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सुभौम चक्रवर्ती की कथा

  कथा 

कथा :

चारों प्रकार के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर आठवें चक्रवर्ती सुभौम की कथा लिखी जाती है ।

सुभौम र्इर्ष्यावान् शहर के राजा कार्तवीर्य की रानी रेवती के पुत्र थे । चक्रवर्ती का एक जयसेन नामका रसोइया था । एक दिन चक्रवर्ती जब भोजन करने को बैठे तब रसोइया उन्हें गरम-गरम खीर परोस दी । उसके खाने से चक्रवर्ती का मुँह जल गया । इससे उन्हें रसोइये पर बड़ा गुस्सा आया । गुस्से से उन्होंने खीर रखे गरम बरतन को ही उसके सिर पर दे मारा । उससे उसका सारा सिर जल गया । इसकी घोर वेदना से मरकर वह लवण समुद्र में व्यन्तरदेव हुआ । कु-अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव की बात जानकर चक्रवर्ती पर उसके गुस्से का पार न रहा । प्रतिहिंसा से उसका जी बेचैन हो उठा । तब वह एक तपस्वी बनकर अच्छे-अच्छे सुन्दर फलों को अपने हाथ में लिये चक्रवर्ती के पास पहुँचा । फलों को उसने चक्रवर्ती को भेंट किया । चक्रवर्ती उन फलों को खाकर बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने उस तापस से कहा -- महाराज, ये फल तो बड़े ही मीठे हैं । आप इन्हें कहाँ से लाये ? और ये मिले तो कहाँ मिलेंगे ? तब उस व्यन्तर ने धोखा देकर चक्रवर्ती से कहा – समुद्र के बीच में एक छोटा सा टापू है । वहीं मेरा घर है । आप मुझ गरीब पर कृपाकर मेरे घर को पवित्र करें तो मैं आपको बहुत से ऐसे-ऐसे उत्तम और मीठे फल भेंट करूँगा । कारण वहाँ ऐसे फलों के बहुत बगीचे हैं । चक्रवर्ती लोभ में फँसकर व्यन्तर के झाँसे में आ गये और उसके साथ चल दिये । जब व्यन्तर इन्हें साथ लिये बीच समुद्र में पहुँचा तब अपने सच्चे स्वरूप में आ उसने बड़े गुस्से से चक्रवर्ती को कहा -- पापी, जानता है कि मैं तुझे यहाँ क्यों लाया हूँ ? यदि न जानता हो तो सुन – मैं तेरा जयसेन नाम का रसोइया था, तब तूने मुझे निर्दयता के साथ जलाकर मार डाला था । अब उसी का बदला लेने को मैं तुझे यहाँ लाया हूँ । बतला अब कहाँ जायेगा ? जैसा किया उसका फल भोगने को तैयार हो जा । तुझ से पापियों की ऐसी गति होनी ही चाहिए । पर सुन, अब भी एक उपाय है, जिससे तू बच सकता है । और वह यह कि यदि तू पानी में पंच नमस्कार मन्त्र लिखकर उसे अपने पाँवों से मिटा दे तो तुझे मैं जीता छोड़ सकता हूँ । अपनी जान बचाने के लिए कौन किस काम को नहीं कर सकता ? वह भला है या बुरा इसके विचार करने की तो उसे जरूरत ही नहीं रहती । उसे तब पड़ी रहती है अपनी जान की । यही दशा चक्रवर्ती महाशय की हुर्इ । उन्होंने तब नहीं सोच पाया कि इस अनर्थ से मेरी क्या दुर्दशा होगी ? उन्होंने उस व्यन्तर के कहे अनुसार झटपट जल में मंत्र लिखकर पाँव से उसे मिटा डाला । उनका मन्त्र मिटाना था कि व्यन्तर ने उन्हें मारकर समुद्र में फेंक दिया । इसका कारण यह हो सकता है कि मंत्र को पाँव से न मिटाने के पहले व्यन्तर की हिम्मत चक्रवती को मारने की इसलिए न पड़ी होगी कि जगत्पूज्य जिनेन्द्र भगवान् के भक्त को वह कैसे मारे, या यह भी संभव था कि उस समय कोर्इ जिनशासन का भक्त अन्य देव उसे इस अन्याय से रोककर चक्रवर्ती की रक्षा कर लेता और अब मंत्र को पाँवों से मिटा देने से चक्रवर्ती जिनधर्म का द्वेषी समझा गया और इसीलिए व्यन्तर ने उसे मार डाला । मर कर इस पाप के फल में चक्रवर्ती सातवें नरक गया । उस मूर्खता को, उस लम्पटता को धिक्कार चक्रवर्ती सारी पृथ्वी का सम्राट दुर्गति में गया । जिसका जिन भगवान् के धर्म पर विश्वास नहीं होता उसे चक्रवर्ती की तरह कुगति में जाना पड़े तो इसमें आश्चर्य क्या ? वे पुरूष धन्य हैं और वे ही सबके आदर पात्र हैं, जिनके हृदय में सुख देने वाले जिन वचन रूप अमृत का सदा स्त्रोत बहता रहता है । इन्हीं वचनों पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन जीवमात्र का हित करनेवाला है, संसार भय मिटाने वाला है, नाना प्रकार के सुखों को देने वाला है, और मोक्ष प्राप्तिका मुख्य कारण है । देव, विद्याधर आदि सभी बड़े-बड़े पुरूष सम्यग्यदर्शन की या उसके धारण करने वाले की पूजा करते हैं । यह गुणों का खजाना है । सम्यग्यदृष्टि को कोर्इ प्रकार का भय-बाधा नहीं होती । वह बड़ी सुख-शान्ति में रहता है । इसलिए जो सच्चे सुख की आशा रखते है उन्हें आठ अंग सहित इस पवित्र सम्यग्यदर्शन का विश्वास के साथ पालन करना चाहिए ।