
कथा :
संसार द्वारा पूजे जानेवाले जिन-भगवान् की, सर्वश्रेष्ठ गिनी जाने वाली जिनवानी को और राग, द्वेष, मोह, माया आदि दोषों से रहित परम वीतरागी साधुओं को नमस्कार कर जिनपूजा द्वारा फल प्राप्त करनेवाले एक मेंढक की कथा लिखी जाती है । शास्त्रों में उल्लेख किये उदाहरणों द्वारा यह बात खुलासा देखने में आती है कि जिनभगवान की पूजा पापों की नाश करने वाली और स्वर्ग-मोक्ष के सुखों की देनेवाली है । इसलिए जो भव्य-जन पवित्र-भावों द्वारा धर्म-वृद्धि के अर्थ जिन-पूजा करते हैं वे ही सच्चे सम्यग्दृष्टि हैं ओर मोक्ष जाने के अधिकारी हैं । इसके विपरीत पूजा की जो निन्दा करते हैं वे पापी हैं और संसार में निन्दा के पात्र हैं । ऐसे लोग सदा दु:ख, दरिद्रता, रोग, शोक आदि कष्टों को भोगते हैं और अन्त में दुर्गति में जाते हैं । अतएव भव्यजनों को उचित है कि वे जिनभगवान् का अभिषेक, पूजन, स्तुति, ध्यान आदि सत्कर्मों को सदा किया करें । इसके सिवा तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, जिनभगवान् इंद्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरूषों द्वारा सभी उत्तम-उत्तम सुख मिलते हैं । जिनपूजा करना महापुण्य का कारण है, ऐसा जगह-जगह लिखा मिलता है । इसलिए जिनपूजा समान दूसरा पुण्य का कारण संसार में न तो हुआ और न होगा । प्राचीनकाल में भरत जैसे अनेक बड़े-बड़े पुरूषों ने जिनपूजा द्वारा जो फल प्राप्त किया है, किसकी शक्ति है जो उसे लिख सके । गन्ध, पुष्पादि आठ द्रव्यों से पूजा करने वाले जिनपूजा द्वारा जो फल प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्ध में हम क्या लिखें, जबकि केवल एक ना-कुछ चीज फूल से पूजा कर एक मेंढक ने स्वर्ग-सुख प्राप्त किया । समन्तभद्र स्वामी ने भी इस विषय में लिखा है – राजगृह में हर्ष से उन्मत्त हुए एक मेंढक ने सत्पुरूषों को यह स्पष्ट बतला दिया कि केवल एक फूल द्वारा भी जिनभगवान् की पूजा करने से उत्तम फल प्राप्त होता है, जैसा कि मैंने प्राप्त किया । अब मेंढक की कथा सुनिए -- यह भारतवर्ष जम्बूद्वीप के मेरू की दक्षिण दिशा में है । इसमें अनेक तीर्थंकरों का जन्म हुआ । इसलिए यह महान पवित्र है । मगध भारत वर्ष में एक प्रसिद्ध और धनशाली देश है । सारे संसार की लक्ष्मी जैसे यहीं आकर इकट्ठी हो गर्इ हो । यहाँ के निवासी प्राय: धनी हैं, धर्मात्मा हैं, उदार हैं और परोपकारी हैं । जिस समय की यह कथा है उस समय मगध की राजधानी राजगृह एक बहुत सुन्दर शहर था । सब प्रकार की उत्तम से उत्तम भोगोपभोग की वस्तुएँ वहाँ बड़ी सुलभता से प्राप्त थीं । विद्वानों का उसमें निवास था । वहाँ के पुरूष देवों से और स्त्रियाँ देव-बालाओं से कहीं बढ़कर सुन्दर थीं । स्त्री-पुरूष प्राय: सब ही सम्यक्तव रूपी भूषण से अपने को सिंगारे हुए थे । और इसीलिये राजगृह उस समय मध्यलोक का स्वर्ग कहा जाता था । वहाँ जैनधर्म का ही अधिक प्रचार था । उसे प्राप्तकर सब सुख-शान्ति लाभ करते थे । राजगृह के राजा तब श्रेणिक थे । श्रेणिक धर्मज्ञ थे । जैन-धर्म और जैन-तत्त्व पर उनका पूर्ण विश्वास था । भगवान् की भक्ति उन्हें उतनी ही प्रिय थी, जितनी कि भौंरे को कमलिनी । उनका प्रताप