
कथा :
निर्मल केवल-ज्ञान के धारक श्री जिनेन्द्र-भगवान् को नमस्कार कर व्यंजन-हीन अर्थ करनेवाले की कथा लिखी जाती है । गुरूजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर के राजा महापद्म थे । ये बड़े धर्मात्मा और जिन-भगवान् के सच्चे-भक्त थे । इनकी रानी का नाम पद्मश्री था । पद्मश्री सरल-स्वभाव वाली थी, सुन्दरी थी और कर्मों के नाश करनेवाले जिन-पूजा, दान, व्रत, उपवास आदि पुण्य-कर्म निन्तर किया करती थी । मतलब यह कि जिन-धर्म पर उसकी बड़ी श्रद्धा थी । सुरम्य देश के पोदनापुर का राजा सिंहनाद और महापद्म में कर्इ दिनों की शत्रुता चली आ रही थी । इसलिए मौका पाकर महापद्म ने उसपर चढ़ार्इ कर दी । पोदनापुर में महापद्म ने ‘सहस्त्रकूट’ नाम से प्रसिद्ध जिन-मन्दिर देखा । मन्दिर की हजार खम्भों वाली भव्य और विशाल इमारत देखकर महापद्म बड़े खुश हुए । इनके हृदय में भी धर्म-प्रेम का प्रवाह बहा । अपने शहर में भी एक ऐसे ही सुन्दर मन्दिर के बनवाने की उनकी भी इच्छा हुर्इ । तब उसी-समय इन्होंने उपनी राजधानी में पत्र लिखा । उसमें इन्होंने लिखा -- ‘‘महास्तंभ-सहस्त्रस्य-कर्त्तव्य:संग्रहो-ध्रुवम् ।’’ अर्थात् – बहुत जल्दी बड़े-बड़े एक-हजार खम्भे इकट्ठे करना । पत्र बाँचने-वाले ने इसे भ्रम से पढा - ‘महास्तंभ-सहस्त्रस्य-कर्त्तव्य:संग्रहो-ध्रुवम’ । ‘स्तंभ’ शब्द को ‘स्तभ’ समझकर उसने खम्भे की जगह एक हजार बकरों को इकट्ठा करने को कहा । ऐसा ही किया गया । तत्काल एक-हजार बकरे मॅंगवाये जाकर वे अच्छे खाने पिलाने द्वारा पाले जाने लगे । जब महाराज लौटकर वापिस आये तो उन्होंने अपने कर्मचारियों से पूछा कि मैंने जो आज्ञा की थी, उसकी तामील की गर्इ ? उत्तर में उन्होंने ‘जी हाँ’ कहकर उन बकरों को महाराज को दिखलाया । महापद्म देखकर सिर से पैर तक जल उठे । उन्होंने गुस्सा होकर कहा – मैंने तो तुम्हें एक हजार खम्भों को इकट्ठा करने को लिखा था, तुमने वह क्या किया ? तुम्हारे इस अविचार की सजा में तुम्हें जीवन-दण्ड देता हूँ । महापद्म की ऐसी कठोर सजा सुनकर वे बेचारे बड़े घबराये ! उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि महाराज, इसमें हमारा तो कुछ दोष नहीं है । हमें तो जैसा पत्र बाँचनेवाले ने कहा, वैसा ही हमने किया । महाराज ने तब उसी समय पत्र बाँचनेवाले को बुलाकर उसके इस गुरूतर अपराध को जैसी चाहिए वैसी सजा की । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे ज्ञान, ध्यान आदि कामों में कभी ऐसा प्रमाद न करें । क्योंकि प्रमाद कभी सुख के लिए नहीं होता । जो सत्पुरूष भगवान् के उपदेश किये पवित्र और पुण्यमय ज्ञान का अभ्यास करेंगे वे फिर मोह उत्पन्न करनेवाले प्रमाद को न कर सुख देनेवाले जिन-पूजा, दान, व्रत उपवासादि धार्मिक-कामों में अपनी बुद्धि को लगाकर केवल-ज्ञान का अनन्त सुख प्राप्त करेंगे । |