+ औषधिदान की कथा -
औषधिदान की कथा

  कथा 

कथा :

जिन भगवान् जिनवाणी और जैन साधुओं के चरणों को नमस्‍कार कर औषधिदान के सम्‍बन्‍ध को कथा लिखी जाती है ।

निरोगी होना, चेहरे पर सदा प्रसन्‍नता रहना, धनादि विभूति का मिलना, ऐश्‍वर्य का प्राप्‍त होना, सुन्‍दर होना, तेजस्‍वी और बलवान् होना और अन्‍त में स्‍वर्ग या मोक्ष का सुख प्राप्‍त करना ये सब औषधिदान के फल है । इसलिये जो सुखी होना चाहते है उन्‍हें निर्दोष औषधिदान करना उचित है । इस औषधिदान के द्वारा अनेक सज्‍जनों ने फल प्राप्त किया है, उन सबके सम्‍बन्‍ध में लिखना औरों के लिये नहीं तो मुझ अल्‍पबुद्धि के लिये तो अवश्‍य असम्‍भव है । उनमें से एक वृषभसेना का पवित्र चरित्र यहाँ संक्षिप्‍त में लिखा जाता है । आचार्यों ने जहाँ औषधिदान देनेवाले का उल्‍लेख किया है वहाँ वृषभसेना का ही प्राय: कथन आता है । उन्‍हीं का अनुकरण मैं भी करता हूँ ।

भगवान् के जन्‍म से पवित्र इस भारतवर्ष के जनपद नाम के देश में नाना प्रकार की उत्तमोत्तम सम्‍पत्ति से भरा अतएव अपनी सुन्‍दरता से स्‍वर्ग की शोभा को नीची करने वाला कावेरी नाम का नगर है । जिस समय की यह कथा है, उस समय कावेरी नगर के राजा उग्रसेन थे । उग्रसेन प्रजा के सच्‍चे हितैषी और राजनीति के अच्‍छे पण्डित थे ।

यहाँ धनपति नाम का एक अच्‍छा सद्गृहस्‍थ सेठ रहता था । जिन भगवान् की पूजा-प्रभावनादि से उसे अत्‍यन्‍त प्रेम था । इसकी स्‍त्री धनश्री इसके घर की मानों दूसरी लक्ष्‍मी थी । धनश्री सती और बड़े सरल मनकी थी । पूर्व पुण्‍य से इसके वृषसेना नाम की एक देवकुमारी सी सुन्‍दरी और सौभाग्‍यवती लड़की हुई । सच है, पुण्‍यके उदयसे क्‍या प्राप्‍त नहीं होता । वृषभसेनाकी धाय रूपवती इसे सदा नहाया-धुलाया करती थी । इसके नहानेका पानी बह-बह कर एक गढ़े में जमा हो गया था । एक दिनकी बात है कि रूपमती वृषभसेनाको नहला रही थी । इसी समय एक महारोगी कुत्ता उस गढ़े में, जिसमें कि वृषभसेनाके नहानेका पानी इकट्ठा हो रहा था, गिर पड़ा । क्‍या आश्‍चर्यकी बात है कि जब वह उस पानी में से निकला तो बिलकुल नीरोग देख पड़ा । रूपवती उसे देखकर चकित हो रही । उसने सोचा-----केवल साधारण जल से इस प्रकार रोग नहीं जा सकता । पर यह वृषभसेना के नहाने का पानी है । इसमें इसके पुण्‍य का कुछ भाग जरूर होना चाहिये । जान पड़ता है वृषभसेना कोई बड़ी भाग्‍यशालिनी लड़की है । ताज्‍जुब नहीं कि यह मनुष्‍य रूपिणी कोई देवी हो ! नहीं तो इसके नहाने के जल में ऐसी चकित करने वाली करामात हो ही नहीं सकती । इस पानी की और परीक्षा कर देख लूँ, जिससे और भी दृढ़़ विश्‍वास हो जायगा कि यह पानी सचमुच ही क्‍या रोगनाशक है ? तब रूपवती थोड़े से उस पानी को लेकर अपनी मौके पास आई । इसकी माँ की आंखें कोई बारह वर्षों से खराब हो रही थी । इससे वह बड़ी दु:ख में थी । आंखों को रूपवती ने इस जल से धोकर साफ किया और देखा तो उनका रोग बिलकुल जाता रहा । वे पहले सी बड़ी सुन्‍दर हो गईं । रूपवती को वृषभसेना के महा पुण्‍यवती होने में अब कोई सन्‍देह न रह गया । इस रोग नाश करने वाले जल के प्रभाव रूपवती की चारों ओर बड़ी प्रसिद्धि हो गई । बड़ी-बड़ी दूर के रोगी अपने रोग का इलाज कराने को आने लगे । क्‍या आंखों के रोग को, क्‍या पेट के रोग को, यही नहीं किन्‍तु जहर सम्‍बन्‍धी असाध्‍य से असाध्‍य रोगों को भी रूपवती केवल एक इसी पानी से आराम करने लगा । रूपवती इससे बड़ी प्रसिद्ध हो गई ।

