
कथा :
संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर करकण्डु राजा का सुखमय पवित्र चरित लिखा जाता है । जिसने पहले केवल एक कमल से जिन भगवान् की पूजा कर जो महान् फल प्राप्त किया, उसका चरित जैसा और ग्रन्थों में पुराने ऋषियों ने लिखा है उसे देखकर या उनकी कृपा से उसका थोड़े में मैं सार लिखता हूँ । नील और महानील तेरपुर के राजा थे । तेरपुर कुन्तल देश की राजधानी थी । यहाँ वसुमित्र नाम का एक जिनभक्त सेठ रहता था । सेठानी वसुमती उसकी स्त्री थी । धर्म से उसे बड़ा प्रेम था । इन सेठ-सेठानी के यहाँ धनदत्त नाम का एक ग्वाल नौकर था । वह एक दिन गोएँ चराने को जंगलमें गया हुआ था । एक तालाब में इसने कोर्इ हजार पंखुरियों वाला एक बहुत सुन्दर कमल देखा । उस पर यह मुग्ध हो गया । तब तालाब में कूद कर इसने उस कमल को तोड़ लिया । उस समय नागकुमारी ने इससे कहा -- धनदत्त्, तूने मेरा कमल तोड़ा तो है, पर इतना तू ध्यान में रखता कि यह उस महापुरूष को भेंट किया जाय, जो संसार में सबसे श्रेष्ठ हो । नागकुमारी का कहा मानकर धनदत्त कमल लिये उपने सेठ के पास गया और उनसे सब हाल इसने कहा । वसुमित्र ने तब राजा के पास जाकर उनसे यह सब हाल कहा । सबसे श्रेष्ठ कौन है और यह कमल किसकी भेंट चढाया जाय, यह किसी की समझमें न आया । तब सब विचार कर चले कि इसका हाल मुनिराज से कहें । संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है, इस बात का पता वे अपने को देंगे । यह निश्चय कर राजा, सेठ, ग्वाल तथा और भी बहुत से लोक सहस्त्र-कूट नाम के जिन-मन्दिर में गये । वहाँ सुगुप्त मुनिराज ठहरे हुए थे । उनसे राजाने पूछा -- हे करूणा के समुद्र, हे पवित्र धर्म के रहस्य को समझनेवाले, कृपाकर बतलाइए कि संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है, जिन्हें यह पवित्र कमल भेंट किया जाय । उत्तर में मुनिराजने कहा -- राजन् सारे संसार के स्वामी, राग-द्वेषादि दोषों से रहित जिन भगवान् सर्वोत्कृष्ट हैं, क्योंकि संसार उन्हीं की पूजा करता है । सुनकर सबको बड़ा संतोष हुआ जिसे वे चाहते थे वह अनायास ही मिल गया । उसी समय वे सब भगवान् के सामने आये । धनदत्त ग्वाल ने तब भगवान् को नमस्कार कर कहा -- हे संसार में सबसे श्रेष्ठ गिने जाने वाले, आपको यह कमल मैं भेंट करता हूँ । इसे आप स्वीकार कर मेरी आशा को पूरी करें । यह कहकर वह ग्वाल उस कमल को भगवान् के पाँवों पर चढ़ाकर चला गया । इसमें कोर्इ सन्देह नहीं कि पवित्र कर्म मूर्ख लोगों को भी सुख देनेवाला होता है । इस कथा से सम्बन्ध रखनेवालों एक दूसरी कथा यहाँ लिखी जाती है । उसे सुनिए -- श्रावस्ती के रहने वाले सागरदत्त सेठ की स्त्री नागदत्ता बड़ी पापिनी थी । उसका चाल-चलन अच्छा न था । एक सोमशर्मा ब्राह्मण के साथ उसका अनुचित बरताव था । सच है, कोर्इ-कोर्इ स्त्रियाँ तो बड़ी दुष्ट और कुल-कलंकिनी हुआ करती हैं । उन्हें अपने कुल की मान-मर्यादा की कुछ लाज-शरम नहीं रहती । अपने उज्जवल कुलरूपी मन्दिर को मलिन करने के लिए वे काले धुएँ के समान होती हैं । बेचारा सेठ सरल था और धर्मात्मा था । इसलिए अपनी स्त्री का ऐसा दुराचार देखकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । उसने फिर संसार का भ्रमण मिटानेवाली जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । वह बहुत ही कंटाल गया था । सागरदत्त तपस्या कर स्वर्ग गया । स्वर्गायु पूरी कर वह अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी में वसुपाल राजा की रानी वसुमती के दन्तिवाहन नामका राजकुमार हुआ । वसुपाल सुख से राज करते रहे । इधर वह सोमशर्मा मर कर पाप के फल से पहले तो बहुत समय तक दुर्गतियों में घूमा किया । एक से एक दु:सह कष्ट उसे सहना पड़ा । अन्त में वह कलिंग देश के जंगल में नर्मदा-तिलक नाम का हाथी हुआ । और ठीक ही है पाप से जीवों को दुर्गतियों के दु:ख भोगना ही पड़ते हैं । कर्म से इस हाथी को किसी ने पकड़ लाकर वसुपाल को भेंट किया । उधर इस हाथी के पूर्वभव के जीव सोमशर्मा की स्त्री नागदत्ता ने भी पाप के उदय से दुर्गतियों में अनेक कष्ट सहे । अन्त में वह तामलिप्तनगर में भी वसुदत्त सेठ की स्त्री नागदत्ता हुर्इ । उस समय इसके धनवती और धनश्री नाम की दो लड़कियाँ हुर्इं । ये दोनों ही बहिनें बड़ी सुन्दर थीं । स्वर्ग कुमारियाँ इनका रूप देखकर मन नही मन बड़ी कुढ़ा करती थी । इनमें धनवती का ब्याह नागानन्दपुर के रहनेवाले वनपाल नाम के सेठ पुत्र के साथ हुआ और छोटी बहिन धनश्री कोशाम्बीके वसुमित्र की स्त्री हुर्इ । वसुमित्र जैनी था । इसलिए उसके सम्बन्ध से धनश्री को कर्इ बार जैनधर्म के उपदेश सुनने का मौका मिला । वह उपदेश उसे बहुत रूचिकर हुआ और फिर वह भी श्राविका हो गर्इ । लड़की के प्रेम से नागदत्ता एक बार धनश्री के यहाँ गर्इ । धनश्री ने अपनी माँ का खूब आदर-सत्कार किया और उसे कई दिनों तक अपनें यहीं रक्खा । नागदत्ता धनश्री के यहाँ कई दिनों तक रही,पर न तो वह कभी मंदिर गई और न तो कभी उसने धर्म की चर्चा की । धनश्रीअपनी माँ को धर्मसे विमुख देखकर