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कार्तिकेय मुनि की कथा

  कथा 

कथा :

संसार के सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों को देखने-जानने के लिए केवलज्ञान जिनका सर्वोत्तम नेत्र है और जो पवित्रता की प्रतिमा और सब सुखों के दाता हैं, उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर कार्तिकेय मुनि की कथा लिखी जाती है ।

कार्तिकपुर के राजा अग्निदत्त की रानी वीरवती के कृत्तिका नाम की एक लड़की थी । एक बार अठार्इ के दिनों में उसने आठ दिन के उपवास किये । अन्त के दिन वह भगवान् की पूजा कर भगवान् के लिए चढ़ार्इ फूल-माला को लार्इ । उसे उसने अपने पिता को दिया । उस समय उसकी दिव्य रूप-राशि को देखकर उसके पिता अग्निदत्त की नीयत ठिकाने न रही । काम के वश हो उस पापी ने बहुत से अन्य-धर्मों और कुछ जैन साधुओं को इकट्ठा कर उनसे पूछा -- योगी-महात्माओं, आप कृपाकर मुझे बतलावें कि मेरे घर में पैदा हुए रत्न का मालिक मैं ही हो सकता हूँ या कोर्इ और ? राजा का प्रश्न पूरा होता है कि सब ओर से एक ही आवाज आर्इ कि महाराज, उस रत्न के तो आप ही मालिक हो सकते हैं, न कि दूसरा । पर जैन साधुओं ने राजा के प्रश्न पर कुछ गहरा विचार कर इस रूप में राजा के प्रश्न का उत्तर दिया -- राजन्, यह बात ठीक है कि आपने यहाँ उत्पन हुए रत्न के मालिक आप हैं, पर एक कन्या-रत्न को छोड़कर । उसकी मालिकी पिता के नाते से ही आप कर सकते हैं और रूप में नहीं । जैन साधुओं का यह हित-भरा उत्तर राजा को बड़ा बुरा लगा और लगना ही चाहिए; क्योंकि पापियों को हित की बात कब सुहाती है ? राजा ने गुस्सा होकर उन मुनियों को देश-बाहर कर दिया और अपनी लड़की के साथ स्वयं ब्याह कर लिया । सच है, जो पापी हैं, कामी हैं जिन्हें आगामी दुर्गतियों में दु:ख उठाना है, उनमें कहाँ धर्म, कहाँ लाज, कहाँ नीति-सदाचार और कहाँ सुबुद्धि ?

कुछ दिनों बाद कृतिका के दो सन्तान हुर्इ । एक पुत्र और एक पुत्री । पुत्र का नाम रखा कीर्तिकेय और पुत्री का नाम वीरमती । वीरमती बड़ी खूबसूरत थी । उसका ब्याह रोहेड़ नगर के राजा क्रोंच के साथ हुआ । वीरमती वहाँ रहकर सुख के साथ दिन बिताने लगी ।

इधर कार्तिकेय भी बड़ा हुआ । अब उसकी उम्र कोर्इ १४ वर्ष की हो गर्इ थी । एक दिन वह अपने साथी राजकुमारों के साथ खेल रहा था । वे सब अपने नाना के यहाँ से आए हुए अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण पहने हुए थे । पूछने पर कार्तिकेय को ज्ञात हुआ कि वे वस्त्रभरण उन सब राजकुमारों के नाना-मामा के यहाँ से आए हैं । तब उसने अपनी माँ से जाकर पूछा – क्यो माँ! मेरे साथी राजपुत्रों के लिए तो उनके नाना-मामा अच्छे-अच्छे वस्त्राभरण भेजते हैं, भला फिर मेरे नाना-मामा मेरे लिए क्यों नहीं भेजते हैं ? अपने प्यारे पुत्र की ऐसी भोली बात सुनकर कृतिका का हृदय भर आया । आँखो से आँसू बह चले । अब वह उसे क्या कहकर समझाये और कहने को जगह ही कौन-सी बच रही थी । परन्तु अबोध-पुत्र के आग्रह से उसे सच्ची हालत कहने को बाध्य होना पड़ा । वह रोती हुर्इ बोली -- बेटा, मैं इस महापाप की बात तुझ से क्या कहूँ । कहते हुए छाती फटती है । जो बात कभी नहीं हुर्इ, वही बात मेरे तेरे सम्बन्ध में है । वह केवल यही कि जो मेरे पिता हैं वे ही तेरे भी पिता हैं । मेरे पिता ने मुझसे बलात् ब्याह कर मेरी जिन्दगी कलंकित की । उसी का तू फल है । कार्तिकेय को काटो तो खून नहीं । उसे अपनी माँ का हाल सुनकर बेहद दु:ख हुआ । लज्जा और आत्म-ग्लानि से उसका हृदय तिलमिला उठा । इसके लिए वह लाइलाज था । उसने फिर अपनी माँ से पूछा – तो क्यों माँ ! उस समय मेरे पिता को ऐसा अनर्थ करते किसी ने रोका नहीं, सब कानों में तेल डाले पडे रहे ? उसने कहा – बेटा ! रोका क्यों नहीं ? मुनियों ने उन्हें रोका था, पर उनकी कोर्इ बात नहीं सुनी गर्इ, उलटे वे ही देश से निकाल दिये गए ।