शत्रुओं के लिये मानों धधकती आग थी । सत्पुरूषों के लिये वे शीतल चन्द्रमा थे । पिता अपनी सन्तान को जिस प्यार से पालता है, श्रेणिक का प्यार भी प्रजा पर वैसा ही था । श्रेणिक की कर्इ रानियाँ थीं । चेलिनी उन सबमें उन्हें अधिक प्रिय थी । सुन्दरता में, गुणों में, चतुरता में चेलिनी का आसन सबसे ऊॅंचा था । उसे जैन-धर्म से, भगवान् की पूजा-प्रभावना से बहुत ही प्रेम था । कृत्रिम भूषणों द्वारा सिंगार करने का महत्त्व न देकर उसने अपने आत्मा को अनमोल सम्यग्दर्शन रूप भूषण से भूषित किया था । जिनवाणी सब प्रकार के ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण है, अतएव वह सुन्दर है, चेलिनी में भी किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की कमी न थी । इसलिये उसकी रूप सुन्दरता ने और अधिक सौन्दर्य प्राप्त कर लिया था । ‘सोने में सुगन्ध’ की उक्ति उस पर चरितार्थ थी । राजगृह ही में एक नागदत्त नाम का सेठ रहता था । यह जैनी न था । इसकी स्त्री का नाम भवदत्त था । नागदत्त बड़ा मायाचारी था । सदा माया के जाल में यह फँसा हुआ रहता था । इस मायाचार के पाप से मरकर यह अपने घर आँगन की बाबड़ी में मेंढ़क हुआ । नागदत्त यदि चाहता तो कर्मों का नाश कर मोक्ष जाता, पर पाप कर वह मनुष्य-पर्याय से पशु-जन्म में आया, एक मेंढक हुआ । इसलिये भव्य-जनों को उचित है कि वे संकट के समय भी पाप न करें । एक दिन भवदत्ता इस बावड़ी पर जल भरने को आर्इ । उसे देखकर मेंढक को जाति-स्मरण ज्ञान हो गया । वह उछलकर भवदत्ता के वस्त्रों पर चढ़ने लगा । भवदत्ता ने डरकर उसे कपड़ों पर से झिड़क दिया । मेंढक फिर भी उछल-उछल कर उसके वस्त्रों पर चढ़ने लगा । उसे बार-बार अपने पास आता देखकर भवदत्ता बड़ी चकित हुई और डरी भी । पर इतना उसे भी विश्वास हो गया कि इस मेंढक का और मेरा पूर्व-जन्म का कुछ-न-कुछ सम्बन्ध होना ही चाहिए । अन्यथा बार-बार मेरे झिड़क देने पर भी यह मेरे पास आने का साहस न करता । जो हो, मौका पाकर कभी किसी साधु-सन्त से इसका यथार्थ कारण पूछूँगी । भाग्य से एक दिन अवधि-ज्ञानी सुव्रत-मुनिराज राजगृह से आकर ठहरे । भवदत्ता को मेंढक का हाल जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी । इसलिये वह तुरन्त उनके पास गर्इ । उनसे प्रार्थना कर उसने मेंढक का हाल जानने की इच्छा प्रगट की । सुव्रत-मुनिराज ने तब उससे कहा – जिसका तू हाल पूछने को आर्इ है, वह दूसरा कोर्इ न होकर तेरा पति नागदत्त है । वह बड़ा मायाचारी था, इसलिये मरकर माया के पाप से यह मेंढक हुआ है । उन मुनि के संसार-पार करने वाले वचनों को सुनकर भवदत्ता को सन्तोष हुआ । वह मुनि को नमस्कार कर घर पर आ गर्इ । उसने फिर मोहवश हो उस मेंढक को भी अपने यहाँ ला रक्खा । मेंढक वहाँ आकर बहुत प्रसन्न रहा । इसी अवसर में वैभार-पर्वत पर महावीर भगवान् का समवसरण आया । वनमाली ने आकर श्रेणिक को खबर दी कि राज-राजेश्वर, जिनके चरणों को इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि प्राय: सभी महापुरूष पूजा-स्तुति करते हैं, वे महावीर भगवान् विभार-पर्वत पर पधारे हैं । भगवान् के आने के आनन्द-समाचार सुनकर श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुए । भक्तिवश हो सिंहासन से उठकर उन्होंने भगवान् को परोक्ष नमस्कार किया । इसके बाद इन शुभ-समाचारों की सारे शहर में सबको खबर हो जाय, इसके लिये उन्होंने आनन्द-घोषणा दिलवा दी । बड़े भारी लाव-लश्कर और वैभव के साथ भव्य-जनों को संग लिये वे भगवान् के दर्शनों को गये । वे दूर से उन संसार का हित करनेवाले भगवान् के समवसरण को देखकर उतने ही खुश हुए जितने खुश मोर मेघों को देखकर होते हैं और रासायनिक लोग अपना मनचाहा रस लाभ-कर होते हैं । वे समवसरण में पहुँचे । भगवान् के उन्होंने दर्शन किये और उत्तम से उत्तम द्रव्यों से उनकी पूजा की । अन्त में उन्होंने भगवान् के गुणों का गान किया । हे भगवन, हे दया के सागर, ऋषि-महात्मा आपको ‘अग्नि’ कहते हैं, इसलिये कि आप कर्म-रूपी र्इंधन को जलाकर खाक कर देनेवाले हैं । आप ही को वे ‘मेघ’ भी कहते हैं, इसलिये कि आप प्राणियों को जलाने वाली दु:ख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि दावाग्नि को क्षणभर में अपने उपदेश रूपी जल से बुझा डालते हैं । आप ‘सूरज’ भी हैं, इसलिए कि अपने उपदेश रूपी किरणों से भव्यजन रूपी कमलों को प्रफुल्लित कर लोक और अलोक के प्रकाशक हैं । नाथ, आप एक सर्वोत्तम वैद्य हैं, इसलिये कि धन्वन्तरी से वैद्यों की दवा-दारू से भी नष्ट न होने वाली ऐसी जन्म, जरा, मरणरूपी महान व्याधियों को जड़-मूल से खो देते हैं । प्रभो, आप उत्तमोत्तम गुणरूपी जवाहरात के उत्पन्न करने वाले पर्वत हो, संसार के पालक हो, तीनों लोक के अनमोल भूषण हो, प्राणीमात्र के नि:स्वार्थ बन्धु हो, दु:खों के नाश करनेवाले हो और सब प्रकार के सुखों के देनेवालेहो । जगदीश ! जो सुख आपके पवित्र चरणों की सेवा से प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकार के कठिन से कठिन परिश्रम द्वारा भी प्राप्त नहीं होता । इसलिये हे दया-सागर, मुझ गरीब को, अनाथ को अपने चरणों की पवित्र और मुक्ति का सुख देने वाली भक्ति प्रदान कीजिये । जब तक कि मैं संसार से पार न हो जाऊँ । इस प्रकार बड़ी देर तक श्रेणिक ने भगवान् का पवित्र भावों से गुणानुवाद किया । बाद वे गौतम गणधर आदि महर्षियों को भक्ति से नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गये । भगवान् के दर्शनों के लिये भवदत्ता सेठानी भी गर्इ । आकाश में देवों का जय-जयकार और दुन्दुभी बाजों की मधुर-मनोहर आवाज सुनकर उस मेंढक को जाति-स्मरण हो गया । वह भी तब बावड़ी में से एक कमल की कली को अपने मुँह में दबाये बड़े आनन्द और उल्लास के साथ भगवान् की पूजा के लिये चला । रास्ते में आता हुआ वह हाथी के पैर नीचे कुचला जाकर मर गया । पर उसके परिणाम त्रिलोक्यपूज्य महावीर भगवान् की पूजा में लगे हुए थे, इसलिये वह उस पूजा के प्रेम से उत्पन्न होने वाले पुण्य से सौधर्म-स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । देखिये, कहाँ तो वह मेंढक और कहाँ अब स्वर्ग का देव । पर इसमें आश्चर्य की कोर्इ बात नहीं । कारण जिनभगवान् की पूजा से सब कुछ प्राप्त हो सकता है । एक अन्तर्मुहूर्त्त में वह मेंढक का जीव आँखों में चकाचौंध लानेवाला तेजस्वी और सुन्दर युवा देव बन गया । नाना तरह