एक दिन उसे मुनिराजके पास ले गर्इ और समझा कर उसे मुनिराज द्वारा पाँच अणुव्रत दिलवा दिये । एक बार इसी तरह नागदत्ताको अपनी बड़ी लड़की धनवतीके यहाँ जाना पड़ा । धनवती बुद्धधर्म को मानती थी । सो उसने इसे बुद्धधर्मकी अनुयायिनी बना लिया । इस तरह नागदत्ताने कोर्इ तीन बार जैनधर्म को छोड़ा । अन्तमें उसने फिर जैनधर्म ग्रहण किया और अब की बार वह उस पर रही भी बहुत दृढ़ । जन्म भर फिर उसने जैनधर्म को निर्बाहा । आयु के अन्त में मरकर वह कौशाम्बी के राजा वसुपाल की रानी वसुमती के लड़की हुर्इ । पर भाग्यसे जिस दिन वह पैदा हुर्इ, वह दिन बहुत खराब था । इसलिए राजा ने उसे एक सन्दूक में रखकर और उसके नाम की एक अॅंगूठी उसकी उॅंगली में पहरा कर उस सन्दूक को यमुना में छुड़वा दिया । सन्दूक बहती हुर्इ कुसुमपुर के एक पद्महृद नाम के तालाब में पहुँच गर्इ । इस तालाब में गंगा-यमुना के प्रवाह का एक छोटा-सा नाला बहकर आता था । उसी नाले में पड़कर यह सन्दूक तालाब में आ गर्इ । इसे किसी कुसुमदत्त नाम के माली ने देखा । वह निकाल कर उसे अपने घर लिवा लाया । संदूक को खोलकर उसने देखा तो उसमें से यह लड़की निकली । कुसुमदत्त के कोर्इ संतान न थी । इसलिए वह इसे पाकर बहुत खुश हुआ । अपनी स्त्री को बुलाकर उसने इसे उसकी गोद में रख दिया और कहा -- प्रिये, भाग्य से अपने को यह लड़की अनायास मिल गर्इ । इससे अपने को बड़ी खुशी मनानी चाहिये । मुझे विश्वास है कि तुम भी इस अमूल्य संधि से बहुत प्रसन्न होगी । प्रिये, यह मुझे पद्महृद में मिली है । हम इसका नाम भी पद्मावती ही क्यों न रक्खें ? क्यों, नाम तो बड़ा ही सुन्दर है ! मालिन जिन्दगी भर से अपनी खाली गोद को आज एकाएक भरी पा बहुत आनन्दित हुर्इ । वह आनन्द इतना था कि उसके हृदय में भी न समा सका । यही कारण था कि उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था । उसने बड़े प्रेम से इसे छाती लगाया । पद्मावती इस समय कोर्इ तेरह चौदह वर्ष की है । उसके सुकोमल, सुगन्धित और सुन्दर यौवनरूपी फूल की कलियाँ कुछ-कुछ खिलने लगी हैं । ब्रह्मा ने उसके शरीरा के लावण्य सुधा-धारा से सींचना शुरू कर दिया है । वह अब थोड़े ही दिनों में स्वर्ग की देव कुमारियों से भी अधिक सुन्दरता लाभ कर ब्रह्मा को अपनी सृष्टि का अभिमानी बनावेगी । लोग स्वर्गीय सुन्दरता की बड़ी प्रशंसा करते हैं । ब्रह्मा को उनकी इस थोथी तारीफ से बड़ी डाह है । इसलिये कि इससे उसकी रचना सुन्दरता में कमी आती है और उस कर्मों से इस नीचा देखना पड़ता है । ब्रह्मा ने सर्व साधारण के इस भ्रम को मिटाने के लिए कि जो कुछ सुन्दरता है वह स्वर्ग ही में है, मानो पद्मावती को उत्पन्न किया है । इसके सिवा इन लोगों की झूठी प्रशंसा से जो अपरांगनाएँ अभिमान के ऊॅंचे पर्वत पर चढ़कर सारे संसार के अपने सुन्दरता की तुलना में ना-कुछ चीज समझ बैठी हैं, उनके इस गर्व को चूर-चूर करना है । इन्हीं सब अभिमान, र्इर्ष्या, मत्सर आदि के वश हो ब्रह्मा पद्मावती को त्रिभुवन-सुन्दर बनाने में विशेष यत्नशील हैं । इसमें तो कोर्इ सन्देह नहीं कि पद्मावती कुछ दिनों बाद तो ब्रह्मा की सब तरह आश पूरी करेगी ही । पर इस समय भी इसका रूप-सौंदर्य इतना मनोमधुर है कि उसे देखते ही रहने की इच्छा होती है । प्रयत्न करने पर भी आँखें उस ओरसे हटना पसन्द नहीं करती । अस्तु । पद्मावती की इस अनिन्द्य सुन्दरता का समाचार किसी ने चम्पा के राजा दन्तिवाहन को कह दिया । दन्तिवाहन इसकी सुन्दरता की तारीफ सुनकर कुसुमपुर आये । पद्मावतीको-एक माली की लड़की को इतनी सुन्दरी, इतनी तेजस्विनी देखकर उसके विषय में उन्हें कुछ सन्देह हुआ । उन्होंने तब उस माली को बुलाकर पूछा -- सच कह यह लड़की तेरी ही है क्या ? और यदि तेरी नहीं तो इसे कहाँ से ओर कैसे लाया ? माली डर गया । उससे राजा के सवालों का कुछ उत्तर देते न बना । सिर्फ उसने इतना ही किया कि जिस सन्दूक में पद्मावती निकली थी, उसे राजा के सामने ला रख दिया और कह दिया कि महाराज, मुझे अधिक तो कुछ मालूम नहीं, पर यह लड़की इस सन्दूक में से निकली थी । मेरे कोई लड़का-बाला न होने से इसे मैंनें अपने यहाँ रख लिया । राजा ने सन्दूक खोलकर देखा तो उसमें एक अॅंगूठी निकली । उस पर कुछ इबारत खुदी हुर्इ थी । उसे पढ़कर राजा कोपद्मावती के सम्बन्ध में कोर्इ सन्देह करने की जगह न रह गर्इ । जैसे वे राजपुत्र हैं वैसे ही पद्मावती भी एक राजघराने की राजकन्या है । दन्तिवाहन तब उसके साथ ब्याह कर उसे चम्पा में ले आये ओर सुख से अपना समय बिताने लगे । दन्तिवाहन के पिता वसुपाल ने कुछ वर्षों तक और राज्य किया । एक दिन उन्हें अपने सिर पर यमदूत सफेद केश देख पड़ा । उसे देखकर इन्हें संसार, शरीर, विषय-भोगादि से बड़ा वैराग्य हुआ । वे अपने राज्य का सब भार दन्तिवाहन को सौंप कर जिनमन्दिर गये । वहाँ अपने उन्होंने भगवान् का अभिषेक किया, पूजन की, दान किया, गरीबों को सहायता दी । उस समय उन्हें जो उचित कार्य जान पड़ा उसे उन्होंने खुले हाथों किया । बाद वे वहीं एक मुनिराज द्वारा दीक्षा ले योगी हो गये । उन्होंने