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शास्त्र-दान की कथा

  कथा 

कथा :

संसार-समुद्रसे पार करनेवाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुख प्राप्ति के कारण शास्त्र-दान की कथा लिखी जाती है।

मैं उस भारती सरस्वती को नमस्कार करता हूँ, जिसके प्रगटकर्ता जिन भगवान् हैं और जो आँखों के आड़े आने वाले, पदार्थों का ज्ञान न होने देने वाले अज्ञान-पटल को नाश करने वाली सलाई है।

भावार्थ— नेत्र रोग दूर करने के लिये जैसे सलाई द्वारा सुरमा लगाया जाता है या कोई सलाई ही ऐसी वस्तुओं की बनी होती है जिसके द्वारा सब नेत्र-रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह अज्ञानरूपी रोग को नष्ट करने के लिए सरस्वती-जिनवाणी सलाई का काम देने वाली है। इसकी सहायता से पदार्थों का ज्ञान बड़े सहज में हो जाता है।

उन मुनिराजों को मैं नमस्कार करता हूँ, जो मोह को जीतने वाले हैं, रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र विभूषित हैं और जिनके चरण-कमल लक्ष्मी के- सब सुखों के स्थान हैं।

इस प्रकार देव, गुरू और शास्त्रों को नमस्कार कर शास्त्रदान करने वाले की कथा संक्षेप में यहाँ लिखी जाती है। इसलिये कि इसे पढ़कर सत्पुरूषों के हृदय में ज्ञानदान की पवित्र भावना जाग्रत हो । ज्ञान जीवमात्र का सर्वोत्तम नेत्र है। जिसके यह नेत्र नहीं उसके चर्म नेत्र होने पर भी वह अन्धा है, उसके जीवन का कुछ मूल्य नहीं होता । इसलिये अकिंचित् जीवन को मूल्यवान् बनाने के लिए ज्ञान-दान देना ही चाहिये। यह दान सब दानों का राजा है। और दानों द्वारा थोड़े समय की और एक ही जीवन की ख्वाइशें मिटेंगी, पर ज्ञान-दान से जन्म-जन्म की ख्वाइशें मिटकर वह दाता और वह दान लेनेवाला ये दोनों ही उस अनन्त स्थान को पहुँच जाते हैं, जहाँ सिवा ज्ञान के कुछ नहीं है, ज्ञान ही जिनका आत्मा हो जाता है। यह हुई परलोक की बात। इसके सिवा ज्ञानदान से इस लोक में भी दाता की निर्मल कीर्ति चारों ओर फैल जाती है। सारा संसार उसकी शत-मुख से बड़ाई करता है। ऐसे लोग जहाँ जाते हैं वही उनका मनमाना आव-आदर होता है। इसलिये ज्ञान-दान भुक्ति और मुक्ति इन दोनों का ही देनेवाला है। अत: भव्यजनों को उचित है, उनका कर्त्तव्य है कि वे स्वयं ज्ञान-दान करें और दूसरों को भी इस पवित्र मार्ग में आगे करें। इस ज्ञान-दान के सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने की यह है कि यह सम्यक्पने को लिये हुए हो अर्थात् ऐसा हो कि जिससे किसी जीव का अहित, बुरा न हो,जिसमें किसी तरह का विरोध या दोष न हो। क्योंकि कुछ लोग उसे भी ज्ञान बतलाते हैं, जिसमें जीवों की हिंसा को धर्म कहा गया है,धर्म के बहाने जीवों को अकल्याण का मार्ग बतलाया जाता है और जिसमें कहीं कुछ कहा गया है और कहीं कुछ कहा गया है जो परस्पर का विरोधी है। ऐसा ज्ञान सच्चा ज्ञान नहीं किन्तु मिथ्याज्ञान है। इसलिए सच्चे-सम्यग्ज्ञान दान देने की आवश्कता है। जीव अनादि से कर्मों के वश हुआ अज्ञानी बनकर अपने निज ज्ञानमय शुद्ध स्वरूप को भूल गया है और माया-ममता के पेंचीले जाल में फॅंस गया है, इसलिए प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि जिससे यह अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त कर सके। ऐसी दशा में इसे असुख का रास्ता बतलाना उचित नहीं। सुख प्राप्त करने का सच्चा प्रयत्न सम्यग्ज्ञान है। इसलिये दान, मान, पूजा-प्रभावना, पठन-पाठन आदि से इस सम्यग्ज्ञान की आराधना करना चाहिये। ज्ञान प्राप्त करने की पाँच भावनाएँ ये हैं- उन्हें सदा उपयोग में लाते रहना चाहिए। वे भावनाएँ हैं-



वाचना- पवित्र ग्रन्थ का स्वयं अध्ययन करना या दूसरे पुरूषों को कराना,

पृच्छना- किसी प्रकार के सन्देह को दूर करने के लिए परस्पर में पूछ-ताछ करना,

अनुप्रेक्षा - शास्त्रों में जो विषय पढ़ा हो या सुना हो उसका बार-बार मनन-चिन्तन करना,

आम्नाय- पाठ का शुद्ध पढ़ना या शुद्ध ही पढ़ाना और

धर्मोपदेश- पवित्र धर्म का भव्यजन को उपदेश करना।

ये पाँचों भावनाएँ ज्ञान बढ़ाने की कारण हैं। इसलिये इनके द्वारा सदा अपने ज्ञान की वृद्धि करते रहना चाहिये। ऐसा करते रहने से एक दिन वह आयगा जब कि केवलज्ञान भी प्राप्त हो जाएगा। इसीलिये कहा गया है कि ज्ञान सर्वोत्तम दान है। और यही संसार के जीव मात्र का हित करने वाला है, पुरा काल में जिन-जिन भव्यजनों ने ज्ञानदान किया आज तो उनके नाम मात्र का उल्लेख करना भी असंभव है, तब उनका चरित लिखना तो दूर रहा। अस्तु, कौण्डेश का चरित ज्ञानदान करनेवालों में अधिक प्रसिद्ध है। इसलिए उसी का चरित संक्षेप में लिखा जाता है।

जिनधर्म के प्रचार या उपदेशादि से पवित्र हुए इस भारतवर्ष में कुरूमरी गाँव में गोविन्द नाम का एक ग्वाला रहता था। उसने एक बार जंगल में एक वृक्ष की कोटर में जैनधर्म का एक पवित्र ग्रन्थ देखा। उसे वह अपने घर पर ले आया और रोज-रोज उसकी पूजा करने लगा। एक दिन पद्मनंदि नाम के महात्मा को गोविन्द ने जाते देखा। इसने वह ग्रन्थ इन मुनि को भेंट कर दिया। यह जान पड़ता है कि इस ग्रंथ द्वारा पहले भी मुनियों ने यहाँ भव्यजनों को उपदेश किया है, इसके पूजा महोत्सव द्वारा जिनधर्म की प्रभावना की है और अनेक भव्यजनों को कल्याण मार्ग में लगाकर सच्चे मार्ग का प्रकाश किया है। अन्त में वे इस ग्रंथ को इसी वृक्ष की कोटर में रखकर विहार कर गए हैं। उनके बाद जब से गोविन्द ने इस ग्रन्थ को देखा तभी से वह इसकी भक्ति और श्रद्धा से निरन्तर पूजा किया करता था । इसी समय अचानक गोविन्द की मृत्यु हो गई। वह निदान करके इसी कुरूमरी गाँव में गाँव के चौधरी के यहाँ लड़का हुआ। इसकी सुन्दरता देखकर लोगों की आँखें इस पर से हटती ही न थीं, सब इससे बड़े प्रसन्न होते थे। लोगों के मन को प्रसन्न करना, उनकी अपने पर प्रीति होना यह सब पुण्य की महिमा है। इसके पल्ले में पूर्व जन्म का पुण्य था। इसलिए इसे ये सब बातें सुलभ थीं।