के दिव्य-रत्नमयी अलंकारों की कान्ति से उसका शरीर ढक रहा था, बड़ी सुन्दर शोभा थी । वह ऐसा जान पड़ता था, मानों रत्नों की एक बहुत बड़ी राशि रक्खी हो या रत्नों का पर्वत बनाया गया हो । उसके बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा देखते ही बनती थी । गले में उसके स्वर्गीय कल्पवृक्षों के फूलों की सुन्दर मालाएँ शोभा दे रही थीं । उनकी सुन्दर सुगन्ध ने सब दिशाओं को सुगन्धित बना दिया था । उसे अवधिज्ञान से जान पड़ा कि मुझे जो यह सब सम्पत्ति मिली है और मैं देव हुआ हूँ, यह सब भगवान्पूजा की पवित्र भावना का फल है । इसलिये सबसे पहले मुझे जाकर पतित-पावन भगवान् की पूजा करनी चाहिये । इस विचार के साथ ही वह अपने मुकुट पर मेंढक का चिन्ह बनाकर महावीर भगवान् के समवसरण में आया । भगवान् की पूजन करते हुए इस देव के मुकुट पर मेंढक के चिन्ह को देखकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने गौतम भगवान् को हाथ जोड़कर पूछा – हे संदेहरूपी अॅंधेरे को नाश करनेवाले सूरज, कृपाकर कहिए कि इस देव के मुकुट पर मेंढक का चिन्ह क्यों है ? मैंने तो आजतक किसी देव के मुकुट पर ऐसा चिन्ह नहीं देखा । ज्ञान की प्रकाशमान ज्योति रूप गौतम भगवान् ने तब श्रेणिक को नागदत्त के भव से लेकर अबतक की सब कथा कह सुनार्इ । उसे सुनकर श्रेणिक को तथा अन्य भव्यजनों को बड़ा ही आनन्द हुआ । भगवान् की पूजा करने में उनकी बड़ी श्रद्धा हो गर्इ । जिन पूजन का इस प्रकार उत्कृष्ट फल जानकर अन्य भव्य जनों को भी उचित है कि वे सुख देनेवाली इस जिनपूजन को सदा करते रहें । जिनपूजा के फल से भव्यजन धन-दौलत, रूप-सौभाग्य, राज्य-वैभव, बाल-बच्चे और उत्तम कुल-जाति आदि सभी श्रेष्ठ सुख-चैन की मनचाही सामग्री लाभ करते हैं, वे चिरकाल तक जीते हैं, पूजा सम्यग्दर्शन और मोक्ष का बीज है, संसार का भ्रमण मिटाने वाली है और सदाचार, सद्विद्या तथा स्वर्ग-मोक्ष के सुख की कारण है । इसलिये आत्महित के चाहनेवाले सत्पुरूषों को चाहिये कि वे आलस छोड़कर निरन्तर जिनपूजा किया करें । इससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा । यही जिन-पूजा सम्यग्दर्शन रूपी वृक्ष के सींच ने को वर्षा सरीखी है, भव्यजनों को ज्ञान देनेवाली मानों सरस्वती है, स्वर्ग की सम्पदा प्राप्त करानेवाली दूती है, मोक्षरूपी अत्यन्त ऊॅंचे मन्दिर तक पहुँचाने को मानों सीढ़ियों की श्रेणी है और समस्त सुखों की देनेवाली है । यह आप भव्यजनों की पाप कर्मों से सदा रक्षा करे ! जिनके जन्मोत्सव के समय स्वर्ग के इन्द्रों ने जिन्हें स्नान कराया, जिनके स्नान का स्थान सुमेंरू पर्वत नियत किया गया, क्षीर-समुद्र जिनके स्नान-जल के लिये बावड़ी नियत की गर्इ, देवतालोगों ने बड़े अदब के साथ जिनकी सेवा बजार्इ, देवांगनाएँ जिनके इस मंगलमय समय में नाची और गन्धर्व देवों ने जिनके गुणों को गाया, जिनका यश बखान किया, ऐसे जिनभगवान् आप भव्य-जनों को और मुझे परम शान्ति प्रदान करें । वह भगवान पवित्र वाणी जय लाभ करें, संसार में चिर समय तक रहकर प्राणियों को ज्ञान के पवित्र मार्ग पर लगाये, जो अपने सुन्दर वाहन मोर पर बैठी हुर्इ अपूर्व शोभा को धारण किये हैं, मिथ्यात्व