
कथा :
जिन जगद्बन्धु का ज्ञान लोक और अलोक का प्रकाशित करने वाला है, जिनके ज्ञान द्वारा सब पदार्थ जाने जा सकते हैं, अपने हित के लिए उन जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार कर मान करने के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है । मगध देश के लक्ष्मी नाम के सुन्दर गाँव में एक सोमशर्मा ब्राह्मण रहता रहता था । इसकी स्त्री का नाम लक्ष्मीमती था । लक्ष्मीमती सुन्दरी थी । अवस्था इसकी जवान थी । इसमें सब गुण थे, पर दोष भी था । वह यह कि इसे अपनी जाति का बड़ा अभिमान था और यह सदा अपने को सिंगारने-सजाने में मस्त रहती थी । एक दिन पन्द्रह दिन के उपवास किये हुए श्रीसमाधि गुप्त मुनिराज आहार के लिए इसके यहाँ आये । सोमशर्मा उन्हें आहार कराने के लिए भक्ति से ऊँचे आसन पर विराजमान कर और अपनी स्त्री को उन्हें आहार करा देने के लिए कहकर आप कहीं बाहर चला गया । उसे किसी काम की जल्दी थी । इधर ब्राह्मणी बैठी-बैठी काँच में अपना मुँख देख रही थी । उसने अभिमान में आकर मुनि को बहुतसी गालियाँ दीं, उनकी निन्दा की और किवाड़ बन्द कर लिए । हाय ! इससे अधिक और क्या पाप होगा ? मुनिराज शान्त–स्वभावी थे, तप के समुद्र थे, सबका हित करने वाले थे, अनेक गुणों से युक्त थे और उच्च चारित्र के धारक थे; इसलिए ब्राह्मणी की उस दुष्टता पर कुछ ध्यान न देकर वे लौट गये । सच है, पापियों के यहाँ आई हुई निधि भी चली जाती है । मुनि निन्दा के पाप से लक्ष्मीमती के सातवें दिन कोढ़ निकल आया । उसकी दशा बिगड़ गई । सच है, साधु-सन्तों की निन्दा-बुराई से कभी शान्ति नहीं मिलती । लक्ष्मीमती की बुरी हालत देखकर घर के लोगों ने उसे घर से बाहर कर दिया । यह कष्ट पर कष्ट उससे न सहा गया, सो वह आग में बैठकर जल मरी । उसकी मौत बड़े बुरे भावों से हुई । उस पाप से वह इसी गाँव में एक धोबी के यहाँ गधी हुई । इस दशा में इसे दूध पीने को नहीं मिला । यह मर कर सूअरी हुई । फिर दो बार कुत्ती को पर्याय इसने ग्रहण की । इसी दशा में यह वन में दावाग्नि से जल मरी । अब वह नर्मदा नदी के किनारे पर बसे हुए भृगुकच्छ गाँव में एक मल्लाह के यहाँ काणा नाम की लड़की हुई । शरीर इसका जन्म से ही बड़ा दुर्गन्धित था । किसी की इच्छा इसके पास तक बैठने की नहीं होती थी । देखिये अभिमान का फल, कि लक्ष्मीमती ब्राह्मणी थी पर उसने अपनी जाति का अभिमान कर अब मल्लाह के यहाँ जन्म लिया । इसलिए बुद्धिमानों को कभी जाति का गर्वन करना चाहिए । एक दिन काणा लोगों को नाव द्वारा नदी पार करा रही थी । इसने नदी किनारे पर तपस्या करते हुए उन्हीं मुनि को देखा, जिनकी कि लक्ष्मीमती की पर्याय में इसने निन्दा की थी । उन ज्ञानी मुनि को नमस्कार कर इसने पूछा-प्रभो, मुझे याद आता है कि मैंने कहीं आपको देखा है ? मुनि ने कहा बच्ची, तू पूर्वजन्म में ब्राह्मणी थी, तेरा नाम लक्ष्मीमती था और सोमशर्मा तेरा भर्त्ता था । तूने अपने जाति के अभिमान में आकर मुनिनिन्दा की । उसके पाप से तेरे कोढ़ निकल आया । तू उस दु:ख को न सहकर आग में जल मरी । इस आत्म हत्या के पाप से तुझे गधी, सूअरी और दो बार कुत्ती होना पड़ा । कुत्ती के भव से मरकर तू इस मल्लाह के यहाँ पैदा हुई है । अपना पूर्व भव का हाल सुनकर काणा को जातिस्मरण ज्ञान हो गया, पूर्वजन्म की सब बातें उसे याद हो उठीं । वह मुनि को नमस्कार कर बड़े दु:ख के साथ बोली-प्रभो, मैं बड़ी पापिनी हूँ । मैंने साधु महात्माओं की बुराई कर बड़ा ही नीच काम किया है । मुनिराज, मेरी पाप से अब रक्षा करो, मुझे कुगतियों में जाने से बचाओ । तब मुनि ने उसे धर्म का उपदेश दिया । काणा सुनकर बड़ी सन्तुष्ट हुई । उसे बहुत वैराग्य हुआ । वह वहीं मुनि के पास दीक्षा लेकर क्षुल्लिका हो गई । उसने फिर अपनी शक्ति के अनुसार खूब तपस्या की, अन्त में शुभ भावों से मर कर वह स्वर्ग गई । यहीं काणा फिर स्वर्ग से आकर कुण्ड नगर के राजा भीष्म की महारानी यशस्वती के रूपिणी नाम की बहुत सुन्दर कन्या हुई । रूपिणी का ब्याह वासुदेव के साथ हुआ । सच है, पुण्य के उदय से जीवों को सब धन दौलत मिलती है । जैनधर्म सब का हित करने वाला सर्वोच्च धर्म है । जो इसे पालते हैं वे अच्छे कुल में जन्म लेते हैं, उन्हें यश-सम्पत्ति प्राप्त होती है, वे कुगति में न जाकर उच्च गति में जाते हैं और अन्त में मोक्ष का सर्वोच्च सुख लाभ करते हैं । |