+ भगवान श्रेयांसनाथ, विजय बलभद्र, त्रिपृष्ठ नारायण और अश्वग्रीव प्रतिनारायण चरित -
पर्व - 57

  कथा 

कथा :

दूसरा आश्रय लेने योग्‍य नहीं है - इस तरह कल्‍याणके अभिलाषी मनुष्‍यों के द्वारा आश्रय करने योग्‍य भगवान् श्रेयांसनाथ हम सबके कल्‍याणके लिए हों ॥1॥

पुष्‍करार्ध द्वीपसम्‍बन्‍धी पूर्व विदेह क्षेत्रके सुकच्‍छ देशमें सीता नदी के उत्‍तर तट पर क्षेमपुर नाम का नगर है । उसमें समस्‍त शत्रुओं को नम्र करनेवाला त‍था प्रजाके अनुराग से प्राप्‍त अचिन्‍त्‍य महिमाका आश्रयभूत नलिनप्रभ नाम का राजा राज्‍य करता था ॥2–3॥

पृथक्-पृथक् तीन भेदोंके द्वारा जिनका निर्णय किया गया है ऐसी शक्तियों, सिद्धियों और उदयों से जो अभ्‍युदयको प्राप्‍त है तथा शान्ति और परिश्रमसे जिसे क्षेम और योग प्राप्‍त हुए हैं ऐसा यह राजा सदा बढ़ता रहता था ॥4॥

वह राजा न्‍याय-पूर्वक प्रजा का पालन करता था और स्‍नेह पूर्ण पृ‍थिवीको मर्यादामें स्थित कर उसका भूभृत्पना सार्थक था ॥5॥

समीचीन मार्ग में चलनेवाले उस श्रेष्‍ठ राजा में धर्म तो धर्म ही था, किन्‍तु अर्थ तथा काम भी धर्म युक्‍त थे । अत: वह धर्ममय ही था ॥6॥

इस प्रकार स्‍वकृत पुण्‍यकर्म के उदय से प्राप्‍त सुखकी खान स्‍वरूप यह राजा लोकपालके समान इस समस्‍त पृथिवी का दीर्घकाल तक पालन करता रहा ॥7॥

एक दिन वनपालसे उसे मालूम हुआ कि सहस्‍त्राम्रवणमें अनन्‍त जिनेन्‍द्रदेवकी पूजाकी, चिरकाल तक स्‍तुतिकी, नमस्‍कार किया और फिर अपने योग्‍य स्‍थान पर बैठ गया । तदनन्‍तर धर्मोपदेश सुनकर उसे तत्‍त्‍वज्ञान उत्‍पन्‍न हुआ जिससे इस प्रकार चिन्‍तवन करने लगा कि किसका कहाँ किसके द्वारा किस प्रकार किससे और कितना कल्‍याण हो सकता है यह न जान कर मैंने खेद - खिन्‍न होते हुए अनन्‍त जन्‍मोंमें भ्रमण किया है । मैंने जो बहुत प्रकार का परिग्रह इकट्ठा कर रक्‍खा है वह मोह वश ही किया है इसलिए इसके त्‍यागसे यदि निर्वाण प्राप्‍त हो सकता है, तब समय बितानेसे क्‍या लाभ है ॽ ॥8–11॥

ऐसा विचार कर उसने गुणों से सुशोभित सुपुत्र नामक पुत्र के लिए राज्‍य देकर बहुत - से राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया ॥12॥

ग्‍यारह अंगोका अध्‍ययन किया, तीर्थंकर नाम - कर्म का बन्‍ध किया और आयु के अन्‍त में समाधिमरण कर सोलहवें अच्‍युत स्‍वर्गके पुष्‍पोत्‍तर विमान में अच्‍युत नाम का इन्‍द्र हुआ । वहाँ बाईस सागर प्रमाण उसकी आयु थी, तीन हाथ ऊँचा शरीर था, और ऊपर जिनका वर्णन आ चुका है ऐसी लेश्‍या आदिसे सहित था ॥13–14॥

