
कथा :
इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों द्वारा पूजे जाने वाले जिनभगवान् को नमस्कार कर विनय धर्म के पालने वाले मनुष्य की पवित्र कथा लिखी जाती है । वत्स देश में सुप्रसिद्ध कौशाम्बी के राजा धनसेन वैष्णव-धर्म के मानने-वाले थे । उनकी रानी धनश्री, जो बहुत सुन्दरी और विदुषी थी, जिनधर्म पालती थी । उसने श्रावकों के व्रत ले रक्खे थे । यहाँ सुप्रतिष्ठ नाम का एक वैष्णव साधु रहता था । राजा इसका बड़ा आदर-सत्कार करते थे और यही कारण था कि राजा इसे स्वयं ऊॅंचे आसन बैठाकर भोजन कराते थे । इसके पास एक जलस्तंभिनी नामकी विद्या थी । उससे यह बीच यमुना में खड़ा रहकर ईश्वराराधना किया करता था । पर डूबता न था , इसके ऐसे प्रभाव को देखकर मूढ़ लोग बड़े चकित होते थे । सो ठीक ही है मूर्खों को ऐसी मूर्खता की क्रियाएँ पसन्द हुआ ही करती हैं । विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में बसे हुए रथनूपुर के राजा विद्युत्प्रभ तो जैनी थे, श्रावकों के व्रतों के पालनेवाले थे और उनकी रानी विद्युद्वेगा वैष्णव धर्म की माननेवाली थी । सो एक दिन ये राजा-रानी प्रकृति की सुन्दरता देखते और अपने मन को बहलाते कौशाम्बी की ओर आ गये । नदी-किनारे पहॅुंचकर इन्होंने देखा कि एक साधु बीच यमुना में खड़ा रहकर तपस्या कर रहा है । विद्यूत्प्रभ ने जान लिया कि यह मिथ्यादृष्टि है । पर उनकी रानी विद्युद्वेगा ने उस साधू की बहुत प्रशंसा की । तब विद्युत्प्रभ ने रानी से कहा – अच्छी बात है, प्रिये, आओ तो मैं तुम्हें जरा इसकी मूर्खता बतलाता हूँ । इसके बाद ये दोनों चाण्डाल का वेष बना ऊपर किनारे की ओर गये और मरे ढोरों का चमड़ा नदी में धोने लगे । अपने इस निन्द्य कर्म द्वारा इन्होंने जल को अपवित्र कर दिया । उस साधु को यह बहुत बुरा लगा । सो वह इन्हें कुछ कह सुनकर ऊपर की ओर चला गया । वहाँ उसने फिर नहाया धोया । सच है मूर्खता के वश लोग कौन काम नहीं करते । साधु की यह मूर्खता देखकर ये भी फिर और आगे जाकर चमड़ा धोने लगे । इनकी बार-बार यह शैतानी पर साधु को बड़ा गुस्सा आया । तब वह और आगे चला गया । इसके पीछे ही ये दोनों भी जाकर फिर अपना काम करने लगे । गर्ज यह कि इन्होंने उस साधु को बहुत ही कष्ट दिया । तब हार खाकर बेचारे को अपना जप-तप, नाम-ध्यान ही छोड़ देना पड़ा । इसके बाद उस साधु को इन्होंने अपनी विद्या के बल से वन में एक बड़ा भारी महल खड़ा कर देना, झूला बनाकर इस पर झूलना आदि अनेक अचम्भे में डालनेवाली बातें बतलार्इं । उन्हें देखकर सुप्रतिष्ठ साधु बड़ा चकित हुआ । वह मन में सोचने लगा कि जैसी विद्या इन चाण्डालों के पास है ऐसी तो अच्छे-अच्छे विद्याधरों या देवों के पास भी न होगी । यदि यही विद्या मेरे पास भी होती तो मैं भी इनकी तरह बड़ी मौज मारता । अस्तु, देखें, इनके पास जाकर मैं