+ भगवान विमलनाथ, धर्म बलभद्र, स्वयंभू नारायण और मधु प्रतिनारायण चरित -
पर्व - 59

  कथा 

कथा :

जिनके दर्पणके समान निर्मल ज्ञानमें सारा संसार निर्मल-स्‍पष्‍ट दिखाई देता है और जिनके सब प्रकार के मलों का अभाव हो चुका है ऐसे श्री विमलनाथ स्‍वामी आज हमारे मलों का अभाव करें -हम सबको निर्मल बनावें ॥1॥

पश्चिम धातकीखण्‍ड द्वीप में मेरूपर्वत से पश्चिमकी ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर रम्‍यकावती नाम का एक देश है ॥2॥

उसके महानगर में वह पद्मसेन राजा राज्‍य करता था जो कि प्रजाके लिए कल्‍पवृक्ष के समान इच्छित फल देनेवाला था ॥3॥

स्‍वदेश तथा परदेशके विभागसे कहे हुए नीति-शास्‍त्र सम्‍बन्‍धी अर्थका निश्‍चय करने में उस राजा का चरित्र उदाहरण रूप था ऐसा शास्‍त्रके जानकार कहा करते थे ॥4॥

शत्रुओं को नष्‍ट करनेवाले उस राजा के राज्‍य करते समय अपनी-अपनी वृत्तिके अनुसार धनका अर्जन तथा उपभोग करना ही प्रजा का व्‍यापार रह गया था ॥5॥

वहाँ की प्रजा कभी न्‍यायका उल्‍लंघन नहीं करती थी, राजा प्रजा का उल्‍लंघन नहीं करता था, धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग राजाका उल्लंघन नहीं करता था और त्रिवर्ग परस्‍पर एक दूसरे का उल्‍लंघन नहीं करता था ॥6॥

किसी एक दिन राजा पद्मसेनने प्रीतिंकर वन में स्‍वर्गगुप्‍त केवली के समीप धर्म का स्‍वरूप जाना और उन्‍हींसे यह भी जाना कि हमारे सिर्फ दो आगामी भव बाकी रह गये हैं ॥7॥

उसी समय उसने ऐसा उत्‍सव मनाया मानो मैं तीर्थंकर ही हो गया हूँ और पद्मनाभ पुत्र के लिए राज्‍य देकर उत्‍कृष्‍ठ तप तपना शुरू कर दिया ॥8॥

ग्‍यारह अंगोंका अध्‍ययन कर उनपर दृढ़ प्रत्‍यय किया, दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर प्रकृतिका बन्‍ध किया, अन्‍य पुण्‍य प्रकृतियों का भी यथायोग्‍य संचय किया और अन्‍त समयमें चार आराधनाओंकी आराधना कर सहस्‍त्रार नामक स्‍वर्ग में सहस्‍त्रार नाम का इन्‍द्रपद प्राप्‍त किया । वहाँ अठारह सागर उसकी आयु थी, एक धनुष अर्थात् चार हाथ ऊँचा शरीर था, द्रव्‍य और भाव की अपेक्षा जघन्‍य शुक्‍ललेश्‍या थी, वह नौ माह में एक बार श्‍वास लेता था, अठारह हजार वर्षमें एक बार मानसिक आहार ग्रहण करता था, देवांगनाओं का रूप देखकर ही उसकी काम-व्‍यथा शान्‍त हो जाती थी, चतुर्थ पृथिवी तक उसके अवधिज्ञान का विषय था, वहीं तक उसकी दीप्ति आदि फैल सकती थी, वह अणिमा महिमा आदि गुणों से समुन्‍नत था, स्‍नेह रूपी अमृतसे सम्‍पृक्‍त रहनेवाले उसके मुख-कमल को देखने से देवांगनाओं का चित्‍त संतुष्‍ट हो जाता था । इस प्रकार चिरकाल तक उसने सुखों का अनुभव किया ॥9–13॥

वह इन्‍द्र जब स्‍वर्ग लोकसे चयकर इस पृथिवी लोक पर आनेवाला हुआ तब इसी भरत क्षेत्रके काम्पिल्‍य नगर में भगवान् ऋषभदेवका वंशज कृतवर्मा नाम का राजा राज्‍य करता था । जय श्‍यामा उसकी प्रसिद्ध महादेवी थी । इन्‍द्रादि देवों ने रत्‍नवृष्टि आदिके द्वारा जयश्‍यामा की पूजा की ॥14–15॥

उसने ज्‍येष्‍ठकृष्‍णा दशमीके दिन रात्रिके पिछले भाग में उत्‍तराभाद्रपद नक्षत्रके रहते हुए सोलह स्‍वप्‍न देखे, उसी समय अपने मुख-कमलमें प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा, और राजा से इन सबका फल ज्ञात किया ॥16–17॥

उसी समय अपने आसनोंके कम्‍पनसे जिन्‍हें गर्भकल्‍याणक की सूचना हो गई है ऐसे देवों ने स्‍वर्ग से आकर प्रथम-गर्भकल्‍याणक किया ॥18॥

जिस प्रकार बढ़ते हुए धनसे किसी दरिद्र मनुष्‍य के ह्णदय में हर्षकी वृद्धि होने लगती है उसी प्रकार रानी जयश्‍यामाके बढ़ते हुए गर्भसे बन्‍धुजनों के ह्णदय में हर्षकी वृद्धि होने लगी थी ॥19॥

इस संसार में साधारणसे साधारण पुत्रका जन्‍म भी हर्षका कारण है तब जिसके जन्‍म के पूर्व ही इन्‍द्र लोग नम्रीभूत हो गये हों उस पुत्र के जन्‍मकी बात ही क्‍या कहना है ॽ ॥20॥

माघशुक्‍ल चतुर्थीके दिन (ख. ग. प्रतिके पाठकी अपेक्षा चतुर्दशी के दिन) अहिर्बुघ्‍न योग में रानी जयश्‍यामा ने तीन ज्ञान के धारी, तीन जगत् के स्‍वामी तथा निर्मल प्रभा के धारक भगवान् को जन्‍म दिया ॥21॥

जन्‍माभिषेक के बाद सब देवों ने उनका विमलवाहन नाम रक्‍खा और सब ने स्‍तुति की ॥22॥

भगवान वासुपूज्य के तीर्थ के बाद जब तीस सागर वर्ष बीत गए और पल्य के अन्तिम भाग में धर्म का विच्छेद हो गया तब विमलवाहन भगवान् का जन्‍म हुआ था । उनकी आयु इसी अन्‍तराल में शामिल थी ॥23॥

उनकी आयु साठ लाख वर्ष की थी, शरीर साठ धनुष ऊँचा था, कान्ति सुवर्ण के समान थी और वे ऐसे सुशोभित होते थे मानो समस्‍त पुण्‍योंकी राशि ही हों ॥24॥

समस्‍त लोकको पवित्र करनेवाले, अतिशय पुण्‍यशाली भगवान् विमलवाहनकी आत्‍मा पन्‍द्रह लाख प्रमाण कुमारकाल बीतजानेपर राज्‍याभिषेकसे पवित्र हुई थी ॥25॥

लक्ष्‍मी उनकी सहचारिणी थी, कीर्ति जन्‍मान्‍तरसे साथ आई थी, सरस्‍वती साथ ही उत्‍पन्‍न हुई थी और वीर-लक्ष्‍मी ने उन्‍हें स्‍वयं स्‍वीकृत किया था ॥26॥

उस राजा में जो सत्‍यादिगुण बढ़ रहे थे वे बड़े-बड़े मुनियों के द्वारा भी प्रार्थनीय थे इससे बढ़कर उनकी और क्‍या स्‍तुति हो सकती थी ॥27॥

अत्‍यन्‍त विशुद्धताके कारण थोड़े ही दिन बाद जिन्‍हें मोक्षका अनन्‍त सुख प्राप्‍त होनेवाला है ऐसे विमलवाहन भगवान् के अनन्‍त सुख का वर्णन भला कौन कर सकता है ॽ ॥28॥

जब उन्‍हें केवलज्ञान प्राप्‍त हुआ तब समस्‍त इन्‍द्रों ने उनके चरणकमलोंकी पूजा की थी इसीलिए वे देवाधिदेव कहलाये थे ॥29॥

लक्ष्‍मी के अधिपति भगवान् विमलवाहनका कुन्‍दपुष्‍प अथवा चन्‍द्रमा के समान निर्मल यश दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था और आकाशको काशके पुष्‍पके समान बना रहा था ॥30॥

