+ आत्मनिन्दा करने वाली की कथा -
आत्मनिन्दा करने वाली की कथा

  कथा 

कथा :

चारों प्रकार के देवों द्वारा पूजे जाने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर उस स्त्री की कथा लिखी जाती है कि जिसने अपने किये पापकर्मों की आलोचना कर अच्छा फल प्राप्त किया है ।

बनारस के राजा विशाखदत्त थे । उनकी रानी का नाम कनकप्रभा था । इनके यहाँ एक चितेरा रहता था । इसका नाम विचित्र था । यह चित्रकला का बड़ा अच्छा जानकार था । चितेरे की स्त्री का नाम विचित्र पताका था । इसके बुद्धिमती नाम की एक लड़की थी । बुद्धिमती बड़ी सुन्दरी और चतुर थी ।

एक दिन विचित्र चितेरा राजा के खास महल में, जो बड़ा सुन्दर था, चित्र कर रहा था । उसकी लड़की बुद्धिमती उसके लिए भोजन लेकर आर्इ । उसने विनोद वश हो भींत पर मोर की पींछी का चित्र बनाया । वह चित्र इतना सुन्दर बना कि सहसा कोर्इ न जान पाता कि वह चित्र है । जो उसे देखता वह यहीं कहता कि यह मोर की पींछी है । इसी समय महाराज विषाखदत्त इस ओर आ गये । वे उस चित्र को मोर की पींछी समझ उठाने को उसकी ओर बढ़े । यह देख बुद्धिमतीने समझा कि महाराज वेसमझ हैं । नहीं तो इन्हें इतना भ्रम नहीं होता ।

दूसरे दिन बुद्धिमती ने एक और अद्भुत् चित्र राजाको बतलाते हुए अपने पिताको पुकारा-पिताजी, जल्दी आइए, भोजन की जवानी का समय बीत रहा है । बुद्धिमती के इन शब्दों को सुनकर राजा बड़े अचम्भे में पड़ गया । वह उसके कहने का कुछ भाव न समझ कर एक टकटकी लगाये उसके मुँह की ओर देखता रह गया । राजा को अपना भाव न समझा देख बुद्धिमती को उसके मूर्ख होने का और दृढ़ विश्वास हो गया ।‘

अबकी बार बुद्धिमती ने और ही चाल चली । एक भींत पर दो पड़दे लगा दिये और राजा को चित्र बतलाने के बहाने से उसने एक पड़दा उठाया । उसमें चित्र न था । तब राजा उस दूसरे पड़दे की ओर चित्र की आशा से आँख फाड़कर देखने लगा । बुद्धिमती ने दूसरा पड़दा भी उठा दिया । भींत पर चित्र को न देखकर राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ । उसकी इन चेष्टाओं से उसे पूरा मूर्ख समझ बुद्धिमती ने जरा हँस दिया । राजा और भी अचम्भे में पड़ गया । यह बुद्धिमती का कुछ भी अभिप्राय न समझ सका । उसने तब व्यग्र हो बुद्धिमती से ऐसा करने का कारण पूछा ।

बुद्धिमति के उत्तर से उसे जान पड़ा कि वह उसे चाहती है और इसीलिए पिता को भोजन के लिये पुकारते समय व्यंग से राजा पर उसने अपना भाव प्रगट किया था । राजा उसकी सुन्दरता पर पहले ही से मुग्ध था, सो वह बुद्धिमती की बातों से बड़ा खुश हुआ । उसने फिर बुद्धिमती के साथ ब्याह भी कर लिया । धीरे-धीरे राजा का उस पर इतना अधिक प्रेम बढ़ गया कि अपनी सब रानियों में पट्टरानी उसने उसे ही बना दिया । सच बात यह है कि प्राणियों की उन्नति के लिये उनके गुण ही उनका दूतपना करते है उन्हें उन्नति पर पहुँचा देने हैं ।

राजा ने बुद्धिमती को सारे रनवास की स्वामिनी बना तो दिया, पर उसमें सब रानियाँ उस बेचारी की शत्रु बन गर्इं, उससे डाह, र्इर्षा करने लगी । आते-जाते वे बुद्धिमती के सिर पर मारती और उसे बुरी-भली सुनाकर बे-हद कष्ट पहुँचाती । बेचारी बुद्धिमती सीधी-साधी थी, सो न तो वह उनसे कुछ कहती और महाराज से ही कभी उनकी शिकायत करती । इस कष्ट और चिन्ता से मन ही मन घुलकर वह सूख सी गर्इ । वह जब जिनमन्दिर दर्शन करने जाती तब सब सिद्धियों के देनेवाले भगवान् के सामने खड़े हो अपने पूर्व कर्मों की निन्दा करती और प्रार्थना करती कि हे संसारपूज्य, हे स्वर्ग-मोक्ष के सुख देने वाले और दु:खरूपी दावानल के बुझानेवाले मेघ, और हे दयासगर, मै एक छोटे कुल में पैदा हुर्इ हूँ, इसलिये मुझे से सब कष्ट हो रहे हैं । पर नाथ, इसमें दोष किसी का नहीं । मेरे पूर्व जनम के पापों का उदय है । प्रभो, जो हो, पर मुझे विश्वास है कि जीवों को चाहे कितने कष्ट क्यों न सता रहे हों, पर जो आपको हृदय से चाहता है, आपका सच्चा सेवक है, उसके सब कष्ट बहुत जल्दी नष्ट हो जाते है । और इसलिये हे नाथ, कामी, क्रोधी, मानी मायावी देवों को छोड़कर मैने आपकी शरण ली है । आप मेरा कष्ट दूर करेंगे ही । बुद्धिमती न मन्दिर में ही किन्तु महल पर भी अपने कर्मों की आलाचना किया करती । वह सदा एकान्त में रहती और न किसी से विशेष बोलती-चालती । राजाने उसके दुर्बल होने का कारण पूछा-बार-बार आग्रह किया, पर बुद्धिमती ने उससे कुछ भी न कहा ।

बुद्धिमती क्यों दिनों दिन दुर्बल होती जाती है, इसका शोध लगाने के लिये एक दिन राजा उसके पहले जिनमन्दिर आ गया । बुद्धिमती ने प्रतिदिन की तरह आज भी भगवान् के सामने खड़ी होकर आलोचना की । राजाने वह सब सुन लिया । सुनकर ही वह सीधा महल पर आया । अपनी सब रानियों को उसने खूब ही फटकारा, धिक्कारा और बुद्धिमती को ही उनकी मालकिन-पट्टरानी बनाकर उन सबको उसकी सेवा करने के लिए बाध्य किया ।

जिस प्रकार बुद्धिमती ने अपनी आत्म-निन्दा की, उसी तरह अन्य बुद्धिवानों और क्षुल्लक आदि को भी जिनभगवान् के सामने भक्तिपूर्वक आत्मनिन्दा-पूर्वकर्मों की आलोचना करना उचित है ।

उत्तम कुल और उत्तम सुखों की देनेवाली तथा दुर्गतिके दु:खों की नाश करने वाली जिनभगवान् की भक्ति मुझे भी मोक्ष का सुख दे ।