
कथा :
भूख, प्यास, रोग, शोक, जनम, मरण, भय, माया, चिन्ता, मोह, राग, द्वेष आदि अठारह दोषों से जो रहित हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर वशिष्ठ तापसी की कथा लिखी जाती है । उग्रसेन मथुरा के राजा थे । उनकी रानीका नाम रेवती था । रेवती अपने स्वामी की बड़ी प्यारी थी । यहीं एक जिनदत्त सेठ रहता था । जिनदत्त यहाँ प्रियंगुलता नाम की एक नौकरानी थी । मथुरा में यमुना किनारे पर वशिष्ठ नाम का एक तापसी रहता था । वह रोज नहा-धोकर पञ्चाग्नि तप किया करता था । लोग उसे बड़ाभारी तपस्वी समझ कर उसकी खूब सेवा-भक्ति करते थे । सो ठीक ही है, असमझ लोग प्राय: देखा-देखी हर एक काम करने लग जाते हैं । यहाँ तक कि शहर की दासियाँ पानी भरने को कुँए पर जब आतीं तो वे भी तापस महाराज की बड़ी भक्ति से प्रदक्षिणा करतीं; उनके पाँव पड़ती और उनकी सेवा-सुश्रूषा कर फिर वे घर जाती । प्राय: सभी का यही हाल था । पर हाँ प्रियंगुलता इससे बरी थी । उसे ये बातें बिलकुल नहीं रूचती थी । इसलिए कि वह बचपन से ही जैनी के यहाँ काम करती रही । उसके साथ की और-और स्त्रियों को प्रियंगुलता का यह हठ अच्छा नहीं जान पड़ा और इसीलिए मौका पाकर वे एक दिन प्रियंगुलता को उस तापसी के पास जबर दस्ती लिवा ले गईं और इच्छा न रहते भी उन्होनें उसका सिर तापसी के पाँवों पर रख दिया । अब तो प्रियंगुलता से न रहा गया । उसने तब फिर मुझे एक धीवर (भोई) के ही क्यों न हाथ जोड़ना चाहिये ? इससे तो वह बहुत अच्छा है । एक दासी के द्वारा अपनी निन्दा सुनकर तापसजी को बड़ा गुस्सा आया । वे उन दासियों पर भी बहुत बिगड़े, जिन्होंने जबरदस्ती प्रियंगुलता को उनके पाँवों पर पटका था । दासियाँ तो तापसी जी की लाल-पीली आँखें देखकर उसी समय वहाँ से नौ-दो ग्यारह हो गईं । पर तापस महाराज को क्रोधाग्नि तब भी न बुझी । उसने उग्रसेन महाराज के पास पहुँच कर शिकायत की कि प्रभो, जिनदत्त सेठ ने मुझे धीवर बतलाकर मेरा बड़ा अपमान किया । उसे एक साधु की इस तरह बुराई करने का क्या अधिकार था ? उग्रसेन को भी एक दूसरे धर्म के साधु की बुराई करना अच्छा नहीं जान पड़ा । उन्होंने जिनदत्त बुलाकर पूछा, जिनदत्त ने कहा-महाराज यदि यह तपस्या करता है तो यह तापसी है ही, इसमें विवाद किसको है । पर मैंने तो इसे धीवर नहीं बतलाया । और सचमुच जिनदत्त ने उससे कुछ कहा भी नहीं था । जिनदत्त को इंकार करते देख तापसी घवराया । तब उसने अपनी सचाई बतलाने के लिए कहा-ना प्रभो, जिनदत्त दासी ने ऐसा कहा था । तापसी की बात पर महाराज को कुछ हँसी-सी आ गई । उन्होंने तब प्रियंगुलता को बुलाया । वह आई । उसे देखते ही तापसी के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । वह कुछ न सोचकर एक साथ ही प्रियंगुलता पर बिगड़ खड़ा हुआ । और गाली देते हुए उसने कहा-राँड़ तूने मुझे धीवर बतलाया है, तेरे इस अपराध की सजा तो मुझे महाराज देंगे ही । पर देख, मैं धीवर नहीं हूँ; किन्तु केवल हवा के आधार पर जीवन रखने वाला एक परम तपस्वी हूँ । बतला तो, तूनें मुझे क्या समझ कर धीवर कहा ? प्रियंगुलता तब निर्भय होकर कहा-हाँ, बतलाऊँ कि मैंने तुझे क्यो मल्लाह बतलाया था ? ले सुन, जब कि तू रोज-रोज मच्छियाँ मारा करता है तब तू मल्लाह तो है ही ! तुझे ऐसी दशा से कौन समझदार तापसी कहेगा ? तू यह कहे कि इसके लिए सुबूत क्या ? तू जैनी के यहाँ रहती है, इसलिए दूसरे धर्मो की या उनके साधु-सन्तों की बुराई करना तो तेरा स्वभाव होना ही चाहिये । पर सुन, मैं तुझे आज यह बतला देना चाहती हूँ कि जैनधर्म सत्य का पक्षपाती है । उसमें सच्चे साधु-सन्त ही पुजते हैं । तेरे से ढोंगी, बेचारे भोले लोगों को धोका देने वालों की उसके सामने दाल नहीं गल पाती । ऐसा ही ढौंगी देखकर तुझे मैंने मल्लाह बतलाया और न मैं तुझ से मछली मारने वाली मल्लाहों से कोई अधिक बात ही पाती हूँ । तब बतला मैंने इसमें कौन तेरी बुराई की ? अच्छा, यदि तू मल्लाह नहीं है तो जरा अपनी इन जटाओं को तो झाड़ दे । अब तो तापस महाराज बड़े घबराये और उन्होंने बातें बनाकर इस बात को ही उड़ा देना चाहा । पर प्रियंगुलता ऐसे कैसे रास्ते पर आ जाने वाली थी । उसने तापसी से जटा झड़वा कर ही छोड़ा । जटा झाड़ ने पर सचमुच छोटी-छोटी मछलियाँ उसमें से गिरीं । सब देखकर दंग रह गये । उग्रसेन ने तब जैनधर्म की खूब तारीफ कर तापसी से कहा-महाराज, जाइए-जाइए आप के इस भेष से पूरा पड़े । मेरी प्रजा को आप से हृदय के मैले साधुओं की जरूरत नहीं । तापसी को भरी सभा में अपमानित होने से बहुत ही नीचा देखना पड़ा । वह अपना-सा मुँह लिये वहाँ से अपने आश्रम में आया पर लज्जा, अपमान, आत्मग्लानि से वह मरा जाता था । जो उसे देख पाता वही उसकी ओर अँगुली उठाकर बतलाने लगता । तब इसने यहाँ का रहना छोड़ देना ही अच्छा समझ कूच कर दिया । यहाँ से यह गंगा और गंधवती के मिलाप होने की जगह आया और वहीं आश्रम बनाकर रहने लगा । एक दिन जैनतत्व के परम जानकार वीरभद्राचार्य अपने संघ को लिए इस ओर आ गये । वशिष्ठ-तापस को पंचाग्नि तप करते देख एक मुनि ने अपने गुरू से