दिव्‍य भावोंको धारण करनेवाली सुन्‍दर देवियोंके साथ उसने बहुत समय तक प्रतिदिन उत्‍तमसे उत्‍तम सुखों का बड़ी प्रीतिसे उपभोग किया ॥15॥

कल्‍पातीत-सोलहवें स्‍वर्ग के आगे के अहमिन्‍द्र विराग हैं - राग रहित हैं और अन्‍य देव अल्‍प सुखवाले हैं इसलिए संसार के सबसे अधिक सुखों से संतुष्‍ट होकर वह अपनी आयु व्‍यतीत करता था ॥16॥

वहाँ के सुख भोगकर जब वह यहाँ आने के लिए उद्यत हुआ तब इसी जम्‍बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर का स्‍वामी इक्ष्‍वाकु वंश से प्रसिद्ध विष्‍णु नाम का राजा राज्‍य करता था ॥17॥

उसकी वल्‍लभाका नाम सुनन्‍दा था । सुनन्‍दाने गर्मधारणके छह माह पूर्व से ही रत्‍नवृष्टि आदि कई तरहकी पूजा प्राप्‍त की थी ॥18॥

ज्‍येष्‍ठकृष्‍ण षष्‍ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में प्रात:काल के समय उसने सोलह स्‍वप्‍न तथा अपने मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा ॥19॥

पतिसे उनका फल जानकर वह बहुत ही हर्षको प्राप्‍त हुई । उसी समय इन्‍द्रों ने आकर गर्भ-कल्‍याणकका महोत्‍सव किया ॥20॥

उत्‍तम सन्‍तानको धारण करनेवाली सुनन्‍दाने पूर्वोक्‍त विधिसे नौ माह बिता कर फाल्‍गुनकृष्‍ण एकादशी के दिन विष्‍णुयोग में तीन ज्ञानोंके धार‍क तथा महाभाग्‍यशाली उस अच्‍युतेन्‍द्रको संसार के संतोष के लिए उस प्रकार उत्‍पन्‍न किया जिस प्रकार कि मेघमाला उत्‍तम वृष्टिको उत्‍पन्‍न करती है ॥21–22॥

जिस प्रकार शरद-ऋतुके आनेपर सब जगहके जलाशय शीघ्र ही प्रसन्‍न - स्‍वच्‍छ हो जाते हैं उसी प्रकार उनका जन्‍म होते ही सब जीवों के मन प्रसन्‍न हो गये थे - हर्ष से भर गये थे ॥23॥

भगवान् का जन्‍म होने पर याचक लोग धन पाकर हर्षित हुए थे, धनी लोग दीन मनुष्‍यों को संतुष्‍ट करनेसे हर्षित हुए थे और वे दोनों इष्‍ट भोग पाकर सुखी हुए थे ॥24॥

उस समय सब जीवों को सुख देनेवाली समस्‍त ऋतुएँ मिलकर अपने - अपने मनोहर भावोंसे प्रकट हुई थीं ॥25॥

बड़ा आश्‍चर्य था कि उस समय भगवान् का जन्‍म होने पर रोगी मनुष्‍य निरोग हो गये थे, शोक वाले शोक शोक-रहित हो गये थे, और पापी जीव धर्मात्‍मा बन गये थे ॥26॥

जब उस समय साधारण मनुष्‍यों को इतना संतोष हो रहा था तब मा‍ता-पिता के संतोषका प्रमाण कौन बता सकता है ॽ ॥27॥

शीघ्र ही चारों निकायके देव अपने शरीर तथा आभरणों की प्रभाके समूह से समस्‍त संसार को तेजोमय करते हुए चारों ओरसे आ गये ॥28॥

मनोहर दुन्‍दुभियाँ बजने लगीं, पुष्‍प–वर्षाएँ होने लगीं, देव-नर्तकियाँ नृत्‍य करने लगीं और स्‍वर्गके गवैया मधुर गान गाने लगे ॥29॥

'यह लोक देव लोक है अथवा उससे भी अधिक वैभव को धारण करनेवाला कोई दूसरा ही लोक है' इस प्रकार देवों के शब्‍द निकल रहे थे ॥30॥

सौधर्मेन्‍द्र ने स्‍वयं उत्‍तम आभूषणादि से भगवान् के माता-पिता को संतुष्‍ट किया और इन्‍द्रा‍णी ने माया से माता को संतुष्‍ट कर जिन-बालक को उठा लिया ॥31॥

सौधर्मेन्‍द्र जिन-बालक को ऐरावत हाथी के कन्‍धे पर विराजमान कर देवों की सेना के साथ लीला-पूर्वक महा-तेजस्‍वी महामेरू पर्वत पर पहुँचा ॥32॥

वहाँ उसने पंचम क्षीरसमुद्र से लाये हुए क्षीर रूप जलके कलशोंके समूह से भगवान् का अभिषेक किया, आभूषण पहिनाये और बड़े हर्ष के साथ उनका श्रेयांस यह नाम रक्‍खा ॥33॥

इन्द्र मेरु पर्वत से लौटकर नगर में आया और जिन-बालक को माता की गोद में रख, देवों के साथ उत्‍सव मनाता हुआ स्‍वर्ग चला गया ॥34॥

जिस प्रकार किरणोंके द्वारा क्रम - क्रम से कान्ति को पुष्‍ट करनेवाले बाल - चन्‍द्रमा के अवयव बढ़ते रहते हैं उसी प्रकार गुणों के साथ - साथ उस समय भगवान् के शरीरावयव बढ़ते रहते थे ॥35॥

शीतलनाथ भगवान् के मोक्ष जाने के बाद जब सौ सागर और छयासठ लाख छब्‍बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण अन्‍तराल बीत गया तथा आधे पल्‍य तक धर्म की परम्‍परा टूटी रही तब भगवान् श्रेयांसनाथका जन्‍म हुआ था । उनकी आयु भी इसी अन्‍तराल में शामिल थी । उनकी कुल आयु चौरासी लाख वर्षकी थी । शरीर सुवर्ण के समान कान्तिवाला था, ऊँचाई अस्‍सी धनुष की थी, तथा स्‍वयं बल, ओज और तेजके भंडार थे । जब उनकी कुमारावस्‍थाके इक्‍कीस लाख वर्ष बीत चुके तब सुख के सागर स्‍वरूप भगवान् ने देवों के द्वारा पूजनीय राज्‍य प्राप्‍त किया । उस समय सब लोग उन्‍हें नमस्‍कार करते थे, वे चन्‍द्रमा के समान सबको संतृप्‍त करते थे और अहंकारी मनुष्‍यों को सूर्य के समान संतापित करते थे ॥36–39॥

उन भगवान् ने महामणि के समान अपने आपको तेजस्‍वी बनाया था, समुद्र के समान गम्‍भीर किया था, चन्‍द्रमा के समान शीतल बनाया था और धर्मके समान चिरकाल तक कल्‍याणकारी श्रुत-स्‍वरूप बनाया था ॥40॥

पूर्व जन्म में अच्छी तरह से किए हुए पुण्य-कर्म से उन्हें सर्व प्रकार की संपदाएं तो स्वयं प्राप्त हो गई थीं अत: उनकी बुद्धि और पौरुष की व्याप्ति सिर्फ धर्म और काम में ही रहती थी । भावार्थ- उन्‍हें अर्थ की चिन्‍ता नहीं करनी पड़ती थी ॥41॥

देवों के द्वारा किये हुए पुण्‍यानुबन्‍धी शुभ विनोदोंमें स्त्रियों के साथ क्रीडा करते हुए उनके दिन व्‍यतीत हो रहे थे ॥42॥

