+ सम्‍यग्‍दर्शन के प्रभाव की कथा -
सम्‍यग्‍दर्शन के प्रभाव की कथा

  कथा 

कथा :

जो सारे संसारके देवाधिदेव हैं और स्‍वर्ग के देव जिनकी भक्ति से पूजा किया करते हैं उन जिन भगवान् को प्रणाम कर महारानी चेलिनी और श्रेणिक के द्वारा होने वाली सम्‍यक्‍त्‍व के प्रभाव की कथा लिखी जाती है ।

उपश्रेणिक मगध के राजा थे । राजगृह मगध की तब खास राजधानी थी । उपश्रेणिक की रानी का नाम सुप्रभा था । श्रेणिक इसी के पुत्र थे । श्रेणिक जैसे सुन्‍दर थे जैसे ही उनमें अनेक गुण भी थे । वे बुद्धिमान थे, बड़े गम्‍भीर प्रकृति के थे, शूरवीर थे, दानी थे और अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी थे ।

मगध राज्‍य की सीमा से लगते ही एक नागधर्म नाम के राजा का राज्‍य था । नागदत्त की ओर उपश्रेणिक की पुरानी शत्रुता चली आती थी । नागदत्त उसका बदला लेने का मौका तो सदा ही देखता रहता था, पर इस समय उसका उपश्रेणिक के साथ कोई भारी मनमुटाव न था । वह कपट से उपश्रेणिक का मित्र बना रहता था । यही कारण था कि उसने एक बार उपश्रेणिक के लिये एक दुष्‍ट घोड़ा भेंट में भेजा । घोडा इतना दुष्‍ट था कि वैसे तो वह चलता ही न था और उसे जरा ही ऐड़ लगाई या लगाम खींची कि बस वह फिर हवा से बात करने लगता था । दुष्‍टों की ऐसी गति हो इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं । उपश्रेणिक एक दिन इसी घोड़े पर सवार हो हवाखोरी के लिये निकले । इन्‍होंने बैठते ही जैसे उसकी लगाम तानी कि वह हवा हो गया । बड़ी देर बाद वह एक अटवी में जाकर ठहरा । उस अटवी का मालिक एक यमदण्‍ड नाम का भील था, जो दीखने में सचमुच ही यम सा भयानक था । इसके तिलकावती नामकी एक लड़की थी । तिलकावती बड़ी सुन्‍दरी थी । उसे देख यह कहना अनुचित न होगा कि कोयले की खानमें हीरा निकला । कहाँ काला भुसंड यमदण्‍ड और कहाँ स्‍वर्ग की अप्‍सराओं को लजाने वाली इसकी लड़की चन्‍द्रवती तिलकावती ! अस्‍तु, इस भुवन-सुन्‍दर रूपराशि को देखकर उपश्रेणिक उस पर मोहित हो गये । उन्‍होंने तिलकावती के लिए यमदण्‍ड से मंगनी की । उत्तर में यमदण्‍ड ने कहा-----राज-राजेश्‍वर, इसमें कोई सन्‍देह नहीं कि मैं बड़ा भाग्‍यवान् हूँ । जब कि एक पृथिवी के सम्राट मेरे जमाई बनते हैं । और इसके लिये मुझे बेहद खुशी है । मैं अपनी पुत्री का आपके साथ ब्‍याह करूँ, इसके पहले आपको एक शर्त करनी होगी और वह कि आप राज्‍य तिलकावती से होनेवाली सन्‍तान को दें । उपश्रेणिकने यमदण्‍ड की इस बात को स्‍वीकार कर लिया । यमदण्‍ड ने भी तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसका ब्‍याह उपश्रेणिक से कर दिया । उपश्रेणिक फिर तिलकावती को साथ ले राजगृह आ गये ।

कुछ समय सुखपूर्वक बीतने पर तिलकावती के एक पुत्र हुआ । उसका नाम रक्‍खा गया चिलातपुत्र । एक दिन उपश्रेणिक ने विचार कर, कि मेरे इन पुत्रों में राजयोग किसका है, एक निमित्तज्ञानी को बुलाया और उससे पूछा-----पंडितजी, अपना निमित्तज्ञान देखकर बतलाइए कि मेरे इतने पुत्रों में राज्‍य-सुख कौन भोग सकेगा ? निमित्तज्ञानी कहा-----महाराज, जो सिंहासन पर बैठा हुआ नगारा बजाता रहे और दूर ही से कुत्तों को खीर खिलाता हुआ आप भी खाता रहे और आग लगने पर सिंहासन, छत्र, चँवर आदि राज्‍य चिन्‍हों को निकाल ले भागे, वह राज्‍य-लक्ष्‍मी का सुख भोग करेगा । इसमें आप किसी तरह का सन्‍देह न समझे । उपश्रेणिक ने एक दिन इस बात की परीक्षा करने के लिये अपने सब पुत्रों को खीर खाने के लिये बैठाया । उनके पास ही सिंहासन और एक नगारा भी रखवा दिया । पर यह किसी को पता न पड़ने दिया कि ऐसा क्‍यों किया गया । सब कुमार भोजन करने को बैठे और खाना उन्‍होंने आरम्‍भ किया, कि इतने में एक ओर से सैकडों कुत्तों का झुण्‍ड का झुण्‍ड उन पर आ टूटा । तब वे सब डरके मारे उठ उठकर भागने लगे । श्रेणिक उन कुत्तों से न डरा, वह जल्‍दी से उठकर खीर की पत्तलों का एक ऊँचे स्‍थान पर धरने लगा । थोड़ी ही देर में उसने बहुत-सी पत्तलें इकट्ठी कर ली । इसके बाद वह स्‍वयं उस ऊँचे स्‍थान पर रखे हुये सिंहासन पर बैठकर नगारा बजाने लगा, जिससे कुत्ते उसके पास न आ पावें और इकट्ठी की हुई पत्तलों में से एक-एक पत्तल उठा-उठा कर दूर-दूर फैंकता गया । इस प्रकार अपनी बुद्धि से व्‍यवस्‍था कर उसने बड़ी निर्भयता के साथ भोजन किया । इसी प्रकार आग लगने पर श्रेणिक ने सिंहासन, छत्र, चँवर आदि राज्‍य चिन्‍हों की रक्षा कर ली ।

उपश्रेणिक के तब निश्‍चय हो गया कि इन सब पुत्रोंमें श्रेणिक हो एक ऐसा भाग्‍यशाली है जो मेरे राज्‍य की अच्‍छी तरह चलायेगा । उपश्रेणिक ने तब उसकी रक्षा के लिये उसे यहाँ से कहाँ भेज देना उचित समझा । उन्‍हें इस बात का खटका था कि मैं राज्‍य का मालिक तिलकावती के पुत्र को बना चुका हूँ, और ऐसी दशा में श्रेणिक यहाँ रहा तो कोई असंभव नहीं कि इसकी तेजस्विता, इसकी बुद्धिमानी, इसकी कार्यक्षमता हो जाय । इसलिए जब तक यह अच्‍छा हुशियार न हो जाये तब तक इसका कहीं बाहर रहना ही उत्तम है । फिर यदि इसमें बल होगा तो यह स्‍वयं राज्‍य को हस्‍तगत कर सकेगा । इसके लिये उपश्रेणिक ने श्रेणिक के सिर पर यह अपराध मढ़ा कि इसने कुत्तों का झूंठा खाया है, इसलिये अब यह राजघराने में रहने योग्‍य नहीं रहा । मैं इसे आज्ञा करता हूँ कि यह मेरे राज्‍य से निकल जाये । सच है, राजे लोग बड़े विचार के साथ काम करते है । निरपराध श्रेणिक पिता की आज्ञा पा उसी समय राजगृह से निकल गया । फिर एक मिनट लिये भी वह वहाँ न ठहरा ।

श्रेणिक यहाँ से चलकर कोई दुपहरके समय नन्‍द नामक गाँव में पहुँचा । यहाँ के लोगों को श्रेणिक के निकाले जाने का हाल मालूम हो गया था, इसलिए राजद्रोह के भय से उन्‍होंने श्रेणिक को अपने गाँव में न रहने दिया । श्रेणिक ने तब लाचार हो आगे का रास्‍ता लिया । रास्‍ते में इसे एक संन्‍यासियों का आश्रम मिला । इसने कुछ दिनों यही अपना डेरा जमा दिया । मठ में यह रहता और संन्‍यासियों का उपदेश सुनता । मठ का प्रधान संन्‍यासी बड़ा विद्वान् था । श्रेणिक पर उसका बहुत असर पड़ा । उसने तब वैष्‍णव धर्म स्‍वीकार कर लिया । श्रेणिक और कुछ दिनों तक यहाँ ठहरा । इसके बाद वह यहाँ से रवाना होकर दक्षिण दिशा की ओर बड़ा |

