
कथा :
केवलज्ञान रूपी नेत्र के धारक और स्वयंभू श्रीआदिनाथ भगवान् को नमस्कार कर सत्पुरूषों को इस बात का ज्ञान हो कि केवल मन की भावना से ही मन में विचार करने से ही कितना दोष या कर्मबन्ध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है । सबसे अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ा भारी दीर्घकाय मच्छ है । वह लम्बार्इ में एक हजार योजन, चौड़ार्इ में पाँच सौ योजन और ऊँचार्इ में ढार्इ सौ योजन का है । (एक योजन चार या दो हजार कोस का होता है) यहीं एक और शालिसिक्थ नाम का मच्छ इस बढ़े मच्छ के कानों के आस-पास रहता है । पर यह बहुत ही छोटा है और इस बड़े मच्छ के कानों का मैल खाया करता है । जब यह बड़ा मच्छ सैकड़ों छोटे-मोटे जल-जीवों को खाकर और मुँह फाड़े छह मास की गहरी नींद के खुर्राटे में मग्न हो जाता उस समय कोर्इ एक-एक, दो-दो योजन के लम्बे-लम्बे कछुए, मछलियाँ, घड़ियाल, मगर आदि जल जन्तु, बड़े निर्भीक होकर इसके विकराल डाढ़ों वाले मुँह में घुसते और बाहर निकलते रहते हैं । तब यह छोटा सिक्थ-मच्छ रोज-रोज सोचा करता है कि यह बड़ा मच्छ कितना मूर्ख है जो अपने मुख में आसानी से आये हुए जीवों को व्यर्थ ही जाने देता है । यदि कहीं मुझे वह सामर्थ्य प्राप्त हुर्इ हो तो मैं कभी एक भी जीव को न जाने देता । बड़े दु:ख की बात है कि पापी लोग अपने आप ही ऐसे बुरे भावों द्वारा महान् पाप का बन्ध कर दुर्गतियों में जाते हैं और वहाँ अनेक कष्ट सहते हैं । सिक्थ-मच्छ की भी यही दशा हुर्इ । वह इस प्रकार बुरे भावों से तीव्रकर्मों का बन्ध कर सातवें नरक गया । क्योंकि मन के भाव ही तो पुण्य या पाप के कारण होते हैं । इसलिए सत्पुरूषों को जैन शास्त्रों के अभ्यास या पढ़ने-पढ़ाने से मन को सदा पवित्र बनाये रखना चाहिए, जिससे उसमें बुरे विचारों का प्रवेश ही न हो पाये । और शास्त्रों के अभ्यास के बिना अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिए शास्त्राभ्यास पवित्रता का प्रधान कारण है । यही जिनवाणी मिथ्यारूपी अँधेरे को नष्ट करने के लिए दीपक है, संसार के दु:खों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाली है, स्वयं मोक्ष के सुख को कारण है और देव, विद्याधर आदि सभी महापुरूषों के आदर की पात्र हैं सभी जिनवाणी की उपासना बड़ी भक्ति से करते हैं । आप लोग भी इस पवित्र जिनवाणी का शांति और सुख के लिए, सदा अभ्यास मनन-चिन्तन करें । |