उग्रसेन और मेंघपिंगल राजा की पुरानी शत्रुता चली आ रही थी । इस समय उग्रसेन ने अपने मंत्री रणपिंगल को मेंघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी । रणपिंगल सेना लेकर मेंघपिंगल पर जा चढ़ा और उसके सारे देश को उसने घेर लिया । मेंघपिंगल ने शत्रु को युद्ध में पराजित करना कठिन समझ दूसरी ही युक्ति से उसे देश से निकाल बाहर करना विचारा और इसके लिये उसने यह योजना की कि शत्रु की सेना में जिन-जिन कुँए, बावड़ी से जल आता था उन सब में अपने चतुर जासूसों द्वारा विष मिलवा दिया । फल यह हुआ कि रणपिंगल की बहुत सी सेना तो मर गई और बची हुई सेना को साथ लिये वह स्‍वयं भी भाग कर अपने देश लौट आया । उसकी सेना पर तथा उस पर जो विष का असर हुआ था, उसे रूपवती ने उसी जल से आराम किया । गुरूओं के वचनामृत से जैसी जीवों को शान्ति मिलती है रणपिंगल को उसी प्रकार शान्ति रूपवती के जल से मिली और वह रोगमुक्‍त हुआ ।

रणपिंगल का हाल सुनकर उग्रसेन को मेंघपिंगल पर बड़ा क्रोध आया तब स्‍वयं उन्‍होंने उस पर चढ़ाई की । उग्रसेन ने अबकी बार अपने जानते सावधानी रखने में कोई कसर न की । पर भाग्‍य का लेख किसी तरह नहीं मिटता । मेंघपिंगल का चक्र उग्रसेन पर भी चल गया । जहर मिले जल को पीकर उनकी भी तबियत बहुत बिगड़ गई । तब जितनी जल्‍दी उन से बन सका अपनी राजधानी में उन्हें लौट आना पड़ा । उनका भी बड़ा ही अपमान हुआ । रणपिंगल से उन्‍होंने, वह कैसे आराम हुआ था, इस बावत पूछा । रणपिंगल ने रूपवती का जल बतलाया । उग्रसेन तब उसी समय अपने आदमियों को जल ले आने के लिये सेठ के यहाँ भेजा । अपनी लड़की का स्‍नान-जल लेने को राजा के आदमियों को आया देख सेठानी धनश्री ने अपने स्‍वामी से कहा-----क्‍योंजी, अपनी वृषभसेनाका स्‍नान-जल राजा के सिर पर छिड़ का जाय यह तो उचित नहीं जान पड़ता । सेठ ने कहा-----तुम्‍हारा यह कहना ठीक है, परन्‍तु जिसके लिये दूसरा कोई उपाय नहीं तब क्‍या किया जाये । इसमें अपने बस की क्‍या बात है ? हम तो न जानबूझकर ऐसा करते हैं और न सच्‍चा हाल किसी से छुपाते ही हैं, तब इसमें अपना तो कोई अपराध नहीं हो सकता । यदि राजा साहब ने पूछा तो हम सब हाल उनसे यथार्थ कह देंगे । सच है, अच्‍छे पुरूष प्राण जाने पर भी झूठ नहीं बोलते । दोनों ने विचार कर रूपवती को जल देकर उग्रसेन के महल पर भेजा । रूपवती ने उस जल को राजाके सिर पर छिड़क कर उन्‍हें आराम कर दिया । उग्रसेन रोगमुक्‍त हो गये । उन्‍हें बहुत खुशी हुई । रूपवती से उन्‍होंने उस जल का हाल पूछा । रूपवती ने कोई बात न छुपाकर जो बात सच्‍ची थी वह राजासे कह दी । सुनकर राजा ने धनपति सेठ को बुलाया और उसका बड़ा आदर-सत्‍कार किया । वृषभसेना का हाल सुनकर ही उग्रसेन की इच्‍छा उसके साथ ब्‍याह करने की हो गई थी और इसीलिए उन्‍होंने मौका पाकर धनपति से अपनी इच्‍छा कह सुनाई । धनपति ने उसके उत्तर में कहा-----राजराजेश्‍वर, मुझे आपकी आज्ञा मान लेने में कोई रूकावट नहीं है । पर इसके साथ आपको स्‍वर्ग-मोक्ष की देनेवाली और जिसे इन्‍द्र, स्‍वर्गवासी देव, चक्रवती, विद्याधर, राजे-महाराजे आदि महापुरूष बड़ी भक्ति के साथ करते हैं ऐसी अष्‍टाह्रिक पूजा करनी होगी और भगवान् का खूब उत्‍सव के साथ अभिषेक करना होगा । सिवा इसके आपके यहाँ जो पशु-पक्षी पींजरों में बन्‍द हैं, उन्‍हें तथा कैदियों को छोड़ना होगा । ये सब बातें आप स्‍वीकार करें तो मैं वृषभसेना का ब्‍याह आपके साथ कर सकता हूँ । उग्रसेन ने धनपति की सब बातें स्‍वीकार की । और उसी समय उन्हें कार्य में भी परिणत कर दिया ।

