+ हरिषेण चक्रवर्ती की कथा -
हरिषेण चक्रवर्ती की कथा

  कथा 

कथा :

केवल-ज्ञान जिनका नेत्र है ऐसे जिन-भगवान् को नमस्कार कर हरिषेण चक्रवर्ती की कथा लिखी जाती है ।

अंगदेश के सुप्रसिद्ध कांपिल्य नगर के राजा सिंहध्वज थे । इनकी रानी का नाम वप्रा था । कथानायक हरिषेण इन्हीं का पुत्र था । हरिषेण बुद्धिमान् था, सुन्दर था और बड़ा तेजस्वी था । सब उसका बड़ा मान-आदर करते थे ।

हरिषेण की माता धर्मात्मा थी । भगवान् पर उसकी अचल भक्ति थी । यही कारण था कि वह अठार्इ के पर्व में सदा जिन-भगवान् के रथ निकलवाया करती और उत्सव मनाती । सिंहध्वज की दूसरी रानी लक्ष्मीमती को जैन-धर्म पर विश्वास न था । वह सदा उसकी निन्दा किया करती थी । एक बार उसने अपने स्वामी से कहा -- प्राणनाथ, आज पहले मेरा ब्रह्माजी का रथ शहर में घूमे, ऐसी आप आज्ञा दीजिये, सिंहध्वज ने इसका परिणाम क्या होगा, इस पर कुछ विचार न कर लक्ष्मीमती का कहा मान लिया । पर जब धर्मवत्सल वप्रा रानी को इस बात की खबर मिली तो उसे बड़ा दु:ख हुआ । उसने उसी समय प्रतिज्ञा की कि मैं खाना-पीना तभी करूँगी जबकि मेरा रथ पहले निकलेगा । सच है, सत्पुरूषों को धर्म ही शरण होता है, उनकी धर्म तक ही दौड़ होती है ।

हरिषेण इतने में भोजन करने को आया । उसने सदा की भाँति आज अपनी माता को हँस-मुख न देखकर उदास मन देखा । इससे उसे बड़ा खेद हुआ । माता क्यों दुखी हैं, इसका कारण जब उसे जान पड़ा तब वह एक पलभर भी फिर वहाँ न ठहरकर घर से निकल पड़ा । यहाँ से चलकर वह एक चोरों के गाँव में पहुंचा । इसे देखकर एक तोता अपने मालिकों से बोला – जो कि चोरों का सिखाया पढ़ाया था, देखिये, यह राजकुमार जा रहा है, इसे पकड़ो । तुम्हें लाभ होगा । तोते के इस कहने पर किसी चोर का ध्यान न गया । इसलिये हरिषेण बिना किसी आफत के आये यहाँ से निकल गया । सच है, दुष्टों की संगति पाकर दुष्टता आती है । फिर ऐसे जीवों से कभी किसी का हित नहीं होता ।

यहाँ से निकलकर हरिषेण फिर एक शतमन्यु नाम के तापसी के आश्रम में पहुँचा । वहाँ भी एक तोता था । परन्तु यह पहले तोते सा दुष्ट न था । इसलिये इसने हरिषेण को देखकर मन में सोचा कि जिसके मुँह पर तेजस्विता और सुन्दरता होती है उसमें गुण अवश्य ही होते हैं । यह जानेवाला भी कोई ऐसा ही पुरुष होना चाहिये । इसके बाद ही उसने अपने मालिक तापसियों से कहा – वह राजकुमार जा रहा है । इसका आप लोग आदर करें । राजकुमार को बड़ा अचम्भा हुआ । उसने पहले का हाल कहकर इस तोते से पूछा – क्यों भार्इ, तेरे एक भार्इ ने तो अपने मालिकों से मेरे पकड़ने को कहा था और तू अपने मालिक से मेरा मान-आदर करने को कह रहा है, इसका क्या कारण है ? तोता बोला -- अच्छा राजकुमार, सुनो मैं तुम्हें इसका कारण बतलाता हूँ । उस तोते की और मेरी माता एक ही हैं । हम दोनों भार्इ-भार्इ हैं । इस हालत में मुझमें और उसमें विशेषता होने का कारण यह है कि मैं इन तपस्वियों के हाथ पड़ा और वह चोरों के । मैं रोज-रोज इन महात्माओं की अच्छी-अच्छी बातें सुना करता हूँ और वह उन चोरों की बुरी-बुरी बातें सुनता है । इसलिये मुझमें और उसमें इतना अन्तर है । सो आपने अपनी आँखों देखा ही लिया कि दोष और गुण ये संगति के फल हैं । अच्छों की संगति गुण प्राप्त होते हैं और बुरों की संगति से दुर्गुण ।

