
कथा :
सब दोषों के नाश करने वाले और सुख के देने वाले ऐसे जिनभगवान् को नमस्कार कर अपने बुरे कर्मों की निन्दा-आलोचना करने वाली बीरा ब्राह्मणी की कथा लिखी जाती है । दुर्योधन जब अयोध्या का राजा था तब की यह कथा है । यह राजा बड़ा न्यायी और बुद्धिमान् हुआ है । इसकी रानी का नाम श्रीदेवी था । श्रीदेवी बड़ी सुन्दरी और सच्ची पतिव्रता थी । यहाँ एक सर्वोपाध्याय नाम का ब्राह्मण रहता था । इसकी स्त्री का नाम बीरा था । इसका चाल-चलन अच्छा न था । जवानी के जोर में यह मस्त रहा करती थी । उपाध्याय के घर पर एक विद्यार्थी पढ़ा करता था । उसका नाम अग्निभूति था । बीरा ब्राह्मणी के साथ इसकी अनुचित प्रीति थी । ब्राह्मणी इसे बहुत चाहती थी । पर उपाध्याय इन दोनों के सुख का काँटा था । इसलिये ये मनमाना ऐशोआराम न कर पाते थे । ब्राह्मणी को यह बहुत खटका करता था । सो एक दिन मौका पाकर ब्राह्मणी ने अपने पति को मार डाला । और उसे मसान में फेंक आने को छत्री में छुपाकर अन्धेरी रात में वह घरसे निकली । मसान में जैसे ही वह उपाध्याय के मुर्दे को फेंकने को तैयार हुर्इ कि एक व्यन्तर देवीने उसके ऐसे नीच कर्म पर गुस्सा होकर छत्रीको कील दिया और कहा- ‘‘ सबेरा होने पर जब तू सारे शहरकी स्त्रियों के घर-घर पर जाकर अपना यह नीच कर्म प्रगट करेगी, अपने कर्म पर पछतायेगी तब तेरे सिर पर से यह छत्री गिरेगी ।”देवी के कहे अनुसार ब्राह्मणी ने वैसा ही किया । तब कहीं उसका पीछा छूटा, छत्री सिर से अलग हो सकी । इस आत्म-निन्दा से ब्राह्मणी का पाप कर्म बहुत हलका हो गया, वह शुद्ध हुर्इ । इसी तरह अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे प्रतिदिन होने वाले बुरे कर्मों की गुरूओ के पास आलोचना किया करें । उससे उनका पाप न होगा और अपने आत्मा को वे शुद्ध बना सकेंगे । किसी पुरूष के शरीर में काँटा लग गया और वह उससे बहुत कष्ट पा रहा है । पर जब तक वह काँटा उसके शरीर से न निकलेगा तब तक वह सुखी नहीं हो सकता । इसलिए उस काँटे को निकाल फैककर वैसे वह पुरूष सुखी होता है, उसी तरह जो आत्म-हितैषी जैनधर्म के बताये सिद्धान्त पर चलने वाले वीतरागी साधुओं की शरण ले अपने आत्मा को कष्ट पहुँचानेवाले पापकर्मरूपी काँटे को कृतकर्मों की आलोचना द्वारा निकाल फैकते हैं वे फिर कभी नाश न होने वाली आत्मीक लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं । |