+ अर्थहीन वाक्य की कथा -
अर्थहीन वाक्य की कथा

  कथा 

कथा :

गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ऐसे पाँचों कल्याणों में स्वर्ग के देवों ने आकर जिनकी बड़ी भक्ति पूजा की, उन जिनभगवान् को नमस्कार कर अर्थहीन अर्थात् उल्टा अर्थ करने के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ।

वसुपाल अयोध्या के राजा थे । उनकी रानी का नाम वसुमती था । इनके वसुमित्र नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था । वसुपाल ने अपने पुत्र के लिखने-पढ़ने का भार एक गर्ग नाम के विद्वान् पंडित को सौंपकर उज्जैन के राजा वीरदत्त पर चढ़ार्इ कर दी । कारण वीरदत्त हर समय वसुपाल का मानभंग किया करता था । और उनकी प्रजा को भी कष्ट दिया करता था । वसुपाल उज्जैन आकर कुछ दिनों तक शहर का घेरा डाले रहे । इस समय उन्होंने अपनी राज्य-व्यवस्था के सम्बन्ध का एक पत्र अयोध्या भेजा । उसी में उपने पुत्र के बाबत उन्होंने लिखा --

‘पुत्रोध्यापयितव्योसौवसुमित्रोतिसादरम् ।

शालिभक्तंमसिस्पृक्तंसर्पियक्तंदिनंप्रति ॥

गर्गोपाध्यायकस्योच्चैर्द्दीयतेभोजनायच ।‘

इसका भाव यह है – वसुमित्र के पढ़ाने-लिखाने का प्रबन्ध अच्छा करना, कोर्इ त्रुटि न करना और उसके पढ़ाने वाले पंडितजी को खाने-पीने की कोर्इ तकलीफ न हो, उन्हें घी, चावल, दूध-भात, वगैरह खाने को दिया करना ।

पत्र पहुँचा । बाँचनेवाले ने उसे ऐसा ही बाँचा । पर श्लोक में ‘मसिस्पृक्तं’ एक शब्द है । इसका अर्थ करने में वह गलती कर गया । उसने इसे ‘शालिभक्तं’ का विशेषण समझ यह अर्थ किया कि घी, दूध और मसिमिले चावल पंडितजी को खाने को देना । ऐसा ही हुआ ।

१. श्लोक में ‘मसिस्पृक्त’ शब्द है; उससे ग्रन्थकार का क्या मतलब है यह समझ में नहीं आता । पर वह ऐसी जगह प्रयोग किया गया है कि उसे ‘शालिभक्त’ का विशेषण न किये गति ही नहीं है । आराधना कथा कोश की छन्दोबन्ध भाषा बनाने वाले पंडित वख्तावरमल उक्त श्लोकों भाषा यों करते हैं --

‘सुतवसुमित्रपढ़ाइयोनित्त, गर्गनामपाठकजीपवित्त ।

ताकोभोजनतंगुलघीव, लिखनहेतमसिदेवसदीव ॥‘

पंडित वख्तावरमलजी ने ‘मसिस्पृक्त’ शब्द का अर्थ किया है – उपाध्याय को लिखने को स्याही देना । यह उन्होंने कैसे ही किया हो, पर उस शब्द में ऐसी कोर्इ शक्ति नहीं जिससे कि यह अर्थ किया जा सके । और यदि ग्रन्थकार का भी इसी अर्थ से मतलब हो तो कहना पड़ेगा कि उनकी रचना-शक्ति बड़ी ही शिथिल थी । हमारा यह विश्वास केवल इसी डेढ़ श्लोक से ही ऐसा नहीं हुआ, किन्तु इतने बड़े ग्रन्थ में जगह-जगह, श्लोक-श्लोक में ऐसी शिथिलता देख पड़ती है । हाँ यह कहा जा सकता है कि ग्रन्थकार ने इतना बड़ा ग्रंथ बना जरूर लिया पर हमारे विश्वास के अनुसार उन्हें ग्रंथ की साहित्य सुन्दरता, रचना सुन्दता आदि बातों में बहुत थोड़ी भी सफलता शायद ही प्राप्त हुर्इ हो ! इस विषय का एक पृथक् लेख लिखकर हम पाठकों की सेवा में उपस्थित करेंगे, जिससे वे हमारे कथन में कितना तथ्य है, इसका ठीक-ठीक पता पा सकेंगे ।