इस समय दक्षिण की राजधानी काँची थी । काँची के राजा वसुपाल थे । उनकी रानी का नाम वसुमती था । इनके वसुमित्रा नाम की एक सुन्‍दर और गुणवती पुत्री थी । यहाँ एक सोमशर्मा ब्राह्मण रहता था, सोमशर्मा की स्‍त्री का नाम सोमश्री था । इसके भी एक पुत्री थी । इसका नाम अभयमती था । अभयमती बड़ी बुद्धिमती थी ।

एक बार सोमशर्मा तीर्थयात्रा करके लौट रहा था । रास्‍ते में उसे श्रेणिक ने देखा । कुछ मेंल-मुलाकात और बोल चाल हुए बाद जब ये दोनों चलने को तैयार हुए तब श्रेणिक ने सोमशर्मा से कहा-----मामाजी, आप भी बड़ी दूर से आते हैं और मैं भी बड़ी दूर से चला आ रहा हूँ, इसलिये हम दोनों ही थक चुके हैं । अच्‍छा हो यदि आप मुझे अपने कन्‍धे पर बैठा लें और आप मेरे कंधे पर बैठ कर चलें तो ।श्रेणिक की यह बे सिर पैर की बात सुनकर सोमशर्मा बड़ा चकित हुआ । उसने समझा कि यह पागल हो गया जान पड़ता है । उसने तब श्रेणिक की बात का कुछ जबाब न दिया । थोड़ी दूर चुपचाप आगे बढ़ने पर श्रेणिक ने दो गाँवों को देखा । उसने तब जो छोटा गाँव था उसे तो बड़ा बताया और जो बड़ा था उसे छोटा बताया । रास्‍ते में श्रेणिक जहाँ सिर पर कड़ी धूप पड़ती वहाँ तो छत्री उतार लेता और जहाँ वृक्षों की ठंडी छाया आती वहा छत्री को चढ़ा लेता । इसी तरह जहाँ कोई नदी-नाला पड़ता तब तो वह जूतियों को पाँवों में पहर लेता और रास्‍ते में उन्‍हें हाथ में लेकर नंगे पैरों चलता । आगे चलकर उसने एक स्‍त्रीको पति द्वारा मार खाती देखकर सोमशर्मा से कहा-----क्‍यों मामाजी, यह जो स्‍त्री पिट रही है वह बंधी है या खुली ? आगे एक मरे पुरूष को देखकर उसने पूछा कि यह जीता है या मर गया ? थोड़ी दूर चलकर इसने एक एक धान के पके हुये खेत को देखकर कहा-----इसे इसके मालिकों ने खा लिया है । या वे अब खायेंगे ? इसी तरह सारे रास्‍ते में एक से एक असंगत और वे-मतलब के प्रश्‍न सुनकर बेचारा सोमशर्मा ऊब गया । राम-राम करते वह घर पर आया । श्रेणिक को वह शहर बाहर ही एक जगह बैठाकर यह कह आया कि मैं अपनी लड़की से पूछकर अभी आता हूँ, तब तक तुम वहाँ बैठना ।

अभयवती अपने पिता को आया देख बड़ी खुश हुई । उन्‍हें कुछ खिला-पिला कर उसने पूछा-----पिताजी, आप अकेले गये थे और अकेले ही आये हैं क्‍या ? सोमशर्मा ने कहा-----बेटा, मेरे साथ एक बड़ा ही सुन्‍दर लड़का आया है । पर बड़े दु:खकी बात है कि वह बेचारा पागल हो गया जान पड़ता है । उसकी देवकुमार सी सुन्‍दर जिन्‍दगी धूलधानी हो गई । कर्मों की लीला बड़ी ही विचित्र है । मुझे तो उसकी वह स्‍वर्गीय सुन्‍दरता और साथ ही उसका वह पागलपन देखकर उस पर बड़ी दया आती है । मैं उसे शहर बाहर एक स्‍थान पर बैठा आया हूँ । अपने पिता की बातें सुनकर अभयमती को बड़ा कौतुक हुआ । उसने सोमशर्मा से पूछा-----हाँ तो पिताजी उसमें किस तरह का पागलपन है ? मुझे उसके सुनने की बड़ी उत्‍कण्‍ठा हो गई है । आप बतलायें । सोमशर्मा ने तब अभयमती से श्रेणिक की से सब चेष्‍ठाऍं-----कन्‍धे पर चढ़ना-चढ़ाना छोटे गाँव को बड़ा और बड़े को छोटा कहना, वृक्ष के नीचे छत्री चढ़ा लेना और धूप में उतार देना, पानी में चलने समय जूते, पहर लेना और रास्‍ते में चलते उन्‍हें हाथ में ले लेना आदि कह सुनाई । अभयमती ने उन सबको सुनकर अपने पिता से कहा-----पिताजी, जिस पुरूष ने ऐसी बातें की हैं उसे आप पागल या साधारण पुरूष न समझें । वह तो बड़ा ही बुद्धिमान है । मुझे मालूम होता है उसकी बातों के रहस्‍य पर आपने ध्‍यान से विचार न किया इसी से आपको उसकी बातें बे-सिर पैर की जान पड़ी । पर ऐसा नहीं है । उन सब में कुछ न कुछ रहस्‍य जरूर है । अच्‍छा, वह सब मैं आपको समझाती हूँ-----पहले ही उसने जो यह कहा था कि आप मुझे अपने कंधे पर चढ़ा लीजिए और आप मेरे कंधों पर चढ़ जाइये, इससे उसका मतलब था, आप हम दोनों एक ही रास्‍ते से चलें । क्‍योंकि स्‍कन्‍ध शब्‍द का रास्‍ता अर्थ भी होता है । और यह उसका कहना ठीक भी था । इसलिए कि दो जने साथ रहने से हर तरह बड़ी सहायता मिलती रहती है ।

दूसरे उसने दो ग्रामों को देखकर बड़े को तो छोटा और छोटे को बड़ा कहा था । इससे उसका अभिप्राय यह है कि छोटे गाँव के लोग सज्‍जन हैं, धर्मात्‍मा हैं, दयालु हैं, परोपकारी हैं और हर एक की सहायता करने वाले हैं । इसलिए यद्यपि वह गाँव छोटा था, पर तब भी उसे बड़ा ही कहना चाहिए । क्‍योंकि बड़प्‍पन गुणों और कर्त्तव्‍य पालन से कहलाता है । केवल बाहरी चमक दमक से नहीं । और बड़े गाँव को उसने तब छोटा कहा, इससे उसका मतलब स्‍पष्‍ट ही है कि उसके रहवासी अच्‍छे लोग नहीं हैं, उनमें बड़प्‍पन के जो गुण होने चाहिए वे नहीं है ।

तीसरे उसने वृक्षके नीचे छत्री को चढ़ा लिया था और रास्‍ते में उसे उतार लिया था । ऐसा करने से उसकी मंशा यह थी । रास्ते में छत्रीको न लगाया जाय तो भी कुछ नुकसान नहीं और वृक्ष के नीचे न लगाने से उस पर बैठे हुए पक्षियों के बीट बगैरह के करने का डर बना रहता है । इसलिए वहाँ छत्री का लगाना आवश्‍यक है ।

चौथे उसने पानी में चलते समय तो जूतों को पहर लिया और रास्‍ते में चलते समय उन्‍हें हाथ में ले लिया था । इससे वह यह बतलाना चाहता है-----पानी में चलते समय यह नहीं देख पड़ता है कि कहाँ क्‍या पड़ा है । कांटे, कीलें और कंकर-पत्‍थरों के लगे जाने का भय रहता है, जल जन्‍तुओं के काटने का भय रहता है । अतएव पानी में उसने जूतों को पहर कर बुद्धिमानी का ही काम किया । रास्‍तें में अच्‍छी तरह देख-भाल कर चल सकते है, इसलिए यदि वहाँ जूते न पहरे जाये तो उतनी हानि की संभावना नहीं ।

पाँच वे उसने एक स्‍त्री को मार खाते देखकर पूछा था कि यह स्‍त्री बँधी है या खुली ? इस प्रश्‍न से मतलब था-----उस स्‍त्री का ब्‍याह हो गया है या नहीं ?

