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विद्युच्चर मुनि की कथा

  कथा 

कथा :

सब सुखों के देनेवाले और संसार में सर्वोच्च गिने जाने वाले जिनेन्द्र-भगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार विद्युच्चर मुनि की कथा लिखी जाती है ।

मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में इनके समय कोतवाल के ओहदे पर एक यमदण्ड नाम का मनुष्य नियुक्त था । वहीँ विद्युच्चर नाम का चोर भी रहता था । यह अपने चोरी के फन में बड़ा चलता हुआ था । सो यह क्या करता कि दिन में तो एक कोढ़ी के वेष में किसी सुनसान मन्दिर में रहता और ज्यों ही रात होती कि एक सुन्दर मनुष्य का वेष धारण कर खूब मजा-मौज मारता । यही ढंग इसका बहुत दिनो से चला आता था । पर इसे कोर्इ पहिचान न सकता था । एक दिन विद्दुच्चर राजा के देखते-देखते खास उन्हीं के हार को चुरा लाया । पर राजा से तब कुछ भी न बन पड़ा । सुबह उठकर राजा ने कोतवाल को बुलाकर कहा देखो कोर्इ चोर अपनी सुन्दर वेश-भूषा से मुझे मुग्ध बनाकर मेरा रत्न-हार उठा ले गया है । इसलिए तुम्हें हिदायत की जाती है कि सात दिन के भीतर उस हार को या उसके चुरा ले जाने वाले को मेरे सामने उपस्थित करो, नहीं तो तुम्हें इसकी पूरी सजा भोगनी पड़ेगी । जान पड़ता है तुम अपने कर्तव्य-पालन में बहुत त्रुटि करते हो । नहीं तो राजमहल में से चोरी हो जाना कोर्इ कम आश्चर्य की बात नहीं है । ‘हुक्म हुजूर का’ कहकर कोतवाल चोर को ढूँढने को निकला । उसने सारे शहर की गली-कूँची, घर-बार आदि एक-एक कर के छान डाला पर उसे चोर का पता कहीं न चला । ऐसे उसे छह दिन बीत गये । सातवें दिन वह फिर घर बाहर हुआ । चलते-चलते उसकी नजर एक सुनसान मन्दिर पर पड़ी । वह उसके भीतर घुस गया । वहाँ उसने एक कोढ़ी को पड़ा पाया । उस कोढ़ी का रंगढ़ंग देखकर कोतवाल को कुछ संदेह हुआ । उसने उससे कुछ बातचीत कुछ इस ढ़ंग से की कि जिससे कोतवाल उसके हृदय का कुछ पता पा सके । यद्यपि उस बातचीत से कोतवाल को जैसी चाहिए थी वैसी सफलता न हुर्इ । पर तब भी उसके पहले शक को सहारा अवश्य मिला । कोतवाल उस कोढ़ी को राजा के पास ले गया और बोला – महाराज यही आपके हार का चोर है । राजा के पूछने पर उस कोढ़ी ने साफ इन्कार कर दिया कि मैं चोर नहीं हूँ । मुझे ये जबरदस्ती पकड़ लाये हैं । राजा ने कोतवाल की ओर तब नजर की । कोतवाल ने फिर भी दृढ़ता से कहा कि महाराज, यही चोर है । इसमें कोर्इ सन्देह नहीं । कोतवाल को बिना कुछ किसी सुबूत के इस प्रकार जोर देकर कहते देखकर कुछ लोगों के मन में यह विश्वास जग गया कि यह अपनी रक्षा के लिए जबरन बेचारे गरीब भिखारी को चोर बताकर सजा दिलवाना चाहता है । उसकी रक्षा हो जाये इस आशय से उन लोगों ने राजा से प्रार्थना की कि महाराज कहीं ऐसा न हो कि बिना ही अपराध के इस गरीब भिखारी को कोतवाल साहब की मार खाकर बेमौत मर जाना पड़े । और इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि ये इसे मारेंगे अवश्य । तब कोर्इ ऐसा उपाय कीजिए जिससे अपना हार भी मिल जाये और बिचारे गरीब की जान भी न जाये । जो हो, राजा ने उन लोगों की प्रार्थना पर ध्यान दिया या नहीं पर यह स्पष्ट है कि कोतवाल साहब उस कोढ़ी को अपने घर लिवा ले गये । और जहाँ तक उनसे बन पड़ा उन्होंने उसके मारने पीटने सजा देने बाँधने आदि में कोर्इ कसर न की । वह कोढ़ी इतने दु:सह कष्ट दिये जाने पर भी हर बार यही कहता रहा कि मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ । दूसरे दिन कोतवाल फिर उसे राजा के सामने खड़ा करके कहा महाराज यही पक्का चोर है । कोढ़ी ने फिर भी यही कहा कि महाराज मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ । सच है, चोर बड़े ही कट्टर साहसी होते हैं ।