इस प्रकार बयालीस वर्ष तक उन्‍होंने राज्‍य किया । तदनन्‍तर किसी दिन वसन्‍त ऋतु का परिवर्तन देखकर वे विचार करने लगे कि जिस काल ने इस समस्‍त संसार को ग्रस्‍त कर रक्‍खा है वह काल भी जब क्षण घड़ी घंटा आदिके परिवर्तनसे नष्‍ट होता जा रहा है तब अन्‍य किस पदार्थमें स्थिरता रह सकती है ॽ यथार्थमें यह समस्‍त संसार विनश्‍वर है, जब तक शाश्‍वत पद - अविनाशी मोक्ष पद नहीं प्राप्‍त कर लिया जाता है तब तक एक जगह सुख से कैसे रहा जा सकता है ॽ ॥43–45॥

भगवान् ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उसी समय सारस्‍वत आदि लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी स्‍तुति की । उन्‍होंने श्रेयस्‍कर पुत्र के लिए राज्‍य दिया, इन्‍द्रों के द्वारा दीक्षा-कल्‍याणक के समय होनेवाला महाभिषेक प्राप्‍त किया और देवों के द्वारा उठाई जानेके योग्‍य विमलप्रभा नाम की पालकी पर सवार होकर मनोहर नामक महान् उद्यानकी ओर प्रस्‍थान किया । वहाँ पहुँच कर उन्‍होंने दो दिन के लिए आहारका त्‍याग कर फाल्‍गुन कृष्‍ण एकादशी के दिन प्रात:काल के समय श्रवण नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया । उसी समय उन्‍हें चौथा मन:पर्ययज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया । दूसरे दिन उन्‍होंने भोजनके लिए सिद्धार्थ नगर में प्रवेश किया ॥46–49॥

वहाँ उनके लिए सुवर्ण के समान कान्तिवाले नन्‍द राजा ने भक्ति-पूर्वक आहार दिया जिससे उत्‍तम बुद्धिवाले उस राजा ने श्रेष्‍ठ पुण्‍य और पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥50॥

इस प्रकार छद्मस्‍थ अवस्‍थाके दो वर्ष बीत जाने पर एक दिन महामुनि श्रेयांसनाथ मनोहर नामक उद्यानमें दो दिनके उपवास का नियम लेकर तुम्‍बुर वृक्ष के नीचे बैठे और वहीं पर उन्‍हें माघकृष्‍ण अमावस्‍याके दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय केवलज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया ॥51–52॥

उसी समय अनेक ऋद्धियों से सहित चार निकाय के देवों ने उनके चतुर्थ कल्‍याणक की पूजा की ॥53॥

भगवान् कुन्‍थुनाथ, कुन्‍यु आदि सतहत्‍तर गणधरों के समूह से घिरे हुए थे, तेरह सौ पूर्वधारियों से सहित थे, अड़तालीस हजार दो सौ उत्‍तम शिक्षक मुनियों के द्वारा पूजित थे, छह हजार अवधि - ज्ञानियों से सम्‍मानित थे, छह हजार पाँचसौ केवलज्ञानी रूपी सूर्योंसे सहित थे, ग्‍यारह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारकों से सुशोभित थे, छह हजार मन:पर्ययज्ञानियों से युक्‍त थे, और पाँच हजार मुख्‍य वादियों से सेवित थे । इस प्रकार सब मिलाकर चौरासी हजार मुनियों से सहित थे । इनके सिवाय एक लाख बीस हजार धारणा आदि आर्यिकाएँ उनकी पूजा करती थीं, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ उनके साथ थीं, पहले कहे अनुसार असंख्‍यात देव - देवियाँ और संख्‍यात तिर्यंच सदा उनके साथ रहते थे । इस प्रकार विहार करते और धर्म का उपदेश देते हुए वे सम्‍मेदशिखर पर जा पहुँचे । वहाँ एक माह तक योग - निरोध कर एक हजार मुनियों के साथ उन्‍होंने प्रतिमायोग धारण किया । श्रावणशुल्‍का पौर्णमासी के दिन सायंकाल के समय धनिष्‍ठा नक्षत्र में विद्यमान कर्मोंकी असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा की और अ इ उ ऋ लृ इन पाँच लघु अक्षरों के उच्‍चारण में जितना समय लगता है उतने समयमें अन्तिम दो शुक्‍लध्‍यानों से समस्‍त कर्मों को नष्‍ट कर पंचमी गति में स्थित हो वे भगवान् श्रेयांसनाथ मुक्‍त होते हुए सिद्ध हो गये ॥54–62॥

