
कथा :
केवलज्ञान रूपी नेत्रों की अपूर्व शोभा को धारण किये हुए श्री जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर भीमराज की कथा लिखी जाती है, जिसे सुनकर सत्पुरूषों को इस दु:खमय संसार से वैराग्य होगा । कांपिल्य नगर में भीम नाम का एक राजा हो गया है । यह दुर्बुद्धि बड़ा पापी था । उसकी रानी का नाम सोमश्री था । इसके भीमदास नामक लड़का था । भीम ने कुल क्रम के अनुसार नन्दीश्वर पर्व में मुनादी पिटवार्इ कि कोर्इ इस पर्व में जीव-हिंसा न करे । राजा ने मुनादी तो पिटवा दी, पर वह स्वयं महालम्पटी था । मांस खाये बिना उसे एक दिन भी नहीं चैन पड़ता था । उसने इस पर्व में भी अपने रसोइयों से मांस पकाने को कहा । पर दुकानें बंद थी, अत: उसे बड़ी चिन्ता हुर्इ । वह मांस लाये कहाँ से ? तब उसने एक युक्ति की । वह मसान से एक बच्चे की लाश उठा लाया और उसे पकाकर राजा को खिलाया । राजा को वह मांस बड़ा ही अच्छा लगा । तब उसने रसोइयों से कहा – क्या रे, आज यह मांस और दिनों की अपेक्षा इतना स्वादिष्ट क्यों है ? रसोइये ने डरकर सच्ची बात राजा से कह दी । राजा ने तब उससे कहा – आज से तू बालकों का ही मांस पकाया करना । राजा ने तो झट से कह दिया कि अब से बालकों का ही मांस खाने के लिए पकाया करना । पर रसोइये को इसकी बड़ी चिन्ता हुर्इ कि वह रोज-रोज बालकों को लाये कहाँ से ? और राजाज्ञा का पालन होना ही चाहिये । तब उसने प्रयत्न किया कि रोज शाम के वक्त शहर के मुहल्लों में जाना जहाँ बच्चे खेल रहे हों उन्हें मिठार्इ का लोभ देकर झट से किसी एक को पकड़कर उठा लाना । इसी तरह वह रोज-रोज एक बच्चे की जान लेने लगा । सच है, पापी लोगों की संगति दूसरों को भी पापी बना देती है । जैसे भीमराज की संगति से उसका रसोइया भी उसीके सरीखा पापी हो गया । बालकों को प्रतिदिन इसप्रकार एकाएक गायब होने से शहर में बड़ी हलचल मच गर्इ । सब इसका पता लगाने की कोशिश में लगे । एक दिन इधर तो रसोइया चुपके से एक गृहस्थ के बालक को उठाकर चला कि पीछे से उसे किसी ने देख लिया । रसोइया झट-पट पकड़ लिया गया । उससे जब पूछा गया तो उसने सब बातें सच्ची-सच्ची बतला दीं । यह बात मंत्रियों के पास पहुंची । उन्होंने सलाहकर भीमदास को अपना राजा बनाया और भीम को रसोइये के साथ शहर से निकाल-बाहर किया । सच है, पापियों का कोर्इ साथ नहीं देता । माता, पुत्र, भार्इ, बहिन, मित्र, मंत्री, प्रजा आदि सब ही विरूद्ध होकर उसके शत्रु बन जाते हैं । भीम यहाँ से चलकर अपने रसोइये के साथ एक जंगल में पहुँचा । यहाँ इसे बहुत ही भूख लगी । इसके पास खाने को कुछ नहीं था । तब यह अपने रसोइये को ही मारकर खा गया । यहाँ से घूमता-फिरता यह मेखलपुर पहुँचा और यहाँ वासुदेव के हाथ मारा जाकर नरक गया । अधर्मी पुरूष अपने ही पाप कर्मों से संसार-समुद्र में रूलते हैं । इसलिए सुख की चाह करनेवाले बुद्धिमानों को चाहिए कि सुख के स्थान जैन-धर्म का पालन करें । |