कथा :
अनन्त-चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मी और अष्ट-प्रातिहार्य रूप बहिरंग लक्ष्मी से युक्त वे अजितनाथ स्वामी सदा जयवन्त रहें जिनके कि निर्दोष (पूर्वापर विरोध आदि दोषों से रहित) वचन, जल की तरह भव्य जीवों के मन में स्थित राग-द्वेषादिरूप मल को धो डालते हैं ॥1॥ मैं उन अजितनाथ स्वामी के उस पुराण को कहूँगा जिसके कि सुनने से भव्य जीवों को बाधाहीन महाभ्युदय से युक्त मोक्षरूपी लक्ष्मी का समागम प्राप्त हो जाता है ॥2॥ इस जम्बूद्वीप के अतिशय प्रसिद्ध पूर्व-विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्स नाम का विशाल देश है ॥3॥ उसमें अपने वैभव से आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला सुसीमा नाम का नगर है । किसी समय इस सुसीमा नगर का राजा विमलवाहन था जो बड़ा ही प्रभावशाली था ॥4॥ संसार में यह न्याय प्रसिद्ध है कि गुणों की चाह रखनेवाले मनुष्य गुणों की खोज करते हैं परन्तु इस राजा में यह आश्चर्य की बात थी कि स्नेह से भरे हुये सभी गुण अपने आप ही आकर रहने लगे थे ॥5॥ वह राजा उत्साह-शक्ति, मन्त्र-शक्ति और फल-शक्ति इन तीन शक्तियों से तथा उत्साह-सिद्धि, मन्त्र-सिद्धि और फल-सिद्धि इन तीन सिद्धियों से सहित था, आलस्य-रहित था और अपनी सन्तान के समान न्याय-पूर्वक प्रजा का पालन करता था ॥6॥ 'धर्म से पुण्य होता है, पुण्य से अर्थ की प्राप्ति होती है और अर्थ से काम (अभिलषित भोगों) की प्राप्ति होती है, पुण्य के बिना अर्थ और काम नहीं मिलते हैं' यही सोचकर वह राजा जैन-धर्म के द्वारा सच्चा धर्मात्मा हो गया था ॥7॥ किसी समय उस राजा के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय दूर होकर सिर्फ संज्वलन कषाय का उदय रह गया उसी समय उसे आत्म-ज्ञान अथवा रत्नत्रय की प्राप्ति हुई और वह संसार से विरक्त हो मन ही मन एकान्त में इस प्रकार विचार करने लगा ॥8॥ 'इस जीव का शरीर में जो निवास हो रहा है वह आयु-कर्म से ही होता है, मैं यद्यपि शरीर में स्थित हूँ तो भी काल की परिमित घडि़यों में धारण किया हुआ मेरा आयुरूपी जल शीघ्र ही गलता जाता है (उत्तरोत्तर कम होता जाता है) इसलिए मेरा वह आयुरूपी जल जब तक समाप्त नहीं होता तब तक मैं स्वर्ग और मोक्ष के मार्गभूत जैनधर्म में उत्साह के साथ प्रवृत्ति करूँगा' ॥9-10॥ इस प्रकार आशारूपी पाश को छेदकर वह राजा राज्य-लक्ष्मी से निस्पृह हो गया तथा स्वाधीन होने पर भी अनेक राजाओं के साथ दीक्षारूपी लक्ष्मी के द्वारा अपने आधीन कर लिया गया अर्थात् अनेक राजाओं के साथ उसने जिन-दीक्षा धारण कर ली ॥11॥ जिसने बहुत समय तक तीव्र तपस्या की है, जिसे ग्यारह अंगों का स्पष्ट ज्ञान हो गया है, जिसकी आत्मा पुण्य के प्रकाश से जगमगा रही है और जो दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं के चिन्तन में निरंतर तत्पर रहता है ऐसे इस विमलवाहन ने तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध किया ॥12॥ इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला वह विमलवाहन आयु के अन्त समय पंच-परमेष्ठियों में चित्त स्थिरकर, समाधिमरण कर तैंतीस सागर की आयु का धारक हो विजय नामक अनुत्तर विमान में पहुँचा ॥13॥ वहाँ वह द्रव्य और भाव दोनों ही शुल्क-लेश्याओं से सहित था तथा समचतुरस्त्र-संस्थान से युक्त एक हाथ ऊँचे एवं प्रशस्त रूप, रस, गन्ध, स्पर्श से सम्पन्न शुभ शरीर को लेकर उत्पन्न हुआ था, सोलह महीने और पन्द्रह दिन बाद उच्छ्वास लेता था, तैंतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार ग्रहण करता था, उसने अपने अवधिज्ञान के द्वारा लोकनाड़ी को व्याप्त कर रखा था अर्थात् लोकनाड़ी पर्यन्त के रूपी पदार्थों को वह अपने अवधिज्ञान से देखता था, उसमें लोकनाड़ी को उखाड़कर दूसरी जगह रख देने की शक्ति थी, वह उतने ही क्षेत्र में अपने शरीर की विकिया भी कर सकता था और सुख-स्वरूप पंचेन्द्रियों के द्वारा प्रवीचारजन्य सुख से अनन्तगुणा अधिक अप्रवीचार सुख का उपभोग करता था ॥14-17॥ उस महाभाग के स्वर्ग से पृथिवी पर अवतार लेने के छह माह पूर्व से ही प्रतिदिन तीर्थंकर नामक पुण्य-प्रकृति के प्रभाव से जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के अधिपति इक्ष्वाकुवंशीय काश्यप-गोत्री राजा जितशत्रु के घर में इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वृष्टिकी ॥18-20॥ तदनन्तर जेठ महीने की अमावस के दिन जब कि रोहिणी-नक्षत्र का कला मात्र से अवशिष्ट चन्द्रमा के साथ संयोग था तब ब्राह्ममुहूर्त के पहले महारानी विजयसेना ने सोलह स्वप्न देखे । उस समय उनके नेत्र बाकी बची हुई अल्प निद्रा से कलुषित हो रहे थे । सोलह स्वप्न देखने के बाद उसने देखा कि हमारे मुख-कमल में एक मदोन्मत्त हाथी प्रवेश कर रहा है । जब प्रात:काल हुआ तो महारानी ने जितशत्रु महाराज से स्वप्नों का फल पूछा और देशावधिज्ञानरूपी नेत्र को धारण करनेवाले महाराज जितशत्रु ने उनका फल बतलाया कि तुम्हारे स्फटिक के समान निर्मल गर्भ में विजयविमानसे तीर्थंकर पुत्र अवतीर्ण हुआ है । वह पुत्र, निर्मल तथा पूर्वभव से साथ आने वाले मति-श्रुत-अवधिज्ञानरूपी तीन नेत्रों से देदीप्यमान है ॥21-24॥ जिस प्रकार नीति, महान् अभ्युदय को जन्म देती है उसी प्रकार महारानी विजयसेना ने माघमास के शुल्कपक्ष की दशमी तिथि के दिन प्रजेशयोग में प्रजापति तीर्थंकर भगवान् को जन्म दिया ॥25॥ भगवान् आदिनाथ के मोक्ष चले जाने के बाद जब पचास लाख करोड़ सागर वर्ष बीत चुके तब द्वितीय तीर्थंकर का जन्म हुआ था । इनकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी । जन्म होते ही, सुन्दर शरीर के धारक तीर्थंकर भगवान् का देवों ने मेरूपर्वत पर जन्माभिषेक कल्याणक किया और अजितनाथ नाम रक्खा ॥26-27॥ इन अजितनाथ की बहत्तर लाख पूर्व की आयु थी और चार सौ पचास धनुष शरीर की ऊँचाई थी । अजितनाथ स्वामी के शरीर का रंग सुवर्ण के समान पीला था । उन्होंने बाह्य और आभ्यन्तर के समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी । जब उनकी आयु का चतुर्थांश बीत चुका तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ । उस समय उन्होंने अपने तेज से सूर्य का तेज जीत लिया था । एक लाख पूर्व कम अपनी आयु के तीन भाग तथा एक पूर्वागं तक उन्होंने राज्य किया । 'देखूँ, आपके साथ सम्भोग-सुख का अन्त आता है या मेरा ही अन्त होता है' इस विचार से राज्य लक्ष्मी के द्वारा आलिंगित हुए भगवान् अजितनाथ ने प्रशंसनीय भोगों का अनुभव किया ॥28-31॥ किसी समय अजितनाथ स्वामी महल की छतपर सुख से विराजमान थे कि उन्होंने लक्ष्मी को अस्थिर बतलानेवाली बड़ी भारी उल्का देखी ॥32॥ ज्ञानियों में श्रेष्ठ अजितनाथ स्वामी उसी समय विषयों से विरक्त हो गये सो ठीक ही है क्योंकि जिन्हें शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त होनेवाला है उन्हें लक्ष्मी को छोड़ने के लिए कौनसा कारण नहीं मिल जाता ? ॥33॥ उसी समय सारस्वत आदि देवर्षियों (लौकान्तिक देवों) ने ब्रह्मस्वर्ग से आकर उनके विचारों की बहुत भारी प्रशंसा तथा पुष्टि की ॥34॥ जिस प्रकार लोग देखते तो अपने नेत्रों से हैं परन्तु सूर्य उसमें सहायक हो जाता है उसी प्रकार भगवान् यद्यपि स्वयं बुद्ध थे तो भी लौकान्तिक देवों का कहना उनके यथार्थ अवलोकन में सहायक हो गया ॥