+ भगवान सम्भवनाथ चरित -
पर्व - 49

  कथा 

कथा :

जिनका ज्ञान सामने रखे हुए समस्‍त पदार्थों को प्रकाशित करने के लिए दर्पण के समान है तथा जो सब प्रकार के पाखण्‍डों के विस्‍तार को नष्‍ट करनेवाले हैं ऐसे सम्‍भवनाथ तीर्थंकर मेरा कल्‍याण करें ॥1॥

इसी पहले जम्‍बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्‍तर तट पर एक कच्‍छ नाम का देश है । उसके क्षेमपुर नगर में राजा विमलवाहन राज्‍य करता था ॥2॥

जिसे निकट भविष्‍य में मोक्ष प्राप्‍त होने वाला है ऐसा वह राजा किसी कारण से शीघ्र ही विरक्‍त हो गया । वह विचार करने लगा कि इस संसार में वैराग्‍य के तीन कारण उपस्थित हैं ॥3॥

प्रथम तो यह कि यह जीव यमराज के दाँतों के बीच में रहकर भी जीवित रहने की इच्‍छा करता है और मोहकर्म के उदय से उससे निकलने का उपाय नहीं सोचता इसलिए इस अज्ञानान्‍धकार को धिक्‍कार हो ॥4॥

वैराग्‍य का दूसरा कारण यह है कि इस जीव की आयु असंख्‍यात समय की ही है उन्हें ही यह शरण माने हुए है परन्‍तु आश्‍चर्य है कि ये आयु के क्षण ही इन जीवों को नष्‍ट होने के लिए यमराज के समीप पहुँचा देते हैं ॥5॥

तीसरा कारण यह है कि ये जीव अभिलाषारूपी धूप से संतप्‍त होकर विषयभोगरूपी किसी नदी के जीर्णशीर्ण तट की छाया का आश्रय ले रहे हैं सो उनका यह आश्रय कुशलतापूर्वक उनकी रक्षा नहीं कर सका ॥6॥

इत्‍यादि विचार करते हुए विमलवाहन राजा ने अपना राज्‍य विमलकीर्ति नाम के पुत्र के लिए देकर स्‍वयंप्रभ जिनेन्‍द्र की शिष्‍यता स्‍वीकार कर ली अर्थात् उनके पास दीक्षा धारण कर ली ॥7॥

ग्‍यारह अंगों का जानकार होकर उसने सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीनों लोकों में क्षोभ उत्‍पन्‍न करनेवाला तीर्थंकर नामक नाम-कर्म का बन्‍ध किया ॥8॥

अन्‍त में संन्‍यास की विधि से शरीर छोड़कर प्रथम ग्रैवेयक के सुदर्शन विमान में बड़ी-बड़ी ऋद्धियों को धारण करनेवाला अ‍हमिन्‍द्र हुआ ॥9॥

तेईस सागर की उसकी आयु थी, साठ अंगुल ऊँचा उसका शरीर था, शुल्‍क लेश्‍या थी, साढ़े ग्‍यारह माह में एक बार श्‍वास लेता था, तेईस हजार वर्ष बाद मन से आहार का स्‍मरण करता था, उसके भोग प्रवीचार से रहित थे, सातवें नरक के अन्‍त तक उसका अवधिज्ञान था, अवधिज्ञान के क्षेत्र में गमन करने की शक्ति थी, उतनी ही उसके शरीर की प्रभा थी और उतनी ही दूर तक उसका वैक्रियिक शरीर आ जा सकता था ॥10-12॥

इस प्रकार वह श्रीमान् उत्‍तम अहमिन्‍द्र अणिमा, महिमा आदि गुणों से सहित तथा पाँच प्रकार के पुण्‍योदय से प्राप्‍त होनेवाले अहमिन्‍द्र के सुखों का अनुभव करता था ॥13॥

