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नागदत्ता की कथा

  कथा 

कथा :

देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों और राजों, महाराजों द्वारा पूजा किये गये जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर नागदत्त की कथा लिखी जाती है ।

आभीर देश के नासक्य नगरी में सागरदत्त नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम नागदत्ता था । इसके एक लड़का और एक लड़की थी । दोनों के नाम थे श्रीकुमार और श्रीषेणा । नागदत्ता का चाल-चलन अच्छा न था । अपनी गौएँ को चराने वाले नन्द नाम के गुवाल के साथ उसकी आशनार्इ थी । नागदत्ता उसे एक दिन कुछ सिखा-सुझा दिया । सो वह बीमारी का बहाना बनाकर गौएँ चराने को नहीं आया । तब बेचारे सागरदत्त को स्वयं गौएँ चराने को जाना पड़ा । जंगल में गौओं को चरते छोड़कर वह एक झाड़ के नीचे सो गया । पीछे से नन्द गुवाल ने आकर उसे मार डाला । बात यह थी कि नागदत्ता ने ही अपने पति को मार डालने के लिए उसे उकसाया था । और फिर पर-स्त्री लम्पटी पुरूष अपने सुख में आने वाले विघ्न को नष्ट करने के लिए कौन बुरा काम नहीं करता ।

नागदत्ता और पापी नन्द इस प्रकार अनर्थ द्वारा अपने सिर पर एक बड़ा भारी पाप का बोझ लादकर अपनी नीच मनोवृत्तियों को प्रसन्न करने लगे । श्रीकुमार अपनी माता की इस नीचता से बेहद कष्ट पाने लगा । उसे लोगों को मुँह दिखाना तक कठिन हो गया । उसे बड़ी लज्जा आने लगी और इसके लिए उसने अपनी माता को बहुत कुछ कहा सुना भी । पर नागदत्ता के मन पर उसका कुछ असर नहीं हुआ । वह पिचली हुर्इ नागिन की तरह उसी पर दाव खाने लगी । उसने नाराज होकर श्रीकुमार को भी मार डालने के लिए नन्द को उभारा । नन्द फिर बीमारी का बहाना बनाकर गौएँ चराने को नहीं आया । तब श्रीकुमार स्वयं ही जाने को तैयार हुआ । उसे जाता देखकर उसकी बहिन श्रीषेणा ने रोककर कहा -- भैया, तुम मत जाओ । मुझे माता का इसमें कुछ कपट दिखता है । उसने जैसे नन्द द्वारा अपने पिताजी को मरवा डाला है, वह तुम्हें भी मरवा डालने के लिए दाँत पीस रही है । मुझे जान पड़ता है नन्द इसीलिए बहाना बनाकर आज गौएँ चराने को नहीं आया । श्रीकुमार बोला -- बहिन, तुमने मुझे आज सावधान कर दिया यह बड़ा ही अच्छा किया । तुम मत घबराओ । मैं अपनी रक्षा अच्छी तरह कर सकूंगा । अब मुझे रंच मात्र भी डर नहीं रहा और मैं तुम्हारे कहने से भी नहीं जाता, पर इससे माता को अधिक सन्देह होता और वह फिर कोर्इ दूसरा ही यत्न मुझे मरवाने का करती । क्योंकि वह चुप तो कभी बैठी ही न रहती । आज बहुत ही अच्छा मौका हाथ लगा है । इसलिए मुझे जाना ही उचित है और जहाँ तक मेरा बस चलेगा मैं जड़-मूल से उस अंकुर को ही उखाड़ कर फेंक दूँगा, जो हमारी माता के अनर्थ का मूल कारण है । बहिन, तुम किसी तरह की चिन्ता मन में न लाओ । अनाथों का नाथ अपना भी मालिक है ।

श्रीकुमार बहिन को समझाकर जंगल में गौएँ चराने को गया । उसने वहाँ एक बड़े लकड़े को वस्त्रों से ढंककर इस तरह रख लिया कि वह दूसरों को सोया हुआ मनुष्य जान पड़ने लगे और आप एक ओर छिप गया । श्रीषेणा की बात सच निकली । नन्द नंगी तलवार लिये दबे पाँव उस लकड़े के पास आया और तलवार उठाकर उसने उस पर दे मारी । इतने में पीछे से आकर श्रीकुमार ने उसकी पीठ में इस जोर की एक भाले की जमार्इ कि भाला आर-पार हो गया । और नन्द देखते-देखते तड़फड़ाकर मर गया । इधर श्रीकुमार गौओं को लेकर घर लौट आया । आज गौएँ दोहने के लिए भी श्रीकुमार ही गया । उसे देखकर नागदत्ता ने उससे पूछा – क्यों कुमार, नन्द नहीं आया ? मैंने तो तेरे ढूँढ़ने के लिए जंगल में भेजा था । क्या तूने उसे देखा है कि वह कहाँ पर है ? श्रीकुमार से तब रहा न गया और गुस्से में आकर उसने कह डाला -- माता, मुझे तो मालूम नहीं कि नन्द कहाँ है । पर मेरा यह भाला, अवश्य जानता है । नागदत्ता की आँखे जैसे ही उस खून से भरे हुए भाले पर पड़ी तो उसकी छाती धड़क उठी । उसने समझ लिया कि इसने उसे मार डाला है । अब तो क्रोध से वह भी भर्रा गई । उसके सामने एक मूसला रक्खा था । उस पापिनी ने उसे उठाक रश्रीकुमार के सिर पर इस जोर से मारा कि सिर फट कर तत्काल वह भी धराशायी हो गया । अपने भार्इ को इस प्रकार हत्या हुर्इ देखकर श्रीषेणा दौड़ी और नागदत्ता के हाथ से झट से मूसला छुड़ाकर उसने उसके सिर पर एक जोर की मार जमार्इ, जिससे वह भी अपने किये की योग्य सजा पा गर्इ । नागदत्ता मरकर पाप के फल से नरक गर्इ । सच है, पापी को अपना जीवन पाप में ही बिताना पड़ता है । नागदत्ता इसका उदाहरण है । उस दुराचार को धिक्कार, उस काम को धिक्कार, जिसके वश मनुष्य महापाप कर्म कर और फिर उसके फल से दुर्गति में जाता है । इसलिए सत्पुरूषों को उचित है कि वे जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किये, सबको प्रसन्न करने वाले और सुख प्राप्ति के साधन ब्रह्मचर्य-व्रत का सदा पालन करें ।