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रात्रिभोजन-त्‍याग-कथा

  कथा 

कथा :

जिन भगवान्, जिनवाणी और गुरूओं को नमस्‍कार कर रात्रि भोजन का त्‍याग करने से जिसने फल प्राप्‍त किया उसकी कथा लिखी जाती है ।

जो लोग धर्म रक्षा के लिए रात्रिभोजन का त्‍याग करते हैं, वे दोनों लोकों में सुखी होते हैं, यशस्‍वी होते हैं, दीर्घायु होते हैं, कान्तिमान होते हैं और उन्‍हें सब सम्‍पदाएँ तथा शान्ति मिलती है, और लोग रात में भोजन करने वाले हैं, वे दरिद्री होते हैं, जन्‍मांध होते हैं अनेक रोग और व्‍याधियाँ उन्‍हें सदा सताए रहती हैं, उनके संतान नहीं होती । रात में भोजन करने से छोटे जीव जन्‍तु नहीं दिखाई पड़ते । वे खानेमें आ जाते हैं । उससे बड़ा पापबन्‍ध होता है । जीवहिंसा का पाप लगता है । माँस का दोष लगता है । इसलिए रात्रि भोजनका छोड़ना सबके लिए हितकारी है । और खासकर उन लोगों को तो छोड़ना ही चाहिए जो माँस नहीं खाते । ऐसे धर्मात्‍मा श्रावकों को दिन निकले दो घड़ी बाद सबेरे और दो घड़ी दिन बाकी रहे तब शाम को भोजन वगैरह से निवृत्त हो जाना चाहिए । समन्‍तभद्रस्‍वामीका भी ऐसा ही मत है----- ‘‘ रात्रि भोजन का त्‍याग करने वाले को सबेरे और शाम को आरम्‍भ और अन्‍त में दो दो घड़ी छोड़कर भोजन करना चाहिए ।’’ जो नैष्ठिक श्रावक नहीं है उनके लिए पान, सुपारी, इलायची, जल और पवित्र औषधि आदि के विशेष दोषके कारण नहीं है । इन्‍हें छोड़कर और अन्‍नकी चीजें या मिठाई, फलादिक ये सब कष्‍ट पड़ने पर भी कभी न खाना चाहिए । जो भव्‍य जीवन भर के लिए चारों प्रकार के आहार का रात में त्‍याग कर देते हैं उन्‍हें वर्ष भर में छह माह के उपवास का फल होता है । रात्रिभोजन का त्‍याग करने से प्रीतिकर कुमार को फल प्राप्‍त हुआ था, उसकी विस्‍तृत कथा अन्‍य ग्रन्‍थों में प्रसिद्ध है । यहाँ उसका सार लिखा जाता है ।

मगध में सुप्रतिष्‍ठपुर अच्‍छा प्रसिद्ध शहर था । अपनी सम्‍पत्ति और सुन्‍दरता से वह स्‍वर्ग से टक्‍कर लेता था । जिनधर्म का वहाँ विशेष प्रचार था । जिस समय की यह कथा है, उस समय उसके राजा जयसेन थे । जयसेन धर्मज्ञ, नीतिपरायण और प्रजाहितैषी थे ।

यहाँ धनमित्र नामका एक सेठ रहता था । इसकी स्‍त्री का नाम धनमित्रा था । दोनों ही की जैनधर्म पर अखण्‍ड प्रीति थी । एक दिन सागरसेन नाम के अवधिज्ञानी मुनिको आहार देकर इन्‍हों ने उनसे पूछा-----प्रभो ! हमें पुत्र सुख होगा या नहीं ? यदि न हो तो हम व्‍यर्थ की आशा से अपने दुर्लभ मनुष्‍य-जीवन को संसार के मोह-माया में फँसा रखकर, उसका क्‍यों दुरूपयोग करें ? फिर क्‍यों न हम पापों के नाश करने वाली पवित्र जिनदीक्षा ग्रहण कर आत्‍महित करें ? मुनि ने इनके प्रश्‍न के उत्तर में कहा-----हाँ अभी तुम्‍हारी दीक्षा का समय नहीं आया । कुछ दिन गृहवास में तुम्‍हें अभी और ठहरना पड़ेगा । तुम्‍हें एक महाभाग और कुलभूषण पुत्ररत्‍न की प्राप्ति होगी । वह बड़ा तेजस्‍वी होगा । उसके द्वारा अनेक प्राणियों का उद्धार होगा और वह इसी भवसे मोक्ष जाएगा । अ‍वधिज्ञानी गुरूओं के वचनामृत का पान कर किसे हर्ष नहीं होता ।