35॥ उन्होंने जूँठन के समान विवेकी मनुष्यों के द्वारा छोड़ने योग्य राज्य, राज्याभिषेक पूर्वक अजितसेन नामक पु्त्र के लिए दे दिया ॥36॥ देवों ने उनका दीक्षा-कल्याणक सम्बन्धी महाभिषेक किया । अनन्तर वे सुप्रभा नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर सहेतुक वन की ओर चले । उनकी पालकी को सर्वप्रथम मनुष्यों ने, फिर विद्याधरों नें और फिर देवों ने उठाया था । माघ-मास के शुल्कपक्ष की नवमी के दिन रोहिणी नक्षत्र का उदय रहते हुए उन्होंने सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के समीप जाकर सांयकाल के समय एक हजार आज्ञाकारी राजाओं के साथ वेला का नियम लेकर संयम धारण कर लिया (दीक्षा ले ली) ॥37-39॥ दीक्षा लेते ही वे मन:पर्यय ज्ञान से सम्पन्न हो गये और दूसरे दिन दानियों को अपूर्व आनन्द उपजाते हुए साकेतनगरी में प्रविष्ट हुए ॥40॥ वहाँ बह्मा नामक राजा ने उन्हें यथा-क्रम से दान दिया और साता-वेदनीय आदि पुण्य-प्रकृतियों का बन्धकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥41॥ शुद्धज्ञान के धारक भगवान् ने बारह-वर्ष छद्मस्थ अवस्था में बिताये । तदनन्तर पौष-शुक्ल एकादशी के दिन शाम के समय रोहिणी नक्षत्र में आप्तपना प्राप्त किया अर्थात् लोकालोकावभासी केवलज्ञान को प्राप्तकर सर्वज्ञ हो गये ॥42॥ उनके सिहंसेन आदि नब्बे गणधर थे । तीन हजार सात सौ पचास पूर्वधारी, इक्कीस हजार छह सौ शिक्षक, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, बीस हजार केवल ज्ञानी, बीस हजार चार सौ विकिया-ऋद्धिवाले, बारह हजार चार सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी और बारह हजार चार सौ अनुत्तरवादी थे । इस प्रकार सब मिलाकर एक लाख तपस्वी थे, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ थीं, तीन लाख श्रावक थे, पाँच लाख श्राविकाएँ थीं, और असंख्यात देव देवियाँ थीं । इस तरह उनकी बारह सभाओं की संख्या थी ॥43-48॥ इस प्रकार बाहर सभाओं से वेष्टित भगवान् अजितनाथ संसार, मोक्ष, उनके कारण तथा फल के भेदों का विस्तार से कथन करते थे ॥49॥ उन अजितनाथ स्वामी को समवसरण लक्ष्मी कटाक्षों से देख रही थी, वे पुण्योत्पादित चिह्नस्वरूप आठ प्रातिहार्यों से युक्त थे, उन्होंने कर्मरूपी शत्रुओं में से घातिया कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट कर दिया था और अघातिया कर्मरूप शत्रुओं को अभी नष्ट नहीं कर पाए थे, उनकी वैराग्य-परिणति अत्यन्त बढ़ी हुई थी, वे निज और पर के गुरू थे, कृतकृत्य मनुष्य के प्रार्थनीय थे और अतिशय-प्रसिद्ध अथवा समृद्ध थे ॥50॥ 'यह न तो कहीं पापों से जीते जाते हैं और न समस्त वादी ही इन्हें जीत सकते हैं इसलिए "अजित" इस सार्थक नाम को प्राप्त हुए हैं' इस प्रकार विद्वानों की स्तुति के पात्र होते हुए भगवान् अजितनाथ ने समस्त आर्यक्षेत्र में विहार किया और अन्त में सम्मेदाचलपर पहुँचकर दिव्यध्वनि से रहित हो एक मास तक वहीं पर स्थिर निवास किया ॥51॥ उस समय उन्होंने प्रति-समय कर्म-प्रकृतियों की असंख्यातगुणी निर्जरा की, उनकी स्थिति आदि का विधान किया -- दण्ड, प्रतर आदि लोकपूरण-समुद्घात किया, सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती ध्यान के द्वारा योगों का वैभव नष्ट किया, औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों के सम्बन्ध को पृथक् किया, और सातिशय विशुद्धता को प्राप्त हो व्युपरत-क्रियानिवर्ती नामक चतुर्थ शुक्ल-ध्यान के आश्रय से अनन्तज्ञानादि आठ गुणों को प्राप्त किया ॥