इस प्रकार छह ऋतुओं में उत्‍पन्‍न हुए भोगों का उपभोग करते हुए भगवान् के तीस लाख वर्ष बीत गये ॥31॥

एक दिन उन्‍होंने, जिसमें समस्‍त दिशाएँ, भूमि, वृक्ष और पर्वत बर्फ से ढक रहे थे ऐसी हेमन्‍त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्‍क्षण में विलीन होता देखा ॥32॥

जिससे उन्‍हें उसी समय संसार से वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हो गया, उसी समय उन्‍हें अपने पूर्व जन्‍म की सब बातें याद आ गईं और मान भंगका विचार कर रोगीके समान अत्‍यन्‍त खेद-खिन्‍न हुए ॥33॥

वे सोचने लगे इन तीन सम्यग्ज्ञानों से क्या होने वाला है कि इन सभी की सीमा है-इन सभी का विषय क्षेत्र परिमित है और इस वीर्य से भी क्या लाभ है ? जो कि परमोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त नहीं है ॥34॥

चूंकि प्रत्‍याख्‍यानावरण कर्म का उदय है अत: मेरे चारित्र का लेश भी नहीं है और बहुत प्रकार का मोह तथा परिग्रह विद्यामान है अत: चारों प्रकार बन्‍ध भी विद्यामान है ॥35॥

प्रमाद भी अभी मौजूद है और निर्जरा भी बहुत थोड़ी है । अहो ! मोह की बड़ी महिमा है कि अब भी मैं इन्‍हीं संसार की वस्‍तुओं में मत्‍त हो रहा हूँ ॥36॥

मेरा साहस तो देखो कि मैं अब तक सर्प के शरीर अथवा फणा के समान भयंकर इन भोगों को भोग रहा हूँ । यह अब भोगोपभोग मुझे पुण्‍यकर्म के उदय से प्राप्‍त हुए है ॥37॥

सो जब तक इस पुण्‍य-कर्म का अन्‍त नहीं कर देता जब तक मुझे अनन्‍त सुख कैसे प्राप्‍त हो सकता है ॽ इस प्रकार निर्मल ज्ञान उत्‍पन्‍न होने से विमलवाहन भगवान् ने अपने ह्णदय में विचार किया ॥38॥

उसी समय आये हुए सारस्‍वत आदि लौकान्तिक देवों ने उनका स्‍तवन किया तथा अन्‍य देवों ने दीक्षा-कल्‍याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्‍सव किया ॥39॥

तदनन्‍तर देवों के द्वारा घिरे हुए भगवान् देवदत्‍ता नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में गये और वहाँ दो दिनके उपवास का नियम लेकर दीक्षित हो गये ॥40॥

उन्‍होंने यह दीक्षा माघशुक्‍ल चतुर्थीके दिन सायंकाल के समय छब्‍बीसवें-उत्‍तराभाद्रपद नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ ली थी और उसी दिन वे चौथा-मन:पर्ययज्ञान प्राप्‍तकर चार ज्ञान के धारी हो गये थे ॥41॥

दूसरे दिन उन्‍होंने भोजन के लिए नन्‍दनपुर नगर में प्रवेश किया । वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले राजा कनकप्रभु ने उन्‍हें आहार दान देकर पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये सो ठीक ही है क्‍योंकि पात्रदान से क्‍या नहीं प्राप्‍त होता ॽ इस प्रकार सामायिक चारित्र धारण करके शुद्ध ह्णदय से तपस्‍या करने लगे ॥42–43॥

जब तीन वर्ष बीत गये तब वे महामुनि एक दिन अपने दीक्षावन में दो दिन के उपवासका नियम ले कर जामुन के वृक्ष के नीचे ध्‍यानारूढ हुए ॥44॥

फलस्‍वरूप माघशुल्‍क षष्‍ठी के दिन सायंकाल के समय अतिशय श्रेष्‍ठ भगवान् विमलवाहन ने अपने दीक्षा-ग्रहण के नक्षत्र में घातिया कर्मों का विनाश कर कवलज्ञान प्राप्‍त कर लिया । अब वे चर-अचर समस्‍त पदार्थों को शीघ्र ही जानने लगे । उसी समय अपने मुकुट तथा मुख झुकाये हुए देव लोग आये । उन्‍होंने देवदुन्‍दुभि आदि आठ मुख्‍य प्रातिहार्यों का वैभव प्रकट लिया । उसे पाकर वे गन्‍ध-कुटी के मध्‍य में स्थित सिंहासन पर विराजमान हुए ॥45–47॥

वे भगवान् मन्‍दर आदि पचपन गणधरों से सदा घिरे रहते थे, ग्‍यारह सौ पूज्‍य पूर्वधारियों से सहित थे, छत्‍तीस हजार पाँच सौ तीस शिक्षकों से युक्‍त थे, चार हजार आठसौ तीनों प्रकार के अवधि-ज्ञानियों से वन्दित थे, पाँच हजार पाँच सौ केवलज्ञानी उनके साथ थे, नौ हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक उनके संघकी वृद्धि करते थे, पाँच हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी उनके समवसरण में थे, वे तीन हजार छह सौ वादियों से सहित थे, इस प्रकार अड़सठ हजार मुनि उनकी स्‍तुति करते थे । पद्माको आदि लेकर एक लाख तीन हजार आर्यिकाएं उनकी पूजा करती थीं, वे लाख श्रावकों से सहित थे तथा चार लाख श्राविकाओं से पूजित थे । इनके सिवाय दो गणों अर्थात् असंख्‍यात देव देवियों और संख्‍यात तिर्यंचों से वे सहित थे । इस तरह धर्मक्षेत्रोंमे उन्‍होंने निरन्‍तर विहार किया तथा संसाररूपी आतपसे मुरझाये हुए भव्‍यरूपी धान्‍यों को संतुष्‍ट किया । अन्‍त में वे सम्‍मेदशिखर पर जा विराजमान हुए और वहाँपर उन्‍होंने एक माह का योग निरोध किया ॥48–54॥

आठ हजार छह सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया तथा आषाढ़ कृष्‍ण अष्‍टमी के दिन उत्‍तराषाढ़ नक्षत्र में प्रात:काल के समय शीघ्र ही समुद्घात कर सूक्ष्‍मक्रियाप्रतिपाती नाम का शुक्‍लध्‍यान धारण किया तत्‍काल ही सयोग अवस्‍थासे अयोग अवस्‍था धारण कर उस प्रकार स्‍वास्‍थ्‍य (स्‍वरूपावस्‍थान) अर्थात् मोक्ष प्राप्‍त किया जिस प्रकार कि कोई रोगी स्‍वास्‍थ्‍य (नीरोग अवस्‍था) प्राप्‍त करता है ॥55–56॥

उसी समय से ले कर लोक में आषाढ कृष्‍ण अष्‍टमी, कालाष्‍टमीके नाम से विद्वानोंके द्वारा पूज्‍य हो गई और इसी निमित्‍तको पाकर मिथ्‍या-दृष्टि लोग भी उसकी पूजा करने लगे ॥57॥

उसी समय सौधर्म आदि देवों ने आकर उनका अन्‍त्‍येष्टि संस्‍कार किया और मुक्‍त हुए उन भगवान् की अर्थपूर्ण सिद्ध स्‍तुतियों से वन्‍दना की ॥58॥

'हिंसा आदि पापों से परिणत हुआ यह जीव निरन्‍तर मल का संचय करता रहता है और पुण्‍य के द्वारा भी इसी संसार में निरन्‍तर विद्यमान रहता है अत: कहीं अपने गुणों को विशुद्ध बनाना चाहिये -पाप पुण्‍य के विकल्‍प से रहित बनाना चाहिये । आज मैं निर्मल बुद्धि-शुद्धोपयोग की भावना को प्राप्‍त कर अपने उन गुणों को शुद्धि प्राप्‍त कराता हूँ-पुण्‍य-पाप के विकल्‍प से दूर हटाकर शुद्ध बनाता हूँ' ऐसा विचार कर ही जो शुक्‍ल-ध्‍यान को प्राप्‍त हुए थे ऐसे विमलवाहन भगवान् अपने सार्थक नाम को धारण करते थे ॥59॥