अब से ये सेठ-सेठानी अपना समय जिनपूजा, अभिषेक, पात्रदान आदि पुण्‍य कर्मों में अधिक देने लगे । कारण इनका यह पूर्ण विश्‍वास था कि सुख का कारण धर्म ही है । इस प्रकार आनंद उत्‍सव के साथ कुछ दिन बीतने पर धनमित्रा ने एक प्रतापी पुत्र प्रसव किया । मुनिकी भविष्‍यवाणी सच हुई । पुत्र जन्‍म के उपलक्ष में सेठ ने बहुत उत्‍सव किया, दान दिया, पूजा प्रभावना की । बन्धु-बाँधवों को बड़ा आनन्‍द हुआ । इस नवजात शिशु को देखकर सबको अत्‍यन्‍त प्रीति हुई । इसलिये इसका नाम भी प्रीतिकर रख दिया गया । दूजके चाँदकी तरह यह दिनों-दिन बढ़ने लगा । सुन्‍दरता में यह कामदेव से कहीं बढ़कर था, बड़ा भाग्‍यवान् था और इसके बलके सम्‍बन्‍ध में तो कहना हो क्‍या, जब कि यह चरम शरीर का धारी-----इसी भव से मोक्ष जानेवाला है । जब प्रीतिंकर पाँच वर्ष का हो गया तब इसके पिता ने इसे पढ़ाने के लिये गुरू की सौंप दिया । इसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्‍ण थी और फिर इस पर गुरू की कृपा हो गई । इससे यह थोड़े ही वर्षो में पढ़ लिखकर योग्‍य विद्वान बन गया । कई शास्‍त्ररूपी समुद्र का प्राय: अधिकांश पर कर लिया । विद्वान् और धनी होकर भी इसे अभियान छू तक न गया था । यह सदा लोगों को धर्म का उपदेश दिया करता और पढ़ाता-लिखाता था । इसमें आलस्‍य, ईर्ष्‍या, मत्‍सरता आदि दुर्गुणों का नाम निशान भी न था । यह सबसे प्रेम करता था । सबके दु:ख सुख में सहानुभूति रखता । यही कारण था कि इसे सब ही छोटे-बढ़े हृदय से चाहते थे । जयसेन इसकी ऐसी सज्‍जनता और परोपकार बुद्धि देखकर बहुत खुश हुए । उन्‍होंने स्‍वयं इसका वस्‍त्राभूषणों से आदर सत्‍कार किया इसकी इज्‍जत बढ़ाई ।

य‍द्यपि प्रीतिकर को धन दौलत की कोई कमी नहीं थी परन्‍तु तब भी एक दिन बैठे-बैठे इसके मन में आया कि अपने को भी कमाई करनी चाहिये । कर्त्तव्‍यशीलों का यह काम नहीं कि बैठे-बैठे अपने बाप-दादों की सम्‍पत्ति पर मजा-मौज उड़ा कर आलसी और कर्त्तव्‍यहीन बनें । और न सपूतों का यह काम ही है । इसलिए मुझे धन कमा ने के लिये प्रयत्‍न करना चाहिये । यह विचार कर उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं कुछ न कमा लूँगा तब तक ब्‍याह न करूँगा । प्रतिज्ञा के साथ ही वह विदेश के लिये रवाना हो गया । कुछ वर्षो तक विदेश में ही रहकर इस ने बहुत धन कमाया । खूब कीर्ति अर्जित की । इसे अपने घर से गए कई वर्ष बीत गये थे, इसलिए अब इसे अपने माता-पिता की याद आने लगी । फिर यह बहुत दिनों बाहर न रहकर अपना सब माल असबाब लेकर घर लौट आया । सच है पुण्‍यवानों की लक्ष्‍मी थोड़े ही प्रयत्‍न से मिल जाती है । जयसेन का प्रीतिकर की पुण्‍यवानी और प्रसिद्धि सुनकर उस पर अत्‍यन्‍त प्रेम हो गया । उन्‍होंने तब अपनी कुमारी पृथ्‍वीसुन्‍दरी, और एक दूसरे देश से आई हुई वसुन्‍धरा तथा और भी कई सुन्‍दर-सुन्‍दर राजकुमारियों का ब्‍याह इस महाभाग के साथ बड़े ठाट-बाट से कर दिया । इसके साथ जयसेन ने अपना आधा राज्‍य भी इसे दे दिया । प्रीतिकर के राज्‍य प्राप्ति आदि के सम्‍बन्‍ध को विशेष कथा यदि जानना हो तो महापुराण का स्‍वाध्‍याय करना चाहिये ।