अथानन्‍तर इसी जम्‍बूद्वीप के भरत क्षेत्र में श्रावस्‍ती नगरी का राजा दृढ़राज्‍य था । वह इक्ष्‍वाकुवंशी तथा काश्‍यपगोत्री था । उसके शरीर की कान्ति बहुत ही उत्‍तम थी । सुषेणा उसकी स्‍त्री का नाम था । जब पूर्वोक्‍त देव के अवतार लेने में छहमास बाकी रह गये तब सुषेणा रत्‍नवृष्टि आदि माहात्‍म्‍य को प्राप्‍त हुई । फाल्‍गुन शुल्‍क अष्‍टमी के दिन प्रात:काल के समय मृगशिरा नक्षत्र में पुण्‍योदय से रानी सुषेणा ने सोलह स्‍वप्‍न देखे ॥14-16॥

तदनन्‍तर स्‍वप्‍न में ही उसने देखा कि सुमेरू पर्वत के शिखर के समान आकारवाला तथा सुन्‍दर लक्षणों से युक्त एक श्रेष्‍ठ हाथी उसके मुख में प्रवेश कर रहा है ॥17॥

अपने पति से उन स्‍वप्‍नों का फल सुनकर वह आनन्‍द को प्राप्‍त हुई । उसी दिन वह अहमिन्‍द्र उसके गर्भ में आया । तदनन्‍तर नवमें महीने में कार्तिक शुल्‍का पौर्णमासी के दिन मृगशिरा नक्षत्र और सौम्‍य योग में उसने तीन ज्ञानों से युक्‍त उस पूज्‍य अहमिन्‍द्र पुत्र को प्राप्‍त किया । जन्‍मकल्‍याणक-सम्‍बन्‍धी उत्‍सव हो जानेके बाद उसका 'संभव' यह नाम प्रसिद्ध हुआ ॥18-19॥

इन्‍द्रों ने उस समय भगवान् संभवनाथ की इस प्रकार स्‍तुति की -- हे संभवनाथ ! तीर्थंकर नाम-कर्म के उदय के बिना ही केवल आपके जन्‍म से ही आज जीवों को सुख मिल रहा है । इसलिए आपका संभवनाथ नाम सार्थक है ॥20॥

हे भगवन् ! जिसमें अनेक लक्षण और वयज्‍जनारूपी फूल लग रहे हैं तथा जो लम्‍बी-लम्‍बी भुजाओंरूपी शाखाओं से सुशोभित है ऐसे आपके शरीररूपी आम्रवृक्षपर देवों के नेत्ररूपी भ्रमर चिरकाल तक तृप्‍त रहते हैं ॥21॥

हे देव ! जिस प्रकार स्यादवाद का निर्मल तेज कपिल आदि के मतों का तिरस्कार करता हुआ सुशोभित होता है उसी प्रकार आपका निर्मल तेज भी अन्‍य लोगों के तेज को तिरस्‍कृत करता हुआ सुशोभित हो रहा है ॥22॥

जिस प्रकार सब जीवों को आह्लादित करनेवाली सुगन्धि से चन्‍दन जगत् का हित करता है उसी प्रकार आप भी साथ उत्‍पन्‍न हुए तीन प्रकार के ज्ञान से जगत् का हित कर रहे हैं ॥23॥

हे नाथ ! आपके स्‍नेहसे बढ़ा हुआ यह लोक, दीपकके समान कारण के बिना ही हित करनेवाले तथा खजाने के समान देदीप्‍यमान आपको नमस्‍कार कर रहा है ॥24॥

इस प्रकार स्‍तुतिकर जिसने आनन्‍द नाम का नाटक किया है ऐसा प्रथम स्‍वर्ग का अधिपति सौधर्मेन्‍द्र माता-पिता के लिए भगवान् को सौंपकर देवों के साथ स्‍वर्ग चला गया ॥25॥

