोहे की कुछ अधिक जरूरत है । मतलब यह कि पिण्याकगन्ध ने उडु से कोई अट्ठानवे सलाइयाँ खरीद कर लीं । बेचारे उडु को उसकी सच्ची कीमत ही मालूम न थी, इसलिए उसने सबकी सब सलाइयाँ लोहे के भाव बेच दीं । एक दिन पिण्याकगन्ध अपनी बहिन के विशेष कहने-सुनने से अपने भानजे के ब्याह में दूसरे गाँव जाने लगा । जाते समय धन के लोभ से पुत्र को वह सलाई बताकर कह गया कि इसी आकार-प्रकार का लोहा कोई बेचने अपने यहाँ आवे तो तू उसे मोल ले लिया करना । पिण्याकगन्ध के पाप का घड़ा अब बहुत भर चुका था । अब उसके फूटने की तैयारी थी । इसीलिए तो वह पाप कर्म की जबरदस्ती दूसरे गाँव भेजा गया । उडु के पास अब केवल एक ही सलाई बची थी । वह उसे भी बेचने को पिण्याकगन्ध के पास आया । पर पिण्याकगन्ध तो वहाँ था नहीं, तब वह उसके लड़के विष्णुदत्त के हाथ सलाई लेकर बोला- आप के पिताजी ने ऐसी बहुतेरी सलाइयाँ मुझ से मोल ली हैं । अब यह केवल एक ही बची है । इसे आप लेकर मुझे इसकी कीमत दे दीजिये । विष्णुदत्त ने उसे यह कहकर टाल दिया, कि मैं इसे लेकर क्या करूँगा ? मुझे जरूरत नहीं । तुम इसे ले जाओ । इस समय एक सिपाही ने उडु को देख लिया । उसने खोदने के लिए वह सलाई उससे छुड़ा ली । एक दिन वह सिपाही जमीन खोद रहा था । उससे सलाई पर जमा हुआ कीट साफ हो जाने से कुछ लिखा हुआ उसे देख पड़ा । लिखा यह था कि ‘’सोने की सौ सलाइयाँ सन्दूक में हैं । यह लिखा देखकर सिपाही ने उडु को पकड़ लाकर उससे सन्दूक की बाबत पूछा । उडु ने सब बातें ठीक-ठीक बतला दीं । सिपाही उडु को राजा के पास ले गया । राजा के पूछने पर उसने कहा कि मैंने ऐसी अठ्टानवे सलाइयाँ तो पिण्याकगन्ध सेठ को बेची हैं और एक जिनदत्त सेठ को । राजा ने पहले जिनदत्त को बुलाकर सलाई मोल लेने की बाबत पूछा । जिनदत्त ने कहा- महाराज, मैंने एक सलाई खरीदी तो जरूर है, पर जब मुझे यह मालूम पड़ा कि वह सोने की है तो मैंने उसकी जिनप्रतिमा बनवा ली । प्रतिमा मंदिर में मौजूद है । राजा प्रतिमा को देखकर बहुत खुश हुआ । उसने जिनदत्त को इस सच्चाई पर उसका बहुत मान किया, उसे बहुमूल्य वस्त्राभूषण दिये। सच है, गुणों की पूजा सब जगह हुआ करती है। इसके बाद राजा ने पिण्याकगन्ध को बुलवाया । पर वह घर पर न होकर गाँव गया हुआ था । राजा को उसके न मिलने से और निश्चय हो गया कि उसने अवश्य राजधन धोका देकर ठग लिया है । राजा ने उसी समय उसका घर जब्त करवा कर उसके कुटुम्ब को कैदखाने में डाल दिया । इसलिए कि उसने पूछ-ताछ करने पर भी सलाइयों का हाल नहीं बताया था । सच है, जो आशा के चक्कर में पकड़कर दूसरों का धन मारते हैं, वे अपने हाथों ही अपना सर्वनाश करते हैं । उधर ब्याह हो जाने के बाद पिण्याकगंध घर की ओर वापिस आ रहा था । रास्ते में ही उसे अपने कुटुम्ब की दुर्दशा का समाचार सुन पड़ा । उसे उसका बड़ा दु:ख हुआ । उसने अपने इस धन-जन की दुर्दशा का मूल कारण अपने पाँवों को ठहराया । इसलिए कि वह उन्हीं के द्वारा दूसरे गाँव गया था । पाँवों पर उसे बड़ा गुस्सा आया और इसीलिए उसने एक बड़ा भारी पत्थर लेकर उससे अपने दोनों पाँवों को तोड़ लिया । मृत्यु उसके सिर पर खड़ी ही थी । वह लोभी आर्त्तध्यान; बुरे भावों से मर कर नरक गया । यह कथा शिक्षा देती है जो समझदार हैं उन्हें चाहिये कि वे अनीति के कारण और पाप को बढ़ाने वाले इस लोभ को दूर ही से छोड़ने का यत्न करें । वे कर्मों को जीतने वाले जिन भगवान् संसार में सदा काल रहें जो संसार के पदार्थों को दिखलाने के लिये दीपक के समान है, सब दोषों से रहित हैं, भव्य–जनों को स्वर्गमोक्ष का सुख देने वाले हैं, जिनके वचन अत्यन्त ही निर्मल या निर्दोष हैं, जो गुणों के समुद्र हैं, देवों द्वारा पूज्य हैं और सत्पुरूषों के लिए ज्ञान के समुद्र हैं । |