छठे-----उसने एक मुर्दे को देखकर पूछा था-----यह मर गया है या जीता है ? पिताजी, उसका यह पूछना बड़ा मार्के का था । इससे वह यह जानना चाहता था कि यदि यह संसार का कुछ काम करके मरा है, यदि इसने स्‍वार्थ त्‍याग अपने धर्म, अपने देश और अपने देश के भाई-बन्‍धुओं के हित में जीवन का कुछ हिस्‍सा लगाकर मनुष्‍य जीवन का कुछ कर्त्तव्‍य पालन किया है, तब तो वह मरा हुआ भी जीता ही है । क्‍योंकि उसकी वह प्राप्‍त की हुई कीर्ति मौजूद है, सारा संसार उसे स्‍मरण करता है, उसे ही अपना पथ प्रदर्शक बनाता है । फिर ऐसी हालत में उसे मरा कैसे कहा जाय ? और इससे उलटा जो जीता रह कर भी संसार का कुछ काम नहीं करता, जिसे सदा अपने स्‍वार्थ की ही पड़ी रहती है और जो अपनी भलाई के सामने दूसरों के होने वाले अहित या नुकसान को नहीं देखता; बल्कि दूसरों का बुरा करने की कोशिश करता है ऐसे पृथिवी के बोझ की कौन जीता कहेगा ? उससे जब किसी को लाभ नहीं तब उसे मरा हुआ ही समझना चाहिए ।

सातवें उसने पूछा यह धान का खेत मालिकों द्वारा खा-लिया गया या अब खाया जायगा ? इस प्रश्‍न से उसका यह मतलब था कि इसके मालिकों ने कर्ज लेकर इस खेत को बोया है या इसके लिए उन्‍हें कर्ज लेने की जरूरत न पड़ी अर्थात् अपना ही पैसा उन्‍होंने इसमें लगाया है ? यदि कर्जा लेकर उन्‍होंने तैयार किया तब तो समझना चाहिए कि यह खेत पहले ही खा लिया गया और यदि कर्ज नहीं लिया गया तो अब वे इसे खायँगे-----अपने उपयोग में लावेंगे ।

इस प्रकार श्रेणिक के सब प्रश्‍नों का उत्तर अभयमती ने अपने पिता को समझाया । सुनकर सोमशर्मा को बड़ा ही आनन्‍द हुआ । सोमशर्मा ने तब अभयमती से कहा-----तो बेटा ऐसे गुणवान् और रूपवान् लड़के को तो अपने घर लाना चाहिए । और अभयमती, वह जब पहले ही मिला तब उसने मुझे मामाजी कह कर पुकारा था । इसलिए उसका कोई अपने साथ सम्‍बन्‍ध भी होगा । अच्‍छा तो मैं उसे बुलाये लाता हूँ ।

अभयमती बोली-----पिताजी, आपको तकलीफ उठाने की कोई आवश्‍यकता नहीं । मैं अपनी दासी को भेजकर, उसे बुलवा लेती हूँ । मुझे अभी एक दो बातों द्वारा और उसको जाँच करना है । इसके लिये मैं निपुणमती को भेजती हूँ । अभयमती ने इसके बाद निपुणमती को कुछ थोड़ा सा उबटन चूर्ण देकर भेजा और कहा तू उस नये आगन्‍तुक से कहना कि मेंरी मालिकन ने आपकी मालिश के लिए यह तेल और उबटन चूर्ण भेजा है, सो आप अच्‍छी तरह मालिश तथा स्‍नान करके फलॉ रास्‍ते से घर पर आवें । निपुणमती ने श्रेणिक के पास पहुँच कर सब हाल कहा और तेल तथा उबटन रखने को उससे बरतन माँगा । श्रेणिक उस थोड़े से तेल और उबटनको देखकर, जिससे कि एक हाथकी भी मालिश होना असंभव था, दंग रह गया । उसने तब जान लिया कि सोमशर्मा से मैंने जो-जो प्रश्‍न किये थे उसने अपनी लड़की से अवश्‍य कहा है । अस्‍तु कुछ परवा नहीं । यह विचार कर उस उपजत-बुद्धि श्रेणिक ने तेल और उबटन चूर्ण के रखने को अपने पाँव के अँगूठे से दो गढ़े बनाकर निपुणमती से कहा-----आप तेल और चूर्ण के लिए बरतन चाहती हैं । अच्‍छी बात है, ये (गड्ढे की ओर इशारा करके) बरतन हैं । आप इनमें तेल और चूर्ण रख दीजिए । मैं थोड़ी ही देर बाद स्‍नान करके आपकी मालिकन की आज्ञा का पालन करूँगा । निपुणमती श्रेणिक की इस बुद्धिमानी को देखकर दंग रह गई । वह फिर श्रेणिक के कहे अनुसार तेल और चूर्ण को रखकर चली गई ।

अभयमतीने श्रेणिक को जिस रास्‍ते से बुलाया था, उसमें उसने कोई घुटने-घुटने तक कीचड़ करवा दिया था । और कीचड़ बाहर होने के स्‍थान पर बाँस की एक छोटी सी पतली छोई (कमची) और बहुत ही थोड़ा सा जल रख दिया था । इसलिए कि श्रेणिक अपने पाँवोंको साफ कर भीतर आये ।

श्रेणिकने घर पहुँच कर देखा तो भीतर जानेके रास्‍तेमें बहुत कीचड़ हो रहा है । वह कीचड़में होकर यदि जाये तो उसके पाँव् भरते है और दूसरी ओरसे भीतर जानेका रास्‍ता उसे मालूम नहीं है । यदि वह मालूम भी करे तो उससे कुछ लाभ नहीं है । अभयमतीने उसे इसी रास्‍ते बुलाया है । वह फिर कीचड़में ही होकर गया । बाहर होते ही उसे पाँव् धोनेके लिए थोड़ा जल रखा हुआ मिला । वह बड़े आश्‍चर्यमें आ गया कि कीचड़से ऐसे लथपथ भरे पाँवोंको मैं इस थोड़े से पानीसे कैसे धो सकूँगा । पर इसके सिवा उसके पास और कुछ उपाय भी न था । तब उसने पानीके पास ही रखी हुई उस छाईको उठाकर पहले उससे पाँवोंका कीचड़ साफ कर लिया और फिर उस थोड़े से जलसे धोकर एक कपड़े से उन्‍हेंपोंछ लिया। इन सब परीक्षाओंमें पास होकर जब श्रेणिक अभयमतीके सामने आया तब अभयमतीने उसके सामने एक ऐसा मूँगेका दाना रक्‍खा कि जिसमें हजारों बांके-सीधे छेद थे । यह पता नहीं पड़ पाता था कि किस छेदमें सूतका धागा पिरोनेसे उसमें पिरोया जा सकेगा और साधारण लोगोंके लिए यह बड़ा कठिन भी था । पर श्रेणिकने अपनी बुद्धिकी चतुरतासे उस मूँगमें बहुत जल्‍दी धागा पिरो दिया। श्रेणिककी इस बुद्धिमानीका बड़ी अच्‍छी तरह आदर-सत्‍कार किया, खूब आनन्‍दके साथ उसे अपने ही घर पर जिमाया और कुछ दिनोंके लिए उसे वहीं ठहरा भी लिया । अभयमतीकी मंशा उसकी सखी द्वारा जानकर उसके माता-पिताको बड़ी प्रसन्‍नता हुई । घर बैठे उन्‍हें ऐसा योग्‍य जँवाई मिल गया, इससे बढ़कर और प्रसन्‍नताकी बात उनके लिए हो भी क्‍या सकती थी । कुछ दिनों बाद श्रेणिकके साथ अभयमतीका ब्‍याह भी हो गया । दोनोंने नए जीवनमें प्रवेश किया । श्रेणिकके कष्‍ट भी बहुत कम हो गए । वह अब अपनी प्रियाके साथ सुखसे दिन बिताने लगा ।

सोमशर्मा नामका एक ब्राह्मण एक अटवीमें जिनदत्त मुनिके पास दीक्षा लेकर संन्याससे मरा था । उसका उल्‍लेख अभिषेकविधिसे प्रेम करने वाले जिनदत्त और वसुमित्रकी १०३ वीं कथामें आ चुका है । यह सोमशर्मा यहाँसे मरकर सौधर्म स्‍वर्गमें देव हुआ । जब इसकी स्‍वर्गायु पूरी हई तब यह काँचीपुरमें हमारे इस कथानायक श्रेणिकके अभयकुमार नामका पुत्र हुआ । अभयकुमार बड़ा वीर और गणुवान् था और सच भी है जो कर्मों का नाशकर मोक्ष जाने वाला है, उसकी वीरताका क्‍या पूछना ?