रूपी गाढ़े अॅंधेरे को नष्ट करने के लिये जो सूरज के समान तेजस्विनी है, भव्यजन रूपी कमलों के वन को विकसित कर आनन्द की बढ़ानेवाली है, जो सच्चेमार्ग की दिखानेवाली है और स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरूष जिसे बहुत मान देते हैं । मूल-संघ के सबसे प्रधान सारस्वत नाम के निर्दोष गच्छ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में प्रभाचन्द्र एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं । वे जैनागम रूपी समुद्र के बढ़ाने के लिये चन्द्रमा की शोभा को धारण किए थे । बड़े-बड़े विद्वान् उनका आदर सत्कार करते थे । वे गुणों के मानों जैसे खजाने थे, बड़े गुणी थे । इसी गच्छ में कुछ समय बाद मल्लिभूषण भट्टारक हुए । वे मेरे गुरू थे । वे जिनभगवान् के चरण-कमलों के मानों जैसे भौंरे थे – सदा भगवान् की पवित्र भक्ति में लगे रहते थे । मूलसंघ में इनके समय में यही प्रधान आचार्य गिने जाते थे । सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय के ये धारक थे । विद्यानन्दी गुरू के पट्टरूपी कमल को प्रफुल्लित करने को ये जैसे सूर्य थे । इनसे पट्ट की बड़ी शोभा थी । ये आप सत्पुरूषों को सुखी करें । वे सिंहनन्दी गुरू भी आपको सुखी करें, जो जिनभगवान् की निर्दोष भक्ति में सदा लगे रहते थे । अपने पवित्र उपदेश से भव्यजनों को सदा हितमार्ग दिखाते रहते थे । जो कामरूपी निर्दयी हाथी का दुर्मद नष्ट करने को सिंह सरीखे थे, काम को जिन्होंने वश कर लिया था । वे बड़े ज्ञानी ध्यानी थे, रत्नत्रय के धारक थे और उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी । वे प्रभाचन्द्राचार्य विजयलाभ करें, जो ज्ञान के समुद्र हैं । देखिये, समुद्र में रत्न होते हैं, आचार्य महाराज सम्यग्दर्शन रूपी श्रेष्ठ-रत्न को धारण किये हैं । समुद्र में तरंगे होती हैं, ये भी सप्तभंगी रूपी तरंगो से युक्त हैं – स्याद्वाद विद्या के बड़े ही विद्वान हैं । समुद्र की तरंगे जैसे कूड़े –करकट को निकाल बाहर फैंक देती है, उसी तरह ये अपनी सप्तभंगी वाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्व रूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्यमत के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजयलाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ, घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं, पर प्रभाचन्द्र रूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, दे्वष रूपी भयानक मगरमच्छ न थे । समुद्र में अमृत रहता है और समुद्र में अनेक बिकने योग्य वस्तुएँ रहती हैं, ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रेय वस्तु को धारण किये थे । अतएव वे समुद्र की उपमा दिये गये । इन्हीं के पवित्र चरण-कमलों की कृपा से जैन शास्त्रों के अनुसार मुझ नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्त तप के प्राप्त करनेवालों की इन पवित्र पुण्यमय कथाओं को लिखा है । कल्याण की करनेवाली ये कथाएँ भव्यजनों को धन-दौलत, सुख-चैन, शान्ति-सुयश और आमोद-प्रमोद आदि सभी सामग्री प्राप्त कराने में सहायक हों । यह मेरी पवित्र कामना है । |