कहूँ कि ये अपनी विद्या मुझे भी दे दें । इसके बाद वह इनके पास आया और उनसे बोला – आप लोग कहाँ से आ रहे हैं ? आपके पास तो लोगों को चकित करनेवाली बड़ी-बड़ी करामतें हैं ! आपका वह विनोद देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुर्इ । उत्तर में विद्युत्प्रभ विद्याधर ने कहा – योगीजी, आप मुझे नहीं जानते कि मैं चाण्डाल हूँ । मैं तो अपने गुरू महाराज के दर्शन के लिए यहाँ आया हुआ था । गुरूजी ने खुश होकर मुझे जो विद्या दी है, उसी के प्रभाव से यह सब कुछ मैं करता हूँ । अब तो साधुजी के मुँह में भी विद्या-लाभ के लिए पानी आ गया । उन्होंने तब उस चांडाल रूपधारी विद्ध्याधर से कहा – तो क्या कृपाकर के आप मुझे भी यह विद्या दे सकते हैं, जिससे कि मैं भी फिर आपकी तरह खुशी मनाया करूँ । उत्तर में विद्याधर नें कहा -- भार्इ, विद्या के देने में तो मुझे कोर्इ हर्ज मालूम नहीं देता, पर बात यह है कि मैं ठहरा चाण्डाल और आप वेद वेदांग के पढ़े हुए एक उत्तम कुल के मनुष्य, तब आपका मेरा गुरू-शिष्य भाव नहीं बन सकता । और ऐसी हालत में आपसे मेरा विनय भी न हो सकेगा और बिना विनय के विद्या आ नहीं सकती । हाँ यदि आप यह स्वीकार करें कि जहाँ मुझे देख पावें वहाँ मेरे पाँवों में पड़कर बड़ी भक्ति के साथ यह कहें कि प्रभो, आप ही की चरण कृपा से मैं जीता हूँ ! तब तो मैं आपको विद्या दे सकता हूँ और तभी विद्या सिद्ध हो सकती है । बिना ऐसा किए सिद्ध हुर्इ विद्या भी नष्ट हो जाती है । उस साधु ने ये सब बातें स्वीकार कर लीं । तब विद्युत्प्रभ विद्याधर इसे विद्या देकर अपने घर चला गया । इधर सुप्रतिष्ठ साधु को जैसे ही विद्या सिद्ध हुर्इ, उसने उन सब लीलाओं को करना शुरू किया जिन्हें कि विद्याधर ने किया था । सब बातें वैसी ही हुर्इं देखकर सुप्रतिष्ठ बड़ा खुश हुआ । उसे विश्वास हो गया कि अब मुझे विद्या सिद्ध हो गर्इ । इसके बाद वह भोजन के लिए राजमहल आया । उसे देर से आया हुआ देखकर राजा ने पूछा -- भगवान्, आज आपको बड़ी देर लगी ? मैं बड़ी देर से आपका रास्ता देख रहा हूँ । उत्तर में सुप्रतिष्ठ ने मायाचारी से झूठ-मूठ ही कह दिया कि राजन् आज मेरी तपस्या के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सब देव आये थे । वे बड़ी भक्ति से मेरी पूजा कर के अभी गये हैं । यही कारण मुझे देरी लग जाने का है । राजन्, एक बात नई यह हुई कि मैं अब आकाश में ही चलने -फिरने लग गया । सुनकर राजा को बडा आश्चर्य हुआ और साथ ही में यह सब कौतुक देखने की उसकी मंशा हुर्इ । उसने तब सुप्रतिष्ठ से कहा – अच्छा तो महाराज, अब आप आइए और भोजन कीजिए । क्योंकि बहुत देर हो चुकी है । आप वह सब कौतुक मुझे बतलाइएगा । सुप्रतिष्ठ ‘अच्छी बात है’ अब आप आइए और भोजन के लिए चला आया । दूसरे दिन सवेरा होते ही राजा और उसके अमीर-उमराव वगैरह सभी प्रतिष्ठ साधु के मठ में उपस्थित हुए । दर्शकों का भी ठाठ लग गया । सबकी आँखें और मन साधु की ओर जा लगे कि वह अपना नया चमत्कार बतलावें । सुप्रतिष्ठ साधु भी अपनी करामत बतलाने को आरंभ करनेवाला ही था कि इतने में वह विद्युत्प्रभ विद्याधर और उसकी स्त्री उसी चाण्डाल वेष में वहीं आ धमके । सुप्रतिष्ठ के देवता उन्हें देखते ही कूँच कर गये । ऐसे समय उनके आ जाने से इसे उनपर बड़ी घृणा हुर्इ । उसने मन ही मन घृणा के साथ कहा – ये दुष्ट इस समय क्यों चले आये ! उसका यह कहना था कि उसकी विद्या नष्ट हो गर्इ । वह राजा वगैरह को अब कुछ भी चमत्कार न बतला सका और बड़ा शर्मिन्दा हुआ । तब राजा ने ‘ऐसा एक साथ क्यों हुआ’ इसका सब कारण सुप्रतिष्ठ से पूछा । झख मारकर फिर उसे सब बातें राजा से कह देनी पड़ीं । सुनकर राजा ने उन चाण्डालों को बड़ी भक्ति से प्रणाम किया । राजा की यह भक्ति देखकर उन्होंने वह विद्या राजा को दे दी । राजा उसकी परीक्षा कर बड़ी प्रसन्नता से अपने महल लौट गया । सो ठीक ही है विद्या का लाभ सभी को सुख देनेवाला होता है । राजा की भी परीक्षा का समय आया । विद्या प्राप्ति के कुछ दिनों बाद एक दिन राजा राज-दरबार में सिंहासन पर बैठा हुआ था । राजसभा सब अमीर-उमरावों से ठसा-ठस भरी हुर्इ थी । इसी समय राजगुरू चाण्डाल वहाँ आया, जिसने कि राजा को विद्या दी थी । राजा उसे देखते ही बड़ी भक्ति से सिंहासन पर से उठा और उसके सत्कार के लिए कुछ आगे बढ़कर उसने उसे नमस्कार किया और कहा -- प्रभो, आप ही के चरणों की कृपा से मैं जीता हूँ । राजा की ऐसी भक्ति और विनयशीलता देखकर विद्युत्प्रभ बड़ा खुश हुआ । उसने तब अपना खास रूप प्रगट किया और राजा को और भी कर्इ विद्याएँ देकर वह उपने घर चला गया । सच है, गुरूओं के विनय से लोगों को सभी सुन्दर-सुन्दर वस्तुएँ प्राप्त होती हैं । इस आश्चर्य को देखकर धनसेन, विद्युद्वेगा तथा और भी बहुत से लोगों ने श्रावक-व्रत स्वीकार किये । विनय का इस प्रकार फल देखकर अन्य भव्य-जनों को भी उचित है कि वे गुरूओं की विनय, भक्ति निर्मल भावों से करें । जो गुरू-भक्ति क्षण-मात्र में कठिन से कठिन काम को पूरा कर देती है वही भक्ति मेरी सब क्रियाओं की भूषण बने । मैं उन गुरूओं को नमस्कार करता हूँ कि जो संसार-समुद्र से स्वयं तैरकर पार होते है और साथ ही और-और भव्यजनों को पार करते हैं । जिनके चरणों की पूजा देव; विद्याधर, चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े महापुरूष करते हैं उन जिन-भगवान् का उनके रचे पवित्र शास्त्रों का और उनके बताये मार्ग पर चलने वाले मुनिराजों का जो हृदय से विनय करते हैं, उनकी भक्ति करते हैं उनके पास कीर्ति, सुन्दरता, उदारता, सुख-सम्पत्ति और ज्ञान-आदि पवित्र गुण अत्यन्त पड़ोसी होकर रहते हैं । अर्थात् विनय के फल से उन्हें सब गुण प्राप्त होते हैं । |