सम्‍यग्‍दर्शन और सम्‍यग्‍ज्ञान ही जिसके दो दाँत हैं, गुण ही जिसका पवित्र शरीर है, चार आराधनाएँ ही जिसके चरण हैं और विशाल धर्म ही जिसकी सूँड है ऐसे सन्‍मार्गरूपी हाथीको पाप-रूपी शत्रु के प्रति प्रेरित कर भगवान् विमलवाहन ने पाप-रूपी शत्रु को नष्‍ट किया था इसलिए ही लोग उन्‍हें विमलवाहन (विमलं वाहनं यानं यस्‍य स: विमलवाहन:-निर्मल सवारीसे युक्‍त) कहते थे ॥60॥

जो पहले शत्रुओं की सेना को नष्‍ट करने वाले पद्मसेन राजा हुए, फिर देव-समूह से पूजनीय तथा स्‍पष्‍ट सुखोंसे युक्‍त अष्‍टम स्‍वर्ग के इन्‍द्र हुए, और तदनन्‍तर विशाल निर्मलकीर्ति के धारक एवं समस्‍त पृथिवीके स्‍वामी विमलवाहन जिनेन्‍द्र हुए, वे तेरहवें विमलनाथ तीर्थंकर अच्‍छी तरह आप लोगों के संतोष के लिए हों ॥61॥

हे भव्‍य जीवो ! जिन्‍होंने अपनी अत्‍यन्‍त निश्‍चल समाधि के द्वारा समस्‍त दोषों को नष्‍ट कर दिया है, जिनका ज्ञान कम, इन्द्रिय तथा मन से रहित है, जिनका शरीर अत्‍यन्‍त निर्मल है और देव भी जिनकी कीर्तिका गान करते हैं ऐसे विमलवाहन भगवान् को निर्मलता प्राप्‍त करने के लिए तुम सब बड़ी भक्ति से नमस्‍कार करो ॥62॥

अथानन्‍तर श्री विमलनाथ भगवान् के तीर्थ में धर्म और स्‍वयंभू नाम के बलभद्र तथा नारायण हुए इसलिए अब उनका चरित कहा जाता है ॥63॥

इसी भरतक्षेत्रके पश्चिम विदेह क्षेत्र में एक मित्रनन्‍दी नाम का राजा था, उसने अपने उपभोग करने योग्‍य समस्‍त पृथिवी अपने आधीन कर ली थी ॥64॥

प्रजा इसके साथ प्रेम रखती थी इसलिए यह प्रजाकी वृद्धिके लिए था और यह प्रजाकी रक्षा करता था अत: प्रजा इसकी वृद्धिके लिए थी-राजा और प्रजा दोनों ही सदा एक दूसरेकी वृद्धि करते थे सो ठीक ही है क्‍योंकि परोपकारके भीतर स्‍वोपकार भी निहित रहता है ॥65॥

उस बुद्धिमान् के लिए शत्रुकी सेना भी स्‍वसेना के समान थी और जिसकी बुद्धि चक्रके समान फिरा करती थी-चंचल रहती थी उसके लिए कमका उल्‍लंघन होनेसे स्‍वसेना भी शत्रु सेना के समान हो जाती थी ॥66॥

यह राजा समस्‍त प्रजाको संतुष्‍ट करके ही स्‍वयं संतुष्‍ट होता था सो ठीक ही है क्‍योंकि परोपकार करनेवाले मनुष्‍यों के दूसरोंको संतुष्‍ट करनेसे ही अपना संतोष होता है ॥67॥

किसी एक दिन वह बुद्धिमान् सुव्रत नामक जिनेन्‍द्र के पास पहुँचा और वहाँ धर्म का स्‍वरूप सुनकर अपने शरीर तथा भोगादिको नश्‍वर मानने लगा ॥68॥

वह सोचने लगा-बड़े दु:खकी बात है कि ये संसार के प्राणी परिग्रहके समागमसे ही पापोंका संचय करते हुए दु:खी हो रहे हैं फिर भी निष्‍परिग्रह अवस्‍था को प्राप्‍त नहीं होते-सब परिग्रह छोड़कर दिगम्‍बर नहीं होते । बड़ा आश्‍चर्य है कि ये सामनेकी बातको भी नहीं जानते ॥69॥

इस प्रकार संसार से विरक्‍त होकर उसने उत्‍कृष्‍ट संयम धारण कर लिया और अन्‍त समयमें संन्‍यास धारण कर अनुत्‍तर विमान में तैंतीस सागर की आयुवाला अहमिन्‍द्र हुआ ॥70॥

वहाँ से चयकर द्वारावती नगरी के राजा भद्रकी रानी सुभद्रा के शुभ स्‍वप्‍न देखनेके बाद धर्म नाम का पुत्र हुआ ॥71॥

इसी भारतवर्ष के कुणाल देशमें एक श्रावस्‍ती नाम का नगर था वहाँ पर भोगोंमें तल्‍लीन हुआ सुकेतु नाम का राजा रहता था ॥72॥

अशुभ कर्म के उदय से वह बहुत कामी था, तथा द्यूत व्‍यसनमें आसक्‍त था । यद्यपि हित चाहनेवाले मन्‍त्रियों और कुटुम्बियोंने उसे बहुत बार रोका पर उसके बदले उनसे प्रेरित हुए के समान वह बार-बार जुआ खेलता रहा और कर्मोदयके विपरीत होनेसे वह अपना देश-धन-बल और रानी सब कुछ हार गया ॥73–74॥

क्रोध से उत्‍पन्‍न होनेवाले मद्य, मांस और शिकार इन तीन व्‍यसनोंमें तथा काम से उत्‍पन्‍न होने वाले जुआ, चोरी, वेश्‍या और पर-स्‍त्रीसेवन इन चार व्‍यसनों में जुआ खेलनेके समान कोई नीच व्‍यसन नहीं है ऐसा सब शास्‍त्रकार कहते हैं ॥75॥

जो सत्‍य महागुणोंमें कहा गया है जुआ खेलनेमें आसक्‍त मनुष्‍य उसे सबसे पहले हारता है । पीछे लज्‍जा, अभिमान, कुल, सुख, सज्‍जनता, बन्‍धुवर्ग, धर्म, द्रव्‍य, क्षेत्र, घर, यश, माता-पिता, बाल-बच्‍चे, स्त्रियाँ और स्‍वयं अपने आपको हारता है-नष्‍ट करता है । जुआ खेलनेवाला मनुष्‍य अत्‍यासक्ति के कारण न स्‍नान करता है, न भोजन करता है, न सोता है और इन आवश्‍यक कार्योंका रोध हो जानेसे रोगी हो जाता है । जुआ खेलनेसे धन प्राप्‍त होता हो सो बात नहीं, वह व्‍यर्थ ही क्‍लेश उठाता है, अनेक दोष उत्‍पन्‍न करनेवाले पाप का संचय करता है, निन्‍द्य कार्य कर बैठता है, सबका शत्रु बन जाता है, दूसरे लोगोंसे याचना करने लगता है और धन के लिए नहीं करने योग्‍य कर्मोंमें प्रवृत्ति करने लगता है । बन्‍धुजन उसे छोड़ देते हैं-घरसे निकाल देते हैं, एवं राजाकी ओरसे उसे अनेक कष्‍ट प्राप्‍त होते हैं । इस प्रकार जुआके दोषोंका नामोल्‍लेख करने के लिए भी कौन समर्थ है ॽ ॥76–80॥

राजा सुकेतु ही इसका सबसे अच्‍छा दृष्‍टान्‍त है क्‍योंकि वह इस जुआके द्वारा अपना राज्‍य भी हरा बैठा था । इसलिए जो मनुष्‍य अपने दोनों लोकों का भला चाहता है वह जुआको दूरसे ही छोड़ देवे ॥81॥

इस प्रकार सुकेतु जब अपना सर्वस्‍व हार चुका तब शोक से व्‍याकुल होकर सुदर्शनाचार्य के चरण-मूलमें गया । वहाँ उसने जिनागमका उपदेश सुना और संसार से विरक्‍त होकर दीक्षा धारण कर ली । यद्यपि उसने दीक्षा धारण कर ली थी तथापि उसका आशय निर्मल नहीं हुआ था । उसने शोक से अन्‍न छोड़ दिया और अत्‍यन्‍त कठिन तपश्‍चरण किया ॥82– 83॥

इस प्रकार दीर्घकाल तक तपश्‍चरण कर उसने आयु के अन्तिम समयमें निदान किया कि इस तपके द्वारा मेरे कला, गुण, चतुरता और बल प्रकट हो ॥84॥

ऐसा निदान कर वह संन्‍यास-मरण से मरा तथा लान्‍तव स्‍वर्ग में देव हुआ । वहाँ चौदह सागर तक स्‍वर्गीय सुख का उपभोग करता रहा ॥85॥