इस आश्रम के स्वामी तापसी शतमन्यु पहले चम्पापुरी के राजा थे । इनकी रानी का नाम नागवती है । इनके जनमेजय नाम का एक पुत्र और मदनावली नाम की एक कन्या है । शतमन्यु अपने पुत्र को राज्य देकर तापसी हो गये । राज्य अब जनमेजय करने लगा । एक दिन जनमेजय से मदनावली के सम्बन्ध में एक ज्योतिषी ने कहा कि यह कन्या चक्रवर्ती का सर्वोच्च स्त्री-रत्न होगा । और यह सच भी है कि ज्ञानियों का कहा कभी झूठा नहीं होता ।

जब मदनावली के इस भविष्य-वाणी की सब ओर खबर पहुँची तो अनेक राजे लोग उसे चाहने लगे । इन्हीं में उड्रदेश का राजा कलकल भी था । उसने मदनावली के लिये उसके भार्इ से मॅंगनी की । उसकी यह मॅंगनी जनमेजय ने नहीं स्वीकारी । इससे कलकल को बड़ा ना-गवार गुजारा । उसने रूष्ट होकर जनमेजय पर चढ़ार्इ कर दी और चम्पापुरी के चारों ओर घेरा डाल दिया । सच है, काम से अन्धे हुए मनुष्य कौन काम नहीं कर डालते । जनमेजय भी ऐसा डरपोक राजा न था । उसने फौरन ही युद्ध-स्थल में आ-डटने की अपनी सेना को आज्ञा दी । दोनों ओर के वीर योद्धओं की मुठभेड़ हो गर्इ । खूब घमासान युद्ध आरम्भ हुआ । इघर युद्ध छिड़ा और उधर नागवती अपनी लड़की मदनावली को साथ ले सुरंग के रास्ते से निकल भागी । वह इसी शतमन्यु के आश्रम में आर्इ । पाठकों को याद होगा कि यही शतमन्यु नागवती का पति है । उसने युद्ध का सब हाल शतमन्यु को कह सुनाया । शतमन्यु ने तब नागवती और मदनावली को अपने आश्रम में ही रख लिया ।

हरिषेण राजकुमार का ऊपर जिकर आया है । इसका मदनावली पर पहले से ही प्रेम था । हरिषेण उसे बहुत चाहता था । यह बात आश्रमवासी तापसियों को मालूम पड़ जाने से उन्होंने हरिषेण को आश्रम से निकाल बाहर कर दिया । हरिषेण को इससे बुरा तो बहुत लगा, पर वह कुछ कर-धर नहीं सकता था । इसलिये लाचार होकर उसे चला जाना ही पड़ा । इसने चलते समय प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा इस पव़ित्र राजकुमारी के साथ ब्याह होगा तो मैं अपने सारे देश में चार-चार कोस की दूरी पर अच्छे-अच्छे सुन्दर और विशाल जिनमन्दिर बनवाऊॅंगा, जो पृथ्वी को पवित्र करनेवाले कहलायेंगे । सच है, उन लोगों के हृदय में जिनेन्द्र-भगवान् की भक्ति सदा रहा करती है जो स्वर्ग या मोक्ष का सुख प्राप्त करनेवाले होते हैं ।

प्रसिद्ध सिन्धुदेश के सिन्धुतट शहर के राजा सिन्धुनद और रानी सिन्धुमती के कोई सौ लड़कियाँ थीं । ये सब ही बड़ी सुन्दर थीं । इन लड़कियों के सम्बन्ध में नैमित्तिक ने कहा था कि – ये सब राजकुमारियाँ चक्रवर्ती हरिषेण की स्त्रियाँ होंगी । ये सिन्धुनदी पर स्नान करने के लिये जायेंगी । इसी समय हरिषेण भी यहीं आ जाएगा । तब परस्पर की चार आँखें होते ही दोनों ओर से प्रेम का बीज अंकुरित हो उठेगा ।