द्वितीय तीर्थंकर की तीर्थ-परम्‍परा में जब तीस लाख करोड़ सागर बीत चुके थे तब संभवनाथ स्‍वामी उत्‍पन्‍न हुए थे । उन‍की आयु भी इसी अन्‍तराल में सम्मिलित थी । उनकी साठ लाख पूर्व की आयु थी, चार सौ धनुष ऊँचा शरीर था, जब उनकी आयु का एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्‍हें राज्‍य का महान् वैभव प्राप्‍त हुआ था । वे सदा देवोपनीत सुखों का अनुभव किया करते थे ॥26-28॥

इस प्रकार सुखोपभोग करते हुए जब चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वांग व्‍यतीत हो चुके तब किसी दिन मेघों का विभ्रम देखने से उन्‍हें आत्‍मज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया, वे उसी समय विरक्‍त हो गये और संसारका अन्‍त करनेवाले श्रीसंभवनाथ स्‍वामी अपने मन में आयु आदिका इस प्रकार विचार करने लगे ॥29-30॥

कि प्राणी के भीतर रहनेवाला आयुकर्म ही यमराज है, अन्‍य वालों ने भूल से किसी दूसरेको यमराज बतलाया है, संसार के प्राणी इस रहस्‍य को नहीं जानते अत: अनन्‍तवार यमराज के द्वारा मारे जाते हैं ॥31॥

यमराज इसी शरीर में रहकर इस शरीर को नष्‍ट करता है फिर भी इस जीव की मूर्खता देखो कि यह इसी शरीर में वास करता है ॥32॥

रागरूपी रस में लीन हुआ यह जीव विष के समान नीरस विषयोंको भी सरस मानकर सेवन करता है इसलिए अनादि काल से चले आये इसकी बुद्धि के विभ्रमको धिक्‍कार है ॥33॥

आत्‍मा, इन्‍द्रिय, आयु और इष्‍ट पदार्थ के संनिधानसे संसार में सुख होता है सो आत्‍मा का सन्निधान तो इस जीव के सदा विद्यमान रहता है फिर भी यह जीव क्‍यों नहीं जानता और क्‍यों नहीं इसका विचार करता । यह लक्ष्‍मी बिजलीकी चमक के समान कभी भी स्थिरताको प्राप्‍त नहीं होती । जो जीव इसकी इच्‍छा को छोड़ देता है वही निर्मल सम्‍यग्‍यान की किरणों से प्रकाशमान मोक्षलक्ष्‍मी को प्राप्‍त हो सकता है ॥34-35॥

इस प्रकार पदार्थ के सार को ग्रहण करनेवाले संभवनाथ स्‍वामी की स्‍तुति कर लौकान्तिक देव चले गये । तथा भगवान् भी अपने पुत्र के लिए राज्‍य देकर दीक्षा कल्‍याणकका उत्‍सव प्राप्‍त करते हुए देवों द्वारा उठाई हुई सिद्धार्थ नाम की पालकीमें सवार हो नगरसे बाहर निकले और सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ॥36-37॥

दीक्षा लेते ही उन्‍हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्‍त हो गया । सुवर्ण के समान प्रभा को धारण करनेवाले भगवान् ने दूसरे दिन भिक्षाके हेतु श्रावस्‍ती नगरी में प्रवेश किया ॥38॥

वहाँ कांचन जैसी कान्ति के धारक सुरेन्‍द्रदत्‍त नामक राजा ने उन्‍हें पगाहकर आहार दान दिया और जिसमें अनेक रत्‍न चमक रहे हैं ऐसे पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥39॥

इस प्रकार शुद्ध बुद्धि के धारक भगवान् संभवनाथ चौदह वर्ष तक छद्मस्‍थ अवस्‍था में मौन से रहे । तदनन्‍तर दीक्षावन में पहुँचकर शाल्‍मली वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्‍ण चतुर्थीके दिन जन्‍मकालीन मृगशिर नक्षत्र में शाम के समय वेला का नियम लेकर ध्‍यानारूढ़ हुए और चार घातिया कर्मरूपी पाप-प्रकृतियों को नष्‍ट कर अनन्‍तचतुष्‍टयको प्राप्‍त हुए ॥40-41॥