योगदशा में खूब तपस्या की । अन्तमें समाधि से शरीर छोड़कर वे स्वर्ग गये । दन्तिवाहन अब राजा हुए । प्रजा का शासन ये भी अपने पिता की भाँति प्रेम के साथ करते थे । धर्म पर इनकी भी पूरी श्रद्धा थी पद्मावती सी त्रिलोक-सुन्दरी को पा ये अपने को कृतार्थ मानते थे । दोनों दम्पत्ति सदा बड़े हँसमुख और प्रसन्न रहते थे । सुख की इन्हें चाह नहीं थी, पर सुख ही इनका गुलाम बन रहा था । एक दिन सती पद्मावती ने स्वप्न में सिंह हाथी और सूरज को देखा । सबेरे उठकर उसने अपने प्राणनाथ से इस स्वप्न का हाल कहा । दन्तिवाहन ने उसके फल के सम्बन्धमें कहा -- प्रिये, स्वप्न तुमने बड़ा ही सुन्दर देखा है । तुम्हें एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी । सिंह का देखना जनाता है, कि वह बड़ा ही प्रतापी होगा । हाथी के देखने से सूचित होता है कि वह सबसे प्रधान क्षत्रिय वीर होगा और सूरज यह कहता है कि वह प्रजारूपी कमल-वन का प्रफुल्लित करने वाला होगा, उसके शासन से प्रजा बड़ी सन्तुष्ट रहेगी । अपने स्वामी द्वारा स्वप्न का फल सुनकर पद्मावती को अत्यन्त प्रसन्नता हुर्इ । और सच है, पुत्र प्राप्ति से किसे प्रसन्नता नहीं होती । पाठकों को तेरपुर के रहनेवाले धनदत्त ग्वालका स्मरण होगा, जिसने कि एक हजार पॅंखुरियों का कमल भगवान् को चढ़ाकर बड़ा पुण्यबन्ध किया था । उसी की कथा फिर लिखी जाती है । धनदत्त को तैरने का बड़ा शौक था । वह रोज-रोज जाकर एक तालाब में तैरा करता था । एक दिन वह तैरने को गया हुआ था । कुछ होनहार ही ऐसा था जो वह तैरता-तैरता एक बार घनी कार्इ में बिंध गया । बहुत यत्न किया पर उससे निकलते न बना । आखिर बेचारा मर ही गया । मरकर वह जिनपूजा के पूण्य से इसी सती पद्मावती के गर्भ में आया । उधर वसुमित्र सेठ को जब इसके मरने का हाल ज्ञात हुआ तो उसे बड़ा दु:ख हुआ । सेठ उसी समय तालाब पर आया ओर धनदत्त की लाश को निकलवा कर उसका अग्नि-संस्कार किया । संसार की यह क्षण भंगुर दशा देखकर वसुमित्र को बड़ा वैराग्य हुआ । वह सुगुप्ति मुनिराज द्वारा योगव्रत लेकर मुनि हो गया । अन्तमें वह तपस्या कर पुण्य के उदयसे स्वर्ग गया । पद्मावती के गर्भ में धनदत्त के आने पर उसे दोहला उत्पन्न हुआ । उसकी इच्छा हुर्इ कि मेंघ बरसने लगें और बिजलियाँ चमकने लगें । ऐसे समय पुरूष-वेष में हाथ में अंकुश लिये मैं स्वयं हाथी पर सवार होऊॅं और मेरे साथ स्वामी भी बैठें । फिर हम दोनों घूमने के लिये शहर बाहर निकलें । पद्मावती ने अपनी यह इच्छा दन्तिवाहन से जाहिर की । दन्तिवाहन ने उसकी इच्छा के अनुसार अपने मित्र वायुवेग विद्याधर द्वारा माया-मयी कृत्रिम मेघ की काली-काली घटाओं द्वारा आकाश आच्छादित करवाया । कृत्रिम बिजलियाँ भी उन मेंघों में चमकने लगीं । राजा-रानी इस समय उस नर्मदातिलक नाम के हाथी पर, जो सोमशर्मा का जीव था और जिसे किसी ने वसुपाल को भेंट किया था, चढ़कर बड़े ठाटबाट से नौकर-चाकरों को साथ लिये शहर बाहर हुए । पद्मावती का यह दोहला सचमुच ही बड़ा ही आश्चर्यजनक था । जो हो, जब ये शहर बाहर होकर थोड़ी ही दूर गये होंगे कि कर्मयोग से हाथी उन्मत्त हो गया । अंकुश वगैरह की वह कुछ परवाह न कर आगे चलनेवाले लोगों की भीड़ को चीरता हुआ भाग निकला । रास्ते में एक घने वृक्षों की वन में होकर वह भागा जा रहा था । सो दन्तिवाहन को उस समय कुछ ऐसी बुद्धि सूझ गर्इ, कि जिससे वे एक वृक्ष की डाली को पकड़ कर लटक गये । हाथी आगे भागा ही चला गया । सच है, पुण्य कष्ट समयमें जीवों को बचा लेता है । बेचारे दन्तिवाहन उदास मुँह और रोते-रोते अपनी राजधानी में आये । उन्हें इस बात का अत्यन्त दु:ख हुआ कि गर्भिणी प्रिया की न जाने क्या दशा हुर्इ होगी । दन्तिवाहन की यह दशा देखकर समझदार लोगों ने समझा-बुझाकर उन्हें शान्त किया । इसमें कोर्इ सन्देह नहीं कि सत्पुरूषों के वचन चन्दन से कहीं बढ़कर शीतल होते हैं और उनके द्वारा दुखियों के हृदय का दु:ख सन्ताप बहुत जल्दी ठण्डा पड़ जाता है । उधर हाथी पद्मावती को लिये भागा ही चला गया । अनेक जंगलों और गाँवों को लाँघकर वह एक तालाब पर पहुँचा । वह बहुत थक गया था । इसलिये थकावट मिटाने को वह सीधा उस तालाब में घुस गया । पद्मावती सहित तालाब में उसे घुसता देख जलदेवी ने झट से पद्मावती को हाथी पर से उतार कर तालाब के किनारे पर रख दिया । आफत की मारी बेचारी पद्मावती किनारे पर बैठी-बैठी रोने लगी । वह क्या करे, कहाँ जाय, इस विषय में उसका चित्त बिलकुल धीर न धरता था । सिवा रोने के उसे कुछ न सूझता था । इसी समय एक माली इस ओर होकर अपने घर जा रहा था । उसने इसे रोते हुए देखा । इसके वेष-भूषा और चेहरे के रंग-ढंग से इसे किसी उच्च घराने की समझ उसे इस पर बड़ी दया आर्इ । उसने इसके पास आकर कहा -- बहिन, जान पड़ता है तुम पर कोर्इ भारी दु:ख आकर पड़ा है । यदि तुम कोर्इ हर्ज न समझो तो मेरे घर चलो । तुम्हें वहाँ कोर्इ कष्ट न होगा । मेरा घर यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हस्तिनापुर में है और मैं जाति का माली हूँ । पद्मावती उसे दयावान् देख उसके साथ हो