52॥ इस प्रकार चैत्रशुल्क पंचमी के दिन जब कि चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र पर था, प्रात:काल के समय प्रतिमायोग धारण करनेवाले भगवान् अजितनाथ ने मुक्तिपद प्राप्त किया ॥53॥ जो पहले विमलवाहन भव में युद्ध के समय दुर्जेय रहे, फिर पापनाशक तपश्चरण में उद्यत रहे, तदनन्तर विजयविमान में सुख के भण्ड़ार स्वरूप श्रेष्ठ देव हुए उन अजित जिनेन्द्र को हे भव्यजीवों ! नमस्कार करो ॥54॥ चूँकि धर्म सोलह भावनाओं से महापुण्य तीर्थंकर प्रकृति को उत्पन्न करता है, श्रेष्ठ ध्यान के प्रभाव से समस्त दुष्ट कर्मों के समूह का नाश कर देता है, स्वयं निर्मल है, सुख की परम्परा को करनेवाला है और नित्य मोक्षसुख को देता है इसलिए शुद्ध तथा आप्तोपज्ञ धर्म की हे विद्वज्जनो ! मदरहित होकर उपासना करो ॥55॥ जो तीर्थंकरों में द्वितीय होने पर भी श्रुत के मार्ग में अद्वितीय (अनुपम) हैं, वे अजितनाथ भगवान्, कवि को पुराण का विशाल मार्ग पूरा करने में सहायता प्रदान करें ॥56॥ द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में सगर नाम का दूसरा चक्रवर्ती हुआ । हे बुद्धिमान् श्रेणिक ! तू अब उसका चरित्र सुन ॥57॥ इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती नाम का देश है । उसमें पृथिवी नगर का अधिपति, मनुष्यों के द्वारा सेवनीय जयसेन नाम का राजा था । उसकी स्त्री का नाम जयसेना था । उन दोनों के रतिषेण और धृतिषेण नाम के दो पुत्र थे ॥58-59॥ वे भाग्यशाली दोनों पुत्र अपने तेज से सदा सूर्य और चन्द्रमा को जीतते हुए शोभित होते थे । उनके माता-पिता आकाश और पृथिवी के समान उनसे कभी पृथक् नहीं रहते थे अर्थात् स्नेह के कारण सदा अपने पास रखते थे ॥60॥ एक दिन किसी कारणवश रतिषेण की मृत्यु हो गई सो ठीक ही है क्योंकि मृत्यु का कारण क्या नहीं होता ? अर्थात् जब मरण का समय आता है तब सभी मृत्यु के कारण हो जाते हैं ॥61॥ रतिषेण की मृत्युरूपी मेघ से निकले हुए शोकरूपी वज्र ने लता-सहित कल्पवृक्ष के समान भार्या-सहित राजा जयसेन को वाधित (दुखी) किया ॥62॥ उस समय अवसर पाकर यमराज के आगे-आगे चलनेवाली मूर्च्छा ने उन दोनों का आलिंगन किया अर्थात् वे दोनों मूर्च्छित हो गये सो ठीक ही है क्योंकि छिद्र प्राप्त करनेवाले शत्रु अपकार किये बिना नहीं रहते ॥63॥ जब वैद्यजनों के श्रेष्ठ उपायों के द्वारा धीरे-धीरे वे चैतन्य को प्राप्त हुए तो बृहस्पति के समान श्रेष्ठ गुरू ने राजा जयसेन को बड़ी कठिनाई से समझाया ॥64॥ तदनन्तर वह इस शरीर को दु:ख का घर मानकर उसका निग्रह करने के लिए आग्रह करने लगा । और यमराज को मारने के लिए उद्यत हुआ सो ठीक ही है क्योंकि मनस्वी मनुष्यों को यही योग्य है ॥65॥ वह प्राणों का अन्त करनेवाले अथवा इन्द्रियादि प्राण हैं अन्त में जिनके ऐसे परिग्रहों को पुराने पत्तों के समान समझने लगा तथा राज्य के उपभोग में भाग्यशाली आर्य धृतिषेण नामक पुत्र को नियुक्त कर अनेक राजाओं और महारूत नामक साले के साथ यशोधर गुरू के द्वारा बतलाये हुए शुद्ध मोक्षमार्ग को प्राप्त हुआ - दीक्षित हो गया ॥66-67॥ जयसेन मुनि ने आयु के अन्त में संन्यास-मरण किया जिससे अन्तिम अच्युत स्वर्ग में महाबल नाम के देव हुए ॥68॥ जयसेन का साला महारूत भी उसी स्वर्ग में मणिकेतु नाम का देव हुआ । वहाँ उन दोनों में परस्पर प्रतिज्ञा हुई कि हम लोगों के बीच जो पहले पृथिवी-लोक पर अवतीर्ण होगा (जन्म धारण करेगा), दूसरा देव उसे समझानेवाला होगा - संसार का स्वरूप समझाकर दीक्षा लेने की प्रेरणा करेगा । महाबल देव, अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर पर्यन्त देवों के सुख भोगकर कौशल देश की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा समुद्र विजय और रानी सुबालाके सगर नाम का पुत्र हुआ । उसकी आयु सत्तरलाख पूर्व की थी । वह चार सौ पचास धनुष ऊँचा था, सब लक्षणों से परिपूर्ण था, लक्ष्मीमान् था तथा सुवर्ण के समान कान्ति से युक्त था ॥69-73॥ उसके अठारह लाख पूर्व कुमार अवस्था में व्यतीत हुए । तदनन्तर महा-मण्डलेश्वर पद प्राप्त हुआ । उसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर छह खण्डों की पृथिवी के समूह पर आक्रमण करने में समर्थ चक्ररत्न प्रकट हुआ और दिशाओं के समूह पर आक्रमण करती हुई प्रतापपूर्ण कीर्ति प्रकट हुई ॥74-75॥ प्रथम चक्रवर्ती भरत के समान इसने भी चिर कालतक दिग्विजय किया, वहाँ की सारपूर्ण वस्तुओं के ग्रहण किया और सब लोगों को अपनी आज्ञा ग्रहण कराई ॥76॥ दिग्विजय से लौटकर वह साम्राज्य (लक्ष्मी) के गृह-स्वरूप अयोध्या नगरी में वापिस आया और निर्विघ्न रूप से दश प्रकार के भोगों का उपभोग करता हुआ सुख से रहने लगा ॥77॥ उस पुण्यवान् के साठ-हजार पुत्र थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विधाता ने पुत्रों के आकार में उसके गुण ही प्रकट किये हों ॥78॥ किसी समय सिद्धिवन में श्रीचतुर्मुख नाम के मुनिराज पधारे थे और उसी समय उन्हें समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ॥79॥ उनके कल्याणोत्सव में अन्य देवों तथा इन्द्रों के साथ मणिकेतु देव भी आया था । वहाँ आकर उसने जानना चाहा कि हमारा मित्र महाबल कहाँ उत्पन्न हुआ है ? इच्छा होते ही उसने अवधिज्ञान के प्रकाश से जान लिया कि वह बाकी बचे हुए पुण्य से सगर चक्रवर्ती हुआ है । ऐसा जानकर वह सगर चक्रवर्ती के पास पहुँचा और कहने लगा ॥80-81॥ कि 'क्यों स्मरण है ? हम दोनों अच्युत स्वर्ग में कहा करते थे कि हम लोगों के बीच जो पहले पृथिवी पर अवतीर्ण होगा उसे यहाँ रहनेवाला साथी समझावेगा' ॥82॥ 'हे भव्य ! मनुष्यजन्म के सारभूत साम्राज्य का तू चिरकाल तक उपभोग कर चुका है । अब सर्प के फणा के समान भय उत्पन्न करनेवाले इन भोगों से क्या लाभ है ? हे राजन ! अब मुक्तिके लिए उद्योग कर' । मणिकेतु के इतना कहनेपर भी वह चक्रवर्ती इससे विमुख रहा सो ठीक ही है क्योंकि मुक्ति का मार्ग काललब्धि के बिना कहाँ से मिल सकता है ? ॥83- 84॥ सगर चक्रवर्ती की विमुखता जान मणिकेतु अन्य वार्तालाप कर वापिस लौट गया सो उचित ही है क्योंकि अनुक्रम को जानने वाले पुरूष अहित की बात जाने दो, हित के द्वारा भी किसी की इच्छा के विरूद्ध काम नहीं करते ॥85॥ इन भोगों को धिक्कार है जो कि मनुष्यों को इस प्रकार अपने कहे हुए वचनों से च्युत करा देते हैं, पाप उत्पन्न करनेवाले हैं और बड़ी कठिनाई से छोड़े जाते हैं' इस तरह निर्वेद को प्राप्त होता हुआ मणिकेतु देव स्वर्ग चला गया ॥86॥ फिर कुछ समय बाद मणिकेतुदेव राजा को तप ग्रहण कराने का एक दूसरा उपाय सोचकर पृथिवीपर आया ॥87॥ उसने चारण ऋद्धिधारी मुनि का रूप बनाया । वह मुनि अनेक लक्षणों से युक्त था, कान्ति से चन्द्रमा को, प्रभा से सूर्य को और सुन्दर शरीर से कामदेव को जीत रहा था । इस प्रकार जितेन्द्रिय हो उत्कृष्ट संयम की भावना करता हुआ वह मुनि जिनेन्द्र भगवान् की वन्दनाकर सगर चक्रवर्ती के चैत्यालय में जा ठहरा ॥88-89॥ उस चारण मुनि को देख चक्रवर्ती को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने पूछा कि आपने इस अवस्था में यह तप क्यों धारण किया है ? चारण मुनि ने भी झुठ-मुठ कहा कि यह यौवन बुढ़ापा के द्वारा ग्रास्य है (ग्रसने के योग्य है), आयु प्रतिक्षण कम हो रही है, यह शरीर चूँकि अपवित्र है, पापी है, दुर्धर है, और दु:खों का पात्र है अत: छोड़ने के योग्य है । सदा अनिष्ट वस्तुओं का संयोग और इष्ट वस्तुओं का वियोग होता रहता है । यह संसार रूपी भँवर, अनादि काल से बीत रही है फिर भी अनन्त ही बनी हुई है । जीव की यह सब दशा कर्मरूप शत्रुओं के द्वारा की जा रही है अत: मैं तपरूपी अग्नि के द्वारा उन कर्म-शत्रुओं को जलाकर सुवर्ण पाषाण के समान अविनाशी शुद्धि को प्राप्त होऊँगा (मोक्ष प्राप्त करूँगा) ॥90-93॥ मणिकेतु के इस प्रकार कहने पर वह चक्रवर्ती संसार से भयभीत तो हुआ परन्तु मोक्षमार्ग को प्राप्त नहीं कर सका क्योंकि पुत्ररूपी साँकलों से मजबूत बँधा हुआ था ॥94॥ 'अभी इसका संसार बहुत बड़ा है' इस प्रकार विषाद करता हुआ मणिकेतु चला गया सो ठीक ही है क्योंकि निष्फल उपाय किस बुद्धिमान् को विषाद नहीं करता ? ॥95॥ वह देव सोचने लगा कि देखो साम्राज्य की तुच्छ लक्ष्मी से वशीभूत हुए चक्रवर्ती ने अच्युत स्वर्ग की लक्ष्मी भुला दी सो ठीक ही है क्योंकि कामी मनुष्यों को अच्छे-बुरे पदार्थों के अन्तर का ज्ञान कहाँ होता है ? ॥96॥ मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह चक्रवर्ती सब लाभों में पुत्र-लाभ को ही लाभ मानता है, स्वर्ग और मोक्ष-लक्ष्मी का लाभ इसके लिए लाभ नहीं है, ऐसा समझकर ही यह पुत्रों में अत्यन्त लीन हो रहा है ॥97॥ किसी समय सिंह के बच्चों के समान उद्धत और अहंकार से भरे हुए वे राजपुत्र सभा में विराजमान चक्रवर्ती से इस प्रकार निवेदन करने लगे कि शूरवीरता और साहस से सुशोभित क्षत्रिय-पुत्रों का यौवन यदि दु:साध्य कार्य में पिता का मनोरथ सिद्ध नहीं करता तो वह यौवन नहीं है । ऐसे प्राणी के जन्म लेने अथवा जीवन धारण करने से क्या लाभ है ? जन्म लेना और जीवन धारण करना ये दोनों ही सर्व-साधारण हैं अर्थात् सब जीवों के होते हैं । इसलिए हे राजन् ! हम लोगों को साहस से भरा हुआ कोई ऐसा कार्य बतलाइये कि जिससे हमारी केवल भोजन में सम्मिलित होनेसे उत्पन्न होनेवाली दीनता अथवा अधर्म दूर हो सके ॥98-101॥ यह सुन चक्रवर्ती ने हर्षित होकर कहा कि 'हे पुत्रो ! चक्र से सब कुछ सिद्ध हो चुका है, हिमवान् पर्वत और समुद्र के बीच ऐसी कौनसी वस्तु है जो मुझे सिद्ध नहीं हुई है ? तुम्हारे लिए मेरा यही काम है कि तुम लोग मिलकर मेरी इस विशाल राज्यलक्ष्मी का यथायोग्य रीति से उपभोग करो' ॥102-103॥ इस प्रकार राजा ने जब उन्हें बहुत निवारण किया तब वे चुप हो रहे सो ठीक ही है क्योंकि शुद्ध वंश में उत्पन्न हुए पुत्र पिता के आज्ञाकारी ही होते हैं ॥104॥ आत्मशुद्धि से भरे वे राजपुत्र किसी एक दिन फिर राजा के पास जाकर कहने लगे कि यदि आप हम लोगों को कोई कार्य नहीं देते हैं तो हम भोजन भी नहीं करते हैं ॥105॥ पुत्रों का निवेदन सुनकर राजा कुछ चिन्ता में पड़ गये । वे सोचने लगे कि इन्हें कौनसा कार्य दिया जावे । अकस्मात् उन्हें याद आ गई कि अभी धर्म का एक कार्य बाकी है । उन्होंने हर्षित होकर आज्ञा दी कि भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर महारत्नों से अरहन्त-देव के चौबीस मन्दिर बनवाये हैं, तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को उन मन्दिरों की परिखा बना दो ।' उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्ड-रत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया ॥106-108॥ प्रेम और सज्जनता से प्रेरित हुआ मणिकेतु देव फिर भी अपने मन्त्रियों के साथ राजा सगर को समझाने के लिए योग्य उपाय का इस प्रकार विचार करने लगा ॥