उसी समय इन्‍होनें कल्‍पवासियों तथा ज्‍यौतिष्‍क आदि तीन प्रकार के देवों के साथ कैवल्‍य महोत्सव किया - ज्ञानकल्‍याणक उत्‍सव किया ॥42॥

जिस प्रकार छोटे-छोटे अन्‍य अनेक पर्वतोंसे घिरा हुआ सुमेरू पर्वत शोभित होता है उसी प्रकार चारूषेण आदि एक सौ पाँच गणधरोंसे घिरे हुए भगवान् संभवनाथ सुशोभित हो रहे थे ॥43॥

वे दो हजार एक सौ पचास पूर्वधारियों से परिवृत थे, एक लाख उन्‍तीस हजार तीन सौ शिक्षकों से युक्‍त थे ॥44॥

नौ हजार छह सौ अवधि ज्ञानियों से सहित थे, पन्‍द्रह हजार केवलज्ञानियों से युक्‍त थे ॥45॥

उन्‍नीस हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक उनके साथ थे, बारह हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी उनकी सभा में थे ॥46॥

तथा बारह हजार वादियों से सुशोभित थे, इस प्रकार वे सब मिलाकर दो लाख मुनियों से अत्‍यन्‍त शोभा पा रहे थे ॥47॥

धर्मार्याको आदि लेकर तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ थी, तीन लाख श्रावक थे, पाँच लाख श्राविकाएँ थीं, असंख्‍यात देव-देवियाँ और संख्‍यात तिर्यंच उनकी स्‍तुति करते थे । इस प्रकार वे भगवान्, धर्म को धारण करनेवाली बारह सभाओं के स्‍वामी थे ॥48-49॥

वे चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहायोंके प्रभु थे, दिव्‍यध्‍वनिरूपी चाँदनीके द्वारा सबको आह्लादित करते थे तथा नमस्‍कार करनेवालोंको सूर्य के समान प्रकाशित करते थे ॥50॥

भगवान् संभवनाथ ने चन्‍द्रमा को तिरस्‍कृत कर दिया था क्‍योंकि चन्‍द्रमा सुदी और वदी दोनों पक्षों में संचार करता है परन्‍तु भगवान् शुद्ध अर्थात् निर्दोष पक्ष में ही संचार करते थे, चन्‍द्रमा दिन में लक्ष्‍मीहीन हो जाता है परन्‍तु भगवान् मोक्ष-लक्ष्‍मी से सहित थे, चन्‍द्रमा कलंक सहित है परन्‍तु भगवान् निष्‍कलंक-निष्‍पाप थे, चन्‍द्रमा सातंक-राहु आदि के आक्रमण के भय से युक्‍त अथवा क्षय रोग से सहित है परन्‍तु भगवान् निरातंक-निर्भय और नीरोग थे, चन्‍द्रमा के राहु तथा मेघ आदि के आवरणरूप अनेक शत्रु हैं परन्‍तु भगवान् शत्रु-रहित थे, चन्‍द्रमा कुपक्ष-कृष्‍ण पक्ष को करनेवाला है परन्‍तु भगवान् कुपक्ष-मलिन सिद्धान्‍त को नष्‍ट करनेवाले थे, चन्‍द्रमा दिन में ताराओं से रहित दिखता है परन्‍तु भगवान् सदा मुनि रूपी तारागणों से युक्‍त रहते थे, चन्‍द्रमा काम को बढ़ानेवाला है परन्‍तु भगवान् काम के शत्रु थे, चन्‍द्रमा तेज-रहित है परन्‍तु भगवान् महान् तेज के धारक थे, चन्‍द्रमा पूर्णिमा के सिवाय अन्‍य तिथियों में वृत्‍ताकार न रहकर भिन्‍न-भिन्‍न आकार का धारक होता है परन्‍तु भगवान् सदा सद्वृत्‍त-सदाचार के धारक रहते थे, चन्‍द्रमा केवल पूर्णिमा को ही पूर्ण रहता है अन्‍य तिथियों में अपूर्ण रहता है परन्‍तु भगवान् सदा ज्ञानादि गुणों से पूर्ण रहते थे, चन्‍द्रमा के निकट ध्रुव ताराका उदय नहीं रहता परन्‍तु भगवान् सदा अभ्‍यर्ण ध्रुवोदय थे-उनका अभ्‍युदय ध्रुव अर्थात् स्‍थायी था, चन्‍द्रमा केवल मध्‍यम लोक के द्वारा सेवनीय है परन्‍तु भगवान् तीनों लोकों के द्वारा सेवनीय थे, चन्‍द्रमा कमलों को मुकुलित कर देता है परन्‍तु भगवान् सदा भव्‍य जीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करते थे अथवा भव्‍यजीवों की प्रद्मा अर्थात् लक्ष्‍मी को बढ़ाते थे, चन्‍द्रमा केवल बाह्य अन्‍धकार को ही नष्‍ट करता है परन्‍तु भगवान् ने बाह्य और आभ्‍यन्‍तर दोनों प्रकार के अन्‍धकार को नष्‍ट कर दिया था, तथा चन्‍द्रमा केवल लोक को प्रकाशित करता है परन्‍तु भगवान् ने लोक-अलोक दोनों को प्रकाशित कर दिया था । इस प्रकार चन्‍द्रमा को तिरस्‍कृत कर धर्म की वर्षा करने के लिए भगवान् ने आर्य देशों में विहार किया था सो ठीक ही है क्‍योंकि सत्‍पुरूषों की चेष्‍टा मेघके समान सब लोगों को सुख देनेवाली होती है ॥51-54॥