ली । इसके सिवा उसके लिये दूसरी गति भी न थी । उस माली ने पद्मावती को अपने घर ले जाकर बड़े आदर-सत्कार के साथ रक्खा । वह उसे अपनी बहिन के बराबर समझता था । इसका स्वभाव बहुत अच्छा था । ठीक है, कोर्इ-कोर्इ साधारण पुरूष भी बड़े सज्जन होते हैं । इसे सरल और सज्जन होने पर भी इसकी स्त्री बड़ी कर्कशा थी । उसे दूसरे आदमीका अपने घर रहना अच्छा ही न लगता था । कोर्इ अपने घर में पाहुना आया कि उस पर सदा मुँह चढ़ाये रहना, उससे बोलना-चालना नहीं, आदि उसके बुरे स्वभाव की खास बातें थीं । पद्मावती के साथ भी इसका यही बर्ताव रहा । एक दिन भाग्य से वह माली किसी काम के लिये दूसरे गाँव चला गया । पीछे से इसकी स्त्री की बन बड़ी । उसने पद्मावती को गाली-गलोच देकर और बुरा भला कह घर से बाहर निकाल दिया । बेचारी पद्मावती अपने कर्मों को कोसती यहाँ से चल दी । वह एक घोर मसान में पहुँची । प्रसूति के दिन आ लगे थे । इस पर चिन्ता और दु:ख के मारे इसे चैन नहीं था । इसने यहीं पर एक पुण्यवान् पुत्र जना । उसके हाथ, पाँव, ललाट वगैरह में ऐसे सब चिह्न थे, जो हो, इस समय तो उसकी दशा एक भिखारी से भी बढ़कर थी । पर भाग्य कहीं छुपा नहीं रहता । पुण्यवान् महात्मा पुरूष कहीं हो, कैसी अवस्था में हो, पुण्य वहीं पहुँचकर उसकी सेवा करता है । पर होना चाहिये पास में पुण्य । पुण्य बिना संसार में जन्म लेना निस्सार है । जिस समय पद्मावती ने पुत्र जना उसी समय पुत्र के पुण्य का भेजा हुआ एक मनुष्य चाण्डाल के वेष में मसान में पद्मावती के पास आया ओर उसे विनय से सिर झुकाकर बोला -- माँ, अब चिन्ता न करो । तुम्हारे लड़के का दास आ गया है । वह इसकी सब तरह जी-जान से रक्षा करेगा । किसी तरह का कोर्इ कष्ट इसे न होने देगा । जहाँ इस बच्चे का पसीना गिरेगा वहाँ यह अपना खून गिरावेगा । आप मेरी मालकिन हैं । सब भार मुझ पर छोड़ आप निश्चिन्त होइये । पद्मावती ने ऐसे कष्ट के समय पुत्र की रक्षा करनेवाले को पाकर अपने भाग्य को सराहा, पर फिर भी अपना सब सन्देह दूर हो, इसलिये उससे कहा -- भार्इ, तुमने ऐसे निराधार समय में आकर मेरा जो उपकार करना विचारा है, तुम्हारे इस ऋण से मैं कभी मुक्त नहीं हो सकती । मुझे तुमसे दयावानों का अत्यन्त उपकार मानना चाहिये । अस्तु, इस समय सिवा इसके मैं और क्या अधिक कह सकती हूँ कि जैसा तुमने मेरा भला किया, वैसा भगवान् तुम्हारा भी भला करे । भार्इ, मेरी इच्छा तुम्हारा विशेष परिचय पाने की है । इसलिये कि तुम्हारा पहरावा और तुम्हारे चेहरे पर की तेजस्विता देखकर मुझे बड़ा ही सन्देह हो रहा है । अतएव यदि तुम मुझसे अपना परिचय देने में कोर्इ हानि न समझो तो कृपा कर कहो । वह आगत पुरूष पद्मावतीसे बोला -- माँ, मुझ अभागे की कथा तुम सुनोगी । अच्छा तो सुनो, मैं सुनाता हूँ । विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में विद्युत्प्रभ नाम का एक शहर है । उसके राजा का नाम भी विद्युत्प्रभ है । विद्युत्प्रभ की रानी का नाम विद्युल्लेखा है । ये दोनों राजा-रानी ही मुझ अभागे के माता-पिता हैं । मेरा नाम बालदेव है । एक दिन मैं अपनी प्रिया कनकमाला के साथ विमान में बैठा हुआ दक्षिण की ओर जा रहा था । रास्ते में मुझे रामगिरी पर्वत पड़ा । उस पर मेरा विमान अटक गया । मेंने नीचे नजर डालकर देखा तो मुझे एक मुनि देख पड़े । उन पर मुझे बड़ा गुस्सा आया । मैंने तब कुछ आगा-पीछा न सोचकर उन मुनि को बहुत कष्ट दिया, उन पर घोर उपसर्ग किया । उनके तप के प्रभाव से जिन-भक्त पद्मावती देवी का आसन हिला ओर वह उसी समय वहाँ आर्इ । उसने मुनि का उपसर्ग दूर किया । सच है, साधुओं पर किये उपद्रव को सम्यग्दृष्टि कभी नहीं सह सकते । माँ, उस समय देवी ने गुस्सा होकर मेरी सब विद्याएँ नष्ट कर दी । मेरा सब अभिमान चूर हुआ । मै एक मद रहित हाथी की तरह नि:सत्व-तेज रहित हो गया । मैं अपनी इस दशा पर बहुत पछताया मैं रोकर देवीसे बोला -- प्यारी माँ, मैं आपका अज्ञानी बालक हूँ । मैंने जो कुछ यह बुरा काम किया वह सब मूर्खता और अज्ञान से न समझ कर ही किया है । आप मुझे इसके लिए क्षमा करें ओर मेरी विद्याएँ पीछे मुझे लौटा दें । इसमें कोर्इ सन्देह नहीं कि मेरी यह दीनता भरी पुकार व्यर्थ न गर्इ देवी ने शान्त होकर मुझे क्षमा किया और वह बोली -- मैं तुझे तेरी विद्याएँ लौटा देती, पर मुझे तुझसे एक महान काम करवाना है । इसलिए मैं कहती हूँ वह कर । समय पाकर सब विद्याएँ तुझे अपने आप सिद्ध हो जायेंगी । मैं हाथ जोड़े हुए उसके मुँह की ओर देखने लगा । वह बोली -- हस्तिनापुर के मसान में एक विपत्ति की मारी स्त्री के गर्भ से एक पुण्यवान् और तेजस्वी पुत्र-रत्न जन्म लेगा । उस समय पहुँचकर तू उसकी सावधानी से रक्षा करना और अपने घर लाकर पालना-पोसना । उसके राज्य समय तुझे सब विद्याएँ सिद्ध होंगी । माँ उसकी आज्ञा से मैं तभी से यहाँ इस वेष में रहता हूँ । इसलिए कि मुझे कोर्इ पहिचान न सके । माँ, यही मुझ अभागे की कथा है । आज मैं आपकी दया से कृतार्थ हुआ । पद्मावती विद्याधर का हाल सुनकर दु:खी जरूर हुर्इ, पर उसे अपने पुत्र का रक्षक