वृषभसेना का ब्‍याह हो गया । सब रानियों में पट्टरानी का सौभाग्‍य उसे ही मिला । राजा ने अब अपना राजकीय कामों से बहुत कुछ सम्‍बन्‍ध कम कर दिया । उनका प्राय: समय वृषभसेना के साथ सुखोपभोग में जाने लगा । वृषभसेना पुण्‍योदय से राजा की खास प्रेम-पात्र हुई । स्‍वर्ग सरीखे सुखों को वह भोगने लगी । यह सब कुछ होने पर भी वह अपने धर्म-कर्म को थोड़ा भी न भूल गई थी । वह जिन भगवान् की सदा जलादि आठ द्रव्‍यों से पूजा करतीं, उनका अभिषेक करती, साधुओं को चारों प्रकारका दान देती, अपनी शक्ति के अनुसार व्रत, तप, शील, संयमादि का पालन करती और धर्मात्‍मा सत्‍पुरूषों का अत्‍यन्‍त प्रेम के साथ आदर-सत्‍कार करती । और सच है, पुण्‍योदय से जो उन्‍नति हुई, उनका फल तो यही है कि साधर्मियों से प्रेम हो, हृदय में उनके प्रति उच्‍च भाव हो । वृषभसेना अपना जो कर्त्तव्‍य था, उसे पूरा करती, भक्ति से जिनधर्म की जितनी ब‍नती उतनी सेवा करती और सुख से रहा करती थी ।

राजा उग्रसेन यहाँ बनारस का राजा पृथवीचन्‍द्र कैद था । और यह अधिक दुष्‍ट था । पर उग्रसेन का तो तब भी यही कर्त्तव्‍य था कि वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ब्‍याह के समय उसे भी छोड़ देते । पर ऐसा उन्‍होंने नहीं किया । यह अनुचित हुआ । अथवा यों कहिये कि जो अधिक दुष्‍ट होते हैं उनका भाग्‍य ही ऐसा होता है जो वे मौके पर भी बन्‍धन मुक्‍त नहीं हो पाते ।

