
कथा :
जो निर्मल केवल-ज्ञान द्वारा लोक और अलोक के जानने-देखने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, उन जिनेन्द्र-भगवान् को नमस्कार कर धर्म से अनुराग करने वाले राजकुमार लकुच की कथा लिखी जाती है । उज्जैन के राजा धनवर्मा और उनकी रानी धनश्री के लकुच नाम का एक पुत्र था । लकुच बड़ा अभिमानी था । पर साथ में वीर भी था । उसे लोग मेंघ की उपमा देते थे । इसलिए कि वह शत्रुओं की मानरूपी अग्नि को बुझा देता था, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना उसके बायें हाथ का खेल था । कालमेंघ नाम के म्लेच्छ राजा ने एक बार उज्जैन पर चढ़ार्इ की थी । अवन्ति देश की प्रजा को तब जन-धन की बहुत हानि उठानी पड़ी थी । लकुच ने इसका बदला चुकाने के लिए कालमेंघ के देश पर भी चढ़ार्इ कर दी । दोनों ओर से घमासान युद्ध होने पर विजय-लक्ष्मी लकुच की गोद में आकर लेटी । लकुच ने तब कालमेंघ को बाँध लाकर पिता के सामने रख दिया । धनवर्मा अपने पुत्र की इस वीरता को देखकर बड़े खुश हुए । इस खुशी में धनवर्मा ने लकुच को कुछ वर देने की इच्छा जाहिर की । पर उसकी प्रार्थना से वर को उपयोग में लाने का भार उन्होंने उसी की इच्छा पर छोड़ दिया । अपनी इच्छा के माफिक करने की पिता की आज्ञा पा लकुच की आँखें फिर गर्इं । उसने अपनी इच्छा का दुरूपयोग करना शुरू किया । व्यभिचार की ओर उसकी दृष्टि गर्इ । तब अच्छे-अच्छे घराने की सुशील स्त्रियाँ उसकी शिकार बनने लगीं । उनका धर्म-भ्रष्ट किया जाने लगा । अनेक सतियों ने इस पापी से अपने धर्म की रक्षा के लिए आत्महत्याएँ तक कर डालीं । प्रजा के लोग तंग आ गये । वे महाराज से राजकुमार की शिकायत तक करने नहीं पाते । कारण राजकुमार के जासूस उज्जैन के कोने-कोने में फैल रहे थे, इसलिए जिसने कुछ राजकुमार के विरूद्ध जबान हिलार्इ या विचार किया, फौरन ही मौत के मुँह में फैंक दिया जाता था । यहाँ एक पुंगल नाम का सेठ रहता था । इसकी स्त्री का नाम नागदत्ता था । नागदत्ता बड़ी खूबसूरत थी । एक दिन पापी लकुच की इस पर आँखें चली गर्इं । बस, फिर क्या देर थी ? उसने उसी समय उसे प्राप्त कर अपनी नीच मनोवृत्ति की तृप्ति की । पुंगल उसकी इस नीचता से सिर से पाँव तक जल उठा । क्रोध की आग उसके रोम-रोम में फैल गर्इ । वह राजकुमार के दबदबे से कुछ करने-धरने को लाचार था । पर उस दिन की बाट वह बड़ी आशा से जोह रहा था । जिस दिन कि वह लकुच से उसके कर्मों का भरपूर बदला चुकाकर अपनी छाती ठण्डी करे । एक दिन लकुच वन-क्रीड़ा के लिए गया हुआ था । भाग्य से वहाँ उसे मुनिराज के दर्शन हो गये । उसने उनसे धर्म का उपदेश सुना । उपदेश का प्रभाव उसपर खूब पड़ा । इसलिए वह वहीं उनसे दीक्षा ले मुनि हो गया । उधर पुंगल ऐसे मौके को आशा लगाये बैठा ही था, सो जैसे ही उसे लकुच का मुनि होना जान पड़ा वह लोहे के बड़े-बड़े तीखे कीलों को लेकर लकुच मुनि के ध्यान करने की जगह पर आया । इस समय लकुच मुनि ध्यान में थे । पुंगल तब उन कीलों को मुनि के शरीर में ठोककर चलता बना । लकुच मुनि ने इस दु:सह उपसर्ग को बड़ी शान्ति, स्थिरता और धर्मानुराग से सहकर स्वर्ग-लोक प्राप्त किया । सच है, महात्माओं का चरित्र विचित्र ही हुआ करता है । वे अपने जीवन की गति को मिनट भर में कुछ को कुछ बदल डालते हैं । वे लकुच मुनि जयलाभ करें, कर्मों को जीतें, जिन्होंने असहय कष्ट सहकर जिनेन्द्र-भगवान् रूपी चन्द्रमा के उपदेश रूपी अमृतमयी किरणों से स्वर्ग का उत्तम-सुख प्राप्त किया, गुणरूपी रत्नों के जो पर्वत हुए और ज्ञान के गहरे समुद्र कहलाये । |