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वृषभसेन की कथा

  कथा 

कथा :

जिन्हें सारा संसार बड़े आनन्द के साथ सिर झुकाता है, उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर वृषभसेन का चरित लिखा जाता है ।

उज्जैन के राजा प्रद्योत एक दिन उन्मत हाथी पर बैठकर हाथी पकड़ने के लिए स्वयं किसी एक घने जंगल में गये । हाथी इन्हें बड़ी दूर ले भागा और आगे-आगे भागता ही चला जाता था । इन्होंने उसके ठहराने की बड़ी कोशिश की, पर उसमें ये सफल नहीं हुए । भाग्य से हाथी एक झाड़ के नीचे होकर जा रहा था कि इन्हें सुबुद्धि सूझ गर्इ । वे उसकी टहनी पकड़कर लटक गये और फिर धीरे-धीरे नीचे उतर आये । यहाँ से चलकर ये खेट नाम के एक छोटे से पर बहुत सुन्दर गाँव के पास पहुँचे । एक पनघट पर जाकर ये बैठ गये । इन्हें बड़ी प्यास लग रही थी । इन्होंने उसी समय पनघट पर पानी भरने को आर्इ हुर्इ जिनपाल की लड़की जिनदत्ता से जल पिला देने के लिए कहा । उसने इनके चेहरे के रंग-ढंग से इन्हें कोर्इ बड़ा आदमी समझ जल पिला दिया । बाद अपने घर पर आकर उसने प्रद्योत का हाल अपने पिता से कहा । सुनकर जिनपाल दौड़ा हुआ आकर इन्हें अपने घर लिवा लाया और बड़े आदर सत्कार के साथ इसने उन्हें स्नान-भोजन कराया । प्रद्योत उसकी इन मेहमानों से बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने जिनपाल को अपना सब परिचय दिया । जिनपाल ने ऐसे महान् अतिथि द्वारा अपना सब पवित्र होने से अपने को बड़ा भाग्यशाली माना । वे कुछ दिन वहाँ और ठहरे । इतने में उनके सब नौकर-चाकर भी उन्हें लिवाने को आ गये । प्रद्योत अपने शहर जाने को तैयार हुए । इसके पहले एक बात कह देने की है कि जिनदत्ता को जब से प्रद्योत ने देखा तब ही से उनका उस पर अत्यन्त प्रेम हो गया था और इसी से जिनपाल की सम्मति पा उन्होंने उसके साथ ब्याह भी कर लिया था । दोनों नवदम्पति सुख के साथ अपने राज्य में आ गये । जिनदत्ता को तब प्रद्योत ने अपनी पट्टरानी का सम्मान दिया । सच है, समय पर दिया हुआ थोड़ा भी दान बहुत ही सुखों का देने वाला होता है जैसे वर्षा-काल में बोया हुआ बीज बहुत फलता है । जिनदत्ता के उस जल-दान से, जो उसने प्रद्योत को किया था, जिनदत्ता को एक राजरानी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । ये नये दम्पति सुख से संसार-यात्रा बिताने लगे, प्रतिदि‍न नये-नये सुखों का स्वाद लेने में इनके दिन कटने लगे ।