कहा-महाराज, यह तापसी तो बड़ा ही कठिन और असह्म तप करता है । आचार्य बोले-हाँ यह ठीक है कि ऐसे तप में भी शरीर को बेहद कष्ट बिना दिये काम नहीं चलता, पर अज्ञानियों का तप कोई प्रशंसा के लायक नहीं । भला, जिनके मन में दया नहीं, जो संसार की सब माया, ममता और आरम्भ-सारम्भ छोड़-छोड़कर योगी हुए और फिर वे ऐसा दयाहीन, जिसमें हजारों लाखों जीव रोज-रोज जलते हैं, तप करें तो इससे और अधिक दु:ख की बात कौन होगी । वशिष्ठ के कानों में भी यह आवाज गई । वह गुस्सा होकर आचार्य के पास आया और बोला-आपने मुझे अज्ञानी कहा, यह क्यों ? मुझ में आपने क्या अज्ञानता देखी, बतलाइयए ? आचार्य ने कहा-भाई, गुस्सा मत हो । तुम्हें लक्षकर तो मैंने कोई बात नहीं कहीं है । फिर क्यों इतना गुस्सा करते हो ? मेरी धारणा तो ऐसे तप करने वाले सभी तापसों के सम्बन्ध में है कि वे बेचारे अज्ञान से ठगे जाकर ही ऐसे हिंसामय तप को तप समझते हैं । यह तप नहीं है, किन्तु जीवों का होम बतलाया, तो अच्छा एक बात तुम ही बतलाओ कि तुम्हारे गुरू, जो सदा ऐसा तप किया करते थे, मरकर तप के फल से कहाँ पैदा हुए ? तापस बोला-हाँ, क्यों नहीं कहूँगा ? मेरे गुरूजी स्वर्ग में गये हैं । वीर भद्राचार्य ने कहा-नहीं तुम्हें इसकी मालूम ही नहीं हो सकती । सुनो, मैं बतलाता हूँ कि तुम्हारे गुरू की मरे बाद क्या दशा हुई, आचार्य ने अवधिज्ञान जोड़कर कहा-तुम्हारे गुरू स्वर्ग में नहीं गये, किन्तु साँप हुये हैं और इस लकड़े के साथ-साथ जल रहे हैं । तापस को विश्वास नहीं हुआ; बल्कि उसे गुस्सा भी आया कि इन्होंने क्यों मेरे गुरू को साँप हुआ बतलाकर उनकी बुराई की । पर आचार्य की बात सच है या झूठ इसकी परीक्षा कर देखने के लिए यही उपाय था कि वह उस लकड़े को चीरकर देखे । तापसी ने वैसा ही किया । लकड़े को चीरा । वीर भद्राचार्य का कहा सत्य हुआ । सर्प उसमें से निकला । देखते ही तापस को बड़ा अचम्भा हुआ । उसका सब अभियान चूर-चूर हो गया । उसकी आचार्य पर बहुत ही श्रद्धा हो गई । उसने जैनधर्म का उपदेश सुना । सुनकर उसके हियेकी आँसें, जो इतने दिनों से बन्द थीं, एकदम खुल गईं । हृदय में पवित्रता का सोता फूट निकला । बहुत दिनों का कूट-कपट, मायाचार रूपी मैलापन देखते-देखते न जाने कहाँ बहकर चला गया । वह उसी समय वीर भद्राचार्य से मुनि दीक्षा लेकर अब से सच्चा तापसी बन गया । यहाँ घूमते-फिरते और धर्मोपदेश करते वशिष्ठ मुनि एकबार मथुरा की और फिर आये । तपस्या के लिए इन्होंने गोवर्द्धन पर्वत बहुत पसन्द किया । वहीं ये तपस्या किया करते थे । एकबार इन्होंने महीना भर के उपवास किये । तप के प्रभाव से इन्हें कई विद्याएँ सिद्ध हो गईं । विद्याओं ने आकर इनसे कहा-प्रभो, हम आपकी दासियाँ हैं । आप हमें कोई काम बतलाइए । वशिष्ठ ने कहा-अच्छा, इस समय तो मुझे कोई काम नहीं, पर जब होगा तब मैं तुम्हें याद करूँगा । उस समय तुम उपस्थित होना । इसलिए इस समय तुम जाओ । जिन्होंने संसार की सब माया, ममता छोड़ रक्खी है, सच पूछो तो उनके लिए ऐसी ऋद्धि-सिद्धि की कोई जरूरत नहीं । पर वशिष्ठ मुनि ने लोभ में पड़कर विद्याओं को अपनी आज्ञा में रहने को कह दिया । पर यह उनके पदस्थ योग्य न था । महीना भर के उपवासे वशिष्ठ मुनि पारणा को शहर में आये । उग्रसेन को उनके उपवास करने की पहले ही से मालूम थी । इसलिए तभी से उन्होंने भक्ति के वश हो सारे शहर में डौंडी पिटवा दी थी कि तपस्वी वशिष्ठ मुनि को मैं ही पारणा कराऊँगा, उन्हें आहार दूँगा, और कोई न दे । सच है, कभी-कभी मूर्खता से की हुई भक्ति भी दु:ख की कारण बन जाया करती है, वशिष्ठ मुनि के प्रति उग्रसेन राजा की थी तो भक्ति, पर उसमें स्वार्थ का भाग होने से उसका उलटा परिणाम हो गया । बात यह हुई कि जब वशिष्ठ मुनि पारणा के लिए आये, तब अचानक राजा का खास हाथी उन्मत हो गया । वह साँकल तुड़ाकर भाग खड़ा हुआ और लोगों को कष्ट देने लगा । राजा उसके पकड़वाने का अप्रबन्ध करने में लग गये । उन्हें मुनि के पारणे की बात याद न रही । सो मुनि शहर में इधर-उधर घूम-घाम कर वापिस वन में लौट गये । शहर के और किसी गृहस्थ उन्हें इसलिए आहार न दिया कि राजा ने उन्हें सख्त मना कर दिया था । दूसरे दिन कर्म संयोग से शहर के किसी मुहल्ले में भयंकर आग लग गई, सो राजा इस के मारे व्याकुल हो उठे । मुनि आज भी सब शहर में तथा राजमहल में भिक्षा के लिए चक्कर लगाकर लौट गये । उन्हें कहीं आहार न मिला । तीसरे दिन जरासन्ध राजा का किसी विषय को लिए आज्ञापत्र आ गया, सो आज इसकी चिन्ता के मारे उन्हें स्मरण न आया । सच है, अज्ञान से किया काम कभी सिद्ध नहीं हो पाता । मुनि आज भी अन्तराय कर लौट गये । शहर बाहर पहुँचते वे गश खाकर जमीन पर गिर पड़े । मुनी की यह दशा देखकर एक बुढिया ने गुस्सा होकर कहा-यहाँ का राजा बड़ा ही दुष्ट है न तो मुनि को आप ही आहार देता है और न दूसरों को देने देता है । हाय ! एक निरपराध तपस्वी की उसने व्यर्थ ही जान ले ली । बुढि़या की बातें मुनि ने सुन लीं । राजा की इस नीचता पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आया । वे