
कथा :
इन्द्रादिकों द्वारा जिनके पाँव पूजे जाते हैं, ऐसे जिनभगवान् को नमस्कार कर जिनाभिषेक से अनुराग करनेवाले जिनदत्त और वसुमित्र की कथा लिखी जाती है । उज्जैन के राजा सागरदत्त के समय उनकी राजधानी में जिनदत्त और वसुमित्र नाम के दो प्रसिद्ध और बड़े गुणवान् सेठ हो गये हैं । जिनधर्म और जिनाभिषेक पर उनका बड़ा ही अनुराग था । ऐसा कोर्इ दिन उनका खाली न जाता था, जिस दिन वे भगवान् का अभिषेक न करते हों, पूजा-प्रभावना न करते हों, दान-व्रत न करते हों । एक दिन ये दोनों सेठ व्यापार के लिये उज्जैन से उत्तर की ओर रवाना हुए । मंजिल-दर-मंजिल चलते हुये एक ऐसी घनी अटवी में पहुँच गये, जो दोनों बाजू आकाश से बातें करने वाले अवसीर और माला पर्वत नाम के पर्वतों से घिरी थी और जिसमें डाकू लोगों का अड्डा था । डाकू लोग इनका सब माल-असबाब छीन कर हवा हो गये । अब ये दोनों उस अटवी में इधर-उधर घूमने लगे । इसलिये कि इन्हें उससे बाहर होने का रास्ता मिल जाय । पर इनका सब प्रयत्न निष्फल गया । न तो ये स्वयं रास्ते का पता लगा सके और न कोर्इ इन्हे रास्ता बताने वाला ही मिला । अपने अटवी बाहर होने का कोर्इ उपाय न देखकर अन्त में इन जिन-पूजा और जिनाभिषेक से अनुराग करनेवाले महानुभावों ने संन्यास ले लिया और जिनभगवान् का ये स्मरण-चिंतन करने लगे । सच है, सत्पुरूष सुख और दु:ख में सदा समान भाव रखते हैं, विचारशील रहते हैं । एक और अभागा भूला भटका सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण इस अटवी में आ फँसा । घूमता-फिरता वह इन्हीं के पास आ गया । अपनी-सी इस बेचारे ब्राह्मण की दशा देखकर ये बड़े दिलगीर हुए । सोमशर्मा से इन्होंने सब हाल कहा और यह भी कहा -- यहाँ से निकलने का कोर्इ मार्ग प्रयत्न करने पर भी जब हमें न मिला तो हमने अन्त में धर्म का शरण लिया । इसलिये कि यहाँ हमारी मरने के सिवा कोर्इ गति ही नहीं है और जब हमें मृत्यु के सामने होना ही है तब कायरता और बुरे भावों से क्यों उसका सामना करना, जिससे कि दुर्गति में जाना पड़े । धर्म दु:खों का नाश कर सुखों का देने वाला है । इसिलये उसी का ऐसे समय में आश्रय लेना परम हितकारी है । हम तुम्हें भी सलाह देते हैं कि तुम भी सुगति की प्राप्ति के लिये धर्म का आश्रय ग्रहण करो । इसके बाद उन्होंने सोमशर्मा को धर्म का सामान्य स्वरूप समझाया -- देखो, जो अठारह दोषों से रहित और सबके देखने वाले सर्वज्ञ हैं, वे देव कहाते हैं और ऐसे निर्दोष भगवान् द्वारा बताये दयामय मार्ग को धर्म कहते हैं । धर्म का वैसे सामान्य लक्षण है – जो दु:खों से छुड़ाकर सुख प्राप्त करावे । ऐसे धर्म को आचार्यों ने दस भागों में बाँटा है । अर्थात् सुख प्राप्त करने के दस उपाय हैं । वे ये हैं -- उत्तमक्षमा, मार्दव –हृदय का कोमल होना, आर्जव – हृदय का सरल होना, सच बोलना, शौच – निर्लोभी या संतोषी होना, संयम – इन्द्रियों को वश करना, तप – व्रत उपवासादि करना, त्याग – पुण्य से प्राप्त हुए धन को सुकृत के काम जैसे दान, परोपकार आदि में लगाना, आकिंचन – परिग्रह अर्थात धन-धान्य, चाँदी-सोना, दास-दासी आदि इस प्रकार के परिग्रह की लालसा कम करके आत्मा को शान्ति के मार्ग पर ले जाना और ब्रह्मचर्य का पालना । गुरू वे कहलाते हैं जो माया, मोह-ममता से रहित हों, विषयों की वासना जिन्हें छू तक न गर्इ हो, जो पक्के ब्रह्मचारी हों, तपस्वी हों और संसार के दु:खी जीवों को हित का रास्ता बतलाकर उन्हें सुख प्राप्त कराने वाले हों । इन तीनों पर अर्थात् देव, धर्म, गुरू पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह सम्यगदर्शन सुख-स्थान पर पहुँचने की सबसे पहली सीढ़ी है । इसलिये तुम इसे ग्रहण करो । इस विश्वास को जैन-शासन या जैन-धर्म भी कहते हैं । जैन-धर्म में जीव को, जिसे कि आत्मा भी कहते हैं, अनादि माना है । न केवल माना ही है, किन्तु वह अनादि ही है, नास्तिकों की तरह वह पंच-भूत -- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इनसे बना हुआ नहीं है । क्योंकि ये सब पदार्थ जड़ हैं । ये देख-जान नहीं सकते । और जीव का देखना जानना ही खास गुण है । इसी गुण से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है । जीव को जैन-धर्म दो भागों में बाँट देता है । एक भव्य-अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ-कर्मों का, जिन्होंने कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप को अनादि से ढाँक रक्खा है, नाश कर मोक्ष जाने वाला और दूसरा अभव्य – जिसमें कर्मों के नाश करने की शक्ति न हो । इनमें कर्म-युक्त जीव को संसारी कहते हैं और कर्म-रहित को मुक्त । जीव के सिवा संसार में एक और भी द्रव्य है । उसे अजीव या पुद्गल कहते हैं । इसमें जानने-देखने की शक्ति नहीं होती, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । अजीव को जैन-धर्म पाँच-भागों में बाँटता है, जैसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इन पाँचों की दो श्रेणियाँ की गर्इ हैं । एक मूर्तिक और दूसरी अमूर्तिक । मूर्तिक उसे कहते हैं जो छुर्इ जा सके, जिसमें कुछ न कुछ स्वाद हो, गन्ध और वर्ण रूप-रंग हो । अर्थात् जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये बातें पार्इ जाय वह मूर्तिक है और जिसमें ये न हों वह अमूर्तिक है । उक्त पाँच द्रव्यों में सिर्फ पुद्गल तो मूर्तिक है अर्थात् इसमें उक्त चारों बातें सदा से हैं और रहेंगीं – कभी उससे जुदा न होंगी । इसके सिवा धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अमूर्तिक हैं । इन सब विषयों का विशेष खुलासा अन्य जैन-ग्रन्थों में किया है । प्रकरणवश तुम्हें यह सामान्य स्वरूप कहा । विश्वास है अपने हित के लिये इसे ग्रहण करने का यत्न करोगे । सोमशर्मा को यह उपदेश बहुत पसन्द पड़ा । उसने मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को स्वीकार कर लिया । इसके बाद जिनदत्त व सुमित्र की तरह वह भी संन्यास ले भगवान् का ध्यान करने लगा । सोमशर्मा को भूख-प्यास, ड़ाँस-मच्छर आदि की बहुत बाधा सहनी पड़ी । उसे उसने बड़ी धीरता के साथ सहा । अन्त में समाधि से मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्म-स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से श्रेणिक महाराज का अभयकुमार नाम का पुत्र हुआ । अभयकुमार बड़ा ही धीर-वीर और पराक्रमी था, परोपकारी था । अन्त में वह कर्मों का नाश कर मोक्ष गया । सोमशर्मा की मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद जिनदत्त और वसुमित्र को भी समाधि से मृत्यु हुर्इ । वे दोनों भी इसी सौधर्म-स्वर्ग में, जहाँ कि सोमशर्मा देव हुआ था, देव हुए । संसार का उपकार करनेवाले और पुण्य के कारण जिनके उपदेश किये धर्म को कष्ट समय में भी धारणकर भव्य-जन उस कठिन से कठिन सुख को, जिसके कि प्राप्त करने की उन्हें स्वप्न में भी आशा नहीं होती, प्राप्त कर लेते हैं, वे सर्वज्ञ भगवान् मुझे वह निर्मल सुख दें, जिस सुख की इन्द्र, चक्री और विद्याधर राजे पूजा करते हैं । |