‘मसि’ का अर्थ स्याही प्रसिद्ध है । पं. वख्तावरमलजी ने भी स्याही अर्थ किया है । पर ग्रंथकार इसका अर्थ करते हैं -- कोयला ।

देखिए --

मसघृतंसुभक्तंचदीयतेभोजनक्षणे ।

चूर्णीकृत्यततोङ्गारंधृतभक्तेनंमिश्रितम ॥ दत्तंतस्मैइति ।

स्याही काली होती है और कोयला भी काला, शायद इसी रंग की समानता से ग्रन्थकार ने कोयले की जगह मसि का प्रयोग कर दिया होगा? पर हे आश्चर्य ! ग्रन्थकार ने इस श्लोक में मसि शब्द को अलग लिखा है, पर ऊपर के श्लोक में आये हुए ‘मसिस्पृक्तं’ शब्द का ऐसा जुदा अर्थ किसी तरह नहीं किया जा सकता । ग्रन्थकार की कमजोरी की हद है, जो उनकी रचना इतनी शिथिल देख पड़ती है ।

जब बेचारे पंडितजी भोजन करने को बैठते तब चावलों में घी वगैरह के साथ थोड़ा कोयला भी पीसकर मिला दिया जाया करता था ।

जब राजा विजय प्राप्त कर लौटे तब उन्होंने पंडितजी से कुशल-समाचार पूछा । उत्तर में पंडित जी ने कहा -- राजाधिराज, आपके पुण्य-प्रसाद से मैं हूँ तो अच्छी तरह, पर खेद है कि आपके कुल-परम्परा की रीति के अनुसार मुझसे मसि-कोयला नहीं खाया जा सकता । इसलिए अब क्षमाकर आज्ञा दें तो बड़ी कृपा हो । राजा को पंडितजी की बात का बड़ा अचम्भा हुआ । उनकी समझ में न आया कि बात क्या है । उन्होंने फिर उसका खुलासा पूछा । जब सब बातें उन्हें जान पडी तब उन्होंने रानी से पूछा – मैंने तो अपने पत्र में ऐसी कोर्इ बात न लिखी थी, फिर पंडितजी को ऐसा खाने को दिया जाकर क्यों तंग किया जाता था ? रानी ने राजा के हाथ में उनका लिखा हुआ पत्र देकर कहा – आपके बाँचने वाले ने हमें यही मतलब समझाया था । इसलिए यह समझकर, कि ऐसा करने से राजा-साहब का कोर्इ विशेष मतलब होगा, मैंने ऐसी व्यवस्था की थी । सुनकर राजा को बड़ा गुस्सा आया । उन्होंने पत्र वाँचने वाले को उसी समय देश-निकाले की सजा देकर उसे उपने शहर-बाहर करवा दिया । इसलिए बुद्धिवानों को उचित है कि वे लिखने-बाँचने में ऐसा प्रमाद का अर्थ कर अनर्थ न करें ।

यह विचार कर जो पव़ित्र आचरण के धारी और ज्ञान जिनका धन है ऐसे सत्पुरूष भगवान् के उपदेश किये हुए, पुण्य के कारण और यश तथा आनन्द को देनेवाले ज्ञान-सम्यग्ज्ञान के प्राप्त करने का भक्ति-पूर्वक यत्न करेंगे, वे अनन्त-ज्ञान रूपी लक्ष्मी का सर्वोच्च सुख-लाभ करेंगे ।