वहाँ से चयकर इसी भरतक्षेत्रकी द्वारावती नगरी के भद्र राजाकी पृथिवी रानी के स्‍वयंभू नाम का पुत्र हुआ । यह पुत्र राजा को सब पुत्रों में अधिक प्‍यारा था ॥86॥

धर्म बलभद्र था और स्‍वयंभू नारायण था । दोनों में ही परस्‍पर अधिक प्रीति थी और दोनों ही चिरकाल तक राज्‍यलक्ष्‍मी का उपभोग करते रहे ॥87॥

सुकेतुकी पर्यायमें जिस बलवान् राजा नेजुआमें सुकेतुका राज्‍य छीन लिया था वह मर कर रत्‍नपुर नगर में राजा मधु हुआ था ॥88॥

पूर्व जन्‍म के वैरका संस्‍कार होनेसे राजा स्‍वयंभू मधुका नाम सुनने मात्रसे कुपित हो जाता था ॥89॥

किसी समय किसी राजा नेराजा मधु के लिए भेंट भेजी थी, राजा स्‍वयंभूने दोनों के दूतोंको मारकर तिरस्‍कारके साथ वह भेंट स्‍वयं छीन ली ॥90॥

आचार्य कहते हैं कि प्रेम और द्वेष से उत्‍पन्‍न हुआ संस्‍कार स्थिर हो जाता है इसलिए आत्‍मज्ञानी मनुष्‍य को कहीं किसी के साथ द्वेष नहीं करना चाहिए ॥91॥

जब मधुने नारद से दूतके मरनेका समाचार सुना तो वह क्रोधित होकर युद्ध करने के लिए बलभद्र और नारायणके सन्‍मुख चला ॥92॥

इधर युद्ध करने में चतुर तथा कुपित बलभद्र और नारायण युद्ध के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे अत: यमराज और अग्नि की समानता रखनेवाले वे दोनों राजा मधु को मारने के लिए सहसा उसके पास पहुँचे ॥93॥

दोनों शूर की सेनाओं में परस्‍पर का संहार करनेवाला तथा कायर मनुष्‍यों को भय उत्‍पन्‍न करनेवाला चिरकाल तक धमासान युद्ध हुआ ॥94॥

अन्‍त में राजा मधु ने कुपित होकर स्‍वयंभू को मारनेके उद्देश्‍य से शीघ्र ही जलता हुआ चक्र घुमा कर फेंका ॥95॥

वह चक्र शीघ्रता के साथ जाकर तथा प्रदक्षिणा देकर स्‍वयंभू की दाहिनी भुजा के अग्रभाग पर ठहर गया । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश से उतरकर सूर्य का बिम्‍ब ही नीचे आ गया हो ॥96॥

उसी समय राजा स्‍वयंभू ने कुपित होकर वह चक्र शत्रु के प्रति फेंका सो ठीक ही है क्‍योंकि पुण्‍योदय से क्‍या नहीं होता ॽ ॥97॥

उसी समय स्‍वयंभू नारायण, आधे भरत-क्षेत्र का राज्‍य प्राप्‍त कर इन्‍द्रके समान अपने बड़े भाईके साथ उसका निर्विघ्‍न उपयोग करने लगा ॥98॥

राजा मधु ने प्राण छोड़कर बहुत भारी पाप का संचय किया जिससे नरकायु बाँध कर तमस्‍तम नामक सातवें नरक में गया ॥99॥

और नारायण स्‍वयंभू भी वैरके संस्‍कारसे उसे खोजने के लिए ही मानो अपने पापोदयके कारण पीछे से उसी नरक में प्रविष्‍ट हुआ ॥100॥

स्वयंभू के वियोग से उत्पन्न हुए शोक के द्वारा जिसका ह्रदय संतप्त हो रहा था ऐसा बलभद्र धर्म भी संसार से विरक्‍त होकर भगवान् विमलनाथ के समीप पहुँचा ॥101॥

और सामायिक संयम धारण कर संयमियों में अग्रेसर हो गया । उसने निराकुल होकर इतना कठिन तप किया मानों शरीर के साथ विद्वेष ही ठान रक्‍खा हो ॥102॥

उस समय बलभद्र ठीक सूर्य के समान जान पड़ते थे क्‍योंकि जिस प्रकार सूर्य सद्वृत्‍त अर्थात् गोलाकार होता है उसी प्रकार बलभद्र भी सद्वृत्‍त सदाचार से युक्‍त थे, जिस प्रकार सूर्य तेज की मूर्ति स्‍वरूप होता है उसी प्रकार बलभद्र भी तेज की मूर्ति स्‍वरूप थे, जिस प्रकार सूर्य उदित होते ही अन्‍धकार को नष्‍ट कर देता है उसी प्रकार बलभद्र ने मुनि होते ही अन्‍तरंगके अन्‍धकार को नष्‍ट कर दिया था, जिस प्रकार सूर्य निर्मल होता है उसी प्रकार बलभद्र भी कर्मफलके नष्‍ट हो जानेसे निर्मल थे और जिस प्रकार सूर्य बिना किसी रूकावट के ऊपर आकाश में गमन करता है उसी प्रकार बलभद्र भी बिना किसी रूकावटके ऊपर तीन लोक के अग्रभाग पर जा विराजमान हुए ॥103॥

देखो, मोह वश किये हुए जुआसे मूर्ख स्‍वयंभू और राजा मधु पाप का संचय कर दुखदायी नरक में पहँचे सो ठीक ही है क्‍योंकि धर्म, अर्थ, काम इन तीन का यदि कुमार्ग वृत्ति से सेवन किया जावे तो यह तीनों ही दु:ख-परम्‍परा के कारण हो जाते हैं ॥104॥

कोई उत्‍तम तपश्‍चरण करे और क्रोधादि के वशीभूत हो निदान-बंध कर ले तो वह निदान-बन्‍ध अतिशय पाप से उत्‍पन्‍न दु:ख का कारण हो जाता है । देखो, सुकेतु यद्यपि मोक्षमार्ग का पथिक था तो भी निदान-बन्‍ध के कारण कुगति को प्राप्‍त हुआ । अत: दुष्‍ट मनुष्‍य की संगति के समान निदान-बन्‍ध दूर से ही छोड़ने योग्‍य है ॥105॥

धर्म, पहले अपनी कान्ति से सूर्य को जीतनेवाला मित्रनन्दी नाम का राजा हुआ, फिर महाव्रत और समितियों से संपन्न होकर अनुत्तर-विमान का स्वामी हुआ, वहां से छायाकार पृथ्वी पर द्वारावती नगरी में सुधर्म बलभद्र हुआ और तदनन्‍तर आत्‍म-स्‍वरूप को सिद्धकर मोक्ष-पद को प्राप्‍त हुआ ॥106॥

स्‍वयंभू पहले कुणाल देश का मूर्ख राजा सुकेतु हुआ, फिर तपश्‍चरण कर सुख के स्‍थान-स्‍वरूप लान्‍तव स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर राजा मधु को नष्‍ट करने के लिए यमराज के समान चक्रपति (नारायण) हुआ और तदनन्‍तर पापोदयसे नीचे सातवीं पृथिवी में गया ॥107॥

अथानन्‍तर-इन्‍हीं विमलवाहन तीर्थंकर के तीर्थ में अत्‍यन्‍त उन्‍नत, स्थिर और देवों के द्वारा सेवनीय मेरू और मन्‍दर नाम के दो गणधर हुए थे इसलिए अब उनका चरित कहते हैं ॥108॥

जम्‍बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्‍तर तट पर एक गन्‍धमालिनी नाम का देश है उसके बीतशोक नगर में वैजयन्‍त राजा राज्‍य करता था । उसकी सर्वश्री नाम की रानी थी और उन दोनों के संजयन्‍त तथा जयन्‍त नाम के दो पुत्र थे, ये दोनों ही पुत्र राजपुत्रों के गुणों से सहित थे ॥109–110॥

किसी दूसरे दिन अशोक वन में स्‍वयंभू नामक तीर्थंकर पधारे । उनके समीप जाकर दोनों भाइयों ने धर्म का स्‍वरूप सुना और दोनों ही भोगों से विरक्‍त हो गये ॥111॥

उन्‍होंने संजयन्‍त के पुत्र वैजयन्‍त के लिए जो कि अतिशय बुद्धिमान था राज्‍य देकर पिता के साथ संयम धारण कर लिया ॥112॥