मिल गया, इससे कुछ सन्तोष भी हुआ । उसने तब अपने प्रिय बच्चे को विद्याधर के हाथ में रखकर कहा -- भार्इ, इसकी सावधानीसे रक्षा करना । अब इसके तुम ही सब प्रकार कर्त्ता-धर्त्ता हो । मुझे विश्वास है कि तुम इसे अपना ही प्यारा बच्चा समझोगे । उसने फिर पुत्र के प्रकाशमान चेहरे पर प्रेमभरी दृष्टि डालकर पुत्र वियोग से भर आये हृदय से कहा -- मेरे लाल, तुम पुण्यवान् होकर भी उस अभागिनी माँ के पुत्र हुए हो, जो जन्मते ही तुम्हें छोड़कर बिछुड़ना चाहती है । लाल, मैं तो अभागिनी थी ही, पर तुम भी ऐसे अभागे हुए जो अपनी माँ के प्रेममय हृदय का कुछ भी पता न पा सके और न पाओगे ही । मुझे इस बात का बड़ा खेद रहेगा कि जिस पुत्र ने अपनी प्रेम-प्रतिमा माँ के पवित्र हृदय द्वारा प्रेम का पाठ न सीखा, वह दूसरों के साथ क्या प्रेम करेगा ? कैसे दूसरों के साथ प्रेम का बरताव कर उनका प्रेमपात्र बनेगा । जो हो, तब भी मुझे इस बात की खुशी है कि तुम दूसरी माँ के पास जाते हो, और वह भी आखिर है तो माँ ही । जाओ लाल जाओ, सुख से रहना, परमात्मा तुम्हारा मंगल करे । इस प्रकार प्रेममय पवित्र आशीष देकर पद्मावती कड़ा हृदय कर चल दी । बालदेव ने उस सुन्दर और तेजपुंज बच्चे को अपने घर ले आकर अपनी प्रिया कनकमाला की गोद में रख दिया ओर कहा -- प्रिय भाग्य से मिले इस निधि को लो । कनकमाला उस बाल-चन्द्रमा से अपनी गोद को भरी देखकर फूली न समार्इ । वह उसे जितना ही देखने लगी उसका प्रेम क्षणक्षण में अनन्त गुणा बढ़ता ही गया । कनकमाला जितना प्रेम होना संभव न था, उतना इस नये बालक से उसका प्रेम हो गया, सचमुच यह आश्चर्य है । अथवा नर्इ वस्तु स्वभाव ही से प्रिय होती है । और फिर यदि वह अपनी हो जाय तब तो उस पर होनेवाले प्रेम के सम्बन्ध में कहना ही क्या । और वह प्रेम, कि जिसकी प्राप्ति के लिए आत्मा सदा तड़फा ही करती है और वह पुत्र जैसी परम प्रिय वस्तु ! तब पढ़नेवाले कनकमाला के प्रेममय हृदय का एक बार अवगाहन करके देखें कि एक नर्इ माँ जिस बच्चे पर इतना प्रेम करती है तब जिसने उसे जन्म दिया उसके प्रेम का क्या कुछ अन्त है -- सीमा है ! नहीं । माँ का अपने बच्चे पर जो प्रेम होता हे उसकी तुलना किसी दृष्टान्त या उदाहरण द्वारा नहीं की जा सकती और जो करते हैं वे माँ के अनन्त प्रेम को कम करने का यत्न करते हैं । कनकमाला उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुर्इ । उसने उसका नाम करकण्डु रक्खा । इसलिए कि उस बच्चे के हाथ में उसे खुजली देख पड़ी थी । कनकमाला ने उसका लालन-पालन करने में अपने खास बच्चे से कोर्इ कमी न की । सच है, पुण्य के उदय से कष्ट समय में भी जीवों सुख सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है । इसलिए भव्यजनों को जिन पूजा, पात्र-दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि पुण्य-कर्मों द्वारा सदा शुभ-कर्म करते रहना चाहिए । पद्मावती तब करकण्डु से जुदा होकर गान्धारी नाम की क्षुल्लकिनी के पास आर्इ । उसे उसने भक्ति से प्रणाम किया और आज्ञा पा उसी के पास वह बैठ गर्इ । थोड़ी देर बाद पद्मावती ने उस क्षुल्लकिनी से अपना सब हाल कहा और जिन-दीक्षा लेने की इच्छा प्रगट की । क्षुल्लकिनी उसे तब समाधिगुप्त मुनि के पास लिवा गर्इ । पद्मावती ने मुनिराज को नमस्कार कर उनसे भी अपनी इच्छा कह सुनार्इ । उत्तर में मुनि ने कहा -- बहिन, तू साध्वी होना चाहती है, तेरा यह विचार बहुत अच्छा है पर यह समय तेरी दीक्षा के लिए उपयुक्त नहीं है । कारण तूने पहले जन्म में नागदत्ता की पर्याय में जिनव्रत को तीन बार ग्रहण कर तीनों बार ही छोड़ दिया था और फिर चौथी बार ग्रहण कर तू उसके फल से राजकुमारी हुर्इ । तूने तीन बार व्रत छोड़ा उससे तुझे तीनों बार ही दु:ख उठाना पड़ा । तीसरी बार का कर्म कुछ और बचा है । वह जब शान्त हो जाय और इस बीच में तेरे पुत्र को भी राज्य मिल जाय तब कुछ दिनो तक राज्य-सुख भोगकर फिर पुत्र के साथ-साथ ही तू भी साध्वी होना । मुनि द्वारा अपना भविष्य सुनकर पद्मावती उन्हें नमस्कार कर उस क्षुल्लकिनी के साथ-साथ चली गर्इ । अब से वह पद्मावती उसी के पास रहने लगी । इधर करकण्डू बालदेव के यहाँ दिनों-दिन बढ़ने लगा । जब उसकी पढ़ने की उमर हुर्इ तब बालदेव ने अच्छे-अच्छे विद्वान् अध्यापकों को रखकर उसे पढ़ाया । करकण्डु पुण्य के उदय से थोड़े ही वर्षों में पढ़-लिखकर अच्छा होशियार हो गया । कर्इ विषय में उसकी अरोकगति हो गर्इ । एक दिन बालदेव और करकण्डु हवा-खोरी करते-करते शहर बाहर मसान में आ निकले । ये दोनों एक अच्छी जगह बैठकर मसानभूमि की लीला देखने लगे । इतने में जयभद्र मुनिराज अपने संघ को लिये इसी मसान में आकर ठहरे । यहाँ एक नर-कपाल पड़ा हुआ था । उसके मुँह और आँखों के तीन छेदों में तीन बाँस उग रहे थे । उसे देखकर एक मुनि ने विनोद से अपने गुरू से पूछा -- भगवन, यह क्या कौतुक है, जो इस नर-कपाल में तीन बाँस उगे हुए हैं ? तपस्वी मुनि ने उसके उत्तर में कहा – इस हस्तिनापुर का जो नया राजा होगा, इन बाँसों के उसके लिए अंकुश, छत्र, इण्ड वगैरह बनेंगे । जयभद्रचार्य द्वारा कहे गये इस भविष्य को किसी एक ब्राह्मण ने सुन लिया । अत: वह धन की आशा से इन बाँसों को उखाड़ लाया । उसके हाथ से इन्हें करकण्डु ने खरीद लिया । सच है, मुनि लोग जिसके सम्बन्ध में जो बात कह देते हैं वह फिर होकर ही रहती है । उस समय हस्तिनापुर का राजा बलवाहन था । इसके कोर्इ संतान न थी । इसकी मृत्यु हो गर्इ । अब राजा किसको बनाया जाय, इस विषय की चर्चा चली । आखिर यह निश्चय पाया कि महाराज का खास हाथी जलभरा सुवर्ण-कलश देकर छोड़ा जाय । वह जिसका अभिषेक कर राज-सिंहासन पर ला बैठा दे वही इस राज्य का मालिक हो । ऐसा ही किया गया । हाथी राजा को ढूँढ़ने को निकला । चलता-चलता वह करकण्डु के पास पहुँचा । वही इसे अधिक पुण्यवान् देख पड़ा । उसी समय उसने करकण्डु का अभिषेक कर उसे अपने ऊपर चढ़ा लिया और राज्य-सिंहासन पर ला रख दिया । सारी प्रजा ने उस तेजस्वी करकण्डु को अपना मालिक हुआ देख खूब जय-जयकार मनाया और खूब आनन्द उत्सव किया । करकण्डु के भाग्य का सितारा चमका । वह राजा हुआ । सच है, जिन भगवान् की पूजा के फल से क्या-क्या प्राप्त नहीं होता । करकण्डु को राजा होते ही बालदेव को उसकी नष्ट हुर्इ विद्याएँ फिर सिद्ध हो गर्इं । उसे उसकी सेवा का मनचाहा फल मिल गया । इसके बाद ही बालदेव विद्या की सहायता से करकण्डु की खास माँ पद्मावती जहाँ थी, वहाँ गया और उसे करकण्डु के पास लाकर उसने दोनों को बड़ी नम्रता से प्रणाम कर अपनी राजधानी में चला गया । करकण्डु के राजा होने पर कुछ राजे लोग उससे विरूद्ध होकर लड़ने को तैयार हुए । पर करकण्डु ने अपनी बुद्धिमानी और राजनीति की चतुरता से सबको अपना मित्र बनाकर देश-भर में शत्रु का नाम भी न रहने दिया । वह फिर सुख से राज्य करने लगा । करकण्डु को इस बात का पता था कि दन्तिवाहन मेरे पिता होते हैं । यही कारण था कि दन्तिवाहन को इस नये राजा का प्रताप सहन नहीं हुआ । उन्होंने अपने एक दूत को करकण्डु के पास भेजा । दूत ने आकर करकण्डु से प्रार्थना की -- ‘राजाधिराज दन्तिवाहन मेरे द्वारा आपको आज्ञा करते हैं कि यदि राज्य आप सुख से करना चाहते हैं तो उनकी आप आधीनता स्वीकार करें । ऐसे किये बिना किसी देश के किसी हिस्से पर आपकी सत्ता नहीं रह सकती ।‘ करकण्डु एक तेजस्वी राजा और उसपर एक दूसरे की सत्ता, सचमुच करकण्डु के लिए यह आश्चर्य की बात थी । उसे दन्तिवाहन की इस दुष्टता पर बड़ा क्रोध आया । उसने तेज आँखें कर दूत की ओर देखा और उससे कहा – यदि तुम्हें अपनी जान प्यारी है तो तुम यहाँ से जल्दी भाग जाओ । तुम दूसरे के नौकर हो, इसलिए मैं तुमपर दया करता हूँ । नहीं तो तुम्हारी इस दुष्टता का फल तुम्हें मैं अभी ही बता देता । जाओ, और अपने मालिक से कह दो कि वह रणभूमि में आकर तैयार रहे । मुझे जो कुछ करना होगा मैं वही करूँगा । दूत ने जैसे ही करकण्डु की आँखें चढ़ी देखीं वह उसी समय डरकर राज्य-दरबार रवाना हो गया । कुछ दिनों बाद दन्तिवाहन ने अपने पुत्र का विवाह समारंभ किया । उसमें उन्होंने खूब खर्च कर बड़े वैभव के साथ करकण्डु का कोर्इ आठ हजार राजकुमारियों के साथ विवाह किया । ब्याह के बाद ही दन्तिवाहन राज्य का भार सब करकण्डु के जिम्मे कर आप अपनी प्रिया पद्मावती के साथ सुख से रहने लगे । सुख-चैन से समय बिताना उन्होंने अब अपना प्रधान कार्य रक्खा । इधर करकण्डु राज्य शासन करने लगा । प्रजा को उसके शासन की जैसी आशा थी, करकण्डु ने उससे कहीं बढ़कर धर्मज्ञता, नीति और प्रजा-प्रेम बतलाया । प्रजा को सुखी बनाने में उसने कोर्इ बात उठा न रक्खी । इसप्रकार वह अपने पुण्य का फल भोगने लगा । एक दिन समय देख मंत्रियों ने करकण्डु से निवेदन किया -- महाराज, चेरम, पाण्डय और चोल आदि राजे चिर समय से अपने आधीन हैं । पर जान पड़ता है उन्हें इस समय कुछ अभिमान ने आ घेरा है । वे मान पर्वत का आश्रय पा अब स्वतंत्र से हो रहे हैं । राज-कर वगैरह भी अब वे नहीं देते । इसलिए उनपर चढ़ार्इ करना बहुत आवश्यक है । इस समय ढील कर देने से सम्भव है थोड़े ही दिनों में शत्रुओं का जोर अधिक बढ़ जाये । इसलिए इसके लिए प्रयत्न कीजिए कि वे ज्यादा सिर न चढ़ पावें, उसके पहले ही ठीक ठिकाने आ जाँय । मंत्रियों की सलाह सुन और उसे विचारकर पहले करकण्डु ने उन लोगों के पास अपना दूत भेजा । दूत अपमान के साथ लौट आया । करकण्डु ने जब सीधी तरह सफलता प्राप्त न होती देखी तब उसे युद्ध के लिए तैयार होना पड़ा । वह सेना को लिए युद्ध-भूमि में जा डटा । शत्रु लोग भी चुपचाप न बैठकर उसके सामने हुए । दोनों ओर की सेना की मुठभेड़ हो गयी । घमासान युद्ध हुआ । दोनों ओर के हजारों वीर काम आये । अंत में करकण्डु की सेना के युद्ध-भुमि से पाँव उखड़े । यह देख करकण्डु स्वयं युद्ध-भूमि में उतरा । बड़ी वीरता से वह शत्रुओं के साथ लड़ा । इस नर्इ उमर में उसकी इस प्रकार वीरता देखकर शत्रुओं को दाँतों तले उॅंगली दबानी पड़ी । विजयश्री ने करकण्डु को ही वरा । जब शत्रु राजे आ-आकर इसके पाँव पड़ने लगे और इसकी नजर उनके मुकुटों पर पड़ी तो देखकर यह एक-साथ हतप्रभ हो गया । और बहुत-बहुत