इसके बिना हमारा टिमकार-रहित पना व्‍यर्थ है ऐसा विचार कर देवों ने उसी समय उनका निर्वाण-कल्‍याणक किया और उत्‍सव कर सब स्‍वर्ग चले गये ॥63॥

जिनके ज्ञानने उत्‍पन्‍न होते ही समस्‍त अन्‍धकार को नष्‍ट कर सब चराचर विश्‍वको देख लिया था, और कोई प्रतिपक्षी न होनेसे जो अपने ही स्‍वरूप में स्थित रहा था ऐसे श्री श्रेयांसनाथ जिनेन्‍द्र तुम सबका अकल्‍याण दूर करें ॥64॥

'हे प्रभो ! आपके वचन, सत्‍य, सबका हित करने वाले तथा दयामय हैं । इसी प्रकार आपका समस्‍त चारित्र सुह्णत् जनों के लिए हितकारी है । हे भगवन्‍ ! आपकी ये दोनों वस्‍तुएँ आपकी परम विशुद्धि को प्रकट करती हैं । हे देव ! इसीलिए इन्‍द्र आदि देव भक्ति-पूर्वक आपका ही आश्रय लेते हैं । इस प्रकार विद्वान् लोग जिनकी स्‍तुति किया करते हैं ऐसे श्रेयांसनाथ भगवान् तुम सबके कल्‍याणके लिए हों' ॥65॥

जो पहले पाप की प्रभा को नष्‍ट करनेवाले श्रेष्‍ठतम न‍लिनप्रभ राजा हुए, तदनन्‍तर अन्तिम कल्‍प में संकल्‍प मात्रसे प्राप्‍त होनेवाले सुखोंकी खान स्‍वरूप, समस्‍त देवों के अधिपति - अच्‍युतेन्‍द्र हुए और फिर त्रिलोकपूजित तीर्थंकर होकर कल्‍याणकारी स्‍याद्वादका उपदेश देते हुए मोक्षको प्राप्‍त हुए ऐसे श्रीमान् श्रेयान्‍सनाथ जिनेन्‍द्र तुम सबकी लक्ष्‍मी के लिए हों - तुम सबको लक्ष्‍मी प्रदान करें ॥66॥

जो जिनसेनके अनुगामी हैं - शिष्‍य हैं तथा लोकसेन नामक शिष्‍यके द्वारा जिनके चरण-कमल पूजित हुए हैं और जो इस पुराण के बनानेवाले कवि हैं ऐसे भदन्‍त गुणभद्राचार्यको नमस्‍कार हो ॥67॥

जिस प्रकार चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती भरत हुआ उसी प्रकार श्रेयान्‍सनाथ के तीर्थ में तीन खण्‍ड को पालन करनेवाले नारायणों में उद्यमी प्रथम नारायण हुआ ॥68॥

उसीका चरित्र तीसरे भव से लेकर कहता हूँ । यह उदय तथा अस्‍त होनेवाले राजाओं का एक अच्‍छा उदाहरण है ॥69॥

इस जम्‍बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक मगधनाम का देश है उसमें राजगृह नाम का नगर है जो कि इन्‍द्रपुरीसे भी उत्‍तम है ॥70॥

स्‍वर्ग से आकर उत्‍पन्‍न होनेवाले राजाओं का यह घर है इसलिए भोगोपभोगकी सम्‍पत्तिकी अपेक्षा उसका 'राजगृह' यह नाम सार्थक है ॥71॥