नैमित्तिक का कहना ठीक हुआ । हरिषेण दूसरे राजाओं पर विजय करता हुआ इसी सिन्धुनदी के किनारे पर आकर ठहरा । इसी समय सिन्धुनद की कुमारियाँ भी यहाँ स्नान करने के लिए आर्इ हुर्इ थी । प्रथम ही दर्शन में दोनों हृदयों में प्रेम का अंकुर फूटा और फिर वह क्रम से बढ़ता ही गया । सिन्धुनद से यह बात छिपी न रही । उसने प्रसन्न होकर हरिषेण के साथ अपनी लड़कियों का ब्याह कर दिया ।

रात को हरिषेण चित्रशाला नाम के एक खास महल में सोया हुआ था । इसी समय एक वेगवती नाम की विद्याधरी आकर हरिषेण को सोता हुआ ही उठा ले चली । रास्ते में हरिषेण जग उठा । अपने को एक स्त्री कहाँ लिये जा रही है, इस बात की मालूम होते ही उसे बड़ा गुस्सा आया । उसने तब उस विद्याधरी को मारने के लिये घूँसा उठाया । उसे गुस्सा हुआ देख विद्याधरी डरी और हाथ जोड़कर बोली -- महाराज, क्षमा कीजिए । मेरी एक प्रार्थना सुनिए । विजयार्द्ध पर्वत पर बसे एक सूर्योदर शहर के राजा इन्द्रधनु और रानी बुद्धमती को एक कन्या है । उसका नाम जयचन्द्रा है । वह सुन्दर है, बुद्धिमती है और बड़ी चतुर है । पर उसमें एक एब है और वह महाऐब है । वह यह कि उसे पुरूषों से बड़ा द्वेष है, पुरूषों को वह आँखो से देखना तक पसन्द नहीं करती । नैमित्तिक ने उसके सम्बन्ध में कहा कि जो सिन्धुनद की सौ राजकुमारियों का पति होगा, वही इसका भी होगा । तब मैंने आपका चित्र ले जाकर उसे बतलाया । वह उसे देखकर बड़ी प्रसन्न हुर्इ, उसका सब कुछ आप पर न्योछावर हो चुका है । वह आपके सम्बन्ध में तरह-तरह की बातें पूछा करती है और बड़े चाव से उन्हें सुनती है । आपका जिकर छिड़ते ही वह ध्यान से उसे सुनने लगती है । उसकी इन सब चेष्टाओं से जान पड़ता है कि उसका आप पर अत्यन्त प्रेम है । यही कारण है कि मै उसकी आज्ञा से आपको उसके पास लिये जा रही हूँ । सुनकर हरिषेण बहुत खुश हुआ और फिर वह कुछ भी न बोलकर जहाँ उसे विद्याधरी लिवा गर्इ, चला गया । वेगवती ने हरिषेण को इन्द्रधनु के महल पर ला रक्खा । हरिषेण के रूप और गुणों को देखकर सभी को बड़ी प्रसन्नता हुर्इ । जयचन्द्रा के माता-पिता ने उसके ब्याह का भी दिन निश्चित कर दिया । जो दिन ब्याह का था उस दिन राजकुमारी जयचन्द्रा के मामा के लड़के गंगाधर और महोधर ये दोनों हरिषेण पर चढ़ आये । इसलिये कि वे जयचन्द्रा को स्वयं ब्याहना चाहते थे । हरिषेण ने इनके साथ बड़ी वीरता से युद्ध कर इन्हें हराया । इस युद्ध में हरिषेण के हाथ जवाहरात और बहुत धन-दौलत लगी । यह चक्रवर्ती होकर अपने घर लौटा । रास्ते में इसने अपनी प्रेमिणी मदनावली से भी ब्याह किया । घर आकर इसने अपनी माता की इच्छा पूरी की । पहले उसी का रथ चला । इसके बाद हरिषेण ने अपने देश-भर में जिन-मन्दिर बनवाकर अपनी प्रतिज्ञा को भी निबाहा । सच है, पुण्यवानों के लिये कोर्इ काम कठिन नहीं ।

वे जिनेन्द्र भगवान् सदा जय-लाभ करें, जो देवादिकों द्वारा पूजा किये जाते, गुणरूपी रत्नों की खान हैं, स्वर्ग-मोक्ष के देनेवाले हैं, संसार को प्रकाशित करनेवाले निर्मल चन्द्रमा हैं केवलज्ञानी, सर्वज्ञ हैं और जिनके पवित्र-धर्म का पालन कर भव्यजन सुख-लाभ करते हैं ।