कार्तिकेय ने तब पूछा – माँ वे गुणवान् मुनि कैसे होते हैं ? कृत्तिका बोली – बेटा ! वे शान्त रहते हैं, किसी से लड़ते-झगड़ते नहीं । कोर्इ दस गालियाँ भी उन्हें दे जाये तो वे उससे कुछ नहीं कहते और न क्रोध ही करते हैं । बेटा ! वे बड़े पण्डित होते हैं, उनके पास धन-दौलत तो दुर रहा, एक फूटी कौडी भी नहीं रहती । वे कभी कपड़े नहीं पहिनते, उनका वस्त्र केवल यह आकाश है । चाहे कैसा हो ठण्ड या गर्मी पड़े, चाहे कैसी भी बरसात हो उनके लिए सब समान है । बेटा ! वे बड़े दयावान होते हैं, कभी किसी जीव को जरा भी नहीं सताते । इसी दया को पूरी तौर से पालने के लिए वे अपने पास सदा मोर के अत्यन्त कोमल पंखो की एक पीछी रखते हैं और जहाँ उठते-बैठते हैं, वहाँ की जमीन को पहले उस पीछी से झाड़-पोंछकर साफ कर लेते हैं । उनके हाथ में लकड़ी का एक कमण्डलु होता है, जिसमें वे शौच वगैरह के लिए प्रासुक (जीव रहित) पानी रखते हैं । बेटा, उनकी चर्या बड़ी ही कठिन है । वे भिक्षा के लिये श्रावकों के यहाँ जाते हैं जरूर, पर कभी माँगकर नहीं खाते । किसी ने उन्‍हें आहार नहीं दिया तो वे भूखे ही पीछे तपोवन में लौट जाते हैं । आठ-आठ पन्द्रह-पन्द्रह दिन के उपवास करते हैं । बेटा, मैं तुझे उनके आचार-विचार की बातें कहाँ तक बताऊँ । तू इतने में ही समझ ले कि संसार के सब साधुओं में वे ही सच्चे साधु हैं । अपनी माता द्वारा जैन साधुओं की तारीफ सुनकर कार्तिकेय की उनपर बड़ी श्रद्धा हो गर्इ । उसे अपने पिता के कार्य से वैराग्य तो पहले ही हो चुका था, उस पर माता के इस प्रकार समझाने से उसकी जड़ और मजबूत हो गर्इ । वह उसी समय सब मोह-ममता तोड़कर घर से निकल गया और मुनियों के स्‍थान तपोवन में जा पहुँचा । मुनियों का संघ देख उसे बड़ी प्रसन्नता हुर्इ । उसने बडी भक्ति से उन सब साधुओं को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दीक्षा के लिए उनसे प्रार्थना की । संघ के आचार्य ने उसे होनहार जान दीक्षा देकर मुनि बना लिया । कुछ दिनों में ही कार्तिकेय मुनि, आचार्य के पास शास्त्रभ्यास कर बड़े विद्वान हो गए ।