संयम के सातवें स्‍थान अर्थात् बाहरवें गुणस्‍थान में समस्‍त कषायों का क्षय कर जिन्‍होंने समरसपना (पूर्ण वीतरागता) प्राप्‍त कर ली है ऐसे वैजयन्‍त मुनिराज जिनराज अवस्‍था को प्राप्‍त हुए ॥113॥

पिता के केवलज्ञान का उत्‍सव मनाने के लिए सब देव आये तथा धरणेन्‍द्र भी आया । धरणेन्‍द्र के सौन्‍दर्य और बहुत भारी ऐश्‍वर्यको देखकर जयन्‍त मुनि ने धरणेन्‍द्र होने का निदान किया । उस निदानके प्रवाह से वह दुर्बुद्धि मर कर धरणेन्‍द्र हुआ सो ठीक ही है क्‍योंकि बहुत मूल्‍य से अल्‍प मूल्‍य की वस्‍तु खरीदना दुर्लभ नहीं है ॥114–115॥

किसी एक दिन संजयन्‍त मुनि, मनोहर नगर के समीपवर्ती भीम नामक वन में प्रतिमा योग धारण कर विराजमान थे ॥116॥

वहीं से विद्युद्दंष्‍ट्र नाम का विद्याधर निकला । वह पूर्वभव के वैर के स्‍मरण से उत्‍पन्‍न हुए तीव्र वेग से युक्‍त क्रोध से आगे बढ़ने के लिए असमर्थ हो गया । वह दुष्‍ट उन मुनिराज को उठा लाया तथा भरतक्षेत्र के इला नामक पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर जहाँ कुसुमवती, हरवती, सुवर्णवती, गजवती और चण्‍डवेगा इन नदियों का समागम होता है वहाँ उन नदियों के अगाध जल में छोड़ आया ॥117–119॥

इतना ही नहीं उसने भोले-भाले विद्याधरोंको निम्‍नांकित शब्‍द कहकर उत्‍तेजित भी किया । वह कहने लगा कि 'यह कोई बड़े शरीर का धारक, मनुष्‍यों को खानेवाला पापी राक्षस है, यह हम सबको अलग-अलग देखकर खाने के लिए चुपचाप खड़ा है, इस निर्दय, सर्वभक्षी तथा सर्वद्वेषी दैत्‍यको हम लोग मिलकर बाण तथा भाले आदि शस्‍त्रों के समूह से मारें, देखो, यह भूखा है, भूख से इसका पेट झुका जा रहा है, यदि इसकी उपेक्षा की गई तो यह देखते-देखते आज रात्रिको ही स्त्रियों-बच्‍चों तथा पशुओं को खा जावेगा । इ‍सलिए आप लोग मेरे वचनों पर विश्‍वास करो, मैं वृथा ही झूठ क्‍यों बोलूँगा ? क्‍या इसके साथ मेरा द्वेष है ?' इस प्रकार उसके द्वारा प्रेरित हुए सब विद्याधर मृत्‍यु से डर गये और जिस प्रकार किसी विश्‍वासपात्र मनुष्‍य को ठग लोग मारने लगते हैं उस प्रकार शस्‍त्रों का समूह लेकर साधु-शिरोमणि एवं समाधिमें स्थित उन संजयन्‍त मुनिराजको वे विद्याधर सब ओरसे मारने लगे ॥120–125॥

जयन्‍त मुनिराज भी इस समस्‍त उपसर्ग को सह गये, उनका शरीर वज्र के समान सुदृढ़ था, वे पर्वत के समान निश्‍चल खड़े रहे और शुक्‍ल-ध्‍यान के प्रभाव से निर्मल ज्ञान के धारी मोक्ष को प्राप्‍त हो गये ॥126॥

उसी समय चारों निकाय के इन्‍द्र उनकी भक्ति से प्रेरित होकर निर्वाण-कल्‍याणकारी पूजा करने के लिए आये ॥127॥

सब देवों के साथ पूर्वोक्‍त धरणेन्‍द्र भी आया था, अपने बड़े भाईका शरीर देखने से उसे अवधिज्ञान प्रकट हो गया जिससे वह बड़ा कुपित हुआ । उसने उन समस्‍त विद्याधरोंको नागपाशसे बाँध लिया ॥128॥

उन विद्याधरोंमें कोई-कोई बुद्धिमान् भी थे अत: उन्‍होंने प्रार्थना की कि हे देव ! इस कार्य में हम लोगोंका दोष नहीं है, पापी विद्युद्दंष्‍ट्र इन्‍हें विदेह क्षेत्र से उठा लाया और विद्याधरोंको इसने बतलाया कि इनसे तुम सबको बहुत भय है । ऐसा कहकर इसी दुष्‍टने हम सब लोगोंसे व्‍यर्थ ही यह महान् उपसर्ग करवाया है ॥129–130॥

विद्याधरोंकी प्रार्थना सुनकर धरणेन्‍द्र ने उन पर क्रोध छोड़ दिया और परिवार-सहित विद्युद्दंष्‍ट्र को समुद्र में गिराने का उद्यम किया ॥131॥

उसी समय वहाँ एक आदित्‍याभ नाम का देव आया था जो कि विद्युद्दंष्‍ट्र और धरणेन्‍द्र दोनोंके ही गुण-लाभ का उस प्रकार हेतु हुआ था जिस प्रकार कि किसी धातु और प्रत्‍ययके बीच में आया हुआ अनुबन्‍ध गुण-व्‍याकरण में प्रसिद्ध संज्ञा विशेष का हेतु होता हो ॥132॥

वह कहने लगा कि हे नागराज ! यद्यपि इस विद्युद्दंष्‍ट्र ने अपराध किया है तथापि मेरे अनुरोध से इसपर क्षमा कीजिये । आप जैसे महापुरूषों का इस क्षुद्र पशु पर क्रोध कैसा ? ॥133॥

बहुत पहले, आदिनाथ तीर्थंकर के समय आपके वंश में उत्‍पन्‍न हुए धरणेन्‍द्र के द्वारा विद्याधरोंकी विद्याएं देकर इसके वंशकी रचना की गई थी । लोक में यह बात बालक तक जानते हैं कि अन्‍य वृक्ष की बात जाने दो, विष-वृक्ष को भी स्‍वयं बढ़ाकर स्‍वयं काटना उचित नहीं है, फिर हे नागराज ! आप क्‍या यह बात नहीं जानते ? ॥134–135॥

जब आदित्‍याभ यह कह चुका तब नागराज-धरणेन्‍द्रने उत्‍तर दिया कि 'इस दुष्‍टने मेरे तपस्‍वी बड़े भाईको अकारण ही मारा है अत: यह मेरे द्वारा अवश्‍य ही मारा जावेगा । इस विषय में आप मेरी इच्‍छा को रोक नहीं सकते ।' यह सुनकर बुद्धिमान् देवने कहा कि-'आप वृथा ही वैर धारण कर रहे हैं । इस संसार में क्‍या यही तुम्‍हारा भाई है ? और संसार में भ्रमण करता हुआ विद्युद्दंष्‍ट्र क्‍या आज तक तुम्‍हारा भाई नहीं हुआ । इस संसार में कौन बन्‍धु है ? और कौन बन्‍धु नहीं है ? बन्‍धुता और अबन्‍धुता दोनों ही परिवर्तनशील हैं-आज जो बन्‍धु हैं वह कल अबन्‍धु हो सकता है और आज जो अबन्‍धु है वह कल बन्‍धु हो सकता है अत: इस विषय में विद्वानोंको आग्रह क्‍यों होना चाहिये' ? ॥136–139॥

पूर्व जन्‍म में अपराध करने पर तुम्‍हारे भाई संजयन्‍त ने विद्युद्दंष्‍ट्र के जीव को दण्‍ड दिया था, आज इसे पूर्वजन्‍म की वह बात याद आ गई अत: इसने मुनि का अपकार किया है ॥140॥

इस पापीने तुम्‍हारे बड़े भाई को पिछले चार जन्‍मोंमें भी महावैरके संस्‍कार से परलोक भेजा है-मारा है ॥141॥

इसके द्वारा किये हुए उपसर्ग को सहकर ही ये मुक्ति को प्राप्‍त हुए हैं ॥142॥

हे भद्र ! इस कल्‍याण करनेवाले मोक्ष के कारणको जाने दीजिये । आप यह कहिये कि पूर्व जन्‍म में किये हुए अपकारका क्‍या प्रतिकार हो सकता है ? ॥143॥