उठकर सीधे पर्वत पर गये । उन्होंने विद्याओं को बुलाकर कहा-मथुरा का राजा बड़ा पापी है, तुम जाकर फौरन ही मार डालो ! मुनि को इस प्रकार क्रोध की आग उगलते देख विद्याओं ने कहा-प्रभो, आपको कहने का हमें कोई अधिकार नहीं, पर तब भी आपके अच्छे के लिहाज से और धर्म पर कोई कलंक न लगे कि एक जैनमुनि ने ऐसा अन्याय किया, हम नि:संकोच होकर कहेंगी कि इस वेप के लिए आपकी यह आज्ञा सर्वथा अनुचित है और इसीलिए हम उसका साथ देने के लिए भी हिचकती हैं । आप क्षमा के सागर हैं, आप के लिए शत्रु और मित्र एक ही से हैं । मुनि पर देवियों की इस शिक्षा का कुछ असर नहीं हुआ । उन्होंने यह कहते हुए प्राण छोड़ दिये कि अच्छा, तुम मेरी आज्ञा का दूसरा जन्म में तो पालन करना ही । मैं दान में विघ्न करने वाले इस उग्रसेन राजा को मार कर अपना बदला अवश्य चुकाऊँगा । मुनि ने तपस्या नाश करने वाले निदान को-तपका फल पर जन्म में मुझे इस प्रकार मिलें, ऐसे संकल्प को करके रेवती के गर्भ में जन्म लिया । सच है, क्रोध सब कामों को नष्ट करनेवाला और पाप का मूल कारण है । एक दिन रेवती को दुर्बल देखकर उग्रसेन उससे पूछा-प्रिये, दिनों-दिनों तुम ऐसी दुबली क्यों होती जाती हो ? मुझे तुम्हें चिन्तातुर देख बड़ा खेद होता है । रेवती ने कहा-नाथ, क्या कहूँ, कहते हृदय काँपता है । नहीं जान पड़ता कि होनहार कैसा है ? स्वामी, मुझे बड़ा ही भयंकर दोहला हुआ है । मैं नहीं कह सकती कि अपने यहाँ अब की बार किस अभागे ने जन्म लिया है । नाथ, कहते हुए आत्मग्लानि से मेरा हृदय फटा पड़ता है । मैं उसे कहकर आपको और अधिक चिन्ता में डालना नहीं चाहती । उग्रसेन को अधिकाधिक आश्चर्य और उत्कण्ठा बढ़ी । उन्होंने बड़े हठ के साथ पूछा-आखिर रानी को कहना ही पड़ी । वह बोली-अच्छा नाथ, यदि आपका आग्रह ही है तो सुनिए, जी कड़ा करके कहती हूँ । मेरी अत्यन्त इच्छा होती है कि ‘‘मैं आपका पेट चीरकर खून पान करूँ ।'' मुझे नहीं जान पड़ता कि ऐसा दुष्ट दोहला क्यों होता है ? भगवान् जानें । यह प्रसिद्ध है कि जैसा गर्भ में बालक आता है, दोहला भी वैसा ही होता है । सुनकर उग्रसेन को भी चिन्ता हुई, पर उसके लिए इलाज क्या था, उन्होंने सोचा, दोहला बुरा या भला, इसका निश्चय होना तो अभी असंभव है । पर उसके अनुसार रानी की इच्छा तो पूरी होनी ही चाहिए । तब इसके लिए उन्होंने यह युक्ति की कि अपने आकार का एक पुतला बनवाकर उसमें कृत्रिम खून भरवाया और रानी को उसको इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने कहा । रानी ने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए उस पाप कर्मको किया । वह सन्तुष्ट हुई । थोड़े दिनों बाद रेवती ने एक पुत्र जना । वह देखने में बड़ा भयंकर था । उसकी आँखों से क्रूरता टपकी पड़ती थी । उग्रसेन ने उसके मुँह की ओर देखा तो वह मुट्ठी बाँधे बड़ी क्रूर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा । उन्हें विश्वास हो गया कि जैसे बाँसों को रगड़ से उत्पन्न हुई आग सारे वन को जलाकर खाक कर देती है ठीक इसी तरह से कुल में उत्पन्न हुआ दुष्ट पुत्र भी सारे कुल को जड़ मूल से उखाड़ फैंक देता है । मुझे इस लड़के की क्रूरता को देखकर भी यही निश्चय होता है कि अब इस कुल के भी दिन अच्छे नहीं है । यद्यपि अच्छा-बुरा होना दैवाधीन है, तथापि मुझे अपने कुल की रक्षा के निमित कुछ न कुछ यत्न करना ही चाहिए । हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से काम नहीं चलेगा । यह सोचकर उग्रसेन ने एक छोटा-सा सुन्दर सन्दूक मँगवाया और उस बालक को अपने नाम को एक अँगूठी पहराकर हिफाजत के साथ उस सन्दूक में रख दिया । इसके बाद सन्दूक को उन्होंने यमुना नदी में छुड़वा दिया । सच है, दुष्ट किसी को भी प्रिय नहीं लगता । कौशाम्बी में गंगाभद्र नाम का एक माली रहता था । उसकी स्त्री का नाम राजोदरी था । एक दिन वह जल भरने को नदी पर आई हुई थी । तब नदी में बहती हुई एक सन्दूक उसकी नजर पड़ी । वह उसे बाहर निकाल अपने घर ले आई । सन्दूक को राजोदारी ने खोला । उसमें से एक बालक निकला । राजोदरी उस बालक को पाकर बड़ी खुश हुई । कारण कि उसके कोई लड़का बाला नहीं था । उसने बड़े प्रेम से इसे पाला-पोसा । यह बालक काँसे की सन्दूक में निकला था, इसलिए राजोदरी ने इसका नाम भी कंस रख दिया । कंस का स्वभाव अच्छा न होकर क्रूरता लिए हुए था । यह अपने साथ के बालकों को बड़ा मारा-पीटा करता और बात-बात पर उन्हें तंग किया करता था । इसके अड़ोस-पड़ोस के लोग बड़े ही दु:खी रहा करते थे । राजोदरी के पास दिनभर में कंस की कोई पचासों शिकायत आया करती थीं । उस बेचारी ने बहुत दिन तक तो उसका उत्पाद-उपद्रव सहा, पर फिर उससे भी यह दिन रात का झगड़ा-टंटा न सहा गया । सो उसने कंस को घर से निकाल दिया । सच है, पापी पुरूषों से किसे भी कभी सुख नहीं मिलता । कंस अब सौरीपुर पहुँचा । यहाँ यह वसुदेव का शिष्य बनकर शास्त्राभ्यास करने लगा । थोड़े दिनों में यह साधारण अच्छा लिख-पढ़ गया । वसुदेव की इस पर अच्छी कृपा हो गई । इस कथा के साथ एक और कथा का सम्बन्ध