पश्चात्ताप करने लगा कि – हाय ! मुझ पापी ने यह अनर्थ क्यों किया ? न जाने इस पाप से मेरी क्या गति होगी ? बात यह थी कि उन राजों के मुकुटों में जिनभगवान् की प्रतिमाएँ खुदी हुर्इं थी । और वे सब राजे जैनी थे । अपने धर्म-बन्धुओं को जो उसने कष्ट दिया और भगवान् का अविनय किया उसका उसे बेहद दु:ख हुआ । उसने उन लोगों को बड़े आदरभाव से उठाकर पूछा – क्या सचमुच आप जैनधर्मी हैं ? उनकी ओर से संतोष-जनक उत्तर पाकर उसने बड़े कोमल शब्दों में उसने कहा -- महानुभावों, मैंने क्रोध से अन्धे होकर जो आपको यह व्यर्थ कष्ट दिया, आप पर उपद्रव किया, इसका मुझे अत्यन्त दु:ख है । मुझे इस अपराध के लिए आप-लोग क्षमा करें । इसप्रकार उनसे क्षमा कराकर उनको साथ लिए वह अपने देश रवाना हुआ । रास्ते में तेरपुर के पास इनका पड़ाव पड़ा । इसी समय कुछ भीलों ने आकर नम्रमस्तक से इनसे प्रार्थना की -- राजाधिराज, हमारे तेरपुर से दो-कोस दूरी पर एक पर्वत है । उसपर एक छोटा सा धाराशिव नामका गाँव बसा हुआ है । इस गाँव में एक बहुत बड़ा ही सुन्दर और भव्य जिनमन्दिर बना हुआ है । उसमें विशेषता यह है कि उसमें कोर्इ एक हजार खम्भे हैं । वह बड़ा सुन्दर है । उसे आप देखने को चलें । इसके सिवा पर्वत पर एक यह आश्चर्य की बात है कि वहाँ बाँवी है । एक हाथी रोज-रोज अपनी सूँड़ में थोड़ा सा पानी और एक कमल का फूल लिए वहाँ आता है और उस बाँवी की परिक्रमा देकर वह पानी और फूल उसपर चढ़ा देता है । इसके बाद वह उसे अपना मस्तक नवाकर चला जाता है । उसका यह प्रतिदिन का नियम है । महाराज, नहीं जान पड़ता कि इसका क्या कारण है । करकण्डु भीलों द्वारा यह शुभ-समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । इस समाचार को लानेवाले भीलों को उचित इनाम देकर वह स्वयं सबको साथ लिए उस कौतुकमय स्थान को देखने गया । पहले उसने जिनमन्दिर जाकर भक्ति-पूर्वक भगवान् की पूजा की, स्तुति की । सच है, धर्मात्मा पुरूष धर्म के कर्मों में कभी प्रमाद-आलस नहीं करते । बाद वह उस बाँवी की जगह गया । उसने वहाँ भी भीलों के कहे माफिक हाथी को उस बाँवी की पूजा करते पाया । देखकर उसे बड़ा अचम्भा हुआ । उसने सोचा कि इसका कुछ न कुछ कारण होना चाहिए । नहीं तो इस पशु में ऐसा भक्ति-भाव नहीं देखा जाता । यह विचारकर उसने उस बाँवी को खुदवाया । उसमें से एक सन्दुक निकली । उसने उसे खोलकर देखा । सन्दुक में रत्नमयी पार्श्वनाथ भगवान् की पवित्र प्रतिमा थी । उसे देखकर धर्म-प्रेमी करकण्डु को अतिशय प्रसन्नता हुर्इ । उसने तब वहाँ ‘अग्गलदेव’ नाम का एक विशाल जिनमन्दिर बनवाकर उसमें बड़े उत्सव के साथ उस प्रतिमा को विराजमान किया । प्रतिमा पर एक गाँठ देखकर करकण्डु ने शिल्पकार से कहा -- देखो, प्रतिमा पर यह गाँठ कैसी है ? प्रतिमा की सब सुन्दरता इससे मारी गयी । इसे सावधानी के साथ तोड़ दो । यह अच्छी नहीं देख पड़ती । शिल्पकार ने कहा -- महाराज, यह गाँठ ऐसी वैसी नहीं है जो तोड़ दी जाय । ऐसी रत्नमयी दिव्य-प्रतिमा पर गाँठ होने का कुछ न कुछ कारण जान पड़ता है । इसका बनानेवाला इतना कम बुद्धि न होगा कि प्रतिमा की सुन्दरता नष्ट होने का खयाल न कर इस गाँठ को रहने देता । मुझे जहाँ तक जान पड़ता है, इस गाँठ का सम्बन्ध किसी भारी जल-प्रवाह से होना चाहिए । और यह असंभव भी नहीं । संभवत: इसकी रक्षा के लिए यह प्रयत्न किया गया हो । इसलिए मेरी समझ में इसका तुड़वाना उचित नहीं । करकण्डु ने उसका कहा न माना । उसे उसकी बात पर विश्वास न हुआ । उसने तब शिल्पकार से बहुत आग्रह कर आखिर उसे तुड़वाया ही । जैसे ही वहाँ गाँठ टूटी उसमें से एक बड़ा भारी जल-प्रवाह बह निकला । मन्दिर में पानी इतना भर गया कि करकण्डु वगैरह को अपने जीवन के बचने का भी संदेह हो गया तब वह जिन-भक्त उस प्रवाह के लिए संन्यास ले कुशासन पर बैठकर परमात्मा का स्मरण चिंतन करने लगा । उसके पुण्य-प्रभाव से नागकुमार ने प्रत्यक्ष आकर उससे कहा -- राजन्, काल अच्छा नहीं, इसलिए प्रतिमा की सुरक्षा के लिए मुझे यह जल-पूर्ण लवण बनाना पड़ा । इसलिए आप इस जल-प्रवाह के रोकने का आग्रह न करें । इसप्रकार करकण्डु को नागकुमार ने समझाकर आसन पर से उठ जाने को कहा । करकण्डु नागकुमार के कहने से संन्यास छोड़ उठ गया । उठकर उसने नागकुमार से पूछा -- क्योंजी, ऐसा सुन्दर यह लवण यहाँ किसने बनाया और किसने इस बाँवी में इस प्रतिमा को विराजमान किया ? नागकुमार ने कहा -- सुनिए, विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में खूब सम्पत्तिशालीन भस्तिलक नाम का एक नगर था । उसमें अमितवेग और सुवेग नामके दो विद्याधर राजे हो चुके हैं । दोनों धर्मज्ञ और सच्चे जिन-भक्त थे । एक दिन वे दोनों भार्इ आर्य-खण्ड के जिन-मन्दिरों के दर्शन करने के लिए आये । कर्इ मन्दिरों में दर्शन-पूजन कर वे मलयाचल पर्वत पर आये । यहाँ घूमते हुए उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान् की इस रत्नमयी प्रतिमा को देखा । इसके दर्शनकर उन्होंने इसे एक सन्दूक में बन्द कर दिया और सन्दूक को एक गुप्त स्थान पर रखकर वे उस समय चले