प्रीतिकरको पुण्‍योदयसे जो राज्‍यविभूति प्राप्‍त हुई उसे सुखपूर्वक भोगने लगा । उसके दिन आनन्‍द-उत्‍सवके साथ बीतने लगे । इससे यह न समझना चाहिये कि प्रीतिकर सदा विषयोंमें ही फँसा रहता है । वह धर्मात्‍मा भी सच्‍चा था । क्‍योंकि वह निरन्‍तर जिन भगवान् की अभिषेक-पूजा करता, जो कि स्‍वर्ग या मोक्षका सुख देनेवाली और बुरे भावों या पापकर्मों का नाश करनेवाली है । वह श्रद्धा, भक्ति आदि गुणोंसे युक्‍त हो पात्रोंको दान देता, जो दान महान् सुखका कारण है । वह जिनमंदिरो, तीर्थक्षेत्रों, जिन प्रतिमाओं आदि सप्‍त क्षेत्रोंकी, जो कि शान्तिरूपी धनके प्राप्‍त करानेके कारण हैं, जरूरतोंको अपने धनरूपी जल-वर्षासे पूरी करता, परोपकार करना उसके जीवनका एक मात्र उद्देश्‍य था । वह स्‍वभावका बड़ा सरल था । विद्वानोंसे उसे प्रेम था । इस प्रकार इस लोक सम्‍बन्‍धी और पारमार्थिक कार्योमें सदा तत्‍पर रहकर वह अपनी प्रजाका पालन करता रहता था । प्रीतिकरका समय इस प्रकार बहुत सुखसे बीतता था । एक बार सुप्रतिष्‍ठ पुरके सुन्‍दर बगीचेमें सागरसेन नामके मुनि आकर ठहरे थे । उनका वहीं स्‍वर्गवास हो गया था । उनके बाद फिर इस बगीचेमें आज चारणऋद्धि धारी ऋजुमति और विपुलमति मुनि आये । प्रीतिकर तब बड़े वैभवके साथ भव्‍यजनोंको लिये उनके दर्शनोंको गया । मुनिराजकी चरणोंकी आठ द्रव्‍योंसे उसने पूजा की और नमस्‍कार कर बड़े विनयके साथ धर्मका स्‍वरूप पूछा-----तब ऋजुमति मुनिने उसे इस प्रकार संक्षेप धर्मका स्‍वरूप कहा-----