यह सुनकर धरणन्‍द्र ने उत्‍सुक होकर आदित्‍याभ से कहा कि वह कथा किस प्रकार है ? आप मुझसे कहिये ॥144॥

वह देव कहने लगा कि हे बुद्धिमान् ! इस विद्युद्दंष्‍ट्र पर वैर छोड़कर शुद्ध ह्णदयसे सुनो, मैं वह सब कथा विस्‍तारसे साफ-साफ कहता हूँ ॥145॥

इसी जम्‍बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सिंहपुर नगरका स्‍वामी राजा सिंहसेन था उसकी रामदत्‍ता नाम की पतिव्रता रानी थी ॥146॥

उस राजाका श्रीभूति नाम का मंत्री था, वह श्रुति स्‍मृति तथा पुराण आदि शास्‍त्रोंका जानने वाला था, उत्‍तम ब्राह्मण था और अपने आपको सत्‍यघोष कहता था ॥147॥

उसी देशके पद्मखण्‍डपुर नगर में एक सुदत्‍त नाम का सेठ रहता था । उसकी सुमित्रा स्‍त्रीसे मद्रमित्र नाम का पुत्र हुआ उसने पुण्‍योदय से रत्‍नद्वीप में जाकर स्‍वयं बहुत से बड़े-बड़े रत्‍न कमाये । उन्‍हें लेकर वह सिंहपुर नगर आया और वहीं स्‍थायी रूप से रहने की इच्‍छा करने लगा । उसने श्रीभूति मंत्री से मिलकर सब बात कही और उसकी संमतिसे अपने रत्‍न उसके हाथमें रखकर अपने भाई-बन्‍धुओं को लेने के लिए वह पद्मखण्‍ड नगर में गया । जब वहाँ से वापिस आया तब उसने सत्‍यघोषसे अपने रत्‍न माँगे परन्‍तु रत्‍नों के मोह में पड़कर सत्‍यघोष बदल गया और कहने लगा कि मैं कुछ नहीं जानता ॥148–151॥

तब भद्रमित्र ने सब नगर में रोना-चिल्‍लाना शुरू किया और सत्‍यघोष ने भी अपनी प्रामाणिकता बनाये रखने के लिए लोगों को यह बतलाया कि पापी चोरों ने इसका सब धन लूट लिया है । इसी शोक से इसका चित्‍त व्‍याकुल हो गया है और उसी दशा में वह यह सब बक रहा है ॥152–153॥

सदाचार से दूर रहने वाले उस सत्‍यघोष ने अपनी शुद्धता प्रकट करने के लिए राजा के समक्ष धर्माधिकारियों न्‍यायाधीशों के द्वारा बतलाई हुई शपथ खाई ॥154॥

भद्रमित्र यद्यपि अनाथ रह गया था तो भी उसने अपना रोना नहीं छोड़ा, वह बार-बार यही कहता था कि इस पापी विजाति ब्राह्मण ने मुझे ठग लिया ॥155॥

हे सत्‍यघोष ! मैंने तुझे चारों तरह से शुद्ध जाति आदि गुणों से युक्‍त मंत्रियोंके उत्‍तम गुणों से विभूषित तथा सचमुच ही सत्‍यघोष समझा था इ‍सलिए ही मैंने अपना रत्‍नों का पिटारा तेरे हाथ में सौंप दिया था, अब इस तरह तूँ क्‍यों बदल रहा है, इस बदलने का कारण क्‍या है और यह सब करना क्‍या ठीक है ? महाराज सिंहसेन के प्रसाद से तेरे क्‍या नहीं हैं ? छत्र और सिंहासन को छोड़कर यह सारा राज्‍य तेरा ही तो है ॥156–158॥

फिर धर्म, यश और बड़प्‍पन को व्‍यर्थ ही क्‍यों नष्‍ट कर रहा है ? क्‍या तू स्‍मृतियों में कहे हुये न्‍यासापहार के दोष को नहीं जानता ? ॥159॥

तूने जो निरन्‍तर अर्थ-शास्‍त्र का अध्‍ययन किया है क्‍या उसका यही फल है कि तू सदा दूसरों को ठगता है और दूसरोंके द्वारा स्वयं नहीं ठगाया जाता ॥160॥

अथवा तू पर शब्‍द का अर्थ विपरीत समझता है-पर का अर्थ दूसरा न लेकर शत्रु लेता है सो हे सत्‍यघोष ! क्‍या सचमुच ही मैं तुम्‍हारा शत्रु हूँ ? ॥161॥

अपने भावी जीवन को नष्‍ट मत कर, मेरा रत्‍नों का पिटारा मुझे दे दे ॥162–163॥

मेरे रत्‍न ऐसे हैं, इतने बड़े हैं और उनकी यह जाति है, यह सब तू जानता है फिर क्‍यों इस तरह उन्‍हें छिपाता है ? ॥164॥

इस प्रकार वह भद्रमित्र प्रति दिन प्रात:काल के समय किसी वृक्षपर चढ़कर बार-बार रोता था सो ठीक ही हैं क्‍योंकि धीर वीर मनुष्‍य कठिन कार्य में भी उद्यम नहीं छोड़ते ॥165॥

बार-बार उसका एक-सा रोना सुनकर एक दिन रानी के मन में विचार आया कि चूँकि 'यह सदा एक ही सदृश शब्‍द कहता है अत: यह उन्‍मत्‍त नहीं है, ऐसा समझ पड़ता है' ॥166॥

रानीने यह विचार राजा से प्रकट किये और मंत्रीके साथ जुआ खेलकर उसका यज्ञोपवीत तथा उसके नाम की अंगूठी जीत ली ॥167॥

तदनन्‍तर उसके निपुणमती नाम की धाय के हाथमें दोनों चीजें देकर उसे एकान्‍तमें समझाया कि 'तू श्रीभूति मंत्री के घर जा और उनकी स्‍त्रीसे कह कि मुझे मंत्रीने भेजा है, तू मेरे लिए भद्रमित्र का पिटारा दे दे । पहिचानके लिए उन्‍होंने यह दोनों चीजें भेजी हैं इस प्रकार झूठ-मूठ ही कह कर तू वह रत्‍नों का पिटारा ले आ', इस तरह सिखला कर रानी रामदत्‍ता ने धाय भेजकर मंत्री के घर से वह रत्‍नों का पिटारा बुला लिया ॥168–169॥

राजा नेउस पिटारे में और दूसरे रत्‍न डालकर भद्रमित्र को स्‍वयं एकान्‍त में बुलाया और कहा कि क्‍या यह पिटारा तुम्‍हारा है ? ॥170॥

राजा के ऐसा कहने पर भद्रमित्र ने कहा कि हे देव ! यह पिटरा तो हमारा ही है परन्‍तु इसमें कुछ दूसरे अमूल्‍य रत्‍न मिला दिये गये हैं ॥171॥

इनमें ये रत्‍न मेरे नहीं हैं और ये मेरे हैं इस तरह कहकर सच बोलने वाले, शुद्धबुद्धि के धारक तथा सज्‍जनों में श्रेष्‍ठ भद्रमित्र ने अपने ही रत्‍न ले लिये ॥172॥

यह जानकर राजा बहुत ही संतुष्‍ट हुए और उन्‍होंने भद्रमित्र के लिए सत्‍यघोष नाम के साथ अत्‍यन्‍त उत्‍कृष्‍ट सेठका पद दे दिया-भद्रमित्र को राजश्रेष्‍ठी बना दिया और उसका 'सत्‍यघोष' उपनाम रख दिया ॥173॥

सत्‍यघोष मंत्री झूठ बोलनेवाला है, पापी है तथा इसने बहुत पाप किये हैं इसलिए इसे दण्डित किया जावे इस प्रकार धर्माधिकारियोंके कहे अनुसार राजा नेउसे दण्‍ड दिये जानेकी अनुमति दे दी ॥174॥

इस प्रकार राजा के द्वारा प्रेरित हुए नगर के रक्षकोंने श्रीभूति मंत्रीके लिए तीन दण्‍ड निश्चित किये -1 इसका सब धन छीन लिया जावे, 2 वज्रमुष्टि पहलवानके मजबूत तीस घूंसे दिये जावें, और 3 कांसे की तीन थालोंमें रखा हुआ नया गोबर खिलाया जावे, इस प्रकार नगर के रक्षकोंने उसे तीन प्रकार के दण्‍डों से दण्डित किया ॥175–176॥