गये । कुछ समय बाद वे पीछे आकर उस सन्दूक को कहीं अन्यत्र ले जाने के लिए उठाने लगे पर सन्दूक अबकी बार उनसे न उठी । तब तेरपुर जाकर उन्होंने अवधिज्ञानी मुनिराज से सब हाल कहकर सन्दूक के न उठने का कारण पूछा । मुनि ने कहा -- ‘सुनिए, यह सुखकारिणी सन्दूक तो पहले लवण के ऊपर दूसरा लवण होगा । मतलब यह कि यह सुवेग आर्त-ध्यान से मरकर हाथी होगा । वह इस सन्दूक की पूजा किया करेगा । कुछ समय बाद करकण्डु राजा यहाँ आकर इस सन्दूक को निकालेगा और सुवेग का जीव हाथी तब सन्यास ग्रहण कर स्वर्ग गमन करेगा । इस प्रकार मुनि द्वारा इस प्रतिमा की चिरकाल तक अवस्थिति जानकर उन्होंने मुनि से फिर पूछा – तो प्रभु, इस लवण को किसने बनाया ? मुनिराज बोले – इसी विजयार्ध के दक्षिण श्रेणी में बसे हुए रथनूपुर में नील और महानील नाम के दो राजे हो गये हैं । शत्रुओं के साथ युद्ध में विद्या, धन, राज्य वगैरह सबकुछ नष्ट हो गया । तब वे इस मलयपर्वत पर आकर बसे । यहाँ वे कर्इ वर्षों तक आराम से रहे । दोनों भार्इ बड़े धर्मात्मा थे । उन्होंने यह लवण बनवाया । पुण्य से उन्हें उनकी विद्याएँ फिर प्राप्त हो गर्इं । तब वे पीछे अपनी जन्मभूमि रथनूपुर चले गये । इसके बाद कुछ दिनों तक वे दोनों और ग्रह-संसार में रहे । फिर दीक्षा लेकर दोनों भार्इ साधू हो गये । अन्त में तपस्या के प्रभाव से वे स्वर्ग गये ।‘ इस प्रकार सब हाल सुनकर बड़ा भार्इ अमितवेग तो उसी समय दीक्षा लेकर मुनि हो गये और अन्त में समाधि से मरकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । और सुवेग, अमितवेग का छोटा भार्इ, आर्त्तध्यान से मरकर यह हाथी हुआ । सो ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के देखने पूर्व जन्मकेभातृ-प्रेम के वश ही, आकर इसे धर्मोपदेश किया, समझाया । उससे इस हाथी को जाति-स्मरण ज्ञान हो गया । इसने तब अणुव्रत ग्रहण किये । तब ही से यह इसप्रकार शान्त रहता है और सदा इस बाँवी की पूजन किया करता है । तुमने बाँवी तोड़कर जबसे उसमें से प्रतिमा निकाल ली तब ही से हाथी संन्यास लिये यहीं रहता है । और राजन्, आप पूर्व-जन्म में इसी तेरपुर में ग्वाल थे । आपने तब एक कमल के फूल द्वारा जिन-भगवान् की पूजा की थी । उसी के फल से इस समय आप राजा हुए हैं । राजन्, यह जिन-पूजा सब पुण्य-कर्मों में उत्तम पुण्य-कर्म है यही तो कारण है कि क्षणमात्र में इसके द्वारा उत्तम से उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार करकण्डु को आदि से इति पर्यंत सब हाल कहकर और धर्म-प्रेम से उसे नमस्कार कर नागकुमार अपने स्थान चला गया । सच है, यह पुण्य ही का प्रभाव है जो देव भी मित्र हो जाते हैं । हाथी को सन्यास लिये आज तीसरा दिन था । करकण्डु ने उसके पास जाकर उसे धर्म का पवित्र उपदेश किया । हाथी अन्त में सम्यक्त्व सहित मरकर सहस्त्रार स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । एक पशु धर्म का उपदेश सुनकर स्वर्ग में अनन्त सुखों का भोगनेवाला देव हुआ, तब जो मनुष्य जन्म पाकर पवित्र भावों से धर्म-पालन करें तो उन्हें क्या प्राप्त नहीं ? बात यह है कि धर्म से बढ़कर सुख देनेवाली संसार में कोर्इ वस्तु है ही नहीं । इसलिए धर्म-प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए । करकण्डु ने इसके बाद इसी पर्वत पर अपने, अपनी माँ के तथा बालदेव के नाम से विशाल और सुन्दर तीन जिन-मन्दिर बनवाये, बड़े वैभव के साथ उनकी प्रतिष्ठा करवार्इ । जब करकण्डु ने देखा कि मेरा सांसारिक कर्त्तव्य सब पूरा हो चुका तब राज्य का सब भार अपने पुत्र वसुपाल को सौंपकर और संसार, शरीर, विषय भोगादि से विरक्त होकर आप अपने माता-पिता तथा और भी कर्इ राजों के साथ जिन-दीक्षा ले योगी हो गया । योगी होकर करकण्डु मुनि ने खूब तप किया, जो कि निर्दोष और संसार-समुद्र से पार करनेवाला है । अन्त में परमात्म-स्मरण में लीन हो उसने भौतिक शरीर छोड़ा । तप के प्रभाव से उसे सहस्त्रार स्वर्ग में दिव्य-देह मिली । पद्मावती दन्तिवाहन तथा अन्य राजे भी अपने पुण्य के अनुसार स्वर्ग-लोक गये । करकण्डु ने ग्वाल के जन्म में केवल एक कमल के फूल द्वारा भगवान् की पूजा की थी । उसे उसका जो फल मिला उसे आप सुन चुके हैं । तब जो पवित्र-भाव पूर्वक आठ द्रव्यों से भगवान् की पूजा करेंगे उनके सुख का तो फिर पूछना ही क्या ? थोड़े में यों समझिए कि जो भव्य-जन भक्ति से भगवान् की प्रतिदिन पूजा किया करते हैं वे सर्वोत्तम-सुख मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं, तब और सांसारिक सुखों की तो उनके सामने गिनती ही क्या है ? एक बे-समझ ग्वाल ने जिन-भगवान् के पवित्र चरणों की एक कमल के फूल से पूजा की थी, उसके फल से वह करकण्डु राजा होकर देवों द्वारा पूज्य हुआ । इसलिए सुख की चाह करने वाले अन्य भव्य-जनों को भी उचित है कि वे जिन-पूजा को और अपने ध्यान को आकर्षित करें । उससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा । क्योंकि भावों का पवित्र होना पुण्य का कारण है और भावों के पवित्र करने का जिन-पूजा भी एक प्रधान कारण है । |