किसी समय विश्‍वभूति राजा उस राजगृह नगर का स्‍वामी था, उसकी रानी का नाम जैनी था । इन दोनों के एक पुत्र था जो कि सबके लिए आनन्‍ददायी स्‍वभाव वाला होने के कारण विश्‍वनन्‍दी नाम से प्रसिद्ध था ॥72॥

विश्‍वभूति के विशाखभूति नाम का छोटा भाई था, उसकी स्‍त्री का नाम लक्ष्‍मणा था और उन दोनों के विशाखनन्‍दी नाम का पुत्र था ॥73॥

विश्‍वभूति अपने छोटे भाई को राज्‍य सौंपकर तप के लिए चला गया और समस्‍त राजाओं को नम्र बनाता हुआ विशाखभूति प्रजा का पालन करने लगा ॥74॥

उसी राजगृह नगर में नाना गुल्‍मों, लताओं और वृक्षों से सुशोभित एक नन्‍दन नाम का बाग था जो कि विश्वनन्‍दी को प्राणों से अधिक प्‍यारा था ॥75॥

विशाखभूति के पुत्र ने वनावालों को डांटकर जबार्दास्ती वह वन ले लिया जिससे उन दोनों - विश्‍वनन्‍दी और विशाखनन्‍दी में युद्ध हुआ ॥76॥

विशाखनन्‍दी उस युद्ध को नहीं सह सका अत: भाग खड़ा हुआ । यह देखकर विश्‍वनन्‍दी को वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो गया और वह विचार करने लगा कि इस मोह को धिक्‍कार है ॥77॥

वह सब को छोड़कर सम्‍भूत गुरू के समीप आया और काका विशाखभूति को अग्रगामी बनाकर अर्थात् उसे साथ लेकर दीक्षित हो गया ॥78॥

वह शील तथा गुणों से सम्‍पन्‍न होकर अनशन तप करने लगा तथा विहार करता हुआ एक दिन मथुरा नगरी में प्रविष्‍ट हुआ ॥79॥

वहाँ एक छोटे बछड़ेवाली गाय ने क्रोध से धक्‍का दिया जिससे वह गिर पड़ा । दुष्‍टता के कारण राज्‍य से बाहर निकाला हुआ मूर्ख विशाखनन्‍दी अनेक देशों में घूमता हुआ उसी मथुरानगरी में आकर रहने लगा था । वह उस समय एक वेश्‍या के मकान की छत पर बैठा था । वहाँ से उसने विश्‍वनन्‍दी को गिरा हुआ देखकर क्रोध से उसकी हँसी की कि तुम्‍हारा वह पराक्रम आज कहाँ गया ॽ ॥80–81॥

विश्‍वनन्‍दी को कुछ शल्‍य थी अत: उसने विशाखनन्‍दी की हँसी सुनकर निदान किया । तथा प्राणक्षय होने पर महाशुक्र स्‍वर्ग में जहाँ कि पिता का छोटा भाई उत्‍पन्‍न हुआ था, देव हुआ ॥82॥

वहाँ सोलह सागर प्रमाण उसकी आयु थी । समस्‍त आयु भर देवियों और अप्‍सराओं के समूह के साथ के मनचाहे भोग भोगकर वहाँसे च्‍युत हुआ और इस पृ‍थिवी तल पर जम्‍बूद्वीप सम्‍बन्‍धी भरत क्षेत्र के सुरम्‍य देशमें पोदनपुर नगर के राजा प्रजापतिकी प्राणप्रिया मृगावती नाम की महादेवी के शुभ स्‍वप्‍न देखने के बाद त्रिपृष्‍ठ नाम का पुत्र हुआ ॥83–85॥

काका का जीव भी वहाँ से - महाशुक्र स्‍वर्ग से च्‍युत होकर इसी नगरी के राजा की दूसरी पत्‍नी जयावती के विजय नाम का पुत्र हुआ ॥86॥

और विशाखनन्दी चिरकाल तक संसार चक्र में भ्रमण करता हुआ विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी की अलका नगरी के स्वामी मयूरग्रीव राजा के अपने पुण्योदय से शत्रु राजाओं को जीतनेवाला अश्‍वग्रीव नाम का पुत्र हुआ ॥87–88॥