है, इसलिए वह कथा यहाँ लिखी जाती है – सिंहरथ नाम का एक राजा जरासन्ध का शत्रु था । जरासन्ध ने इसे पकड़ लाने का बड़ा यत्न किया, पर किसी तरह यह इसके काबू में नहीं जाता था । तब जरासन्ध ने सारे शहर में डौंडी पिटवाई कि वीर-शिरोमणि सिंहरथ को पकड़कर मेरे सामने ला उपस्थित करेगा, उसे मैं अपनी जीवंजसा लड़की को व्याह दूँगा और अपने देश का कुछ हिस्सा भी दूँगा । इसके लिए वसुदेव तैयार हुआ । वह अपने बड़े भाई की आज्ञा से सब सेना को साथ लिए सिंहरथ के ऊपर जा चढ़ा । उसने जाते ही सिंहरथ की राजधानी पोदनपुर के चारों ओर घेरा डाल दिया । और आप एक व्यापारी के वेष में राजधानी के भीतर घुसा । कुछ खास-खास लोगों को धन का खूब लोभ देकर उसने उन्हें फोड़ लिया । हाथी के महावत, रथ के सारथी आदि को उसने पैसे का गुलाम बनाकर अपनी मुट्ठी में कर लिया । सिंहरथ को इसका समाचार लगते ही उसने भी उसी समय रणभेरी बजवाई और बड़ी वीरता के साथ वह लड़ने के लिए अपने शहर से बाहर हुआ । दोनों ओर से युद्ध के झुझारू बाजे बजने लगे । उनकी गम्भीर आवाज अनन्त आकाश को भेदती हुई स्वर्गो के द्वारों से जाकर टकराई । सुखी देवों का आसन हिल गया । अमरांगनाओं ने समझा कि हमारे यहाँ मेहमान आते हैं, तो वे उनके सत्कार के लिए हाथों में कल्पवृक्षों के फूलों की मनोहर मालाएँ ले-लेकर स्वर्ग के द्वार पर उनकी अगवानी के लिए आ डटीं । स्वर्गों के दरवाजे उनसे ऐसे खिल उठे मानों चन्द्रमाओं की प्रदर्शनी को गई है । थोड़ी ही देर में दोनों ओर से युद्ध छिड़ गया । खूब मारकाट हुई । खून की नदी बहने लगी । मृतकों के सिर और धड़ उसमें तैरने लगे । दोनों ओर की वीर सेना ने अपने-अपने स्वामी के नमक का जो खोलकर परिचय कराया । जिसे न्याय की जीत कहते हैं, वह किसी को प्राप्त न हुई । वसुदेव ने जो पोदनपुर के कुछ लोगों को अपने मुट्ठी में कर लिया था, उन स्वार्थियों, विश्वासघातियों ने अन्त में अपने मालिक को दगा दे दिया । सिंहरथ को उन्होंने वसुदेव के हाथ पकड़वा दिया । सिंहरथ का रथ मौके के समय बेकार हो गया । उसी समय वसुदेव ने उसे घेरकर कंस से कहा-जो कि उसके रथ का सारथी था, कंस, देखते क्या हो ? उत्तर कर शत्रु को बाँध लो । कंस ने गुस्से के साथ रथ से उत्तर कर सिंहरथ को बाँध लिया और रथ में रखकर उसी समय वे वहाँ से चल दिये । सच है, अग्नि एक तो वैसे ही तपी हुई होती है और ऊपर से यदि वायु बहने लगे तब तो उसके तपने का पूछना ही क्या ? सिंहरथ को बाँध लाकर वसुदेव ने जरासन्ध के सामने उसे रख दिया । देखकर जरासन्ध बहुत ही प्रसन्न हुआ । अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए उसने वसुदेव से कहा-मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ । अब आप कृपा कर मेरी कुमारी का पाणिग्रहण कर मेरी इच्छा पूरी कीजिए । और मेरे देश के जिस प्रदेश को आप पसन्द करें मैं उसे भी देने को तैयार हूँ । वसुदेव ने कहा-प्रभो, आपकी इस कृपा का मैं पात्र नहीं । कारण मैंने सिंहरथ को नहीं बाँधा है । इसे बाँधा है मेरे प्रिय शिष्य इस कंस ने, सो आप जो कुछ देना चाहें इसे देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिए । जरासन्ध ने कंस की ओर देखकर उससे पूछा-भाई, तुम्हारी जाति-कुल क्या है ? कंस को अपने विषय में जो बात ज्ञात थी, उसने वहीं स्पष्ट बतला दी कि प्रभो, मैं तो एक मालिन का लड़का हूँ । जरासन्ध को कंस की सुन्दरता और तेजस्विता देखकर यह विश्वास नहीं हुआ । कि वह सचमुच ही एक मालिन का लड़का होगा । इसका निश्चय करने के लिए जरासन्ध ने उसकी माँ को बुलवाया । यह ठीक है कि राजा लोग प्राय: बुद्धिमान और चतुर हुआ करते हैं । कंस की माँ को जब यह खबर मिली कि उसे राजदरबार में बुलाया है, तब तो उसकी छाती धड़कने लग गई । वह कंस की शैतानी का हाल तो जानती ही थी, सो उसने सोचा कि जरूर कंस ने कोई बड़ा भारी गुनाह किया है और इसी से वह पकड़ा गया है । अब उसके साथ मेरी भी आफत आई । वह घबराई और पछता ने लगी कि हाय ? मैंने क्यों इस दुष्ट को अपने घर लाकर रक्खा ? अब न जाने राजा मेरा क्या हाल करेगा ? जो हो, बेचारी रोती-झींकती राजाके पास गई और अपने साथ उस सन्दूक को भी लिवा ले गई, जिसमें कि कंस निकला था । इसने राजा के सामने होते ही काँपते-काँपते कहा-दुहाई है महाराज की ! महाराज यह पापी मेरा लड़का नहीं है, मैं सच कहती हूँ । इस सन्दूक में से यह निकला है । सन्दूक को आप लीजिए और मुझे छोड़ दीजिए । मेरा इसमें कोई अपराध नहीं । मालिन को इतनी घबराई देखकर राजा को कुछ हँसी-सी आ गई । उसने कहा-नहीं, इतने डरने-घबराने की कोई बात नहीं । मैंने तुम्हें कोर्ट कष्ट देने को नहीं बुलाया है । बुलाया है सिर्फ कंस की खरी-खरी हकीकत जानने के लिये । इसके बाद राजा ने सन्दूक उठाकर खोला तो उसमें एक कम्बल और एक अंगूठी निकली । अंगूठी पर खुदा हुआ नाम वाँचकर राजा को कंस के सम्बन्ध में अब कोई शंका न रह गई । उसने उसे एक अच्छे राजकुल में जन्मा समझ उसके साथ अपनी जीवंजसा कुमारी का ब्याह बड़े ठाटवाट से कर दिया । जरासन्ध ने उसे अपने राज का कुछ हिस्सा