पृथिवीचन्‍द्र की रानी का नाम नारायणदत्ता था । उसे आशा थी कि उग्रसेन अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वृषभसेना के साथ ब्‍याह के समय मेरे स्‍वामी को अवश्‍य छोड़ देंगे । पर उसकी वह आशा व्‍यर्थ हुई । पृथिवीचन्‍द्र को छुड़ा ने के लिये एक दूसरी हो युक्ति की और उसमें उसे मनचाही सफलता भी प्राप्‍त हुई । उसने यहाँ वृषभसेना के नाम से कई दानशालाएँ बनवाईं । कोई विदेशी हो सबको उनमें भोजन करने को मिलता था । इन दानशालाओं में बढ़ि‍या से बढ़िया छहों रसमय भोजन कराया जाता था । थोड़े ही दिनों में इन दानशालाओं की प्रसिद्धि चारों और हो गई । जो इनमें एक बार भी भोजन कर आता वह फिर इनकी तारीफ करने में कोई कमी न करता था । बड़ी-बड़ी दूर से इनमें भोजन करने को लोग आने लगे । कावेरी के भी बहुत से ब्राह्मण यहाँ भोजन कर जाते थे । उन्‍होंने इन शालाओं की बहुत तारीफ की ।

रूपवती को इन वृषभनसेना के नाम से स्‍थापित की गई दानशालाओं का हाल सुनकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ और साथ ही उसे वृषभनसेना पर इस बात से बड़ा गुस्‍सा आया कि मुझे बिना पूछे उसने बनारस में ये शालाएँ बनवाई ही क्‍यों ? और इसका उसने वृषभनसेना को उलाहना भी दिया । वृषभसेना ने तब कहा-----माँ, मुझ पर तुम व्‍यर्थ ही नाराज होती हो । न तो मैंने कोई दानशाला बनारस में बनवाई और न मुझे उनका कुछ हाल ही मालूम है । यह सम्‍भव हो सकता है कि किसीने मेरे नाम से उन्‍हें बनाया हो । इसका शोघ लगाना चाहिये कि किसने तो ये शालाएँ बनवाई और क्‍यों बनवाई ? आशा है पता लगाने से सब रहस्‍य ज्ञात हो जायेगा । रूपवतीने तब कुछ जासूसों को उन शालाओं की सच्‍ची हकीकत जानने को भेजा । उनके द्वारा रूपवती को मालूम हुआ कि वृषभसेना के ब्‍याह समय उग्रसेन ने सब कैदियों को छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी । उस प्रतिज्ञा के अनुसार पृथिवीचन्‍द्र को उन्‍होंने न छोड़ा । यह बात वृषभनसेना को जान पड़े, उसका ध्‍यान इस ओर आकर्षित हो इसलिए ये दान-शालाएँ उसके नाम से पृथिवीचन्‍द्र की रानी नारायणदत्ता ने बनवाई हैं । रूपवती ने यह सब हाल वृषभसेना से कहा । वृषभसेना ने तब उग्रसेन से प्रार्थना कर उसी समय पृथिवीचन्‍द्र को छुड़वा दिया । पृथिवीचन्‍द्र वृषभसेना के उपकार से बड़ा कृतज्ञ हुआ । उसने इस कृतज्ञता के वश हो उग्रसेन और वृषभसेना का एक बहुत ही बढ़िया चित्र तैयार करवाया । उस चित्र में इन दोनों राजारानी पाँवों में सिर झुकाया हुआ अपना चित्र भी पृथिवीचन्‍द्र ने खिंचवाया । वह चित्र फिर उनको भेंट कर उसने वृषभसेना से कहा-----माँ, जन्‍म–जन्‍म में ऋणी रहूँगा । आपने इस समय मेंरा जो उपकार किया उसका बदला तो मैं क्‍या चुका सकूँगा पर उसकी तारीफ में कुछ कहने तक के लिए मेरे पास उपयुक्‍त शब्‍द नहीं है । पृथिवीचन्‍द्र की यह नम्रता यह विनयशीलता देखकर उग्रसेन उस पर बहुत प्रसन्‍न हुए । उन्‍होंने उसका तब बड़ा आदर-सत्‍कार किया ।