अन्‍त में जब आयु का एक माह अवशिष्‍ट रह गया तब उन्‍होनें सम्‍मेदाचल प्राप्‍त कर विहार बन्‍द कर दिया और एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया ॥55॥

तथा चैत्र-मास के शुक्‍ल-पक्ष की षष्‍ठी के दिन जब कि सूर्य अस्‍त होना चाहता था तब अपने जन्‍म-नक्षत्र में मोक्ष-लक्ष्‍मी को प्राप्‍त किया ॥56॥

जो पंचम ज्ञान (केवलज्ञान) के स्‍वामी हैं और पंचम गति (मोक्षावस्‍था) को प्राप्‍त हुए हैं ऐसे भगवान् संभवनाथ की पंचमकल्‍याणक-निर्वाण-कल्‍याणक में पूजा कर पुण्‍य का संचय करने वाले देव यथास्‍थान चले गये ॥57॥

उपायों के जानने में निपुण भगवान् संभवनाथ ने छठवें से लेकर चौदहवें तक संयम के उत्‍तम गुणस्‍थानों का उल्‍लंघन किया, अत्‍यन्‍त दुष्‍ट आठ कर्मरूपी शत्रुओं का विनाश किया, अत्‍यन्‍त इष्‍ट सम्‍यक्‍त्‍व आदि आठ गुणों को अपना अविनश्‍वर शरीर बनाया और अष्‍टम भूमि में अनन्‍त सुख से युक्‍त हो सुशोभित होने लगे ॥58॥

जिन्‍होंने अनन्‍त-चतुष्‍टयरूप विशाल तथा निर्मल लक्ष्‍मी प्राप्‍त की है, जिन्‍होंने शरीर-रहित मोक्ष-लक्ष्‍मी का साक्षात्‍कार किया है, जिन्‍होंने अपने शरीर की प्रभा से सूर्य को पराजित कर दिया है, जो पहले इस पृथ्वी पर विमलवाहन राजा हुए थे, फिर अहमिन्‍द्र हुए और तदनन्‍तर जिन्‍होंने पंचकल्‍याणक लक्ष्‍मी का आलिंगन प्राप्‍त किया ऐसे श्री संभवनाथ स्‍वामी तुम सबका कल्‍याण करें ॥59॥