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दूसरों के गुण ग्रहण करने की कथा

  कथा 

कथा :

जिन्हें स्वर्ग के देव पूजते हैं उन जिन-भगवान् को नमस्कार कर दूसरों के दोषों को न देखकर गुण ग्रहण करनेवाले की कथा लिखी जाती है ।

एक दिन सौधर्म-स्वर्ग का इन्द्र धर्म-प्रेम के वश हो गुणवान् पुरूषों की अपनी सभा में प्रशंसा कर रहा था । उस समय उसने कहा – जिस पुरूष का, जिस महात्मा का हृदय इतना उदार है कि वे दूसरों के बहुत से औगुणों पर बिलकुल ध्यान न देकर उसमें रहनेवाले गुणों के थोड़े भी हिस्से को खूब बढ़ाने का यत्न करता है, जिसका ध्यान सिर्फ गुणों के ग्रहण करने की ओर है, वह पुरूष, वह महात्मा संसार में सबसे श्रेष्ठ है, उसी का जन्म भी सफल है । इन्द्र के मुँह से इसप्रकार दूसरों की प्रशंसा सुन एक मौजीले देव ने उससे पूछा -- देवराज, जैसी इस समय आपने गुण-ग्राहक पुरूष की प्रशंसा की है, क्या ऐसा कोर्इ बड़भागी पृथ्वी पर है भी । इन्द्र ने उत्तर में कहा -- हाँ हैं, और वे अन्तिम वासुदेव द्वारका के स्वामी श्रीकृष्ण । सुनकर वह देव उसी समय पृथ्वी पर आया । इस समय श्रीकृष्ण नेमिनाथ-भगवान् के दर्शनार्थ जा रहे थे । इनकी परीक्षा के लिये यह मरे कुत्ते का रूप ले रास्ते में पड़ गया । इसके शरीर से बड़ी ही दुर्गन्ध भभक रही थी । आने-जानेवालों के लिए इधर होकर आना-जाना मुश्किल हो गया था । इसकी इस असह्य-दुर्गन्ध के मारे श्रीकृष्ण के साथी सब भग खड़े हुए । इसी समय वह देव एक दूसरे ब्राह्मण का रूप लेकर श्रीकृष्ण के पास आया और उस कुत्ते की बुरार्इ करने लगा, उसके दोष दिखाने लगा । श्रीकृष्ण ने उसकी सब बातें सुन-सुनाकर कहा -- अहा ! देखिए, इस कुत्ते के दाँतों की श्रेणी स्फटिक के समान कितनी निर्मल और सुन्दर है । श्रीकृष्ण ने कुत्ते के और दोषों पर, उसकी दुर्गन्ध आदि पर कुछ ध्यान न देकर उसके दाँतों की, उसमें रहनेवाले थोड़े से भी अच्छे भाग की उल्टी प्रशंसा ही की । श्रीकृष्ण की एक पशु के लिये इतनी उदार-बुद्धि देखकर वह देव बहुत खुश हुआ । उसने फिर प्रत्यक्ष होकर सब हाल श्रीकृष्ण से कहा – और उचित आदर-मान करके आप अपने स्थान चला गया ।

उसी तरह अन्य जिन-भगवान् के भक्त भव्य-जनों को भी उचित है कि वे दूसरों के दोषों को छोड़कर सुख की प्राप्ति के लिये प्रेम के साथ उनके गुणों को ग्रहण करने का यत्न करें । इसी से वे गुणज्ञ और प्रशंसा-पात्र कहे जा सकेंगे ।