मेंघपिंगल उग्रसेन का शत्रु है, इसका जिकर ऊपर आया है । जो हो, उग्रसेन से वह भले ही बिलकुल न डरता हो, पर पृथिवीचन्‍द्र से बहुत डरता है । उसका नाम सुनते ही वह काँप उठता है । उग्रसेन को यह बात मालूम थी । इसलिए अब की बार उन्होंने पृथ्वीचन्द्र को उस पर चढ़ाई करने की आज्ञा की । उनकी आज्ञा सिर पर चढ़ा पृथिवीचन्‍द्र अपनी राजधानी में गया । और तुरंत उसने अपनी सेना को मेंघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा की । सेना के प्रयाण का बाजा बजनेवाला ही था कि कावेरी नगर से खबर आ गई----- ‘‘ अब चढाई की कोई जरूरत नहीं । मेंघपिंगल स्‍वयं महाराज उग्रसेन के दरबार में उपस्थित हो गया ।’’बात यह थी कि मेंघपिंगल पृथिवीचन्‍द्र के साथ लड़ाई में पहले कई बार हार चुका था । इसलिए वह उससे बहुत डरता था । यही कारण था कि उसने पृथिवीचन्‍द्र से लड़ना उचित न समझा । तब अगत्‍या उसे उग्रसेन की शरण आ जाना पड़ा । अब वह उग्रसेन का सामन्‍त राजा बन गया । सच है, पुण्‍य के उदय से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं |

एक दिन दरबार लगा हुआ था । उग्रसेन सिंहासन पर अधिष्ठित थे । उस समय उन्‍होंने एक प्रतिज्ञा की--आज सामन्‍त-राजों द्वारा जो भेंट आयगी, वह आधी मेंघपिङल को और आधी श्रीमती वृषभसेना की भेंट होगी । इसलिए कि उग्रसेन महाराज की अबसे मेंघपिंगल पर पूरी कृपा हो गई थी । आज और बहुत-सी धन-दौलत के सिवा दो बहुमूल्‍य सुन्‍दर कम्‍बल उग्रसेन की भेंट में आये । उग्रसेन ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भेंट का आधा हिस्‍सा मेंघपिंगल के यहाँ और आधा हिस्‍सा वृषभसेना के यहाँ पहुँचा दिया । धन-दौलत, वस्‍त्राभूषण, आयु आदि ये सब नाश होनेवाली वस्‍तुएँ हैं, तब इनका प्राप्‍त करना सफल तभी हो सकता है जब कि ये परोपकार में लगाई जाँय, इनके द्वारा दूसरों का भला हो ।

