
कथा :
जिनकी कृपा से केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है, उन पंच-परमेष्ठी -- अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार कर गुरूदत्त मुनि का पवित्र चरित लिखा जाता है । गुरूदत्त हस्तिनापुर के धर्मात्मा राजा विजयदत्त की रानी विजया के पुत्र थे । बचपन से ही इनकी प्रकृति में गम्भीरता, धीरता, सरलता तथा सौजन्यता थी । सौन्दर्य में भी ये अद्वितीय थे । अस्तु, पुण्य की महिमा अपरम्पार है । विजयदत्त अपना राज्य गुरूदत्त को सौंपकर स्वयं मुनि हो गये और आत्महित करने लगे । राज्य की बागडोर गुरूदत्त ने अपने हाथ में लेकर बड़ी सावधानी और नैतिक साथ शासन आरम्भ किया । प्रजा उनसे बहुत खुश हुर्इ । वह अपने नये राजा को हजार-हजार साधुवाद देने लगी । दु:ख किसे कहते हैं, यह बात गुरूदत्त की प्रजा जानती ही न थी । कारण किसी को कुछ, थोड़ा भी कष्ट होता था तो गुरूदत्त फौरन ही उसकी सहायता करता । तन से, मन से और धन से वह सभी के काम आता था । लाट-देश में द्रोणीमान पर्वत के पास चन्द्रपुरी नाम की सुन्दर नगरी बसी हुर्इ थी । उसके राजा थे चन्द्रकीर्ति । इनकी रानी का नाम चन्द्रलेखा था । इनके अभयमती नामकी एक पुत्री थी । गुरूदत्त ने चन्द्रकीर्ति से अभयमती के लिए प्रार्थना की कि वे अपनी कुमारी का ब्याह उसके साथ कर दें । परन्तु चन्द्रकीर्ति ने उनकी इस बात से साफ इन्कार कर दिया, वे गुरूदत्त के साथ अभयमती का ब्याह करने को राजी न हुए । गुरूदत्त ने इससे कुछ अपना अपमान हुआ समझा । चन्द्रकीर्ति पर उसे गुस्सा आया । उसने उसी समय चन्द्रपुरी पर चढ़ार्इ कर दी और उसे चारों ओर से घेर लिया । कुमारी अभयमती गुरूदत्त पर पहले ही से मुग्ध थी और जब उसने उसके द्वारा चन्द्रपुरी का घेरा जाना सुना तो वह अपने पिता के पास आकर बोली – पिताजी ! अपने सम्बन्ध में आपसे कुछ कहना उचित नहीं समझती, पर मेरे संसार को सुखमय होने में कोर्इ बाधा या विघ्न न आये, इसलिए कहना या प्रार्थना करना उचित जान पड़ता है । क्योंकि मुझे दु:ख में देखना तो आप सपने में भी पसन्द नहीं करेंगे । वह प्रार्थना यह है कि आप गुरूदत्तजी के साथ ही मेरा ब्याह कर दें, इसी में मुझे सुख होगा । उदार-हृदय चन्द्रकीर्ति ने अपनी पुत्री की बात मान ली । इसके बाद अच्छा दिन देख खूब आनन्दोत्सव के साथ उन्होंने अभयमती का ब्याह गुरूदत्त के साथ कर दिया । इस सम्बन्ध से कुमार और कुमारी दोनों ही सुखी हुए । दोनों की मनचाही बात पूरी हुर्इ । ऊपर जिस द्रोणीमान पर्वत का उल्लेख किया है, उसमें एक बड़ा ही भयंकर सिंह रहता था । उसने सारे शहर को बहुत ही आतंकित कर रखा था । सबके प्राण सदा मुठ्ठी में रहा करते थे । कौन जाने कब आकर सिंह खा ले, इस चिन्ता से सब हर-समय घबराए हुए से रहते थे । इस समय कुछ लोगों ने गुरूदत्त से जाकर प्रार्थना की कि