काँचीके राजा वासुपाल एक बार दिग्‍विजय करनेको निकले । एक जगह उन्‍होंने एक बड़ा ही सुन्‍दर और भव्‍य जिनमंदिर देखा । उसमें विशेषता यह थी कि वह एक ही खम्‍भेके ऊपर बनाया गया था-----उसका आधार एक ही खम्‍भा था । वसुपाल उसे देखकर बहुत खुश हुए । उनकी इच्‍छा हुई कि ऐसा मंदिर काँचीमें भी बनवाया जाये । उन्‍होंने उसी समय अपने पुरोहित सोमशर्माको एक पत्र लिखा । उसमें लिखा कि----- ‘‘ अपने यहाँ एक ऐसा सुन्‍दर जिनमंदिर तैयार करवाना, जिसकी इमारत भव्‍य और बड़ी मनोहर हो । सिवा इसके उसमें यह विशेषता भी हो कि मंदिर की सारी इमारत एक ही खम्‍भे पर खड़ी की जाए । मैं जब तक जाऊँ तब तक मंदिर तैयार हो जाना चाहिए । ’सोमशर्मा पत्र पढ़कर बड़ी चिन्‍ता में पड़ गया । वह इस विषय में कुछ जानता न था ,इसलिये वह क्या करे ? कैसा मन्दिर बनवाये ? इसकी उसे कुछ सूझ न पड़ती थी । चिन्‍ता उसके मुँह पर सदा छाई रहती थी । उसे इस प्रकार उदास देखकर श्रेणिक ने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा । सोमशर्मा ने तब वह पत्र श्रेणिक ने हाथ में देकर कहा-----यही पत्र मेंरी चिन्‍ता का मुख्‍य कारण है । मुझे इस विषय का किंचित् भी ज्ञान नहीं तब मैं मंदिर बनवाऊँ भी तो कैसा ? इसी से मैं चिन्‍तामग्‍न रहता हूँ । श्रेणिक ने तब सोमशर्मा से कहा-----आप इस विषयकी चिन्‍ता छोड़कर इसका सारा भार मुझे दे दीजिए । फिर देखिए, मैं थोड़े ही समय में महाराज के लिखे अनुसार मंदिर बनवाए देता हूँ । सोमशर्मा को श्रेणिक के इस साहस पर आश्चर्य तो अवश्य हुआ, पर उसे श्रेणिक की बुद्धिमानी का परिचय पहले ही से मिल चुका था; इसलिए उसने कुछ सोच-विचार न कर सब काम श्रेणिक के हाथ सौंप दिया । श्रेणिक ने पहले मंदिर का एक नक्‍शा तैयार किया । जब नक्‍शा उसके मन के माफिक बन गया तब उसने हजारों अच्‍छे-अच्‍छे कारीगरों को लगाकर थोड़े ही समय में मंदिर की विशाल और भव्‍य इमारत तैयार करवा ली । श्रेणिक की इस बुद्धिमानी को जो देखता वही उसकी शतमुख से तारीफ करता । और वास्‍तव में श्रेणिक ने यह कार्य प्रशंसा के लायक किया भी था । सच है, उत्तम ज्ञान, कला-चतुराई ये सब बातें बिना पुण्‍य के प्राप्‍त नहीं होती ।

जब वसुपाल लौटकर काँची आये और उन्‍होंने मंदिर की उस भव्‍य इमारत को देखा तो वे बड़े खुश हुए । श्रेणिक पर उनकी अत्‍यन्‍त प्रीति हो गई । उन्‍होंने तब अपनी कुमारी वसुमित्रा का उसके साथ ब्‍याह भी कर दिया । श्रेणिक राजजमाई बनकर सुख के साथ रहने लगा ।

अब राजगृह की कथा लिखी जाती है—

उपश्रेणिक ने श्रेणिक को, उसकी रक्षा हो इसके लिए, देश बाहर कर दिया । इसके बाद कुछ दिनों तक उन्‍होंने और राज्‍य किया । फिर कोई कारण मिल जानेसे उन्‍हें संसार-विषय-भोगादि से बड़ा वैराग्‍य हो गया । इसलिए वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, चिलातपुत्र को सब राज्यभार सौंपकर दीक्षा ले, योगी हो गये । राज्यसिहासन अब चिलातपुत्र ने अलंकृत किया ।

प्राय: यह देख जाता है कि एक छोटी जाति के या विषयों के कीड़े , स्‍वार्थी, अभिमानी, मनुष्‍य को कोई बड़ा अधिकार या खूब मनमानी दौलत मिल जाती है तो फिर उसका सिर आसमान में चढ़ जाता है, आंखें उसकी अभिमान के मारे नीची देखती ही नहीं । ऐसा मनुष्‍य संसार में फिर सब कुछ अपने को ही समझने लगता है । दूसरों की इज्‍जत-आबरू की वह कुछ परवा न कर उनका कौड़ी के भाव भी मोल नहीं समझता । चिलातपुत्र भी ऐसे ही मनुष्‍यों में था । बिना परिश्रम या बिना हाथ-पाँव् हिलाये उसे एक विशाल राज्‍य मिल गया और मजा यह कि अच्‍छे शूरवीर और गुणवान् भाइयों के बैठे रहते । तब उसे क्यों न राजलक्ष्‍मी का अभिमान हो ? क्‍यों न वह गरीब प्रजा को पैरों नीचे कुचल कर इस अभिमानका उपयोग करें ? उसकी माँ भील की लड़की, जिसका कि काम दिन-रात लूट-खसोट करने और लोगों को मारने-काटने का रहा, उसके विचार गन्‍दे, उसकी वासनाएँ नीचातिनीच; तब वह अपनी जाति, अपने विचार और अपनी वासना के अनुसार यदि काम करें तो इसमें नई बात क्‍या ? कुछ लोग ऐसा कहें कि यह सब होने पर भी अब वह राजा है, प्रजा का प्रतिपालक है, तब उसे तो अच्छा होना ही चाहिये । इसका यह उत्तर है कि ऐसा होना आवश्‍यक है और एक ऐसे मनुष्‍य को, जिसका कि अधिकार बहुत बड़ा है-----हजारों लाखों अच्‍छे-अच्‍छे इज्‍जत-आबरूदार, धनी गरीब, दीन, दु:खी जिसकी कृपा की चाह करते हैं, विशेष कर शिष्‍ट और सबका हितैषी होना चाहिए । हाँ ये सब बातें उसमें हो सकती हैं, जिसमें दयालुता, परोपकारता, कुलीनता, निरभिमानता, सरलता, सज्‍जनता आदि गुण कुल-परम्‍परा से चले आते हों । और जहाँ इनका मूल में ही कुछ ठिकाना नहीं वहाँ इन गुणों का होना असम्‍भव नहीं तो दु:साध्‍य अवश्‍य है । आप एक कौए को मोर के पंखों से खूब सजाकर सुन्‍दर बना दीजिए, पर रहेगा वह कौआ का कौआ ही । ठीक इसी तरह चिलातपुत्र आज एक विशाल राज्‍य का मालिक जरूर बन गया, पर उसमें भील-जाति का अंश है वह अपने चिर संस्‍कार के कारण इसमें पवित्र गुणों की दाल गलने नहीं देता । और यही कारण हुआ कि राज्‍यधिकार प्राप्‍त होते ही उसकी प्रवृति अच्‍छी ओर न होकर अन्‍याय की ओर हुई । प्रजा को उसने हर तरह तंग करना शुरू किया । कोई दुर्व्‍यसन, कोई कुकर्म उससे न छूट पाया । अच्‍छे–अच्छे घराने की कुलशील सतियों की इज्‍जत ली जाने लगी । लोगों का धनमाल जबरन लूटा-खोसा जाने लगा । उसकी कुछ पुकार नहीं, सुनवाई नहीं, जिसे रक्षक जानकर नियत किया वही जब भक्षक बन बैठा तब उसकी पुकार, की भी कहाँ जाये ? प्रजा अपनी आंखों से घोर से घोर अन्‍याय देखती, पर कुछ करने-धरने को समर्थ न होकर वह मन मसोस कर रह जाती । जब चिलात बहुत ही अन्‍याय करने लगा तब उसकी खबर बड़ी-बड़ी दूर तक बात सुन पड़ने लगी । श्रेणिक को भी प्रजा द्वारा यह हाल मालूम हुआ । उसे अपने पिता की निरीह प्रजा पर चिलात का यह अन्‍याय सहन नहीं हुआ । उसने तब अपने श्‍वसुर वसुपाल से कुछ सहायता लेकर चिलात पर चढ़ाई कर दी । प्रजा को जब श्रेणिक की चढ़ाई का हाल मालूम हुआ तो उसने बहुत खुशी मनाई, और हृदय से उसका स्‍वागत किया । श्रेणिक ने प्रजा को सहायता से चिलात को सिंहासन से उतार देश बाहर किया और प्रजा की अनुमति से फिर आप ही सिंहासन पर बैठा । सच है, राज्‍यशासन वहीं कर सकता है और वही पात्र भी है जो बुद्धिमान् हो, समर्थ हो और न्‍यायप्रिय हो । दुर्बुद्धि, दुराचारी, कायर और अकर्मण्‍य पुरूष उसके योग्‍य नहीं ।