एक दिन मेंघपिंगल की रानी इस कम्‍बल को ओड़े किसी आवश्‍यक कार्य के लिए वृषभसेना के महल आई । पाठकों को याद होगा कि ऐसा ही एक कम्‍बल वृषभसेना के पास भी है । आज वस्‍त्रों के उतारने और पहरने में भाग्‍य से मेंघपिंगल की रानी का कम्‍बल वृषभसेना के कम्‍बल से बदल गया । उसे इसका कुछ ख्‍याल न रहा और वह वृषभसेना का कम्‍बल ओढ़े ही अपने महल आ गई । कुछ दिनों बाद मेंघपिंगल को राज-दरवार में जाने का काम पड़ा । वह वृषभसेना के इसी कम्बल को ओढ़े चला गया । कम्बल ओढ़े मेंघपिंगल को देखते ही उग्रसेन के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा । उन्‍होंने वृषभसेना के कम्‍बल को पहचान लिया । उनकी आंखों से आग की-सी चिनगारियाँ निकलने लगी । उन्‍हें काटो तो खून नहीं । महारानी वृषभसेनाका कम्‍बल इसके पास क्‍यों और कैसे गया ? इसका कोई गुप्‍त कारण जरूर होना ही चाहिए । बस, यह विचार उनके मन में आते ही उनकी अजब हालत हो गई । उग्रसेन का अपने पर अकारण क्रोध देखकर मेंघपिंगल को समझ में इसका कुछ भी कारण न आया । पर ऐसी दशा में उसने अपना वहाँ रहना उचित न समझा । वह उसी समय वहाँ से भागा और और एक अच्‍छे तेज घोड़े पर सवार हो बहुत दूर निकल गया । जैसे दुर्जनों से डरकर सत्‍पुरूष दूर जा निकलते हैं । उसे भागा देख उग्रसेन का सन्‍देह और बढ़ा । उन्‍होंने तब एक ओर तो मेंघपिंगल को पकड़ लाने के लिए अपने सवारों को दौड़ाया और दूसरी ओर क्रोधाग्नि से जलते हुए आप वृषभसेना के महल पहुँचे । वृषभसेना से कुछ न कह सुनकर कि तूने अमुक अपराध किया है, एक साथ उसे समुद्र में फिकवाने का उन्‍होंने हुक्‍म दे दिया । बेचारी निर्दोष वृषभसेना राजाज्ञा के अनुसार समुद्र में डाल दी गर्इ । उस क्रोध को धिक्कार ! उस मूर्खता को धिक्कार ! जिसके वश हो लोग योग्य और अयोग्य कार्य का भी विचार नहीं कर पाते । अजान मनुष्य किसी को कोर्इ कितना ही कष्ट क्यों न दे, दु:खों की कसौटी पर उसे कितना ही क्यों न चढ़ावें, उसकी निरपराधता को अपनी क्रोधाग्नि में क्यों न झोंक दे, पर यदि वह कष्ट सहनेवाला मनुष्य निपराध है, निर्दोष है, उसका हृदय पवित्रतासे सना है, रोम-रोममें उसके पवित्रताका वास है तो नि:सन्देह उसका कोर्इ बाल वाँका नहीं कर सकता। ऐसे मनुष्योंको कितना ही कष्ट हो, उससे उनका हृदय रत्ती भर भी विचलित न होगा। बल्कि जितना-जितना वह इस परीक्षाकी कसौटी पर चढ़ता जायगा उतना-उतना ही अधिक उसका हृदय बलवान् और निर्भीक बनता जायगा। उग्रसेन महाराज भले ही इस बातको न समझें कि वृषभसेना निर्दोष है, उसका कोर्इ अपराध नहीं,पर पाठकोंको उपने हृदयमें इस बातका अवश्य विश्वास है, न केवल विश्वास ही है, किन्तु बात भी वास्तवमें यही सत्य है कि वृषभसेनानिरपराध