कुछ दिनों बाद इनके एक पुत्र हुआ । जिस दिन पुत्र होने वाला था, उसी रात को राजा प्रद्योत ने सपने में एक सफेद बैल को देखा था । इसलिए पुत्र का नाम भी उन्होने वृषभ-सेन रख दिया । पुत्र-लाभ हुए बाद राजा की प्रवृत्ति धर्म-कार्यों को ओर और अधिक झुक गर्इ । वे प्रतिदिन पूजा-प्रभावना, अभिषेक, दान आदि पवित्र कार्यों को बड़ी भक्ति श्रद्धा के साथ करने लगे । इसी तरह सुख के साथ कोर्इ आठ बरस बीत गये । जब वृषभसेन कुछ होशियार हुआ तब एक दिन राजा ने उससे कहा -- बेटा, अब तुम अपने इस राज्य के कार्यभार को सम्भालो । मैं अब जिन-भगवान् के उपदेश किये पवित्र तप को ग्रहण करता हूँ । वही शान्ति प्राप्त का कारण है । वृषभसेन ने तब कहा -- पिताजी, आप तब क्यों ग्रहण करते हैं, क्या परलोक-सिद्धि, मोक्ष प्राप्ति राज्य करते हुए नहीं हो सकती ? राजा ने कहा – बेटा हाँ, जिसे सच्ची सिद्धि या मोक्ष कहते हैं, वह बिना तप किये नहीं होती है । जिन भगवान् ने मोक्ष का कारण एक-मात्र तप बताया है । इसलिए आत्महित करने वालों को उसका ग्रहण करना अत्यन्त ही आवश्यक है । राजपुत्र वृषभसेन ने तब कहा – पिताजी यदि यह बात है तो फिर मैं ही इस दु:ख के कारण राज्य को लेकर क्या करूँगा ? कृपाकर यह भार मुझपर न रखिए । राजा ने वृषभसेन को बहुत समझाया पर उसके ध्यान में तप छोड़कर राज्य ग्रहण करने की बात बिलकुल न आर्इ । लाचार हो राजा राज्यभार अपने भतीजे को सौंपकर आप पुत्र के साथ जिनदीक्षा ले गये ।

यहाँ से वृषभसेन मुनि तपस्या करते हुए अकेले ही देश, विदेशों में धर्मोपदेशार्थ घूमते-फिरते एक दिन कौशाम्बी के पास आ एक छोटी-सी पहाड़ी पर ठहरे । समय गर्मी का था । बड़ी तेज धूप पड़ती थी । मुनिराज एक पवित्र शिला पर कभी बैठे और कभी खड़े इस कड़ी धूप में योग साधा करते थे । उनकी इस कड़ी तपस्या और आत्मतेज से दिपते हुए उनके शारीरिक सौन्दर्य को देख लोगों की उनपर बड़ी श्रद्धा हो गर्इ । जैनधर्म पर उनका विश्वास खूब दृढ़ जम गया ।

एक दिन चारित्र चूड़ामणि श्रीवृषभसेन मुनि भिक्षार्थ शहर में गये हुये थे कि पीछे किसी जैन-धर्म के प्रभाव को न सहने वाले बुद्धदास नाम के बुद्ध-धर्मी ने मुनिराज के ध्यान करने की शिला को आग से तपाकर लाल-सुर्ख कर दिया । सच है, साधु-महात्माओं का प्रभाव दुर्जनों से नहीं सहा जाता । जैसे सूरज के तेज को उल्लू नहीं सह सकता । जब मुनिराज आहार कर पीछे लौटे और उन्होंने शिला को अग्नि की तपी हुर्इ देखा, यदि वे चाहते, भौतिक शरीर से उन्हें मोह होता है तो बिना शकवे अपनी रक्षा कर सकते थे । पर उनमें यह बात न थी; वे कर्तव्यशील थे, अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन को सर्वोच्च समझते थे । यही कारण था कि वे संन्यास की शरण ले उस आग से धधकती शिला पर बैठ गये । उस समय उनके परिणाम इतने ऊँचे चढ़े कि उन्हें शिला पर बैठते ही केवल-ज्ञान हो गया और उसी समय अघातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने निर्वाण-लाभ किया । सच है, महापुरूषों का चारित्र मेरु से भी कहीं अधिक स्थिर होता है ।

जिसके चित्त-रूपी अत्यन्त ऊँचे-पर्वत की तुलना में बड़े-बड़े पर्वत एक नाकुछ चीज परमाणु की तरह दिखने लगते हैं, समुद्र दूब की अणी पर ठहरे जल-कण सा प्रतीत होता है, वे गुणों के समुद्र और कर्मों को नाश करनेवाले वृषभसेन जिन मुझे अपने गुण प्रदान करें, जो सब मनचाही सिद्धियों के देनेवाले हैं ।