प्रीतिकर, धर्म उसे कहते है जो संसार के दु:खों से रक्षाकर उत्तम सुख प्राप्‍त करा सके । ऐसे धर्म के दो भेद हैं । एक मुनिधर्म और दूसरा गृहस्‍थधर्म । मुनियों का धर्म सर्व त्‍याग रूप होता है । सांसारिक माया-ममता से उसका कुछ सम्‍बन्‍ध नहीं रहता । और वह उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि दस आत्मिक शक्तियों से युक्‍त होता है । गृहस्‍थ धर्म में संसार के साथ लगाव रहता है । घर में रहते हुए धर्म का पालन करना पड़ता है । मुनि धर्म उन लोगो के लिये है जिनका आत्‍मा पूर्ण बलवान् है, जिनमें कष्‍टों के सहने की पूरी शक्ति है और गृहस्‍थ धर्म मुनिधर्म के प्राप्‍त करने की सीढ़ी है । जिस प्रकार एक साथ सौ-पचास सीढ़ि‍याँ नहीं चढ़ी जा सकती उसी प्रकार साधारण लोगों में इतनी शक्ति नहीं होती कि वे एकदम मुनिधर्म ग्रहण कर सकें । उसके अभ्‍यास के लिये वे क्रम-क्रम से आगे बढ़ते जाये, इसलिये पहले उन्‍हें गृहस्‍थधर्म में सबसे बड़ा भेद यह है कि, पहला साक्षात् मोक्षका कारण है और दूसरा परम्‍परा से । श्रावकधर्म का मूल कारण है-----सम्‍यग्‍दर्शन का पालन । यही मोक्ष-सुख का बीज है । बिना इसके प्राप्‍त किये ज्ञान, चारित्र वगैर की कुछ की मत नहीं । इस सम्‍यग्‍दर्शन को आठ अंगो सहित पालना चाहिये । सम्‍यत्‍व पालने के पहले मिथ्‍यात्‍व छोड़ा जाता है । क्‍योंकि मिथ्‍यात्‍व ही आत्‍मा का एक ऐसा प्रबल शत्रु है जो संसार में इसे अनन्‍त काल तक भटकाये रहता है और कुगतियोंके असह दु:खों को प्राप्‍त कराता है । मिथ्‍यात्‍व का संक्षिप्‍त लक्षण है-----जिन भगवान् के उपदेश किये तत्‍व या धर्म से उलटा चलना और यही धर्म से उलटापन दु:ख का कारण है । इसलिये उन पुरूषों को, जो सुख चाहते हैं, मिथ्‍यात्‍व के परित्‍याग पूर्वक शास्‍त्राभ्‍यास द्वारा अपनी बुद्धिको काँचके समान निर्मल बनानी चाहिये । इसके सिवा श्रावकों को मद्य, मांस और मधु (शहद) का त्‍याग करना चाहिये । क्‍योंकि इनके खाने से जीवों को नरकादि दुर्गतियों में दु:ख भोगना पड़ते है । श्रावकों के पाँच अणुव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रत हैं, उन्‍हें धारण करना चाहिये । रात के भोजन का, चमड़े में रखे हुये हींग, जल, घी, तैल आदि का तथा कन्‍दमूल, आचार और मक्‍खन का श्रावकों को खाना उचित नहीं । इनके खाने से मांस-त्‍याग-व्रत में दोष आता है । जुआ खेलना, चोरी करना, परस्‍त्री सेवन, वैश्‍या सेवन, शिकार करना, मांस खाना, मदिरा पीना, ये सात व्‍यसन-----दु:खों को देने वाली आदतें हैं । कुल, जाति, धन, जन, शरीर, सुख, कीर्ति, मान-मर्यादा आदि की नाश करने वाली हैं । श्रावकों को इन सबका दूर से ही काला मुँह कर देना चाहिये । इसके सिवा जलका छानना, पात्रोंको भक्तिपूर्वक दान देना, श्रावकों का कर्त्तव्‍य होना चाहिए । ऋषियोंने पात्र तीन प्रकार बतलाये हैं । उत्तम पात्र-----मुनि, मध्‍यम पात्र-----व्रती श्रावक और जघन्‍य पात्र-----अविरत-सम्‍यग्‍दृष्टि । इनके सिवा कुछ लोग और ऐसे हैं, जो दान पात्र होते हैं-----दु:खी, अनाथ, अपाहिज आदि जिन्‍हें कि दयाबुद्धि से दान देना चाहिये । पात्रों को जो थोड़ा भी दान देते हैं उन्‍हें उस दान का फल बटबीज की तरह अनन्‍त गुणा मिलता है । श्रावकों के और भी आवश्‍यक कर्म हैं, जैसे-----स्‍वर्ग मोक्ष के सुख की कारण जिन भगवान् की जलादि द्रव्‍यों द्वारा पूजा करना, दूध, दही, घी, सांठेका रस आदिसे अभिषेक करना, जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्‍ठा कराना, तीर्थयात्रा करना आदि । ये सब सुख के कारण और दुर्गति के दु:खों के नाश करने वाले हैं । इस प्रकार धार्मिक जीवन बना कर अन्‍त में भगवान् का स्‍मरण-चिंतन पूर्वक सन्‍यास लेना चाहिये । यही जीवन के सफलता का सीधा और सच्‍चा मार्ग है । इस प्रकार मुनिराज द्वारा धर्मका उपदेश सुनकर बहुतेरे सज्‍जनों ने व्रत, नियमादि को ग्रहण किया जैनधर्म पर उनकी गाढ़ श्रद्धा हो गई । प्रीति करने मुनिराज को नमस्‍कार कर पुन: प्रार्थना की-----हे करूणा के समुद्र योगिराज कृपाकर मुझे तेरे पूर्वभव का हाल सुनाइए । मुनिराज ने तब यों कहना शुरू किया -----