इधर कई दिनोंसे अपने पिताको न देखकर अभयकुमार ने अपनी माता से एक दिन पूछा-----माँ, बहुत दिनों से पिताजी देख नहीं पड़ते, सो वे कहाँ है । अभयमती ने उत्तर में कहा-----बेटा, वे जाते समय कह गये थे कि राजगृह में ‘पाण्‍डुकुटि’ नाम का महल है । प्राय: मैं वहीं रहता हूँ । सो मैं जब समाचार दूँ तब वही आ जाना । तब से अभी तक उनका कोई पत्र न आया । जान पड़ता है राज्‍य के कामों से उन्‍हें स्‍मरण न रहा । माता द्वारा पिता का पता पा अभयकुमार अकेला ही राजगृह को रवाना हुआ । कुछ दिनों में वह नन्दगाँव में पहुँचा ।

पाठकों को स्‍मरण होगा कि जब श्रेणिक को उसके पिता उपश्रेणिक ने देश बाहर हो जाने की आज्ञा दी थी और श्रेणिक उसके अनुसार राजगृह से निकल गया था तब उसे सबसे पहले रास्‍ते में यही नन्‍दगाँव पड़ा था । पर यहाँ के लोगों ने राजद्रोह के भय से श्रेणिक को गाँव में आने नहीं दिया था । श्रेणिक इससे उन लोगों पर बड़ा नाराज हुआ था । इस समय उन्‍हें उनकी उस असहानुभूति की सजा देने के अभिप्राय से श्रेणिक ने उन पर एक हुक्‍मनामा भेजा और उसमें लिखा कि ‘‘ आपके गाँव में एक मीठे पानी का कुँआ है । उसे बहुत जल्‍दी मेरे यहाँ भेजो, अन्‍यथा इस आज्ञा का पालन न होने से तुम्‍हें सजा दी जायगी ।’’ बेचारे गाँव के रहने वाले स्‍वभाव से डरपौक ब्राह्मण राजा के इस विलक्षण हुक्‍मनामें को सुनकर बड़े घबराये । जो ले जाने की चीज होती है वही ले-जाई जाती है, पर कुँआ एक स्‍थान से अन्‍य स्‍थान पर कैसे-ले जाया जाय ? वह कोई ऐसी छोटी-मोटी वस्‍तु नहीं जो यहाँ से उठाकर वहाँ रख दी जाये । तब वे बड़ी चिन्‍तामें पड़े । क्‍या करें, और क्‍या न करें, यह उन्‍हें बिलकुल न सूझ पड़ा, न वे राजा के पास ही जाकर कह सकते हैं कि-----महाराज, यह असम्‍भव बात कैसे हो सकती है । कारण गाँव के लोगों में इतनी हिम्‍मत कहाँ ? सारे गाँव में यही एक चर्चा होने लगी । सबके मुँह पर मुर्दनी छा गई । और बात भी ऐसी ही थी । राजाज्ञा न पालने पर उन्‍हें दण्‍ड भोगना चाहिये । यह चर्चा घरों घर हो रही थी कि इसी समय अभयकुमार यहाँ आ पहुँचा, जिसका कि जिकर ऊपर आ चुका है । उसने इस चर्चा का आदि अन्‍त मालूम कर गाँव के सब लोगों को इकट्ठा कर कहा-----इस साधारण बात के लिये आप लोग ऐसी चिन्‍तामें पड़ गये । घबराने की कोई बात नहीं । मै जैसा कहूँ वैसा कीजिये । आपका राजा उससे खुश होगा । तब उन लोगों ने अभयकुमार की सलाह से श्रेणिक की सेवा में एक पत्र लिखा । उसमें लिखा कि----- ‘‘ राजराजेश्‍वर, आपकी आज्ञा को सिर पर चढ़ाकर हमने कुँए से बहुत-बहुत प्रार्थनायें कर कहा कि-----महाराज तुझ पर प्रसन्‍न हैं । इसलिये वे तुझे अपने शहर में बुलाते हैं, तू राजगृह जा । पर महाराज, उसने हमारी एक भी प्रार्थना न सुनी और उलटा रूठकर गाँव बाहर चल दिया । सो हमारे कहने सुनने से तो वह आता नहीं देख पड़ता । पर हाँ उसके ले जाने का एक उपाय है और उसे यदि आप करें तो सम्‍भव है वह रास्‍ते पर आ जाये । वह उपाय यह है कि पुरूष स्त्रियों का गुलाम होता है, स्त्रियों द्वारा वह जल्‍दी वश हो जाता है । इसलिए आप अपने शहर की उदुम्‍बर नाम की कुई को इसे लेने को भेजें तो अच्‍छा हो । बहुत विश्‍वास है कि उसेदेखते ही हमारा कुँआ उसके पीछे-पीछे हो जायगा । ‘‘ श्रेणिक पत्र पढ़कर चुप रह गये । उनसे उसका कुछ उत्तर न बन पड़ा । सच है, जब जैसे को तैसा मिलता है तब अकल ठिकाने पर आती है । और धूतों को सहज में काबू में ले लेना कोई हँसी खेल थोड़े ही है ?

कुछ दिनों बाद श्रेणिक ने उनके पास एक हाथी भेजा और लिखा कि इसका ठीक-ठीक तोल कर जल्‍दी खबर दो कि यह वजन में कितना है ? अभयकुमार उन्‍हें बुद्धि सुझाने वाला था ही, सो उसके कहे अनुसार उन लोगों ने नाव में एक ओर तो हाथी को चढ़ा दिया और दूसरी ओर खूब पत्‍थर रखना शुरू किया । जब देखा कि दोनों ओर का वजन समतोल हो गया तब उन्‍होंने उन सब पत्‍थरों को अलग तोलकर श्रेणिक को लिख भेजा कि हाथी का तोल इतना है । श्रेणिक को अब भी चुप रह जाना पड़ा ।

तीसरी बार तब श्रेणिक ने लिख भेजा कि ‘‘ आपका कुँआ गाँव के पूर्व में है, उसे पश्चिम की ओर कर देना । मैं बहुत जल्‍दी उसे देखने को आऊँगा । ‘‘ इसके लिये अभयकुमार ने उन्‍हें युक्ति सुझाकर गाँव को ही पूर्व की ओर बसा दिया । इससे कुँआ सुतरा पश्चिम में हो गया ।

चौथी बार श्रेणिक ने एक मेंढ़ा भेजा कि ‘‘ यह मेंढ़ा न दुर्बल हो, न बढ जाय और न इसके खाने पिलाने में किसी तरह की असावधानी की जाय । मतलब यह कि जिस स्थिति में यह अब है इसी स्थिति में बना रहे । मैं कुछ दिनों बाद इसे वापिस मंगा लूँगा । ‘‘ इसके लिये अभयकुमार ने उन्हें यह युक्ति बताई कि मेंढ़े को खूब खिला-पिला कर घण्‍टा दो घण्‍टा के लिये उसे सिंह के सामने बाँध दिया करिए, ऐसा करने से न यह बढ़ेगा और न घटेगा ही । वैसा ही किया गया । मेंढ़ा जैसा था वैसा ही रहा । श्रेणिक को इस युक्ति में भी सफलता प्राप्‍त न हुई ।