भी दिया । कंस अब राजा हो गया । राजा होने के साथ ही अब उसे अपनी राज्यसीमा ओर प्रभुत्व बढ़ाने की महत्वाकांक्षा हुई । मथुरा के राजा उग्रसेन के साथ उसकी पूर्व जन्म की शत्रुता है । कंस जानता था कि उग्रसेन मेरे पिता हैं, पर तब भी उन पर वह जला करता है और उस के मन में सदा यह भावना उठती है कि मैं उग्रसेन से लडूँ और उनका राज्य छीनकर अपनी आशा पूरी करूँ । यही कारण था कि उसने पहली चढ़ाई अपने पिता पर ही की । युद्ध में कंस की विजय हुई । उसने अपने पिता को एक लोहे के पींजरे में बन्द कर और शहर के दरवाजे के पास उस पींजरे को रखवा दिया । और आप मथुरा का राजा बनकर राज्य करने लगा । कंस को इतने पर भी संतोष न हुआ सो अपना बैर चुकाने का अच्छा मौका समझ वह उग्रसेन को बहुत कष्ट देने लगा । उन्हें खाने के लिये वह केवल कोदू की रोटियाँ और छाछ देता । पानी के लिए गन्दा पानी और पहरने के लिए बड़े ही मैले-कुचले और फटे-पुराने चिथड़े देता । मतलब यह कि उसने एक बड़े से बड़े अपराधी की तरह उनकी दशा कर रक्खी थी । उग्रसेन की इस हालत को देखकर उनके कट्टर दुश्मन की भी छाती फटकर उसकी आँखों से सहानुभूति के आँसू गिर सकते थे, पर पापी कंस को उनके लिए रत्तीभर भी दया या सहानुभूति नहीं थी । सच है, कुपुत्र कुल का काल होता है । अपने भाई की यह नीचता देखकर कंस के छोटे भाई अतिमुक्तक को संसार से बड़ी घृणा हुई । उन्होंने सब मोह-माया छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली । वसुदेव कंस के गुरू थे । इसके सिवा उन्होंने उसका बहुत कुछ उपकार किया था; इसलिए कंस की उन पर बड़ी श्रद्धा थी । उसने उन्हें अपने ही पास बुलाकर रख लिया । मृतकावती पुरी के राजा देवकी के एक कन्या थी । वह बड़ी सुन्दर थी । राजा का उस पर बहुत प्यार था । इसलिए उसका नाम उन्होंने अपने ही नाम पर देव की रख दिया था । कंस ने उसे अपनी बहिन करके मानी थी, सो वसुदेव के साथ उसने उसका ब्याह कर दिया । एक दिन की बात है कि कंस की स्त्री जीवंजसा देवकी के और अपने देवर अतिमुक्त की स्त्री पुष्पवती के वस्त्रों को आप पहरकर नाच रही थी-हँसी-मजाक कर रही थी । इसी समय कंस के भाई अतिमुक्तक मुनि आहार के लिये आये । जीवंजसा ने हँसते-हँसते मुनि से कहा-अजी ओ देवर जी, आइए ! आइए !! मेरे साथ-साथ आप भी नाचिये। देखिए, फिर बड़ा ही आनन्द आवेगा । मुनि ने गंभीरता से उत्तर दिया-बहिन, मेरा यह मार्ग नहीं है । इसलिए अलग हो जा और मुझे जाने दे । पापिनी जीवंजसा ने मुनि को जाने न देकर उलटा हठ पकड़ लिया और बोली-नहीं, मैं तब तक आपको कभी न जाने दूँगी जब तक कि आप मेरे साथ न नाचेंगे । मुनि को इससे कुछ कष्ट हुआ और इसी से उन्होंने आवेग में आ उससे कह दिया कि मूर्ख, नाचती क्यों है । जाकर अपने स्वामी से कह कि आपकी मौत देवकी के लड़के द्वारा होगी और वह समय बहुत नजदीक आ रहा है । सुनकर जीवंजसा को बड़ा गुस्सा आया । उसने गुस्से में आकर देवकी के वस्त्र को, जिसे कि वह पहरे हुए थी, फाड़कर दो टुकड़े कर दिये । मुनि ने कहा-मूर्ख स्त्री, कपड़े को फाड़ देने से क्या होगा ? देख और सुन, जिस तरह तूने इस कपड़े के दो टुकड़े कर दिये हैं उसी तरह देवकी के होने वाला वीर पुत्र तेरे बाप के दो टुकड़े करेगा । जीवंजसा को बड़ा ही दु:ख हुआ । वह नाचना गाना सब भूल गई । अपने पति के पास दौड़ी जाकर वह रोने लगी । सच है यह जीव अज्ञानदशा में हँसता-हँसता जो पाप कमाता है उसका फल भी इसे बड़ा ही बुरा भोगना पड़ता है । कंस जीवंजसा को रोती देखकर बड़ा घबराया । उसने पूछा-प्रिये, क्यों रोती हो ? बतलाओ, क्यों रोती हो ? बतलाओ, क्या हुआ ? संसार में ऐसा कौन धृष्ट होगा जो कंस की प्राणप्यारी को रूला सके । प्रिये, जल्दी बतलाओ, तुम्हें रोती देखकर मैं बड़ा दु:खी हो रहा हूँ । जीवंजसा ने मुनि द्वारा जो-जो बातें सुनी थीं, उन्हें कंस से कह दिया । सुनकर कंस को भी बड़ी चिन्ता हुई । वह जीवंजसा से बोला-प्रिये, घबराने की कोई बात नहीं, मेरे पास इस रोग की भी दवा है । इसके बाद ही वह वसुदेव के पास पहुँचा और उन्हें नमस्कार कर बोला-गुरू महाराज, आपने मुझे पहले एक‘वार’ दिया था । उसकी मुझे अब जरूरत पड़ी है । कृपा कर मेरी आशा पूरी कीजिए । इतना कहकर कंस ने कहा-मेरी इच्छा देवकी के होने वाले पुत्र के मार डालने की है । इसलिए कि मुनि ने उसे मेरा शत्रु बतलाया है । सो कृपा कर देवकी की प्रसूति मेरे महल में हो, इसके लिए अपनी अनुमति दीजिए । कंस की अपने एक शिष्य की इस प्रकार नीचता, गुरूद्रोह देखकर वसुदेव की छाती धड़क उठी । उनकी आँखों में आँसू भर आये । पर करते क्या ? वे क्षत्रिय थे और क्षत्रिय लोग इस व्रत के व्रती होते हैं कि ‘’प्राण जाँहि पर वचन न जाँहि ।'' तब उन्हें लाचार होकर कंस का कहना बिना कुछ कहे-सुने मान लेना पड़ा । क्योंकि सत्पुरूष अपने वचनों का पालन करने में कभी कपट नहीं करते । देवकी ये सब बातें खड़ी-खड़ी सुन रहीं थी । उसे अत्यन्त दु:ख हुआ । वह वसुदेव से बोली-प्राणनाथ, मुझ से यह दु:सह पुत्र-दु:ख नहीं सहा जायगा । मैं तो जाकर जिनदीक्षा ले लेती हूँ । वसुदेव ने कहा-प्रिये, घबराने की कोई बात नहीं है, चलो, हम चलकर मुनिराज से पूछें कि बात क्या है ? फिर जैसा कुछ होगा विचार करेंगे । वसुदेव अपनी प्रिया के साथ वन में गये । वहाँ अतिभुक्तक मुनि एक फले हुए आम के झाड़ के नीचे स्वाध्याय कर रहे थे । उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर वसुदेव ने पूछा-हे जिनेन्द्रभगवान् के सच्चे भक्त योगिराज, कृपा कर मुझे बतलाइए कि मेरे किस पुत्र द्वारा कंस और जरासंध की मौत होगी ? इस समय देव को आम की एक डाली पकड़े हुए थी । उस पर आठ आम लगे थे । उनमें छह आम तो दो-दो की जोड़ी से लगे थे और उनके ऊपर दो आम जुदा-जुदा लगे थे । इन दो आमों में से एक आम इसी समय पृथिवी पर गिर पड़ा और दूसरे आम थोड़ी ही देर बाद पक गया । इस निमित्त ज्ञान पर विचार कर अवधिज्ञानी मुनि बोले-भव्य वसुदेव, सुनो, मैं तुम्हें सब खुलासा समझाये देता हूँ । देखो, देवकी के आठ पुत्र होंगे । उनमें छह तो नियम से मोक्ष जाँयगे । रहे दो, सो इनमें सातवाँ तो जरासंध और कंस का मारने वाला होगा और आठवाँ कर्मों का नाश कर मुक्ति महिला का पति होगा । मुनिराज से इस सुख समाचार को सुनकर वसुदेव और देवकी को बहुत आनन्द हुआ । वसुदेव को विश्वास था कि मुनि का कहा कभी झूठ नहीं हो सकता । मेरे पुत्र द्वारा कंस और जरासंध की होने वाली मौत को कोई नहीं टाल सकता । इसके बाद वे दोनों भक्ति से मुनि को नमस्कार कर अपने घर लौट आये । सच है, जिनभगवान् के धर्म पर विश्वास करना ही सुख का कारण है । देवकी के जब से सन्तान होने की सम्भावना हुई । तब से उसके रहने का प्रबन्ध कंस के ही महल पर हुआ । कुछ दिनों बाद पवित्रमना देवकी ने दो पुत्रों को एक साथ जना । इसी समय कोई ऐसा पुण्य-योग मिला कि भद्रिलापुर में श्रुतदृष्टि सेठ की स्त्री अलका के भी पुत्र-युगल हुआ । पर यह युगल मरा हुआ था । सो देवकी के पुत्रों के पुण्य से प्रेरित होकर एक देवता इस मृत-युगल को उठा कर तो देवकी के पास रख आया और उसके जीते पुत्रों को अलका के पास ला रक्खा । सच है, पुण्यवानों की देव भी रक्षा करते हैं । इसलिए कहना पड़ेगा कि जिनभगवान् ने जो पुण्य मार्ग में चलने का उपदेश दिया है वह वास्तव में सुख का कारण है । और पुण्य भगवान् की पूजा करने से होता है, दान देने से होता है और व्रत, उपवासादि करने से होता है । इसलिए इन पवित्र कर्मों द्वारा निरन्तर पुण्य कमाते रहना चाहिए । कंस को देवकी की प्रसूति का हाल मालूम होते ही उसने उस मरे हुए पुत्र-युगल को उठा लाकर बड़े जोर से शिलापर दे मारा । ऐसे पापियों के जीवन को धिक्कार है । इसी तरह देवकी के जो दो और पुत्र-युगल हुए, उन्हें देवता वहीं अलका सेठानी के यहाँ रख आया और उसके मरे पुत्र-युगलों को उसने देवकी के पास ला रक्खा । कंस ने इन दोनों युगलों की भी पहले युगल की सी दशा की । देवकी के ये छहों पुत्र इसी भव से मोक्ष जायेंगे, इसलिए इनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता । ये सुख पूर्वक यहीं रहकर बढ़ने लगे । अब सातवें पुत्र की प्रसूति का समय नजदीक आने लगा । अब की बार देवकी के सातवें महीने में ही पुत्र हो गया । यही शत्रुओं का नाश करने वाला था; इसलिए वसुदेव को इसकी रक्षा की अधिक चिन्ता थी । समय कोई दो तीन बजे रात का था । पानी वरस रहा था । वसुदेव उसे गोद में लेकर चुपके से कंस के महल से निकल गये । बलभद्र ने इस होनहार बच्चे के ऊपर छत्री लगाई । चारों ओर गाढ़ा न्धकार के मारे हाथ तक भी न देख पड़ता था । पर इस तेजस्वी बालक के पुण्य वहीं देवता, जिसने कि इसके छह भाईयों की रक्षा की है, बैल के रूप में सींगों पर दीया रक्खे आगे-आगे हो चला । आगे चलकर इन्हें शहर बाहर होने के दरवाजे बन्द मिले, पर भाग्य की लीला अपरम्पार है । उससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है । वहीं हुआ । बच्चे के पाँवों का स्पर्श होते ही दरवाजा भी खुल गया । आगे चले तो नदी अथाह बह रही थी । उसे पार करने का कोई उपाय न था । बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई । उन्होंने होना-करना सब भाग्य के भरोसे पर छोड़कर नदी में पाँव दिया । पुण्य को कैसी महिमा जो यमुना का अथाह जल घुटनों प्रमाण हो गया । पार होकर ये एक देवों के मंदिर में गये । इतने में इन्हें किसी के आने की आहट सुनाई दी । ये देवी के पीछे छुप गये । इसी से संबन्ध रखने वाली एक और घटना का हाल सुनिये । एक नन्द नाम का गुवाल यहीं पास के गाँव में रहता है । उसकी स्त्री का नाम यशोदा है । यशोदा के प्रसूति होने वाली थी, सो वह पुत्र की इच्छा से देवी की पूजा वगैरह कर गई थी । आज ही रात को उसके प्रसूति हुई । पुत्र न होकर पुत्री हुई । उसे बड़ा दु:ख हुआ कि मैंने पुत्र की इच्छा से देवी की इतनी तो आराधना-पूजा की और फिर भी लड़की हुई । मुझे देवी के इस प्रसाद की जरूरत नहीं । यह विचार कर वह उठी और गुस्सा में आकर उस लड़की को लिए देवी के मंदिर पहुँची । लड़की को देवी के सामने रखकर वह बोली-देवी जी, लीजिए आपकी पुत्री को ? मुझे इसकी जरूरत नहीं है । यह कहकर