एक दिन इसने उन्हीं पद्मनन्दि मुनि को देखा, जिन्हें कि इसने गोविन्द ग्वाले के भव में पुस्तक भेंट की थी। उन्हें देखकर इसे जातिस्मरण-ज्ञान हो गया। मुनि को नमस्कार कर तब धर्मप्रेम से इसने उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। इसकी प्रसन्नता का कुछ पार न रहा। यह बड़े उत्साह से तपस्या करने लगा। दिनों-दिन इसके हृदय की पवित्रता बढ़ती ही गई। आयु के अन्त में शान्ति से मृत्यु लाभ कर यह पुण्य के उदय से कौण्डेश नाम का राजा हुआ। कौण्डेश बड़ा वीर था। तेज में वह सूर्य से टक्कर लेता था । सुन्दरता उसकी इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि उसे देखकर कामदेव को भी नीचा मुंह कर लेना पड़ता था। उसकी स्वभाव-सिद्धि कान्ति को देखकर तो लज्जा के मारे बेचारे चन्द्रमा का हृदय ही काला पड़ गया। शत्रु उसका नाम सुनकर काँपते थे। वह बड़ा ऐश्वर्यवान् था,भाग्यशाली था,यशस्वी था और सच्चा धर्मज्ञ था। वह अपनी प्रजा का शासन प्रेम और नीति के साथ करता था। अपनी सन्तान के माफिक ही उसका प्रजा पर प्रेम था। इस प्रकार बड़े ही सुख-शान्ति से उसका समय बीतता था।

इस तरह कौण्डेश का बहुत समय बीत गया। एक दिन उसे कोई ऐसा कारण मिल गया कि जिससे उसे संसार से बड़ा वैराग्य हो गया। वह संसार को अस्थिर, विषयभोगों को रोग के समान, सम्पत्ति को बिजली की तरह चंचल- तत्काल देखते-देखते नष्ट होने वाली, शरीर को मांस, मल, रूधिर आदि महा अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ, दु:खों का देने वाला, घिनौना और नाश होने वाला जानकर सबसे उदासीन हो गया। इस जैन धर्म के रहस्य को जानने वाले कौण्डेश के हृदय में वैराग्य भावना की लहरें लहराने लगीं । उसे अब घर में रहना कैदखाने के समान जान पड़ने लगा। वह राज्याधिकार पु़त्र को सौंप कर जिनमन्दिर गया। वहाँ उसने जिन भगवान् की पूजा की, जो सब सुखों की कारण है । इसके बाद निर्ग्रन्थ गुरू को नमस्कार कर उनके पास वह दीक्षित हो गया । पूर्व जन्म में कौण्डेश ने जो दान किया था, उसके फल से वह थोड़े ही समय में श्रुतकेवली हो गया। यह श्रुतकेवली होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि ज्ञानदान तो केवलज्ञान का भी कारण है। जिस प्रकार ज्ञान-दान से एक ग्वाला श्रुतज्ञानी हुआ उसी तरह अन्य भव्य पुरूषों को भी ज्ञान-दान देकर अपना आत्महित करना चाहिये। जो भव्यजन संसार के हित करनेवाले इस ज्ञान-दान की भक्तिपूर्वक पूजा-प्रभावना, पठन-पाठन लिखने-लिखाने, दान-मान, स्तवन-जपन आदि सम्यक्त्व के कारणों से आराधना किया करते हैं वे धन, जन, यश, ऐश्वर्य, उत्तम कुल, गोत्र, दीर्घायु आदि का मनचाहा सुख प्राप्त करते हैं। अधिक क्या कहा जाय किन्तु इसी ज्ञानदान द्वारा वे स्वर्ग या मोक्ष का सुख भी प्राप्त कर सकेंगे। अठारह दोष रहित जिन भगवान् के ज्ञान का मनन, चिन्तन करना उच्च सुख का कारण है।

मैंने जो यह दानकी कथा लिखी है वह आप लोगों को तथा मुझे केवलज्ञान के प्राप्त करने में सहायक हो।

मूलसंघ के सरस्वती गच्छ में भट्टारक मल्लिभूषण हुए। वे रत्नत्रय से युक्त थे। उनके प्रिय शिष्य ब्रह्मचारी नेमिदत्त ने यह ज्ञानदान की कथा लिखी है। वह निरन्तर आप लोगों के संसार को शान्ति करे। अर्थात् जन्म, जरा, मरण मिटाकर अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्त कराये।