है। वह सती है, निष्कलंक है। जिस कारण उग्रसेन महाराज उस पर नाराज हुए हैं,वह कारण निर्भ्रान्त नहीं है। वे यदि जरा गम खाकर कुछ शान्तिसे विचार करते तो उनकी समझमें भी वृषभसेनाकी निर्दोषता बहुत जल्दी आ जाती। पर क्रोधने उन्हें आपेमें न रहने दिया। और इसीलिए उन्होंने एक दम क्रोधसे अन्धे हो एक निर्दोष व्यक्तिको काल के मुँहमें फैंक दिया। जो हो, वृषभसेनाकी पवित्र जीवनकी उग्रसेनने तो कुछ कीमत न समझी, उसके साथ महान् अन्याय किया, पर वृषभसेनाको अपने सत्य पर पूर्ण विश्वास था। यह जानती थी कि मैं सर्वथा निर्दोष हूँ । फिर मुझे कोर्इ ऐसी बात नहीं देख पड़ती कि जिसके लिए मैं दु:ख कर अपने आत्मा को निर्बल बनाऊॅं। बल्कि मुझे इस बातकी प्रसन्नता होनी चाहिए कि सत्यके लिए मेंरा जीवन गया। उसने ऐसे ही और बहुतसे विचारों से अपनी आत्मा को खूब बलवान् और सहनशील बना लिया। ऊपर यह लिखा जा चुका है कि सत्यता और पवित्रताके सामने किसीकी नहीं चलती। बल्कि सबको उनके लिए अपना मस्तक झुकाना पड़ता है। वृषभसेना अपनी पवित्रता पर विश्वास रखकर भगवान् के चरणोंका ध्यान करने लगी। अपने मनको उसने परमात्म-प्रेममें लीन कर लिया। उसने साथ ही प्रतिज्ञा की कि यदि इस परीक्षा में में पास होकर नया जीवन लाभ कर सकूँ तो अब मैं संसारकी विषयवासनामें न फॅंसकर अपने जीवनको तपके पव़ित्र प्रवाहमें बहा दूँगी,जो तप जन्म और मरणका ही नाश करने वाला है। उस समयवृषभसेनाकी वह पवित्रता, वह दृढ़ता, वह शीलका प्रभाव, वह स्वभाव सिद्ध प्रसन्नता आदि बातोंने उसे एक प्रकाशमान उज्जवल ज्योतिके रूपमें परिणत कर दिया था। उसके इस अलौकिक तेज के प्रकाश ने स्वर्ग के देवों की आँखों तक में चकाचौंध पैदा कर दी। उन्हें भी इस तेस्विता देवी को सिर झुकाना पड़ा । वे वहाँ से उसी समय आये और वृषसेना की एक अमूल्य सिंहासन पर अधिष्ठित कर उन्होंने उस मनुष्यरूपधारिणी पवित्रता की मूर्तिमान देवी की बड़े भक्ति भावों से पूजा की, उसका जय-जयकार मनाया, बहुत सत्य है, पवित्रशील के प्रभाव से सब कुछ हो सकता है । यही शील आगको जल, समुद्रको स्थल, शत्रुको म़ित्र, दुर्जनकी सज्जन और विषको अमृतके रूपमें परिणत कर देता है। शीलका प्रभाव अचिन्त्य है। इसी शीलके प्रभावसे धन-सम्पत्ति, कीर्ति, पुण्य, ऐश्वर्य, स्वर्ग-सुख आदि जितनी संसार में उत्तम वस्तुएं हैं वे सब अनायास बिना परिश्रम किये प्राप्त हो जाती हैं । न यही किन्तु शीलवान् मनुष्य मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है। इसलिए बुद्धिमानोंको उचित है कि वे अपने चंचल मनरूपी बन्दरको वश कर उसे कहीं न जाने देकर पवित्रशीलव्रतकी, जिसे कि भगवान् ने सब पापोंका नाश करनेवाला बतलाया है,रक्षामें लगावें।