याशोदा मंदिर से चली गई । वसुदेव ने इस मौके को बहुत ही अच्छा समझकर पुत्र को देवी के सामने रख दिया और लड़की को आप उठाकर चल दिये । जाते हुए वे यशोदा से कहते गये कि अरी, जिसे तू देवता के पास रख आई है वह लड़की नहीं है; किन्तु एक बहुत ही सुन्दर लड़का है । जा उसे जल्दी ले आ; नहीं तो और कोई उठा ले जायगा । यशोदा को पहले तो आश्चर्य-सा हुआ । पर फिर वह अपने पर देवी की कृपा समझ झटपट दौड़ी गई और जाकर देखती है तो सचमुच ही वह सुन्दर बालक है । यशोदा के आनन्द का अब कुछ ठिकाना न रहा । वह पुत्र को गोद में लिए उसे चूमती हुई घर पर आ गई । सच है, पुण्य का कितना वैभव है इसका कुछ पार नहीं । जिसकी स्वप्न में भी आशा न हो वही पुण्य से सहज मिल जाता है । इधर वसुदेव और बलभद्र ने घर पहुँचकर उस लड़की को देवकी को सौंप दिया । सबेरा होते ही जब लड़की के होने का कंस को मालूम हुआ तो उस पापी ने आकर बेचारी उस लड़की की नाक काट ली । यशोदा के यहाँ वह पुत्र सुख से रहकर दिनों-दिन बढ़ने लगा । जैसे-जैसे वह उधर बढ़ता है कंस के यहाँ वैसे ही अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे । कभी आकाश से तारा टूटकर पड़ता, कभी बिजली गिरती, कभी उल्का गिरती और कभी और कोई भयानक उपद्रव होता । यह देख कंस को बड़ी चिन्ता हुई । वह बहुत घबराया । उसकी समझ में कुछ न आया कि यह सब क्या होता है ? एक दिन विचार कर उसने एक ज्योतिषों को बुलाया और उसे सब हाल कहकर पूछा कि पंडित जी, यह सब उपद्रव क्यों होते है ? इसका कारण क्या आप मुझे कहेंगे ? ज्योतिषों ने निमित्त विचार कर कहा-महाराज, इन उपद्रव का होना आपके लिए बहुत ही बुरा है । आपका शत्रु दिनों-दिन बढ़ रहा है । उसके लिए कुछ प्रयत्न कीजिए । और वह कोई बड़ी दूर न होकर यहीं गोकुल में है । कंस बड़ी चिंता में पड़ा । वह अपने शत्रु को मारने का क्या यत्न करे, यह उसकी समझ में न आया । उसे चिन्ता करते हुए अपनी पूर्व सिद्ध हुई विद्यओं की याद हो उठी एकदम चिन्ता मिटकर उसके मुँह पर प्रसन्नता की झलक देख पड़ी । उसने उन विद्याओं को बुलाकर कहा-इस समय तुमने बड़ा काम दिया । आओ, अब पलभर की भी देरी न कर जहाँ मेरा शत्रु हो उसे ठौर मारकर मुझे बहुत जल्दी उसकी मौत के शुभ समाचार दो । विद्याएँ वासुदेव को मारने को तैयार हो गई । उनमें पहली पूतना विद्या ने धाय के वेष में जाकर वासुदेव को दूध की जगह विष पिलाना चाहा । उसने जैसे ही उसके मुँह मे स्तन दिया, वासुदेव ने उसे इतने जोर से काटा कि पूतना के होश गुम हो गये । वह चिल्लाकर भाग खड़ी हुई । उसकी यहाँ तक दुर्दशा हुई कि उसे अपने जीने में भी सन्देह होने लगा । दूसरी विद्या कौए के वेश में वासुदेव की आँखे निकाल लेने के यत्न में लगी, सो उसने उसकी चोंच पींख वगैरह को नोंच नाचकर उसे भी ठीक कर दिया । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवी, छठीं और सातवीं देवी जुदा-जुदा वेष में वासुदेव को मारने का यत्न करने लगीं, पर सफलता किसी को भी न हुई। इसके विपरीत देवियों को ही बहुत कष्ट सहना पड़ा। यह देख आठवीं देवी को बड़ा गुस्सा आया। यह तब कालिका का वेष लेकर वासुदेव को मारने के लिए तैयार हुई। वासुदेव ने उसे भी गोवर्द्धन पर्वत उठाकर उसके नीचे दाब दिया। मतलब यह है विद्याओं ने जितनी भी कुछ वासुदेव के मारने की चेष्टा की वह सब व्यर्थ गई। वे सब अपना-सा मुँह लेकर कंस के पास पहुँची और उससे बोली-देव, आपका शत्रु कोई ऐसा वैसा साधारण मनुष्य नहीं। वह बड़ा बलवान है। हम उसे किसी तरह नहीं मार सकतीं। देवियाँ इतना कहकर चल दीं। उनकी इन विभीषिका को सुनकर कंस हतबुद्धि हो गया । वह इस बात से बड़ा घबराया कि जिसे देवियाँ तक जब न मार सकीं तब तो उसका मारना कठिन ही नहीं किन्तु असंभव है । तब क्या मैं उसी के हाथों मारा जाऊँगा ? नहीं, जब तक मुझ में दम है, मैं उसे बिना मारे कभी नहीं छोडूंगा । देवियाँ आखिर थीं तो स्त्री-जाति ही न ? जो स्वभाव से ही कायर-डरपोक होती हैं, वे बेचारी एक वीर पुरूष को क्या मार सकेंगी ! अस्तु, अब मैं स्वयं उसके मार ने का यत्न करता हूँ । फिर देखता हूँ कि वह कहाँ तक मुझ से बचता है । आखिर वह है एक गुवाल का छोकरा और मैं वीर राजपूत ! तब क्या मैं उसे न मार सकूँगा ? यह असम्भव है । उद्यम से सब काम सिद्ध हो जाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं । कंस ने अपने मन की खूब समझौती कर वासुदेव के मार ने की एक नई योजना की । उसके यहाँ दो बड़े प्रसिद्ध पहलवान थे । उनके साथ कुश्ती लड़कर जीतने वाले को एक बड़ा भारी पारितोषक देना उसने प्रसिद्ध किया । कंस ने सोचा था कि पहले तो मेरे ये पहलवान ही उसे मच्छर की तरह पीस डालेंगे और कोई दैव योग से इनके हाथ से वह बच भी गया तो मैं तो उसकी छाती पर ही तलवार लिये खड़ा रहूँगा, सो उस समय उसका सिर धड़ से जुदा करने में मुझे देर ही क्या लगेगी ? इससे बढ़कर और कोई उपाय शत्रु के मार ने का नहीं है । कंस को इस विचार से बड़ा धीरज बँधा । कुश्ती का जो दिन नियत था, उस दिन नियत किये स्थान पर हजारों आलम ठसाठस भर गये । सारी