109॥ कि वचन चार प्रकार के होते हैं -- कुछ वचन तो हित और प्रिय दोनों ही होते हैं, कुछ हित और अप्रिय होते हैं, कुछ प्रिय होकर अहित होते हैं और कुछ अहित तथा अप्रिय होते हैं । इन चार प्रकार के वचनों में अन्त के दो वचनों को छोड़कर शेष दो प्रकार के वचनों से हित का उपदेश दिया जा सकता है । ऐसा निश्चय कर वह मणिकेतु एक दुष्ट नाग का रूप धरकर कैलास पर्वत पर आया और उन अहंकारी राजकुमारों को भस्म की राशि के समान कर चला गया सो ठीक ही है क्योंकि मंत्रीगण जब कुछ उपाय नहीं देखते हैं तब हित होने पर भी अप्रिय वचनों का प्रयोग करते ही हैं ॥110-112॥ मंत्री यह जानते थे कि राजा का पुत्रों पर कितना स्नेह है अत: पुत्रों का मरण जानकर भी वे राजा को यह समाचार सुनाने के लिए समर्थ नहीं हो सके । समाचार का सुनाना तो दूर रहा किन्तु उसे छिपा कर ही बैठ रहे ॥113॥ तदनन्तर मणिकेतु ब्राह्मण का रूप रख कर चक्रवर्ती सगर के पास पहुँचा और बहुत भारी शोक से आकान्त होकर निम्नांकित वचन कहने लगा ॥114॥ 'हे देव ! जब आप पृथ्वी-मण्डल का पालन कर रहे हैं तब हम लोगों की यहाँ सब प्रकार कुशल है किन्तु आयु की अवधि दूर रहने पर भी यमराज ने मेरा पुत्र हरण कर लिया है । वह मेरा एक ही पुत्र था । यदि आप उसे आयु से युक्त अर्थात् जीवित नहीं करते हैं तो आज मुझे भी आपके देखते -देखते उस यमराज के द्वारा ले जाया हुआ समझें । क्योंकि अहंकारी लोग क्या नहीं करते हैं । जो कच्चे फल खाने में सतृष्ण है वह भला पके फल क्यों छोड़ेगा' ॥115-117॥ ब्राह्मण के वचन सुनकर राजा ने कहा कि हे द्विजराज ! क्या आप नहीं जानते कि यमराज सिद्ध भगवान् के द्वारा ही निवारण किया जाता है; अन्य जीवों के द्वारा नहीं, यह बात तो आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है ॥118॥ इस संसार में कितने ही प्राणी ऐसे हैं कि जिनकी आयु बीच में ही छिद जाती है और कितने ही ऐसे हैं कि जो जितनी आयु का बंध करते हैं उतना जीवित रहते हैं- बीच में उनका मरण नहीं होता । यह यमराज उन सब जीवों का संहार करता है पर स्वयं संहार से रहित है ॥119॥ 'यदि तुम उस यमराज पर द्वेष रखते हो तो घर के भीतर व्यर्थ ही जीर्ण-शीर्ण मत होओ । मोक्ष प्राप्त करने के लिए शीघ्र ही दीक्षा धारण करो; शोक छोड़ो'॥120॥ जब राजा सगर यह कह चुके तो ब्राह्मण-वेषधारी मणिकेतु बोला -- 'हे देव ! यदि यह सच है कि यमराज से बढ़कर और कोई बलवान नहीं है तो मैं जो कुछ कहूँगा उससे आपको भयभीत नहीं होना चाहिये'। ॥121॥ 'आपके जो पुत्र कैलाश पर्वत पर खाई खोदने के लिए गये थे वे सब उस यमराज के द्वारा अपने पास बुला लिये गये हैं इसलिए आपको अपने कहे हुए मार्ग के अनुसार दुष्ट यमराज पर बहुत वैर धारण करना चाहिये अर्थात् दीक्षा लेकर यमराज को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये ॥122॥ ब्राह्मण के उक्त वचन रूपी वज्र से जिसका ह्णदय विदीर्ण हो गया है ऐसा राजा सगर क्षण-भर में मरे हुए के समान निश्चेष्ट हो गया ॥123॥ चन्दन और खस से मिले हुए जल से, मित्रों के वचनों से तथा पंखों की कोमल वायु से जब वह सचेत हुआ तो इस प्रकार विचार करने लगा कि व्यर्थ ही खेद को बढ़ानेवाली यह लक्ष्मीरूपी माया मुझे प्राप्त न हो-मुझे इसकी आवश्यकता नहीं । यह काम भयंकर है, यमराज नीच है, प्रेम का समागम नश्वर है, शरीर अपवित्र है, क्षय हो जानेवाला है और इसीलिए सेवन करने योग्य नहीं है अथवा अकल्याणकारी है, यह यौवन इन्द्रधनुष के समान नश्वर है.......ऐसा जानते हुए तीर्थंकर भगवान् वन में चले जाते हैं। परन्तु मैं मूर्ख अब भी इन्हींमें मूढ़ हो रहा हूँ'…….