वृषभसेनाके शीलका माहात्म्य जब उग्रसेनको जान पड़ा तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ । अपनी बे-समझी पर वे बहुत पछताये। वृषभसेनाके पास जाकर उससे उन्होंने अपने इस अज्ञानकी क्षमा करार्इ और महल पर चलनेके लिए उससे प्रार्थना की। यद्यपि वृषभसेनाने पहले यह प्रतिज्ञा की थी कि इस कष्टसे छुटकारा पाते ही मैं योगिनी बनकर आत्महित करूँगी और इस पर वह दृढ़ भी वैसी ही थी; परन्तु इस समय जब कि खुद महाराज उसे लिवाने को आये तब उनका अपमान न हो; इसलिए उसने एक बार महल जाकर एक-दो दिन बाद फिर दीक्षा लेना निश्चय किया। वह बड़ी वैरागिन होकर महाराजके साथ महल आ रही थी । पर जिसके मन जैसी भावना होती है और वह यदि सच्चे हृदयसे उत्पन्न हुर्इ होती है वह नियमसे पूरी होती ही है। वृषभसेनाके मनमें जो पवित्र भावना थी वह सच्चे संकल्पसे की गर्इ थी। इसलिए उसे पूरी होना ही चाहिए थी और वह हुर्इ। रास्तेमें वृषभसेनाको एक महा तपस्वी और अवधिज्ञानी गुणधर नामके मुनिराजके पवित्र दर्शन हुए। वृषभसेनाने बड़ी भक्ति से उन्‍हें हाथ जोड़ सिर नवाया | इसके बाद उसने उनसे पूछा—हे दयाके समुद्र योगिराज, क्या आप कृपाकर मुझे यह बतलावेंगे कि मैंने पूर्व जन्मोंमें क्या-क्या अच्छे या बुरे कर्म किये हैं, जिनका मुझे यह फल भोगना पड़ा? मुनि बोले—पुत्रि, सुन तुझे तेरे पूर्व जन्मका हाल सुनाता हूँ । तू पहले जन्ममें ब्राह्मणकी लड़की थी । तेरा नाम नागश्री था । इसी राजघराने में तू बुहारी दिया करती थी । एक दिन मुनिदत्त नामके योगिराज महलके कोटके भीतर एक वायु रहित पवित्र गढ़ेमें बैठे ध्यान कर रहे थे। समय सन्ध्याका था। इसी समय तू बुहारी देती हुर्इ इधर आर्इ । तूने मूर्खता से क्रोध कर मुनिसे कहा--ओ नंगे ढोंगी, उठ यहाँ से, मुझे झाड़ने दे। आज महाराज इसी महल में आवेंगे । इसलिए इस स्थान को मुझे साफ करना है। मुनि ध्यान मेंथे,इसलिए वे उठे नहीं; और न ध्यान पूरा होने तक उठ ही सकते थे। वे वैसेके वैसे ही अडिग बैठे रहे । इससे तुझे और अधिक गुस्सा आया। तूने तब सब जगहका कूड़ा—कचराइकट्ठा कर मुनिको उससे ढॅंक दिया। बाद तू चली गर्इ। बेटा तू तब मूर्ख थी, कुछ समझती न थी। पर तूने वह काम बहुत ही बुरा किया था। तू नहीं जानती थी। कि साधु-सन्त तो पूजा करने योग्य होते हैं, उन्हें कष्ट देना उचित नहीं। जो कष्ट देते हैं वे बड़े मूर्ख और पापी हैं । अस्तु, सबेरे राजा आये। वे इधर होकर जा रहे थे। उनकी नजर इस गढ़े पर पड़ गर्इ। मुनिके साँस लेनेसे उन पर का वह कूड़ा-कचरा ऊॅंचा-नीचा हो रहा था । उन्हें कुछ सन्देहसा हुआ। तब उन्होंने उसी समय उस कचरे को हटाया। देखा तो उन्हें मुनि देख पड़े। राजाने उन्हें निकाल लिया। तुझे जब यह हाल मालूम हुआ और आकर तूने उनशान्तिके मन्दिर मुनिराजको पहलेसा हीशान्त पाया तब तुझे उनके गुणोंकी कीमत जान पड़ी। तू तब बहुत पछतार्इ। अपने कर्मोंको तूने बहुत बहुत धिक्कारा। मुनिराज से अपने अपराध की क्षमा करार्इ तब तेरी श्रद्धा उन पर बहुत ही हो गर्इ । मुनिके उस कष्टके दूर करनेका तूने बहुत यत्न किया,उनकी औषधि की और उनकी भरपूर सेवा की । उस सेवाके फलसे तेरे पापकर्मोंकी स्थिति बहुत कम रह गयी । बहिन, उसी मुनि सेवा के फल से तू इस जन्म में धनपति सेठकी लड़की हुर्इ । तूने जो मुनि को औषधिदान दिया था उससे तो तुझे वह सर्वौषधि प्राप्त हुर्इ। जो तेरे स्नानके जलसे कठिनसे कठिन रोग क्षण-भरमें नाश हो जाते हैं। और मुनिको कचरेसे ढॅंककर जो उन पर घोर उपसर्ग किया था।उससे तुझे इस जन्म में झूठा कलंक लगा। इसलिये बहिन, साधुओंको कभी कष्ट देना उचित नहीं। किन्तु ये स्वर्ग या मोक्ष-सुखकी प्राप्तिके कारण हैं, इसलिए तो बड़ी भक्ति और श्रद्धासेसेवा-पूजा करनी चाहिये। मुनिराज द्वारा अपना पूर्वभव सुनकर वृषभसेना का वैराग्य और बढ़ गया। उसने फिर महल पर न जाकर उपने स्वामीसे क्षमा करार्इ और संसार की सब माया ममता का पेचीला जाल तोड़कर परलोक-सिद्धिके लिये इन्हीं गुणधर मुनि द्वारा योग-दीक्षा ग्रहण कर ली। जिस प्रकार वृषभसेना ने औषधिदान देकर उसके फल से सर्वौषधि प्राप्त की उसी तरह और बुद्धिमानों को भी उचित है कि वे जिसे जिस दानकी जरूरत समझें उसीके अनुसार सदा हर एककी व्यवस्था करते रहें। दान महान् पवित्र कार्य है और पुण्यका कारण है।

गुणधर मुनिके द्वारा वृषभसेनाका पवित्र और प्रसिद्ध चरित्र सुनकर बहुतसे भव्यजनोंने जैनधर्मको धारण किया, जिन को जैनधर्मके नाम तकसे चिढ़ थी वे भी उससे प्रेम करने लगे। इन भव्यजनोंको तथा मुझे सती वृषभसेना पवित्र करे, हृदयमें चिरकालसे स्थानसे किये हुए राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, र्इर्षा, मत्सरता आदि दुर्गुणोंको, जो आत्मप्राप्तिसे दूर रखने वाले हैं, नाश करें उनकी जगह पवित्रताकी प्रकाशमान ज्योतिको जगावे।