पाँचवी बार श्रेणिक ने उनसे घड़े में रखा एक कोला (कद्दू) मँगाया । इसके लिये अभयकुमार ने बेल पर लगे हुये एक छोटे कोले को घड़े में रखकर बढ़ाना शु‍रू किया और जब उससे घड़ा भर गया तब उस घड़े को श्रेणिक के पास पहुँचा दिया ।

छठी बार श्रेणिक ने उन्‍हें लिख भेजा कि ‘‘ मुझे बालूरेत की रस्‍सी की दरकार है, सो तुम जल्‍दी बनाकर भेजो ‘‘ अभयकुमार ने इसके उत्तर में यह लिख भेजा कि ‘‘ महाराज, जैसी रस्‍सी आप तैयार करवाना चाहते है कृपा कर उसका नमूना भिजवा दीजिए । हम वैसी ही रस्‍सी फिर तैयार कर सेवा में भेज देंगे । इत्‍यादि कई बातें श्रेणिक ने उनसे करवाई । सबका उत्तर उन्‍हें बराबर मिला । उत्तर ही न मिला किन्‍तु श्रेणिक को हतप्रभ भी होना पड़ा । इसलिये कि वे उन ब्राह्मणों को इस बात की सजा देना चाहते थे कि उन्‍होंने मेरे साथ सहानुभूति क्‍यों न बतलाई ? पर वे सजा दे नहीं पाये । श्रेणिक को जब यह मालूम हुआ कि कोई एक विदेशी नन्‍द गाँव में है । वही गाँव के लोगों को यह सब बातें सुझाया करता है । उन्‍हें उस विदेशी की बुद्धि देखकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ और सन्‍तोष भी हुआ । श्रेणिक की उत्‍कण्‍ठा तब उसके देखने के लिये बढ़ी । उन्‍होंने एक पत्र लिखा । उसमें लिखा कि ‘‘ आपके यहाँ जो एक विदेशी आकर रहा है, उसे मेरे पास भेजिये । पर साथ में उसे इतना और समझा देना कि वह न तो रात में आये, और न दिन में, न सीधे रास्‍ते से आये और न टेढ़े -मेंढ़े रास्‍ते से ।

अभयकुमार को पहले तो कुछ जरा विचार में पड़ना पड़ा , पर फिर उसे इसके लिये भी युक्ति सूझ गई और अच्‍छी सूझी । वह शाम के वक्‍त गाड़ी के एक कोने में बैठकर श्रेणिक के दरबार में पहुँचा । वहाँ वह देखता है तो सिंहासन पर एक साधारण पुरूष बैठा है-----उस पर श्रेणिक नहीं है । वह बड़ा आश्‍चर्य में पड़ गया । उसे ज्ञात हो गया कि यहाँ भी कुछ न कुछ चाल खेली गई है । बात यह थी कि श्रेणिक अंगरक्षक पुरूषों के साथ बैठ गये थे । उनकी इच्‍छा थी कि अभयकुमार मुझे न पहचान कर लज्जित हो । इसके बाद ही अभयकुमार ने एक बार अपनी दृष्टि राजसभा पर डाली । उसे कुछ गहरी निगाह से देखने पर जान पड़ा कि राजसभा में बैठे हुए लोगों की नजर बार-बार एक पुरूष पर पड़ रही है और वह लोगों की अपेक्षा सुन्‍दर और तेजस्‍वी है । पर आश्‍चर्य यह कि वह राजा के अंगरक्षक लोगों में बैठा है । अभयकुमार को उसी पर कुछ सन्‍देह गया । तब उसके कुछ चिन्‍हों को देखकर उसे दृढ़ विश्‍वास हो गया कि यही मेरे पूज्‍य पिता श्रेणिक हैं । त‍ब उसने जाकर उनके पाँवों में अपना सिर रख लिया । श्रेणिक ने उठाकर झट उसे छाती से लगा लिया । वर्षो बाद पिता पुत्र का मिलाप हुआ । दोनों को ही बड़ा आनन्‍द हुआ । इसके बाद श्रेणिक ने पुत्र प्रवेश के उपलक्ष्‍य में प्रजा को उत्‍सव मनाने की आज्ञा की । खूब आनन्‍द–उत्‍सव मनाया गया । दुखी, अनाथो को दान किया गया । पूजा-प्रभावना की गई । सच है, कुलदीपक पुत्र के लिये कौन खुशी नहीं मनाता ? इसके बाद ही श्रेणिक ने अपने कुछ आदमियों को भेजकर काँची से अभयमती और वसुमित्रा इन दोनों प्रियाओं को भी बुलवा लिया । इस प्रकार प्रिया-पुत्रसहित श्रेणिक सुख से राज्‍य करने लगे । अब इसके आगे की कथा लिखी जाती है-----

सिन्धु देश की विशाला नगरी के राजा चेटक थे । वे बड़े बुद्धिमान, धर्मात्‍मा और सम्‍यग्‍दृष्टि थे । जिन भगवान् पर उनकी बड़ी भक्ति थी । उनकी रानी का नाम सुभद्रा था । सुभद्रा बड़ी पतिव्रता और सुन्‍दरी थी । इसके सात लड़कियाँ थीं । इनमें पहली लड़की प्रियकारिणी थी । इसके पुण्‍य का क्‍या कहना, जो इसका पुत्र संसार का महान् नेता तीर्थंकर हुआ । दूसरी मृगावती, तीसरी सुप्रभा, चौथी प्रभावती, पाँचवीं चेलिनी, छठी ज्‍येष्‍ठा और सातवीं चन्‍दना थी । इनमें अन्‍त की चन्‍दना को बड़ा उपसर्ग सहना पड़ा । उस समय इसने बड़ी वीरता से अपने सतीधर्म की रक्षा की ।

चेटक महाराज का अपनी इन पुत्रियों पर बड़ा प्रेम था । इससे उन्‍होंने इन सबकी एक ही साथ तस्‍वीर बनवाई । चित्रकार बड़ा हुशियार था, सो उसने उन सबका बड़ा ही सुन्‍दर चित्र बनाया । चित्रपट को चेटक महाराज बड़ी बरीकी के साथ देख रहे थे । देखते हुए उनकी नजर चेलिनी की जाँघ पर जा पड़ी , चेलिनी की जाँघ पर जैसा तिल का चिन्‍ह था, चित्रकार ने चित्र में भी वैसा ही तिल का चिन्‍ह बना दिया था । सो चेटक महाराज ने ज्‍यों ही उस तिल को देखा उन्‍हें चित्रकार पर बड़ा गुस्‍सा आया । उन्‍होंने उसी समय उसे बुलाकर पूछा कि-----तुझे इस तिल का हाल कैसे जान पड़ा । महाराज की क्रोध भरी आँखें देखकर वह बड़ा घबराया । उसने हाथ जोड़कर कहा-----राजाधिराज, इस तिल को मैंने कोई छह सात बार मिटाया, पर मैं ज्‍यों ही चित्र के पास लिखने को कलम ले जाता त्‍यों ही उसमें से रंग की बूँद इसी जगह पड़ जाती । तब मेरे मन में दृढ़ विश्‍वास हो गया कि ऐसा चिन्‍ह राजकुमारी चेलिनी के होना ही चाहिए और यही कारण है कि मैंने फिर उसे न मिटाया । यह सुनकर चेटक महाराज बड़े खुश हुए । उन्‍होंने फिर चित्रकार को बहुत पारितोषिक दिया । सच है बड़े पुरूषों का खुश होना निष्‍फल नहीं जाता ।

अब से चेटक महाराज भगवान् की पूजन करते समय पहले इस चित्र पट को खोलकर भगवान् की प्रतिमा के पास ही रख लेते हैं और फिर बड़ी भक्ति के साथ जिन पूजा करते रहते हैं । जिन पूजा सब सुखों की देने वाली और भव्‍यजनों के मन को आनन्दित करने वाली है ।