ऐसा विचार कर सगर चक्रवर्ती ने भगलि देश के राजा सिंहविक्रम की पुत्री विदर्भा के पुत्र भव्य भगीरथ के लिए राज्य सौंप दिया और आप दृढ़धर्मा केवली के समीप दीक्षा धारण कर तपश्चरण रूपी राज्य में सुशोभित होने लगा सो ठीक ही है क्योंकि सज्ज्न पुरूष घर में तभी तक रहते हैं जबतक कि विरक्त होने का कोई कारण नहीं दिखाई देता ॥124-128॥ इधर चक्रवर्ती ने दीक्षा ली उधर वह मणिकेतु देव उन पुत्रों के पास पहुँचा और कहने लगा कि किसी ने आपके मरण का यह अश्रवणीय समाचार राजा से कह दिया जिसे सुनकर वे शोकाग्नि से बहुत ही अधिक उद्दीपित हुए और भगीरथ के लिए राज्य देकर तप करने लगे हैं । मैं आपकी कुल-परम्परा से चला आया ब्राह्मण हूँ अत: शोक से यहाँ आप लोगों को खोजने के लिए आया हूँ ॥129-130॥ ऐसा कहकर उस देव ने मायामयी भस्म से अवगुण्ठित राजकुमारों को सचेत कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि मित्रों की माया भी हित करने वाली होती है ॥131॥ मणिकेतु के वचन सुन उन चरम-शरीरी राजकुमारों ने भी जिनेन्द्र भगवान् का आश्रय लेकर तप धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि जो उचित बात को जानते हैं उन्हें ऐसा करना ही योग्य है ॥132॥ जब भगीरथ ने यह समाचार सुना तब वह भी उन मुनियों के पास गया और वहाँ उसने उन सब को भक्ति से नमस्कार कर जिनेद्रोक्त धर्म का स्वरूप सुना तथा श्रावक के व्रत ग्रहण किये ॥133॥ अन्त में मित्रवर मणिकेतु ने उन सगर आदि मुनियों के समक्ष अपनी समस्त माया प्रकट कर दी और कहा कि आप लोग क्षमा कीजिये ॥134॥ 'इसमें आपका अपराध ही क्या है ? यह तो आपने हमारा हित तथा प्रिय कार्य किया है' इस प्रकार के प्रसन्नता से भरे हुए शब्दों द्वारा उन सब मुनियों ने मणिकेतु देव को सान्त्वना दी ॥135॥ जिसका कार्य सिद्ध हो गया है ऐसा देव भी सन्तुष्ट होकर स्वर्ग चला गया सो ठीक ही है क्योंकि अन्य पुरूषों के कार्य सिद्ध करने से ही प्राय: महापुरूषों को संतोष होता है ॥136॥ वे सभी विद्वान् मुनिराज चिरकाल तक यथाविधि तपश्चरण कर सम्मेद शैल पर पहुँचे और शुक्लध्यान के द्वारा परम-पद को प्राप्त हुए ॥137॥ उन सब का मोक्ष जाना सुनकर भगीरथ का मन निर्वेद से भर गया अत: उसने वरदत्त के लिए अपनी राज्यश्री सौंपकर कैलाश पर्वत पर शिवगुप्त नामक महामुनि से दीक्षा ले ली तथा गंगा नदी के तट पर प्रतिमा-योग धारण कर लिया ॥138-139॥ इन्द्र ने क्षीरसागर के जल से महामुनि भगीरथ के चरणों का अभिषेक किया जिसका प्रवाह गंगा में जाकर मिल गया । उसी समय से गंगा नदी भी इस लोक में तीर्थरूपता को प्राप्त हुई अर्थात् तीर्थ मानी जाने लगी । भगीरथ गंगा नदी के तट पर उत्कृष्ट तप कर वहीं से निर्वाण को प्राप्त हुआ ॥140-141॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस लोक तथा परलोक में मित्र के समान हित करनेवाला दूसरा नहीं हैं । न मित्र से बढ़कर कोई भाई है । जो बात गुरू अथवा माता-पिता से भी नहीं कही जाती ऐसी गुप्त से गुप्त बात मित्र से कही जाती है, मित्र अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता हुआ कठिन-से-कठिन कार्य सिद्ध कर देता है । मणिकेतु ही इस विषय का स्पष्ट दृष्टान्त है इसलिए सबको ऐसा ही मित्र बनाना चाहिये ॥142॥ जो पहले शत्रुओं की सेना को जीतनेवाले जयसेन हुए, फिर अच्युत-स्वर्ग में महाबल देव हुए, वहाँ से आकर शत्रुओं द्वारा अजेय सगर चक्रवर्ती हुए और अन्त में अपना चरम शरीर (अन्तिम देह) नष्ट कर शरीर-प्रमाण आत्मा के धारक रह गये, ऐसे महाराज सगर सदा जयवन्त रहें ॥143॥ |