
कथा :
सुख के देनेवाले और संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर शकटाल मुनि की कथा लिखी जाती है । पाटलिपुत्र (पटना) के राजा नन्द के दो मंत्री थे । एक शकटाल और दूसरा वररूचि । शकटाल जैनी था, इसलिए सुतरां उसकी जैन धर्म पर अचल श्रद्धा या प्राति थी । और वररूचि जैनी नहीं था, इसलिए सुतरां उसे जैन धर्म से, जैन धर्म के पालने वालों से द्वेष था, र्इर्षा थी । और इसलिए शकटाल और वररूचि की कभी न बनती थी, एक से एक अत्यन्त विरूद्ध थे । एक दिन जैन धर्म के परम विद्वान महापद्य मुनिराज अपने संघ को साथ लिये पटना में आये । शकटाल उनके दर्शन को गया । बड़ी भक्ति के साथ उसने उनकी पूजा-वन्दना की और उनके पास बैठकर और मुनि और गृहस्थ धर्म का उसने पवित्र उपदेश सुना । उपदेश का शकटाल के धार्मिक अतएव कोमल हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा । वह उसी समय संसार का सब माया-जाल तोड़कर दीक्षा ले मुनि हो गया । इसके बाद उसने अपने गुरू द्वारा सिद्धान्त शास्त्र का अच्छा अभ्यास किया । थोड़े ही दिनों में शकटाल मुनि ने कर्इ विषयों में बहुत ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । गुरू इनकी बुद्धि, विद्वत्ता, तर्कना शक्ति और सर्वोपरि इनकी स्वाभाविक प्रतिभा देखकर बहुत ही खुश हुए । उन्होंने अपना आचार्यपद अब इन्हें ही दे दिया । यहाँ से ये धर्मोपदेश और धर्म प्रचार के लिए अनेक देशों, शहरों और गाँवों में घूमे-फिरे । इन्होने बहुतों को आत्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और दुर्गतिके दु:खों का नाश करने वाले पवित्र जैन धर्म का सब ओर प्रकाश फैलाया । इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए ये एक बार फिर पटना में आये । एक दिन की बात है कि शकटाल मुनि राजा के अन्त:पुर में आहार कर तपोवन की ओर जा रहे थे । मंत्री वररूचि ने इन्हें देख लिया । सो इस पापी ने पुराने बैरका बदला लेने का अच्छा मौका देखकर नन्द से कहा-महाराज, आपको कुछ खबर है कि इस समय अपना पुराना मंत्री पापी शकटाल भीख के बहाने आपके अन्त:पुर में, रनवास में घुसकर न जाने क्या अनर्थ कर गया है ! मुझे तो उसके चले जाने बाद से समाचार मिले, नहीं तो मैंने उसे कभी का पकड़वा कर पापकी सजा दिलवा दी होती । अस्तु, आपको ऐसे धूर्तों के लिए चुप बैठना उचित नहीं । सच है, दुर्गति में जाने वाले ऐसे पापी लोग बुरा से बुरा कोर्इ काम करते नहीं चूकते । नन्द ने अपनेमंत्री के बहकाने में आकर गुस्से से उसी समय एक नौकर को आज्ञा की कि वह जाकर शकटाल को जान से मार आवे । सच है, मूर्ख पुरूष दुर्जनों द्वारा उस्केरे जाकर करने और न करने योग्य भले-बुरे कार्य का कुछ विचार न कर अन्याय कर ही डालते है । शकटाल मुनि ने जब उस घातक मनुष्य को अपनी ओर आते देखा तब उन्हें विश्वास हो गया कि यह मेरे ही मारने को आ रहा है और यह सब काम मंत्री वररूचिका है । अस्तु जब तक वह घातक शकटाल मुनि के पास पहुँचता है उसके पहले ही उन्होने सावधान होकर सन्यास ले लिया । घातक अपना काम पूरा कर वापिस लौट गया | इधर शकटाल मुनि ने समाधि से शरीर त्याग कर स्वर्ग लाभ किया । सच है, दुष्ट पुरूष अपनी ओर से कितनी ही दुष्टता क्यों न करें, पर उससे सत्पुरूषों को कुछ नुकसान न पहुँच कर लाभ ही होता है । परन्तु जब नन्द को यह सब सच्चा हाल ज्ञात हुआ और उसने सब बातों को गहरी छान-बीन की तब उसे मालूम हो गया कि शकटाल मुनि का कोर्इ दोष न था, वे सर्वथा निरपराध थे । इससे पहले जैन मुनियों के सम्बन्ध में जो उसकी मिथ्या धारण हो गर्इ थी और उन पर जो उसका बेहद क्रोध हो रहा था उस सबको हृदय से दूर कर वह अब बड़ा ही पछताया । अपने पाप कर्मों की उसने बहुत निन्दा की । इसके बाद वह श्री महापद्म मुनि के पास गया । बड़ी भक्ति से उसने उनकी पूजा-वन्दना की और सुख के कारण पवित्र जैन धर्म का उनके द्वारा उपदेश सुना । धर्मोपदेश का उसके चित्त पर बहुत प्रभाव पड़ा । उसने श्रावकों के व्रत धारण किये । जैन धर्म पर अब इसकी अचल श्रद्धा हो गर्इ । इस जीवको जब कोर्इ बुरी संगति मिल जाती है तब तो यह बुरे से बुरे पापकर्म करने लग जाता है और जब अच्छे महात्मा पुरूषों की संगति मिलती है तब यही पुण्य-पवित्र कर्म करने लगता है । इसलिए भव्यजनों को सदा ऐसे महापुरूषों की संगति करना चाहिए जो संसार के आदर्श हैं और जिनकी सत्संगति से स्वर्ग मोक्ष प्राप्त हो सकता है । इन सम्यग्दर्शन, सम्यगान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपरूपी रत्नों की सुन्दर माला को प्रभाचन्द्र आदि पूर्वाचार्यों ने शास्त्रों का सार लेकर बनाया है, जो ज्ञान समुद्र और सारे संसार के जीव मात्र का हित करने वाले थे । उन्हीं की कृपा से मैने इस आराधनारूपी माला को अपनी बुद्धि और शांति के अनुसार बनाया है । यह माला भव्यजनों को और मुझे सुख दे । |