इधर विजय और त्रिपृष्‍ठ दोनों ही प्रथम बलभद्र तथा नारायण थे, उनका शरीर अस्‍सी धनुष ऊँचा था और चौरासी लाख वर्षकी उनकी आयु थी ॥89॥

विजय का शरीर शंख के समान सफेद था और त्रिपृष्‍ठ का शरीर इन्‍द्रनीलमणि के समान नील था । वे दोनों उद्दण्‍ड अश्‍वग्रीव को मारकर तीन खण्‍डों से शोभित पृथिवी के अधिपति हुए थे ॥90॥

वे दोनों ही सोलह हजार मुकुट-बद्ध राजाओं, विद्याधरों एवं व्‍यन्‍तर देवों के आधिपत्‍य को प्राप्‍त हुए थे ॥91॥

त्रिपृष्‍ठ के धनुष, शंख, चक्र, दण्‍ड, असि, शक्ति और गदा ये सात रत्र थे जो कि देवों से सुरक्षित थे ॥92॥

बलभद्रके भी गदा, रत्‍नमाला, मुसल और हल, ये चार रत्‍न थे जो कि सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान, सम्‍यक्चारित्र और तपके समान लक्ष्‍मी को बढ़ानेवाले थे ॥93॥

त्रिपृष्‍ठ की स्‍वयंप्रभा को आदि लेकर सोलह हजार स्त्रियाँ थीं और बलभद्र के चित्‍त को प्रिय लगने वाली आठ हजार स्त्रियाँ थीं ॥94॥

बहुत आरम्‍भ और बहुत परिग्रहको धारण करनेवाला त्रिपृष्‍ठ नारायण उन स्त्रियों के साथ चिरकाल तक रमण कर सातवीं पृथिवी को प्राप्‍त हुआ - सप्‍तम नरक गया । इसी प्रकार अश्‍वग्रीव प्रतिनारायण भी सप्‍तम नरक गया ॥95॥

बलभद्रने भाई के दु:ख से दु:खी होकर उसी समय सुवर्णकुम्‍भ नामक योगिराज के पास संयम धारण क‍र लिया और क्रम-क्रम से अनगार-केवली हुआ ॥96॥

देखो, त्रिपृष्‍ठ और विजय ने साथ ही साथ राज्‍य किया, और चिरकाल तक अनुपम सुख भोगे परन्‍तु नारायण - त्रिपृष्‍ठ समस्‍त दु:खों के महान् गृह स्‍वरूप सातवें नरक में पहुँचा और बलभद्र सुख के स्‍थानभूत त्रिलोक के अग्रभाग पर जाकर अधिष्ठित हुआ इसलिए प्रतिकूल रहनेवाले इस दुष्‍ट कर्म को धिक्‍कार हो । जब तक इस कर्म को नष्‍ट नहीं कर दिया जावे तब तक इस संसार मे सुख का भागी कौन हो सकता है ॽ ॥97॥

त्रिपृष्‍ठ, पहले तो विश्‍वनन्‍दी नाम का राजा हुआ फिर महाशुक्र स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर त्रिपृष्‍ठ नाम का अर्धचक्री - नारायण हुआ और फिर पापों का संचय कर सातवें नरक गया ॥98॥

बलभद्र, पहले विशाखभूति नाम का राजा था फिर मुनि होकर महाशुक्र स्‍वर्ग में देव हुआ, वहाँसे चयकर विजय नाम का बलभद्र हुआ और फिर संसार को नष्‍ट कर परमात्‍मा - अवस्‍था को प्राप्‍त हुआ ॥99॥

प्रतिनारायण पहले विशाखनन्‍दी हुआ, फिर प्रताप रहित हो मरकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा, फिर अश्‍वग्रीव नाम का विद्याधर हुआ जो कि त्रिपृष्‍ठ नारायण का शत्रु होकर अधोगति-नरक गति को प्राप्‍त हुआ ॥100॥