‘‘ प्रीतिकर, इसी बगीचेमें पहले तपस्‍वी सागरसेन मुनि आकर ठहरे थे । उनके दर्शनों के लिये राजा बगैरह प्राय: सब ही नगर निवासी बड़े गाजे-बाजे और आनन्‍द उत्‍सव के साथ आये थे । वे मुनिराज की पूजा-स्‍तुति कर वापिस शहर में चले गये । इसी समय एक सियार ने इनके गाजे-बाजे के शब्‍दों को सुनकर यह समझा कि ये लोग किसी मुर्देको डाल कर गये हैं । सो वह उसे खाने के लिये आया । उसे आता देख मुनि ने अवधिज्ञान से जान लिया कि यह मुर्देको खाने के अभिप्राय से इधर आ रहा है । पर यह है भव्‍य और व्रतों को धारण कर मोक्ष जायगा । इसलिये इसे सुलटाना आवश्‍यक है । यह विचार कर मुनिराज ने उसे समझाया-----अज्ञानी पशु, तुझे मालूम नहीं कि पाप का परिणाम बहुत ही बुरा होता है । देख, पाप के ही फल से तुझे आज इस पर्याय में आना पड़ा और फिर भी तू पाप करने से मुँह न मोड़कर मुर्देको खाने के लिये इतना व्‍यग्र हो रहा है, यह कितने आश्‍चर्य की बात है । तेरी इस इच्‍छा को धिक्‍कार है। प्रिय, जब त‍क तू नरकों में न गिरे इसके पहले ही तुझे यह महा पाप छोड़ देना चाहिए । तूने जिनधर्म को न ग्रहण कर आज तक दु:ख उठाया, पर अब तेरे लिये बहुत अच्‍छा समय उपस्थित है । इसलिए तू इस पुण्‍य-पथ पर चलना सीख । सियार का होन हार अच्‍छा था या उसकी काललब्धि आ गई थी । यही कारण था कि मुनि के उपदेश को सुनकर वह बहुत शान्‍त हो गया । उसने जान लिया कि मुनिराज मेरे हृदय की वासना को जान गए । उसे इस प्रकार शान्‍त देखकर मुनि फिर बोले-----प्रिय, तू और और व्रतों को धारण नहीं कर सकता, इसलिये सिर्फ रात में खाना-पीना ही छोड़ दे । यह व्रत सर्व व्रतों का मूल है, सुख का देने वाला है और चित्त का प्रसन्‍न करने वाला है । सियार ने उपकारी मुनिराज के वचनों को मानकर रात्रि भोजन-त्‍याग-व्रत ले लिया । कुछ दिनों तक तो इसने केवल इसी व्रत को पाला । इसके बाद इस ने मांस वगैरह भी छोड़ दिया । इसे जो कुछ थोड़ा बहुत पवित्र खाना मिल जाता, यह उसी को खाकर रह जाता । इस वृत्ति से इसे सन्‍तोष बहुत हो गया था । बस यह इसी प्रकार समय बिताता और मुनिराज के चरणों का स्‍मरण किया करता ।

इस प्रकार कभी खाने को मिलने और कभी न मिलने से यह सियार बहुत ही दुबला हो गया । ऐसी दशा में एक दिन इसे केवल सूखा भोजन खाने को मिला । समय गर्मी का था । इसे बड़े जोर की प्‍यास लगी । इसके प्राण छटपटा ने लगे । यह एक कुँए पर पानी पीने को गया । भाग्‍य से कुँए का पानी बहुत नीचा था । जब यह कुँए में उतरा तो इसे अँधेरा ही अँधेरा दीखने लगा । कारण सूर्य का प्रकाश भीतर नहीं पहुँच पाता था । इसलिए सियार ने समझा कि रात हो गई, सो वह बिना पानी पीए ही कुँए के बाहर आ गया । बाहर आकर जब उसने दिन देखा तो फिर वह भीतर उतरा और भीतर पहले सा अँधेरा देखकर रात के भ्रम से फिर लौट आया । इस प्रकार वह कितनी ही बार आया-गया, पर जल नहीं पी पाया । अन्‍त में वह इतना अशक्‍त हो गया कि उससे कुँए से बाहर नहीं आया गया । उस ने तब उसे घोर अँधरे को देखकर सूरज को अस्‍त हुआ समझ लिया और वहीं संसार समुद्र से पार करने वाले अपने गुरू मुनिराज का स्‍मरण-चिन्‍तन करने लगा । तृषा रूपी आग उसे जलाए डालती थी, तब भी वह अपने व्रत में बड़ा दृढ़ रहा । उसके परिणाम क्‍लेशरूप या आकुल-व्‍याकुल न होकर बड़े शान्‍त रहे । उसी दशा में वह मर कर कुबेरदत्त और उसकी स्‍त्री धनमित्रा के तू प्रीतिंकर पुत्र हुआ है । तेरा यही अन्तिम शरीर है । अब तू कर्मों का नाश कर मोक्ष जायगा । इसलिए सत्‍पुरूषों का कर्त्तव्‍य है कि वे कष्‍ट समय में व्रतों की दृढ़ता से रक्षा करें । ’’ मुनिराज द्वारा प्रीतिकर का यह पूर्व जन्‍म का हाल सुन उपस्थित मंडली की जिनधर्म पर अचल श्रद्धा हो गई । प्रीतिकर को अपने इस वृत्तान्‍त से बड़ा वैराग्‍य हुआ । उसने जैनधर्म की बहुत प्रशंसा की और अन्‍त में उन स्‍वपरोपकार के करने वाले मुनिराजों को भक्ति से नमस्‍कार कर व्रतों के प्रभाव को हृदय में विचारता हुआ वह घर पर आया ।

