
कथा :
संसार द्वारा पूजे जानेवाले और केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र है, ऐसे जिनभगवान् को नमस्कार कर असमय में जो शास्त्राभ्यास के लिए योग्य नहीं है, शास्त्राभ्यास करने से जिन्हें उसका बुरा फल भोगना पड़ा, उनकी कथा लिखी जाती है । इसलिए कि विचारशीलों को इस बात का ज्ञान हो कि असमय में शास्त्राभ्यास करना अच्छा नहीं है, उसका बुरा फल होता है । शिवनन्दी मुनि ने अपने गुरूद्वारा यद्यपि यह जान रक्खा था कि स्वाध्याय का समय-काल श्रवण नक्षत्र का उदय होने के बाद माना गया है, तथापि कर्मों के तीव्र उदय से वे अकाल में ही शास्त्राभ्यास किया करते थे । फल इसका यह हुआ कि मिथ्या समाधि-मरण द्वारा मरकर उन्होंने गंगा में एक बड़े भारी मच्छ की पर्याय धारण की । सो ठीक ही है जिन-भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करने से इस जीव को दुर्गति के दु:ख भोगना ही पड़ते हैं । एक दिन नदी किनारे पर एक मुनि शास्त्राभ्यास कर रहे थे । इस मच्छ ने उनके पाठ को सुन लिया । उससे उसे जाति-स्मरण हो गया । तब उसने इस बात का बहुत पछतावा किया कि हाय ! मैं पढ़कर भी मूर्ख बना रहा, जो जैन-धर्म से विमुख होकर मैंने पाप-कर्म बांधा । उसी का यह फल है, जो मुझे मच्छ-शरीर लेना पड़ा । इसप्रकार अपनी निन्दा और अपने पाप-कर्म की आलोचना कर उसने भक्ति से सम्यक्त्व ग्रहण किया, जो कि सब जीवों का हित करने वाला है । इसके बाद वह जिन-भगवान् की आराधना कर पुण्य के उदय से स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । सच है, मनुष्य धर्म की आराधना कर स्वर्ग जाता है और पापी धर्म से उलटा चलकर दुर्गित में जाता है । पहला सुख भोगता है और दूसरा दु:ख उठाता है । यह जानकर बुद्धिवानों को उचित है, उनका कर्त्तव्य है कि वे जिनेन्द्र-भगवान् के उपदेश किये धर्म की भक्ति के अनुसार आराधना करें, जो कि सब सुखों का देनेवाला है । सम्यग्ज्ञान जिसने प्राप्त कर लिया उसको सारे संसार में कीर्ति होती है, सब प्रकार की उत्तम सम्पदाएँ उसे प्राप्त होती हैं, शान्ति मिलती है और वह पवित्रता की साक्षात् प्रतिमा बन जाता है । इसलिए भव्य-जनों को उचित है कि वे जिन-भगवान् के पवित्र ज्ञान को, जो कि देवों और विद्याधरों द्वारा पूजा-माना जाता है, प्राप्त करने का यत्न करें । |