राजाधिराज, इस पर्वत पर एक बड़ा भारी हिंसक सिंह रहता है । उससे हमें बड़ा कष्ट है । इसलिए आप कोर्इ ऐसा उपाय कीजिए, जिससे हम लोगों का कष्ट दूर हो । गुरूदत्त उन लोगों को धीरज बँधाकर आप अपने कुछ वीरों को साथ लिये पर्वत पर पहुँचा । सिंह को उसने सब ओर से घेर लिया । पर मौका पाकर वह भाग निकला और जाकर एक अँधेरी गुफा में घुसकर छिप गया । गुरूदत्त ने तब इस मौके को अपने लिए और भी अच्छा समझा । उसने उसी समय बहुत से लकड़े गुहा में भरवाकर सिंह के निकलने का रास्ता बन्द कर दिया । और बाहर गुफा के मुँह पर भी एक लकड़ी का ढेर लगवाकर उसमें आग लगवा दी । लकड़ों की खाक के साथ-साथ उस सिंह की भी देखते-देखते खाक हो गर्इ । सिंह बड़े कष्ट के साथ मरकर इसी चन्द्रपुरी में भरत नाम के ब्राह्यण की विश्वदेवी स्त्री के कपिल नाम का लड़का हुआ । यह जन्म से ही बड़ा क्रूर हुआ और यह ठीक भी है कि पहले जैसा संस्कार होता है, वह दूसरे जन्म में भी आता है । इसके बाद गुरूदत्त अपनी प्रिया को लिए राजधानी में लौट आया । दोनों नव-दम्पती बड़े सुख से रहने लगे । कुछ दिनों बाद अभयमती के एक पुत्र ने जन्म लिया । इसका नाम रखा गया सुवर्णभद्र । यह सुन्दर था, सरलता और पवित्रता की प्रतिमा था और बुद्धिमान था । इसीलिये सब ही इसे बहुत प्यार करते थे । जब इसकी उमर योग्य हो गर्इ और सब कामों में यह होशियार हो गया तब जिनेन्द्र-भगवान् के सच्चे भक्त इसके पिता गुरूदत्त ने अपना राज्यभार इसे देकर आप वैरागी बन मुनि हो गये । इसके कुछ वर्षों बाद ये अनेक देशों, नगरों और गाँवों में धर्मोंपदेश करने, भव्य-जनों को सुलटाते हुए एक बार चन्द्रपुरी की ओर आये । एक दिन गुरूदत्त मुनि कपिल ब्राह्मण के खेत पर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे । इसी समय कपिल घर पर अपनी स्त्री से यह कहकर, कि प्रिये, मैं खेत पर जाता हूँ, तुम वहाँ भोजन लेकर जल्दी आना, खेत पर आ गया । जिस खेत पर गुरूदत्त मुनि ध्यान कर रहे थे, उसे तब जोतने योग्य न समझ वह दूसरे खेत पर जाने लगा । जाते समय मुनि से वह यह कहता गया कि मेरी स्त्री यहाँ भोजन लिए हुये आवेगी सो उसे आप कह दीजियेगा कि कपिल दूसरे खेत पर गया है । तू भोजन वहीं ले जा । सच है, मूर्ख लोग महामुनि के मार्ग को न समझकर कभी-कभी बड़ा ही अनर्थ कर बैठते हैं । इसके बाद जब कपिल की स्त्री भोजन लेकर खेत पर आर्इ और उसने अपने स्वामी को खेत पर न पाया तब मुनि से पूछा – क्यों साधु-महाराज, मेरे स्वामी यहाँ से कहाँ गये हैं ? मुनि चुप रहे, कुछ बोले नहीं । उनसे उत्तर न पाकर वह घर पर लौट आर्इ । इधर समय पर समय बीतने लगा ब्राह्मण देवता भूख के मारे छट-पटाने लगे पर ब्राह्यणी का अभी तक पता नहीं, यह देख उन्हें बड़ा गुस्सा आया । वे क्रोध से गुर्राते हुए घर आये और लगे बेचारी ब्राह्मणी पर गालियों की बौछार करने । राँड़, मैं तो भूख के मारे मरा जाता हूँ, और तेरा अभी तक आने का ठिकाना ही नहीं ! उस नंगे को पूछकर खेत पर चली आती । बेचारी ब्राह्यणी घबराती हुर्इ बोली – अजी तो इसमें मेरा क्या अपराध था । मैंने उस साधु से तुम्हारा ठिकाना पूछा । उसने कुछ न बताया ! तब मैं वापिस घर पर आ गर्इ । ब्राह्मण ने तुरन्त दाँत पीसकर कहा – हाँ उस नंगे ने तुझे मेरा ठिकाना नहीं बताया ! और मैं तो उससे कह गया था । अच्छा, मैं अभी ही जाकर उसे इसका मजा चखाता हूँ । पाठकों को याद होगा कि कपिल पहले जन्म में सिंह था, उसे इन्हीं गुरूदत्त मुनि ने राज अवस्था में जलाकर मार डाला था । तब इस हिसाब से कपिल के वे शत्रु हुए । यदि कपिल को किसी तरह यह जान पड़ता ये मेरे शत्रु हैं, तो उस शत्रुता का बदला उसने कभी का ले लिया होता । पर उसे इसके जानने का न तो कोर्इ जरिया मिला और न था ही । तब उस शत्रुता को जाग्रत करने के लिए कपिल की स्त्री को कपिल के दूसरे खेत पर जाने का हाल जो मुनि ने न बताया, यह घटना सहायक हो गर्इ । कपिल गुस्से से लाल होता हुआ मुनि के पास पहुँचा । वहाँ बहुत सी सेमल की रूर्इ पड़ी हुर्इ थी । कपिल ने उस रूर्इ से मुनि को लपेटकर उसमें आग लगा दी । मुनि पर बड़ा उपसर्ग हुआ । पर उसे उन्होंने बड़ी धीरता से सहा । उस समय शुक्ल-ध्यान के बल से घातिया-कर्मों का नाश होकर उन्हें केवल-ज्ञान प्राप्त हो गया । देवों ने आकर उनपर फूलों की वर्षा की, आनन्द मनाया । कपिल ब्राह्मण यह सब देखकर चकित हो गया । उसे तब जान पड़ा कि जिन साधु को मैंने अत्यन्त निर्दयता से जला डाला उनका कितना महात्म्य था ! उसे अपनी इस नीचता पर बड़ा पछतावा हुआ । उसने बड़ी भक्ति से भगवान् को हाथ जोड़कर अपने अपराध की उनसे क्षमा माँगी । भगवान् के उपदेश को उसने बड़े चाव से सुना । उसे यह बहुत रूचा भी । वैराग्य-पूर्ण भगवान् के उपदेश उसके हृदय पर गहरा असर किया । वह उसी समय सब छोड़-छाड़कर अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिये मुनि हो गया । सच है, सत्पुरूषों-महात्माओं की संगति सुख देनेवाली होती है । यही तो कारण था कि एक महा-क्रोधी ब्राह्मण पलभर में सब छोड़-छाड़कर योगी बन गया । इसलिये भव्य-जनों की सत्पुरूषों की संगति से अपने को, अपनी सन्तान को और अपने कुल को सदा पवित्र करने का यत्न करते रहना चाहिए । यह सत्संग परम सुख का कारण है । वे कर्मों के जीतने वाले जिनेन्द्र-भगवान् सदा संसार में रहें, उनका शासन चिरकाल तक जयलाभ करे जो सारे संसार को सुख देनेवाले हैं, सब सन्देहों का नाश करनेवाले हैं और देवों द्वारा जो पूजा-स्तुति किये जाते हैं । तथा दु:सह उपसर्ग आने पर भी जो मेरू की तरह स्थिर रहे और जिन्होंने अपना आत्म-स्वभाव प्राप्त किया ऐसे गुरूदत्त मुनि तथा मेरे परम गुरू श्री प्रभाचन्द्राचार्य, ये मुझे आत्मीक सुख प्रदान करें । |