मुनिराज के उपदेश का उस पर बहुत गहरा असर पड़ा । उसे अब संसार अथिर, विषय भोग दु:खों के देने वाले, शरीर अपवित्र वस्‍तुओं से भरा, महाघिनौना और नाश होने वाला, धन-दौलत बिजली की तरह चंचल और केवल बाहर से सुन्‍दर देख पड़ने वाली तथा स्‍त्री-पुत्र, भाई-बन्‍धु आदि ये सब अपने आत्‍मा से पृथक् जान पड़ने लगे । उसने तब इस मोहजाल को, जो केवल फँसाकर संसार में भटकाने वाला है, तोड़़ देना ही उचित समझा । इस शुभ संकल्‍प के दृढ़ होते ही पहले प्रीतिकर ने अभिषेक पूर्वक भगवान् को सब सुखों की देने वाली पूजा की, खूब दान किया और दुखी, अनाथ, अपाहिजों की सहायता की । अन्‍त में वह अपने प्रियंकर पुत्र को राज्‍य देकर अपने बन्‍धु, वान्‍धवों की सम्‍मति से योग लेने के लिए विपुलाचल पर भगवान् वर्द्धमान के समवशरण में गया और उन त्रिलोक पूज्‍य भगवान् के पवित्र दर्शन कर उसने भगवान् के द्वारा जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । इसके बाद प्रीतिकर मुनि ने खूब दु:सह तपस्‍या की और अंत में शुक्ल ध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्‍त किया । अब वे लोकालोक के सब पदार्थों को हाथ की रेखाओं के समान साफ-साफ जानने देखने लग गये । उन्हें केवलज्ञान प्राप्‍त किया सुन विद्याधर, चक्रवर्ती, स्‍वर्ग के देव आदि बड़े-बड़े महापुरूष उनके दर्शन-पूजन को आने लगे । प्रीतिकर भगवान् ने तब संसार ताप को नाश करने वाले परम पवित्र उपदेशामृत से अनेक जीवों को परम धाम--मोक्ष सिधार गये । आठ कर्मों का नाश कर आठ आत्मिक महान् शाक्तियों को उन्‍होंने प्राप्‍त किया । अब वे संसार में न आकर अनन्‍त काल तक वहीं रहेंगे । वे प्रीतिकर स्‍वामी मुझे शान्ति प्रदान करें। प्रीतिकर का यह पवित्र और कल्‍याण करने वाला चरित्र आप भव्‍यजनों को और मुझे सम्‍यग्‍ज्ञान के लाभ का कारण हो । यह मेंरी पवित्र भावना है ।

एक अत्‍यन्‍त अज्ञानी पशुयोनि में जन्‍में सियार ने भगवान् के पवित्र धर्म का थोड़ा सा आश्रय पा अर्थात् केवल रात्रि-भोजन-त्‍याग व्रत स्‍वीकारकर मनुष्‍य जन्‍म लिया और उसमें खूब सुख भोगकर अन्‍त में अविनाशी मोक्ष-लक्ष्‍मी प्राप्‍त की । तब आप लोग भी क्‍यों न इस अनन्‍त सुख की प्राप्ति के लिए पवित्र जैनधर्म में अपने विश्‍वास को दृढ़ करें ।