एक बार चेटक महाराज किसी खास कारण वश अपनी सेना को साथ लिये राजगृह आये । वे शहर बाहर बगीचें में ठहरे प्रात: काल शौच मुखमार्जनादि आवश्‍यक क्रियाओं से निवट उन्‍होंने स्‍नान किया और निर्मल वस्‍त्र पहर भगवान् की विधि पूर्वक पूजा की । रोज के माफिक आज भी चेटक महाराज ने अपनी राजकुमारियों के उस चित्रपट को पूजन करते समय अपने पास रख लिया था और पूजन के अन्‍त में उस पर फूल वगैरह डाल दिये थे ।

इसी समय श्रेणिक महाराज भगवान् के दर्शन करने को आये । उन्‍होंने इस चित्रपट को देखकर पास खड़े हुये लोगों से पूछा-----यह किनका चित्रपट है ? उन लोगों ने उत्तर दिया-----राजराजेश्‍वर, ये जो विशाला के चेटक महाराज आये है, उनकी लड़कियों का यह चित्रपट है । इनमें चार लड़कियों का तो ब्‍याह हो चुका है और चेलिनी तथा ज्‍येष्‍ठा ये दो लड़कियाँ ब्‍याह योग्‍य है । सातवीं चन्‍दना अभी बिलकुल बालिका है । ये तीनों ही इस समय विशाला में हैं । यह सुन श्रेणिक महाराज चेलिनी और ज्‍येष्‍ठा पर मोहित हो गये । इन्‍होनें महल पर आकर अपने मन की बात मंत्रियों से कही । मंत्रियों ने अभयकुमार से कहा—आपके पिताजी ने चेटक महाराज से इनकी दो सुन्दर लड़कियों के लिये मँगनी की थी, पर उन्‍होंने अपने महाराज की अधिक उमर देख उन्‍हें अपनी राजकुमारियों के देने से इंकार कर दिया । अब तुम बतलाओं कि क्‍या उपाय किया जाये जिससे यह काम पूरा पड़ ही जाये ।

बुद्धिमान् अभयकुमार मंत्रियों के वचन सुनकर बोला-----आप इस विषय की चिन्‍ता न करें जबत क कि सब कामों को करने वाला मैं मौजूद हूँ । यह कहकर अभयकुमार ने अपने पिता का एक बहुत सुन्‍दर चित्र तैयार किया और उसे लेकर साहूकार के वेष में आप विशाला पहुँचा । किसी उपाय से उसने वह चित्रपट दोनों राजकुमारियों को दिखलाया । वह इतना बढ़ि‍या बना था कि उसे यदि एक बार देवाङ्गनाएँ देख पाती तो उनसे भी अपने आपे में न रहा जाता तब ये दोनों कुमारियाँ उसे देखकर मुग्‍ध हो जाँय, इसमें आश्‍चर्य क्‍या । उन दोनों को श्रेणिक महाराज पर मुग्‍ध देख अभयकुमार उन्‍हें सुरंग के रास्‍ते से राजगृह ले जाने लगा । चेलिनी बड़ी धूर्त थी । उसे स्‍वयं तो जाना पसन्‍द था, पर वह ज्‍येष्‍ठा को ले जाना न चाहती थी । सो जब ये थोड़ी ही दूर आई होंगी कि चेलिनी ने ज्‍येष्‍ठा से कहा-----हाँ, बहिन मैं तो अपने सब गहने-दागी ने महलहो में छोड़ आई हूँ, तू जाकर उन्‍हें ले-आ न ? तब तक मैं यहीं खड़ी हूँ । बेचारी भोली-भाली ज्‍ये‍ष्‍ठा इसके झांसे में आकर चली गई। वह आँखों की ओट हुई होगी कि चेलिनी वहाँ से रवाना होकर अभयकुमार के साथ राजगृह आ गई । फिर बड़े उत्‍सव के साथ यहाँ इसका श्रेणिक महाराज के साथ ब्‍याह हो गया । पुण्‍य के उदय से श्रेणिक की सब रानियों में चेलिनी के ही भाग्‍य का सितारा चमका-----पट्टरानी यही हुई ।

यह बात ऊपर लिखी जा चुकी है-----श्रेणिक एक संन्‍यासी के उपदेश से वैष्‍णवधर्मी हो गये थे और तब से वे इसी धर्म को पालते थे । महारानी चेलिनी जैनी थी । जिनधर्म पर जन्‍म से ही उसकी श्रद्धा थी । इन दो धर्मो को पालने वाले पति-पत्‍नी का अपने-अपने धर्म की उच्‍चता बाबत् रोज-रोज थोड़ा बहुत वार्तालाप हुआ करता था । पर वह बड़ी शान्ति से । एक दिन श्रेणिक ने चेलिनी से कहा-----प्रिये, उच्‍च घराने की सुशील स्त्रियों का देव पूछो तो पति है तब तुम्‍हें मैं जो कहूँ वह करना चाहिए । मेंरी इच्‍छा है कि एक बार तुम इन विष्‍णुभक्‍त सच्‍चे गुरूओं को भोजन दो । सुनकर महारानी चेलिनी ने बड़ी नम्रता के साथ कहा-----अच्‍छा नाथ, दूँगी ।

इसके कुछ दिनों बाद चेलिनी ने कुछ भगवत् साधुओं का निमंत्रण किया और बड़े गौरव के साथ उन्‍हें अपने यहाँ बुलाया । आकर वे लोग अपना ढोंग दिखलाने के लिये कपट, मायाचारी से ईश्‍वराराधन करने को बैठे । उस समय चेलिनी ने उनसे पूछा-----आप लेाग क्‍या करते हैं ? उत्तर में उन्‍होंने कहा-----देवी, हम लोग मलमूत्रादि अपवित्र वस्‍तुओं से भरे इस शरीर को छोड़कर अपने आत्‍मा को विष्‍णु अवस्‍था में प्राप्‍त कर स्‍वानुभव का सुख भोगते हैं ।

सुनकर चेलिनी ने उस मंडप में, जिसमें कि सब साधु ध्‍यान करने को बैठे थे, आग लगवा दी । आग लगते ही वे सब भाग खड़े हुए । यह देख श्रेणिकने बड़े क्रोधके साथ चेलिनीसे कहा-----आज तुमने साधुओंके साथ अनर्थ किया । यदि तुम्‍हारी उन पर भक्ति नहीं थी, तो क्‍या उसका यह अर्थ है कि उन्‍हें जान से मार डालना ? बतलाओ उन्‍होंने तुम्‍हारा क्‍या अपराध किया जिससे तुम उनके जीवन की ही प्‍यासी हो उठी ?

रानी बोली-----नाथ, मैंने तो कोई बुरा काम नहीं किया और जो किया वह उन्‍हीं के कहे अनुसार उनके लिये सुख का कारण था । मैंने तो केवल परोपकार बुद्धि से ऐसा किया था । जब वे लोग ध्‍यान करने को बैठे तब मैंने उनसे पूछा कि आप लोग क्‍या करते हैं, तब उन्‍होंने मुझे कहा कि-----हम अपवित्र शरीर को छोड़कर उत्तम सुखमय विष्‍णुपद को प्राप्‍त करते हैं । तब मैंने सोचा कि-----ओहो, ये जब शरीर छोड़कर विष्‍णुपद प्राप्‍त करते हैं तब तो बहुत ही अच्‍छा है और इससे यह और उत्तम होगा कि यदि ये निरन्‍तर विष्‍णु ही बने रहें । संसार में बार-बार आने-जाने का इनके पीछे पचड़ा क्‍यों ? यह विचार कर वे निरन्‍तर विष्‍णुपद में रह कर सुख भोगें इस परोपकार बुद्धि से मैंने मण्‍डप में आग लगवा दी । तब आप ही विचार कर बतलाइए कि इसमें मैंने सिवा परोपकार के कौन बुरा काम किया ? और सुनिए, मेरे वचनों पर आपको विश्‍वास हो, इसके लिए मैं एक कथा आपको सुना दूँ ।