श्रीभूति राजा के साथ बैर बांधकर आर्त-ध्यान से दूषित होता हुआ मरा और मरकर राजा के भण्डार में अगन्‍धन नाम का साँप हुआ ॥177॥

अन्‍याय से दूसरे का धन ले लेना चोरी कहलाती है वह दो प्रकार की मानी गई है एक जो स्‍वभाव से ही होती और दूसरी किसी निमित्‍त से ॥178॥

जो चोरी स्‍वभाव से होती है वह जन्‍म से ही लोभ कषाय के निकृष्‍ट स्‍पर्द्धकों का उदय होनेसे होती है । जिस मनुष्‍य के नैसर्गिक चोरी करने की आदत होती है उसके घर में करोड़ों का धन रहने पर भी तथा करोड़ोंका आय-व्‍यय होने पर भी चोरी के बिना उसे संतोष नहीं होता । जिस प्रकार सबको क्षुधा आदि की बाधा होती है उसी प्रकार उसके चोरी का भाव होता है ॥179–180॥

जब घर में स्‍त्री-पुत्र आदि का खर्च अधिक होता है और घर में धन का अभाव होता है तब दूसरी तरह की चोरी करनी पड़ती है वह भी लोभ कषाय अथवा किसी अन्‍य दुष्‍कर्म के उद्यसे होती है ॥181॥

यह जीव दोनों प्रकार की चोरियों से अशुभ आयु का बन्‍ध करता है और अपनी दुष्‍ट चेष्‍टा से दुर्गति में चिरकाल तक भारी दु:ख सहन करता है ॥182॥

चोरी करनेवाले की सज्‍जनता नष्‍ट हो जाती है, धनादि के विषय में उसका विश्‍वास चला जाता है, और मित्र तथा भाई-बन्‍धुओं के साथ उसे प्राणान्‍त विपत्ति उठानी पड़ती है ॥183॥

जिस प्रकार दावानल से छुई हुई लता शीघ्र ही नष्‍ट हो जाती है उसी प्रकार गुणरूपी फूलों से गुंथी हुई कीर्तिरूपी ताजी माला चोरीसे शीघ्र ही नष्‍ट हो जाती है ॥184॥

यह सब जानते हुए भी मूर्ख सत्‍यघोष (श्रीभूति) ने पहली नैसर्गिक चोरी के द्वारा यह साहस कर डाला ॥185॥

इस चोरी के कारण ही वह मंत्री-पद से शीघ्र ही भ्रष्‍ट कर दिया गया, उसे पूर्वोक्‍त कठिन तीन दण्‍ड भोगने पड़े तथा बड़े भारी पाप से बँधी हुई दुर्गतिमें जाना पड़ा ॥186॥

इस प्रकार अपने ह्णदय में मंत्री के दुराचार का चिन्‍तवन करते हुए राजा सिंहसेन ने उसका मंत्रीपद धर्मिल नामक ब्राह्मण के लिए दे दिया ॥187॥

इस प्रकार समय व्‍यतीत होने पर किसी दिन असना नाम के वन में विमलकान्‍तार नाम के पर्वत पर विराजमान वरधर्म नाम के मुनिराज के पास जाकर सेठ भद्रमित्र ने धर्म का स्‍वरूप सुना और अपना बहुत-सा धन दान में दे दिया । उसकी माता सुमित्रा इसके इतने दान को न सह सकी अत: अत्‍यन्‍त क्रुद्ध हुई और अन्‍त में मरकर उसी असना नाम के वन में व्‍याघ्री हुई ॥188–190॥

एक दिन भद्रमित्र अपनी इच्छा से असना वन में गया था उसे देखकर दुष्‍ट अभिप्राय वाली व्याघ्री ने उस अपने ही पुत्रको खा लिया सो ठीक ही है क्‍योंकि क्रोध से जीवों का क्‍या भक्ष्‍य नहीं हो जाता ? ॥191॥

वह भद्रमित्र मरकर स्‍नेह के कारण रानी रामदत्‍ता के सिंहचन्‍द्र नाम का पुत्र हुआ तथा पूर्णचन्‍द्र उसका छोटा भाई हुआ । ये दोनों ही पुत्र राजा को अत्‍यन्‍त प्रिय थे ॥192॥

किसी समय राजा सिंहसेन अपना भाण्‍डागार देखनेके लिए गये थे वहाँ सत्‍यघोषके जीव अगन्‍धन नामक सर्पने उसे स्‍वकीय क्रोधसे डस लिया ॥193॥

उस गरूड़दण्‍ड नामक गारूड़ी ने मन्‍त्र से सब सर्पों को बुलाकर कहा कि तुम लोगों में जो निर्दोष हो वह अग्नि में प्रवेश कर बाहर निकले और शुद्धता प्राप्‍त करे ॥194॥

अन्‍यथा प्रवृत्ति करने पर मैं दण्डित करूँगा । इस प्रकार कहने पर अगन्‍धन को छोड़ बाकी सब सर्प उस अग्नि से क्‍लेश के बिना ही इस तरह बाहर निकल आये जिस तरह कि मानो किसी जलाशयसे ही बाहर निकल आये हों ॥195॥

परन्‍तु अगन्‍धन क्रोध और मान से भरा था अत: उस अग्नि में जल गया और मरकर कालक नामक वन में लोभ सहित चमरी जाति का मृग हुआ ॥196॥

राजा सिंहसेन भी आयु के अन्‍त में मरकर सल्‍लकी वन में अशनिघोष नाम का मदोन्मत्‍त हाथी हुआ ॥197॥

इधर सिंहचन्‍द्र राजा हुआ और पूर्णचन्‍द्र युवराज बना । राज्‍यलक्ष्‍मी का उपभोग करते हुए उन दोनोंका बहुत भारी समय जब एक क्षणके समान बीत गया ॥198॥

तब एक दिन राजा सिंहसेनकी मृत्‍युके समाचार सुनने से दान्‍तमति और हिरण्‍यमति नाम की संयम धारण करनेवाली आर्यिकाएँ रानी रामदत्‍ताके पास आईं ॥199॥

रामदत्‍ताने भी उन दोनोंके समीप संयम धारण कर लिया । इस शोक से राजा सिंहचन्‍द्र पूर्णचन्‍द्र नामक मुनिराज के पास गया और धर्मोपदेश सुनकर यह विचार करने लगा कि यदि यह मनुष्‍य-जन्‍म व्‍यर्थ चला जाता है तो फिर इसमें उत्‍पत्ति किस प्रकारहो सकती है, इसमें उत्‍पत्ति होनेकी आशा रखना भ्रम मात्र है अथवा नाना योनियोंमें भटकना ही बाकी रह जाता है ॥200–201॥

इस प्रकार विचार कर उसने छोटे भाई पूर्णचन्‍द्रको राज्‍यमें नियुक्‍त किया और स्‍वयं दीक्षा धारण कर ली । वह प्रमादको छोड़कर विशुद्ध होता हुआ संयमके द्वितीय गुणस्‍थान अर्थात् अप्रमत्‍त विरत नामक सप्‍तम गुणस्‍थानको प्राप्‍त हुआ ॥202॥

तपके प्रभाव से उसे आकाशचारण ऋद्धि तथा मन:पर्यय ज्ञान प्राप्‍त हुआ । किसी समय रामदत्‍ता सिंहचन्‍द्र मुनि को देखकर बहुत ही हर्षित हुई ॥203॥

उसने मनोहरवन नाम के उद्यानमें विधि पूर्वक उनकी वन्‍दना की, तप‍के निर्विघ्‍न होनेका समाचार पूछा और अन्‍त में पुत्रस्‍नेह के कारण यह पूछा कि पूर्णचन्‍द्र धर्म को छोड़कर भोगों का आदर कर रहा है वह कभी धर्म को प्राप्‍त होगा या नहीं ? ॥204–205॥

सिंहचन्‍द्र मुनि ने उत्‍तर दिया कि खेद मत करो, वह अवश्‍य ही तुमसे अथवा तुम्‍हारे धर्म को ग्रहण करेगा । मैं इसके अन्‍य भव से सम्‍बन्‍ध रखने वाली कथा कहता हुं सो सुनो ॥206॥

कोशल देशके वृद्ध नामक ग्राममें एक मृगायण नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्‍त्री का नाम मधुरा था ॥207॥

उन दोनोंके वारूणी नाम की पुत्री थी, मृगायण आयु के अन्‍त में मरकर साकेत नगर के राजा दिव्‍यबल और उसकी रानी सुमतिके हिरण्‍यवती नाम की पुत्री हुई । वह सती हिरण्‍यवती पोदनपुर नगर के राजा पूर्णचन्‍द्रके लिए दी गई-व्‍याही गई ॥208–209॥