तब राजा ने उससे कहा -- अच्छा, मैं तेरा सब अपराध क्षमा कर तुझे अभय देता हूँ । तू सच्चा-सच्चा हाल कह दे कि तू चोर है या नहीं ? राजा से जीवनदान पाकर उस कोढ़ी या विद्यच्चर ने कहा यदि ऐसा है तो लीजिए कृपानाथ मैं सब बात आपके सामने प्रगट कर देता हूँ । यह कहकर वह बोला – राजाधिराज अपराध क्षमा हो । वास्तव में मैं ही चोर हूँ । आपके कोतवाल साहब का कहना सत्य है । सुनकर राजा चकित हो गये । उन्होंने तब विद्दुच्चर से पूछा -- जब कि तू चोर था तब फिर तूने इतनी मारपीट कैसे सह ली रे ? विद्दुच्चर बोला -- महाराज इसका तो कारण यह है कि मैंने एक मुनिराज द्वारा नरकों के दु:खों का हाल सुन रखा था । तब मैंने विचारा कि नरकों में और इन दु:खों में तो पर्वत और रार्इ का सा अन्तर है । और जब मैंने अनन्त बार नरकों के भयंकर दु:ख, जिनके कि सुनने मात्र से छाती दहल उठती है, सहे हैं तब इन तुच्छ, ना-कुछ चीज दु:खों का सह लेना कौन बड़ी बात है ! यही विचारकर मैंने सब-कुछ सहकर चूँ तक भी नहीं की । विद्दुच्चर से उसकी सच्ची घटना सुनकर राजा ने खुश होकर उसे वर दिया कि तुझे जो कुछ माँगना हो माँग । मुझे तेरी बातें सुनने से बड़ी प्रसन्नता हुर्इ । तब विद्दुच्चर ने कहा -- महाराज, आपकी इस कृपा का मैं अत्यन्त उपकृत हूँ । इस कृपा के लिए आप जो कुछ मुझे देना चाहते हैं वह मेरे मित्र इन कोतवाल साहब को दीजिए । राजा सुनकर और भी अधिक अचम्भे में पड़ गये । उन्होंने विद्दुच्चर से कहा – क्यों यह तेरा मित्र कैसे है ? विद्युच्चर ने तब कहा – सुनिए महाराज, मैं सब आपको खुलासा सुनाता हूँ । यहाँ से दक्षिण की ओर आभीर प्रान्त में बहनेवाली बेना-नदी के किनारे पर बेनावट नामक एक शहर बसा हुआ है । उसके राजा जितशत्रु और उनकी रानी जयावती, ये मेरे माता-पिता हैं । मेरा नाम विद्युच्चर है । मेरे शहर में ही एक यमपाश नाम के कोतवाल थे । उनकी स्त्री यमुना थी । ये आपके कोतवाल यमदण्ड साहब उन्हीं के पुत्र हैं । हम दोनों एक ही गुरू के पास पढ़े हुऐ हैं । इसलिए तभी से मेरी इनके साथ मित्रता है । विशेषता यह है कि इन्होंने तो कोतवाली सम्बन्धी शास्त्रभ्यास किया था और मैंने चौर्य-शास्त्र का । यद्यपि मैने यह विद्या केवल विनोद के लिए पढ़ी थी, तथापि एक दिन हम दोनों अपनी-अपनी चतुरता की तारीफ कर रहे थे, तब मैंने जरा घमण्ड के साथ कहा -- भार्इ, मैं अपने फन में कितना होशियार हूँ, इसकी परीक्षा मैं इसी से कराऊँगा कि जहाँ तुम कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त होंगे, वहीं मैं आकर चोरी करूँगा । तब इन महाशय ने कहा -- अच्छी बात है, मैं भी उसी जगह रहूँगा जहाँ तुम चोरी करोगे और मैं तुमसे शहर की अच्छी तरह रक्षा करूँगा । तुम्हारे द्वारा मैं उसे कोर्इ तरह की हानि न पहुँचने दूँगा ।