मथुरा उस वीर के देखने को उमड़ पड़ी कि देखें इन पहलवानों के साथ कौन वीर लड़ेगा । सब के मन बड़े उत्सुक हो उठे । आँखे उस वीर पुरूष की बांट जोहने लगीं । पर उन्हें अब तक कोई लड़ने को तैयार नहीं-देख पड़ा । कंस का मन कुछ निराश होने लगा । कुश्ती का समय भी बहुत नजदीक आ गया । पर अभी तक उसने किसी को अखाड़े में उतरते नहीं देखा । यह देख उसकी छाती धड़की । लोग जाने की तैयारी ही में होंगे कि इतने में एक चौबीस पच्चीस वर्ष का जवान भीड़ को चीरता हुआ आया और गरजकर बोला-हाँ जिसे कुश्ती लड़ना हो वह अखाड़े में उतर कर अपना बल बतावे ! उपस्थित मंडली इस आये हुए पुरूष की देव-दुर्लभ सुन्दरता और वीरता को देखकर दंग रह गई । बहुतों को उसकी छोटी उमर और सुन्दरता तथा उन पहलवानों को भीम काय देखकर नाना तरह की कुशंका भी होने लगी । और साथ ही उनका हृदय सहानुभूति से भर आया । पर उसे रोक देने का उनके पास कोई उपाय न था । इसलिए उन्हें दु:ख भी हुआ । जो हो, आगन्तुक युवा की उस हृदय हिलाने वाली गर्जना को सुनकर एक भीमकाय पहलवान ने अखाड़े में उतरकर खम ठोका । और सामने वाले वीर को अखाड़े में उतरने के लिए ललकारा । युवा भी बिजली की तरह चपलता से झट से अखाड़े में दाखिल हो गया । इशारा होते ही दोनों की मुठभेड़ हुई । युवा की वीरश्री और चंचलता इस समय देखने के ही योग्य थी । उस मूर्तिमान वीरश्री ने कुछ देर तक तो उस पहलवान को खेल खिलाया और अन्त में उठाकर ऐसा पछाड़ा कि उसे आसमान के तारे दीख पड़ने लगे । इतने में ही उसका साथी दूसरा पहिलवान अखाड़े में उतरा । वासुदेव ने उसकी भी यही दशा की । उपस्थित मंडली के आनन्द की सीमा न रही । तालियों से उसका खूब जय जयकार मनाया गया । अब तो कंस से किसी तरह न रहा गया । उसके हृदय में ईर्षा, द्वेष प्रतिहिंसा और मत्सरता की आग भड़ग उठी । वह तलवार हाथ में लिये ललकार कर बोला, हाँ ठहरो ! अभी लड़ाई बाकी है । यह कहकर वह स्वयं हाथ में शमशेर लिये अखाड़े में उतरा । उसे देखकर सब भौंचक से रह गये । किसी की समझ में न आया कि यह रहस्य क्या है ? क्यों ऐसा किया जा रहा है ? किसी को कुछ कहने विचारने का अधिकार न था । इसलिए वे सब लाचार होकर उस भयंकर समय की प्रतीक्षा करने लगे कि अन्त में देखें ऊँट किस करवट बैठता है । जो हो, पर इतना आवश्य है कि प्रकृति को अधिक अन्याय, अत्याचार सहन नहीं होता, और इसलिए वह फिर एक ऐसी शक्ति पैदा करती है जो उन अत्याचारों के अंकुर को जड़मूल से ही उखाड़ फैंक देती है । कंस के भयानक अत्याचारों से सारी प्रजा त्राह-त्राह कर उठी थी । शान्ति, सुख का कहीं नाम निशान भी न रह गया था । इसीलिए प्रकृति ने वासुदेव सरीखी एक महाशक्त्िा को उत्पन्न किया । कंस को अखाड़े में उतरा देखकर वासुदेव भी तलवार उठा उसके सामने हुआ । दोनों ने अपनी-अपनी तलवार को सम्हाला । कंस का हृदय क्रोध की आग से जल ही रहा था, सो उसने झपट कर वासुदेव पर पहला वार किया । श्रीकृष्ण ने उसके वार को बड़ी बुद्धिमानी से बचाकर उस पर एक ऐसा जोर का वार किया कि पहला ही वार कंस से सम्हालते न बना और देखते-देखते वह धड़ाम से गिरकर सदा के लिए पृथिवी की गोद में सो गया । प्रकृति को सन्तोष हुआ । उसने अपना कर्त्तव्य पूरा कर लोगों को भी यह शिक्षा दे दी कि देखो, निर्बलों पर अत्याचार करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं । मैं ऐसे पापियों का पृथिवी पर नाम निशान भी नहीं रहने देता । यदि तुम सुखी रहना पसन्द करते हो तो दूसरों को सुखी करने का यत्न करो । यह मेरा आदेश है । कंस को निरीह प्रजा पर अत्याचार करने का उपयुक्त प्रायश्चित मिल गया । अशान्ति का छत्र भंग होकर फिर से शान्ति के पवित्र शासन की स्थापना हुई । वासुदेव ने उसी समय कंस के पिता उग्रसेन को लाकर पीछा राज्यसिंहासन पर अधिष्ठित किया । इसके बाद ही श्रीकृष्ण ने जरा सन्ध पर चढ़ाई करके उसे भी कंस का रास्ता बतलाया और आप फिर अर्धचक्रवर्ती होकर प्रजा का नीति के साथ शासन करने लगा । यह कथा प्रसंग वश यहाँ संक्षेप में लिख दी गई है, जिन्हें विस्तार के साथ पड़ना हो उन्हें हरिवंशपुराण का स्वाध्याय करना चाहिये । जो क्रोधी, मायाचारी, ईर्षा करने वाले, द्वेष करने वाले और मानो थे, धर्म के नाम से जिन्हें चिढ़ थी, जो धर्म से उलटा चलते थे, अत्याचारी थे, जड़ बुद्धि थे और खोटे कर्मों की जाल में सदा फँस रहकर कोई पाप करने से नहीं डरते थे, ऐसे कितने मनुष्य अपने ही कर्मों से काल के मुँह में नहीं पड़े ? अर्थात् कोई बुरा काम करे या अच्छा, काल के हाथ तो सभी को पड़ना ही पड़ता है । पर दोनों में विशेषता यह होती है कि एक मरे बाद भी जन साधारण की श्रद्धा का पात्र होता है और सुगति लाभ करता है और दूसरा जीते जी ही अनेक तरह की निन्दा, बुराई, तिरस्कार आदि दुर्गणों का पात्र बनकर अन्त में कुगति में जाता है । इसलिए जो विचार शील हैं, सुख प्राप्त करना जिनका ध्येय है, उन्हें तो यही उचित है कि वे संसार के दु:खों का नाश कर स्वर्ग या मोक्ष का सुख देने वाले जिनभगवान् का उपदेश किया पवित्र जिनधर्म का सेवन करें । |