‘‘ जिस समय की यह कथा है, उस समय वत्‍सदेश की राजधानी कोशाम्‍बी के राजा प्रजापाल थे । वे अपना राज्‍यशासन नीति के साथ करते हुए सुख से समय बिताते थे । कोशाम्‍बी में दो सेठ रहते थे । उनके नाम थे सागरदत्त और समुद्रदत्त । दोनों सेठों में परस्‍पर बहुत प्रेम था । उनका प्रेम सदा ऐसा ही दृढ़ बना रहे, इसके लिए उन्‍होंने परस्‍पर में एक शर्त की । वह यह कि----- ‘‘ मेरे यदि पुत्री हुई तो मैं उसका ब्‍याह तुम्‍हारे लड़के के साथ कर दूँगा और इसी तरह मेरे पुत्र हुआ तो तुम्‍हें अपनी लड़कीका ब्‍याह उसके साथ कर देना पड़े गा ।

दोनों ने उक्‍त शर्त स्‍वीकार की । इसके कुछ दिनों बाद सागरदत्त के घर पुत्र जन्‍म हुआ । उसका नाम वसुमित्र रखा । पर उसमें एक बड़े आश्‍चर्य की बात थी । वह य‍ह कि-----वसुमित्र न जाने किस कर्म के उदय से रात के समय तो एक दिव्‍य मनुष्‍य होकर रहता और दिन में एक भयानक सर्प ।

उधर समुद्रदत्त के घर कन्‍या हुई । उसका नाम रक्‍खा गया नागदत्ता । वह बड़ी खूबसूरत सुन्‍दरी थी । उसके पिता ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसका ब्‍याह वसुमित्र के साथ कर दिया । सच है-----

नैव वाचा चलत्‍वं स्‍यात्‍सतां कष्‍टशतैरपि।

सत्‍य पुरूष सैकडो़ं कष्‍ट सह लेते हैं, पर अपनी प्रतिज्ञा से कभी विचलित नहीं होते । वसुमित्र का ब्याह हो गया । वह अब प्रतिदिन दिन में तो सर्प बनकर एक पिटारे में रहता और रात में एक दिव्‍य पुरूष होकर अपनी प्रिया के साथ सुखोपभोग करता । सचमुच संसार की विचित्र ही स्थिति होती है । इसी तरह उसे कई दिन बीत गये । एक दिन नागदत्ता की माता अपनी पुत्री को एक ओर तो यौवन अवस्‍था में पदार्पण करती और दूसरी ओर उसके विपरीत भाग्‍य को देखकर दुखी होकर बोली-----हाय । दैव की कैसी विडम्‍बना है, जो कहाँ तो देवकुमारी सरीखी सुन्‍दरी मेंरी पुत्री और कैसा उसका अभाग्य जो उसे पति मिला एक भयंकर सर्प । उसकी दु:ख भरी आह को नागदत्ता ने सुन लिया । वह दौड़ी आकर अपनी माँ से बोली-----माँ, इसके लिए आप क्यों दु:ख करती है । मेंरा जब भाग्‍य ही ऐसा है, तब उसके लिए दु:ख करना व्‍यर्थ है और अभी मुझे विश्‍वास है कि मेरे स्‍वामी का इस दशा से उद्धार हो सकता है । इसके बाद नागदत्ता अपनी माँ को स्‍वामी के उद्धार के सम्‍बन्‍ध की बात समझा दी ।

सदा के नियमानुसार आज भी रात के समय वसुमित्र अपना सर्प-शरीर छोड़कर मनुष्‍य रूप में आया और अपने शय्या-भवन में पहुँचा । इधर समुद्रदत्ता छुपे हुए आकर वसुदत्त के पिटारे को वहाँ से उठा ले-आई और उसी समय उसने उसे जला डाला । तब से वसुमित्र मनुष्‍य रूप में ही अपनी प्रिया के साथ सुख भोगता हुआ अपना समय आनन्‍द से बिताने लगा । ‘‘ नाथ, उसी तरह ये साधु भी निरन्‍तर विष्‍णुलोक में रह कर सुख भोगें यह मेंरी इच्‍छा थी; इसलिए मैंने वैसा किया था । महारानी चेलनी की कथा सुन कर श्रेणिक उत्तर तो कुछ नही दे सके, पर वे उस पर बहुत गुस्‍सा हुए और उपयुक्‍त समय न देख कर वे अपने क्रोध को उस समय दवा गये ।

एक दिन श्रेणिक शिकार के लिए गये हुए थे । उन्‍होंने वन में यशोधर मुनिराज को देखा । वे उस समय आतप योग धारण किये हुए थे । श्रेणिक ने उन्‍हें शिकार के लिए विघ्नरूप समझ कर मारने का विचार किया और बड़े गुस्‍से में आकर अपने क्रूर शिकारी कुत्तों को उन पर छोड़ दिया । कुत्ते बड़ी निर्दयताके साथ मुनि के खाने को झपटे । पर मुनिराज की तपस्‍या के प्रभाव से वे उन्‍हें कुछ कष्‍ट न पहुँचा सके । बल्कि उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके पाँवों के पास खड़े रह गये । यह देख श्रेणिक को और भी क्रोध आया । उन्‍होंने क्रोधान्‍ध होकर मुनि पर बाण चलाना आरम्‍भ किया । पर यह कैसा आश्‍चर्य जो बाणों के द्वारा उन्‍हें कुछ क्षति न पहुँच कर वे ऐसे जान पड़े मानों किसी ने उन पर फूलों की वर्षा की है । सच, बात यह है कि तपस्वियों का प्रभाव कौन कह सकता है । श्रेणिक ने उन मुनि हिंसारूप तीव्र परिणामों द्वारा उस समय सातवें नरक की आयुका बन्‍ध किया, जिसकी स्थिति तेतीस सागर की है ।

इन सब अलौकिक घटनाओं को देखकर श्रेणिक का पत्‍थर के समान कठोर हृदय फूल-सा कोमल हो गया, उनके हृदय की सब दुष्‍टता निकल कर उसमें मुनि के प्रति पूज्‍यभाव पैदा हो गया, वे मुनिराज के पास गये और भक्ति से मुनि के चरणों को नमस्‍कार किया । यशोधर मुनिराज ने श्रेणिक के हित के लिए इस समय को उपयुक्‍त समझ उन्‍हें अहिंसामयी पवित्र जिनशासन का उपदेश दिया । उसका श्रेणिक के हृदय पर बहुत असर पड़ा । उनके परिणामों में विलक्षण परिवर्तन हो गया । उन्‍हें अपने कुल कर्म पर अत्‍यन्‍त पश्‍चात्ताप हुआ । मुनिराज के उपदेशानुसार उन्‍होंने सम्‍यक्‍त्‍व ग्रहण किया । उसके प्रभाव से, उन्‍होंने जो सातवें नर्क की आयुका बन्‍ध किया था, वह उसी समय घट कर पहले नरक का रह गया । यहाँ की स्थिति चौरासी हजार वर्षों की है । ठीक है सम्‍यग्‍दर्शन के प्रभाव से भव्‍यपुरूषों को क्‍या प्राप्‍त नहीं होता ।

इसके बाद श्रणिकने श्रीचित्रगुप्‍त मुनिराजके पास क्षयोपशम सम्‍यक्‍त्‍व प्राप्‍त किया । और अन्‍तमें भगवान् वर्धमान स्‍वामीके द्वारा शुद्ध क्षायिक सम्‍यक्‍त्‍व, जो कि मोक्षका कारण है, प्राप्‍त कर पूज्‍य तीर्थंकर नाम प्रकृतिका बन्‍ध किया । श्रेणिक महाराज अब तीर्थकर होकर निर्वाण लाभ करेंगे ।

इसलिए भव्‍यजनों को इस स्‍वर्ग-मोक्ष के सुख देने वाले तथा संसार का हित करने वाले सम्‍यग्‍दर्शन रूप रत्‍न द्वारा अपने को भूषित करना चाहिए । यह सम्‍यग्‍दर्शन रूप रत्‍न इन्‍द्र, चक्रवर्ती आदि के सुख का देने वाला, दु:खी का नाश करने वाला और मोक्ष का प्राप्‍त कराने वाला है । विद्वज्‍जन आत्‍म हित के लिए इसी को धारण करते हैं । उस सम्‍यग्‍दर्शन का स्‍वरूप श्रुतसागर आदि मुनिराजों ने कहा है । जिनभगवान् के कहे हुए तत्‍वों का श्रद्धान करना ऐसा विश्‍वास करना कि भगवान् ने जैसा कहा वही सत्‍यार्थ है । तब आप लोग भी इस सम्‍यग्‍दर्शन को ग्रहण कर आत्‍म-हित करें, यह मेंरी भावना है ।