इसके कुछ दिनों बाद मेरे पिता जितशत्रु मुझे सब राजभार दे जिन-दीक्षा ले गये । मैं तब राजा हुआ । और इनके पिता यमपाश भी तभी जिनदीक्षा लेकर साधु बन गये । इनके पिता की जगह तब इन्हें मिली । पर ये मेरे डर के मारे मेरे शहर में न रहकर यहाँ आकर आपके कोतवाल नियुक्त हुए । मैं अपनी प्रतिज्ञा के वश चोर बनकर इन्हें ढूँढने को यहाँ आया । यह कहकर फिर विद्युच्चर ने उनके हार के चुराने की सब बातें कह सुनार्इ और फिर यमदण्ड को साथ लिए वह अपने शहर में आ गया ।

विद्युच्चर को इस घटना से बड़ा वैराग्य हुआ । उसने राजमहल में पहुँचते ही अपने पुत्र को बुलाया और उसके साथ जिनेन्द्र-भगवान् का पूजा अभिषेक किया । इसके बाद वह सब राजभार पुत्र को सौंपकर आप बहुत से राजकुमारों के साथ जिनदीक्षा ले मुनि बन गया ।

यहाँ से विहार कर विद्दुच्चर मुनि अपने सारे संघ को साथ लिए देश-विदेशों में बहुत घूमे-फिरे । बहुत से बे-समझ या मोह-माया में फँसे हुए लोगों को इन्होंने आत्महित के मार्ग पर लगाया और स्वयं भी काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेषादि आत्म-शत्रुओं का प्रभुत्व नष्ट कर उनपर विजय लाभ किया । आत्मोन्नति के मार्ग में दिन-ब-दिन बे-रोकटोक ये बढ़ने लगे । एक दिन घूमते-फिरते ये तामलिप्त पुरी की ओर आये । अपने संघ के साथ में पुरी में प्रवेश करने को ही थे कि इतने में यहाँ की चामुण्डा देवी ने आकर भीतर घुसने से रोका और कहा -- योगिराज, जरा ठहरिए, अभी मेरी पूजा-विधि हो रही है । इसलिए जब तक वह पूरी न हो जाये जब तक कि आप यहीं ठहरें, भीतर न जायें । देवी के इस प्रकार मना करने पर भी अपने शिष्यों के आग्रह से वे न रूककर भीतर चले गये और पुरी के पश्चिम तरफ परकोटे के पास कोर्इ पवित्र जगह देखकर वहीं सारे संघ ने ध्यान करना शुरू कर दिया । अब तो देवी के क्रोध का ठिकाना न रहा । उसने अपनी माया से कोर्इ कबूतर के बराबर डाँस तथा मच्छर आदि खून पीने-वाले जीवों की सृष्टि रचकर मुनि पर घोर उपद्रव किया । विद्युच्चर मुनि ने इस कष्ट को बड़ी शान्ति से सहकर बारह-भावनाओं के चिन्तन से अपने आत्मा को वैराग्य की ओर खूब दृढ़ किया और अन्त में शुक्ल-ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर अक्षय और अनन्त मोक्ष के सुख को अपनाया ।

उन देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों तथा राजा-महाराजों द्वारा, जो अपने मुकुटों में जड़े हुए बहुमूल्य दिव्य-रत्नों की कान्ति से चमक रहे हैं, बड़ी भक्ति से पूजा किये गये और केवल-ज्ञान से विराजमान वे विद्युच्चर मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को मंगल-मोक्ष सुख दें, जिससे संसार का भटकना छूट कर शान्ति मिले ।