कथा :
जिनका कहा हुआ समीचीन धर्म, कर्मरूपी सूर्यकी किरणों से संतप्त प्राणियोंके लिए चन्द्रमा के समान शीतल है - शान्ति उत्पन्न करनेवाला है वे शीतलनाथ भगवान् हम सबके लिए शीतल हों - शान्ति उत्पन्न करनेवाले हों ॥1॥ पुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध भाग में जो मेरू पर्वत है उसकी पूर्व दिशा के विदेह क्षेत्र में सीतानदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है । उसके सुसीमा नगर में पद्मगुल्म नाम का राजा राज्य करता था । राजा पद्मगुल्म साम, दान, दण्ड और भेद इन चार उपायों का ज्ञाता था, सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और विनिपातप्रतीकार इन पाँच अंगोंसे निर्णीत संधि और विग्रह-युद्ध के रहस्य को जानने वाला था । उसका राज्य-रूपी वृक्ष बुद्धि-रूपी जलके सिंचनसे खूब वृद्धि को प्राप्त हो रहा था, तथा स्वामी, मंत्री, किला, खजाना, मित्र, देश और सेना इन सात प्रकृतिरूपी शाखाओं से विस्तार को प्राप्त होकर धर्म, अर्थ और कामरूपी तीन फलों को निरन्तर फलता रहता था ॥2–4॥ वह प्रताप - रूपी बड़वानल की चंचल ज्वालाओं के समूह से अत्यन्त देदीप्यमान था तथा उसने अपने चन्द्रहास - खंगकी धाराजल के समुद्र में समस्त शत्रु राजा रूप - पर्वतोंको डुबा दिया था ॥5॥ उस गुणवान् राजा ने दैव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्वसाधारणके द्वारा उपभोग करने योग्य बना दिया था । साथ ही वह स्वयं भी उसका उपभोग करता था ॥6॥ न्यायोपार्जित धनके द्वारा याचकों के समूह को संतुष्ट करने वाला तथा समस्त ऋतुओं के सुख भोगनेवाला राजा पद्मगुल्म जब इस धरा-चक्र का - पृथवी-मण्डल का पालन करता था तब उसके समागम की उत्सुकता से ही मानो वसन्त ऋतु आ गई थी । कोकिलाओं और भ्रमरोंके मनोहर शब्द ही उसके मनोहर शब्द थे, वृक्षोके लहलहाते हुए पल्लव ही उसके ओठ थे, सुगन्धि से एकत्रित हुए मत्त भ्रमरों से सहित पुष्प ही उसके नेत्र थे, कुहरा से रहित निर्मल चाँदनी ही उसका हास्य था, स्वच्छ आकाश ही उसका वस्त्र था, सम्पूर्ण चन्द्रमा का मण्डल ही उसका मुख था, मौलिश्री की सुगन्धि से सुवासित मलय समीर ही उसका श्वासोच्छ्वास था और कनेरके फूल ही उसके शरीर की पीत कान्ति थी ॥7–10॥ कामदेव यद्यपि शरीरहित था और उसके पास सिर्फ पाँच ही वाण थे, तो भी वह राजा पद्मगुल्म को इस प्रकार निष्ठुरतासे पीड़ा पहुँचाने लगा जैसे कि अनेक वाणोंसहित हो सो ठीक ही है क्योंकि समय का बल पाकर कौन नहीं बलबान् हो जाता है ॽ ॥11॥ जिसका मन वसन्त–लक्ष्मी ने अपने अधीन कर लिया है तथा जो अनेक सुख प्राप्त करना चाहता है ऐसा वह राजा प्रीतिको बढ़ाता हुआ उस वसन्तलक्ष्मी के साथ निरन्तर क्रीड़ा करने लगा ॥12॥ परन्तु जिस प्रकार वायु से उड़ाई हुई मेघमाला कहीं जा छिपती है उसी प्रकार कालरूपी वायु से उड़ाई वह वसन्त-ऋतु कहीं जा छिपी-नष्ट हो गई और उसके नष्ट होनेसे उत्पन्न हुए शोक के द्वारा उसका चित्त बहुतही व्याकुल हो गया ॥13॥ वह विचार करने लगा कि यह काम बड़ा दुष्ट है, यह पापी समस्त संसार को दु:खी करता है, सबके चित्तमें रहता है और विग्रह शरीर रहित होने पर भी विग्रही - शरीरसहित (पक्ष में उपद्रव करने वाला) है ॥14॥ मैं उस कामको आज ही ध्यानरूपी अग्निके द्वारा भस्म करता हूँ । इस प्रकार उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ । वह चन्दन नामक पुत्र के लिए राज्य का भार सौंपकर आनन्द नामक मुनिराज के समीप पहुँचा और समस्त परिग्रह तथा शरीरसे विमुख हो गया ॥15–16॥ शान्त परिणामों को धारण करनेवाले उसने विपाकसूत्र तक सब अंगों का अध्ययन किया, चिरकाल तक तपश्चरण किया, तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध किया, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन आराधनाओं का साधन किया तथा आयु के अन्त में वह समाधिमरण कर आरण नामक पन्द्रहवें स्वर्ग में विशाल वैभव को धारण करनेवाला इन्द्र हुआ ॥17–18॥ वहाँ उसकी आयु बाईस सागर की थी, तीन हाथ ऊँचा उसका शरीर था, द्रव्य और भाव दोनों ही शुक्ललेश्याएँ थी, ग्यारह माह में श्वास लेता था, बाईस हजार वर्षमें मानसिक आहार लेकर संतुष्ट रहता था, लक्ष्मीमान् था, मानसिक प्रवीचारसे युक्त था, प्राकाम्य आदि आठ गुणोंका धारक था, छठवें नरक के पहले-पहले तक व्याप्त रहनेवाले अवधिज्ञान से देदीप्यमान था, उतनी ही दूर तक उसका बल तथा विक्रिया शक्ति थी और बाह्य-विकारों से रहित विशाल श्रेष्ठ सुखरूपी सागरका पारगामी था, इस प्रकार उसने अपनी असंख्यात वर्ष की आयु को काल की कलाके समान - एक क्षण के समान बिता दिया ॥19–22॥ जब उस इंद्रा की आयु छह माह की बाकी रह गई और वह पृथ्वी पर आने के लिए उद्यत हुआ तब जम्बू-द्वीप के भरत-क्षेत्र सम्बन्धी मलय नामक देश में भद्रपुर नाम का स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा दृढ़रथ राज्य करता था । कुबेर की आज्ञा से यक्ष जाती के देवों ने छह मास पहले से रत्नों के द्वारा सुनन्दा का घर भर दिया । मानवती सुनन्दा ने भी रात्रि के अन्तिम भाग में सोलह-स्वप्न देखकर अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा । प्रात:काल राजा से उनका फल ज्ञात किया और उसी समय चैत्र-कृष्ण अष्टमी के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में सद्वृत्तता (सदाचार) आदि गुणों से उपलक्षित वह देव स्वर्ग से च्युत होकर रानी के उदार में उस प्रकार अवतीर्ण हुआ जिस प्रकार कि सद्वृत्तता (गोलाई) आदि गुणों से उपलक्षित जल की बून्द शक्ति के उदार में अवतीर्ण होती है ॥23-27॥ देवों ने आकर बड़े प्रेम से प्रथम कल्याणक की पूजा की । क्रम-क्रम से नव माह व्यतीत होने पर माघ कृष्ण द्वादशी के दिन विश्वयोग में पुत्र जन्म हुआ ॥28॥ उसी समय बहुत भारी उत्सव से भरे देव-लोग आकर उस बालक को सुमेरु पर्वत पर ले गए । वहां उन्होंने उसका महाभिषेक किया और शीतलनाथ नाम रखा ॥29॥ भगवान पुष्पदन्त के मोक्ष चले जाने के बाद नोऊ करोड़ सागर का अन्तर बीत जाने पर भगवान् शीतलनाथ का जन्म हुआ । उनकी आयु भी इसी में सम्मलित थी । उनके जन्म लेने के पहले पली के चौथाई भाग का धर्म-कर्म का विच्छेद रहा था । भगवान के शरीर की कान्ति स्वर्ण के सामान थी और शरीर नब्बे धनुष उंचा था ॥30-31॥ |