कार्तिकेय की माता ने पुत्र के सामने मुनियों की बहुत प्रशंसा की थी, पर उसे यह मालूम न था कि उसकी की हुर्इ प्रशंसा का कार्तिकेय पर यह प्रभाव पड़ेगा कि वह दीक्षा लेकर मुनि बन जाय । इसलिए जब उसने जाना कि कार्तिकेय योगी बनना चाहता है, तो उसे बड़ा दु:ख हुआ । वह कार्तिकेय के सामने बहुत रोर्इ, गिड़गिड़ार्इ कि वह दीक्षा न ले, परन्तु कार्तिकेय अपने दृढ़-निश्चय से विचलित नहीं हुआ और तपोवन में जाकर साधु बन ही गया । कार्तिकेय की जुदार्इ का दु:ख सहना उसकी माँ के लिये बड़ा कठिन हो गया । दिनों-दिन उसका स्वास्थ बिगड़ने लगा और आखिर वह पुत्र-शोक से मृत्यु को प्राप्त हुर्इ । मरते समय भी पुत्र के आर्त्त-ध्यान से मरी । अत: मरकर व्यन्तर देवी हुर्इ ।



उधर कार्तिकेय मुनि घूमते फिरते एक बार रोहेड़ नगरी की ओर आ गये जहाँ इनकी बहिन ब्याही थी । ज्येष्ठ का महीना था । खूब गर्मी थी । अमावस्या के दिन कार्तिकेय मुनि शहर में भिक्षा के लिए गये । राजमहल के नीचे होकर वे जा रहे थे कि उनपर महल पर बैठी हुर्इ उनकी बहन वीरमती की नजर पड़ गर्इ । वह उसी समय गोद में सिर रखकर लेटे हुये पति के सिर को नीचे रख दौड़ी हुर्इ भार्इ के पास आर्इ और बड़ी भक्ति से उसने भार्इ को हाथ जोड़कर नमस्कार किया । प्रेम के वशीभूत हो वह उसके पाँव में गिर पड़ी । और ठीक है – भार्इ होकर फिर मुनि हो तब किस का प्रेम उन पर नहो? कौंचराज ने जब एक नंगे भिखारी के पाँव पड़ते अपनी रानी को देखा । तब उसके क्रोध का कुछ ठिकाना नहीं रहा । उन्होंने आकर मुनि को खूब मार लगार्इ । यहाँ तक कि मुनि मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा । सच है पापी मिथ्यात्वी और जैन-धर्म का द्वेष करनेवाले लोग ऐसा कौन नीच-कर्म नहीं कर गुजरते जो जन्म-जन्म में अनंत दुखों का देनेवाला न हो ।

कार्तिकेय को अचेत पड़ा देखकर उसकी पूर्व-जन्म की माँ जो इस जन्म में व्यन्तर-देवी हो गर्इ थी, मोरनी का रूप ले उनके पास आर्इ और उन्हें उठा लाकर बड़े यत्न से शीतलनाथ भगवान के मन्दिर में एक निरापद जगह में रख दिया । कार्तिकेय मुनि की हालत बहुत खराब हो चुकी थी । उनके अच्छे होने की कोर्इ सूरत न थी । इसलिये ज्यों ही मुनि का मूर्च्छा से चेत हुआ उन्होंने समाधि ले ली । उसी दशा में शरीर छोड़कर वे स्वर्ग-धाम सिधारे । तब देवों ने आकर उनकी भक्ति से बड़ी पूजा की । उसी दिन से वह स्थान भी कार्तिकेय तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और वे वीरमती के भार्इ थे इसलिए ‘भार्इबीज’ के नाम से दूसरा लैकिक पर्व प्रचलित हुआ ।

आप लोग जिन-भगवान् दवारा उपदिष्ट ज्ञान का अभ्यास करें । वह सब सन्देहों का नाश करने वाला और स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख प्रदान करने वाला है । जिनका ऐसा उच्च ज्ञान संसार के पदार्थों का स्वरूप दिखाने के लिये दिये की तरह सहायता करने वाला है, वे देवों द्वारा पूजे जाने वाले, जिनेन्द्र-भगवान मुझे भी कभी नाश न होने वाला सुख देकर अविनाशी बनावें ।