मृगायण ब्राह्मण स्‍त्री मधुरा भी मर कर उन दोनों-पूर्णचन्‍द्र और हिरण्‍यवतीके तू रामदत्‍ता नाम की पुत्री हुई थी, सेठ भद्रमित्र तेरे स्‍नेहसे सिंहचन्‍द्र नाम का पुत्र हुआ था और वारूणीका जीव यह पूर्णचन्‍द्र हुआ है । तुम्‍हारे पिताने भद्रबाहुसे दीक्षा ली थी और उनसे मैंने दीक्षा ली थी इस प्रकार तुम्‍हारे पिता हम दोनोंके गुरू हुए हैं ॥210–211॥

तेरी माताने दान्‍तमतीके समीप दीक्षा धारण की थी और फिर हिरण्‍यवती मातासे तूने दीक्षा धारण की है । आज तुझे सब प्रकारकी शान्ति है । राजा सिंहसेनको साँपने डस लिया था जिससे मर कर वह वन में अशनिघोष नाम का हाथी हुआ । एक दिन वह मदोन्‍मत्‍त हाथी वन में घूम रहा था, वहीं मैं था, मुझे देखकर वह मारनेकी इच्छा से दौड़ा, मुझे आकाशचारण ऋद्धि थी अत: मैंने आकाश में स्थित हो पूर्वभवका सम्‍बन्‍ध बताकर उसे समझाया । वह ठीक-ठीक सब समझ गया जिससे उस भव्‍यने शीघ्र ही संयमासंयम-देशव्रत ग्रहण कर लिया ॥112–214॥

अब उसका चित्‍त बिल्‍कुल शान्‍त है, वह सदा विरक्‍त रहता हुआ शरीर आदि की नि:सारताका विचार करता रहता है, लगातार एक-एक माहके उपवास कर सूखे पत्‍तोंकी पारणा करता है ॥215॥

इस प्रकार महान् धैर्यका धारक वह हाथी चिरकाल तक कठिन तपश्‍चरण कर अत्‍यन्‍त दुर्बल हो गया । एक दिन वह यूपकेसरिणी नाम की नदी के किनारे पानी पीनेके लिए घुसा । उसे देखकर श्रीभूति-सत्‍यघोषके जीवने जो मरकर चमरी मृग और बादमें कुर्कुट सर्प हुआ था उस हाथी के मस्‍तक पर चढ़कर उसे डस लिया । उसके विषसे हाथी मर गया, वह चूँकि समाधिमरणसे मरा था अत: सहस्‍त्रार स्‍वर्गके रविप्रिय नामक विमान में श्रीधर नाम का देव हुआ । धर्मिल ब्राह्मण, जिसे कि राजा सिंहसेनने श्रीभूतिके बाद अपना मन्‍त्री बनाया था आयु के अन्‍त में मर कर उसी वन में वानर हुआ था । उस वानरकी पूर्वोक्‍त हाथी के साथ मित्रता थी अत: उसने उस कुर्कुट सर्पको मार डाला जिससे वह मरकर तीसरे नरकमें उत्‍पन्‍न हुआ । इधर श्रृगालवान् नाम के व्‍याधने उस हाथी के दोनों दाँत तोड़े और अत्‍यन्‍त चमकीले मोती निकाले तथा धनमित्र नामक सेठके लिए दिये । राजश्रेष्‍ठी धनमित्रने वे दोनों दाँत तथा मोती राजा पूर्णचन्‍द्रके लिए दिये ॥216–221॥

राजा पूर्णचन्‍द्रने उन दोनों दाँतोंसे अपने पलंगके चार पाये बनवाये और मोतियों से हार बनवाकर पहिना ॥222॥

वह मनुष्‍य सर्वथा बुद्धिरहित नहीं है अथवा संसार के अभावका विचार नहीं करता है तो संसार के ऐसे स्‍वभावका विचार करनेवाला कौन मनुष्‍य है जो विषय-भोगोंमें प्रीति बढ़ाने वाला हो ?॥223॥

इस तरह सिंहचन्‍द्र मुनिके समझाने पर रामदत्‍ताको बोध हुआ, वह पुत्र के स्‍नेहसे राजा पूर्णचन्‍द्र के पास गई और उसे सब बातें कहकर समझाया ॥224॥

पूर्णचन्‍द्रने धर्मके तत्‍वको समझा और चिरकाल तक राज्‍य का पालन किया । रामदत्‍ताने पुत्र के स्‍नेहसे निदान किया और आयु के अन्‍त में मरकर महाशुक्र स्‍वर्गके भास्‍कर नामक विमान में देव पद प्राप्‍त किया । तथा पूर्णचन्‍द्र भी उसी स्‍वर्गके वैडूर्य नामक विमान में वैडूर्य नाम का देव हुआ ॥225–226॥

निर्मल ज्ञान के धारक सिंहचन्‍द्र मुनिराज भी अच्‍छी तरह समाधिमरण कर नौवें ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्‍द्र हुए ॥227॥

रामदत्‍ताका जीव महाशुक्र स्‍वर्गसे चयकर इसी दक्षिण श्रेणीके धरणीतिलक नामक नगर के स्‍वामी अतिवेग विद्याधरके श्रीधरा नाम की पुत्री हुआ । वहाँ इसकी माताका नाम सुलक्षणा था । यह श्रीधरा पुत्री अलकानगरी के अधिपति दर्शक नामक विद्याधरके राजा के लिए दी गई । पूर्णचन्‍द्रका जीव जो कि महाशुक्र स्‍वर्गके वैडूर्य विमान में वैडूर्य नामक देव हुआ था वहाँसे चयकर इसी श्रीधराके यशोधरा नाम की वह कन्‍या हुई जो कि पुष्‍करपुर नगर के राजा सूर्यावर्तके लिए दी गई थी ॥228–230॥

राजा सिंहसेन अथवा अशनिघोष हाथीका जीव श्रीधर देव उन दोनों-सूर्यवर्त और यशोधराके रश्मिवेग नाम का पुत्र हुआ । किसी समय मुनिचन्‍द्र नामक मुनि से धर्मोपदेश सुनकर राजा सूर्यावर्त तप के लिए चले गये और श्रीधरा तथा यशोधराने गुणवती आर्यिकाके पास दीक्षा धारण कर ली ॥231–232॥

किसी समय रश्मिवेग सिद्धकूट पर विद्यमान जिन-मन्दिरके दर्शनके लिए गया था, वहाँ उसने चारण ऋद्धि धारी हरिचन्‍द्र नामक मुनिराज के दर्शन कर उनसे धर्म का स्‍वरूप सुना, उन्‍हींसे सम्‍यग्‍दर्शन और संयम प्राप्‍त कर मुनि हो गया तथा शीघ्र ही आकाशचारण ऋद्धि प्राप्‍त कर ली ॥233–234॥

किसी दिन रश्मिवेग मुनि कांचन नाम की गुहामें विराजमान थे, उन्‍हें देखकर श्रीधरा और यशोधरा आर्यिकाएँ उन्‍हें नमस्‍कार कर वहीं बैठ गईं ॥235॥

इधर सत्‍यघोषका जीव जो तीसरे नरकमें नारकी हुआ था वहाँसे निकल कर पाप के उदय से चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा और अन्‍त में उसी वन में महान् अजगर हुआ ॥236॥

उन श्रीधरा तथा यशोधरा आर्यिकाओं को और सूर्य के समान दीप्तिवाले उन रश्मिवेग मुनिराजको देखकर उस अजगरने क्रोधसे एक ही साथ निगल लिया । समाधिमरण कर आर्यिकाएँ तो कापिष्‍ठ नामक स्‍वर्गके रूचक नामक विमान में उत्‍पन्‍न हुईं और मुनि उसी स्‍वर्गके अर्कप्रभ नामक विमान में देव उत्‍पन्‍न हुए । वह अजगर भी पाप के उदय से पंकप्रभा नामक चतुर्थ पृथिवीमें पहुँचा ॥237–238॥

सिंहचन्‍द्रका जीव स्‍वर्गसे चय कर इसी जम्‍बूद्वीप के चक्रपुर नगर के स्‍वामी राजा अपराजित और उनकी सुन्‍दरी नाम की रानी के चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ ॥239॥

उसके कुछ समय बाद रश्मिवेगका जीव भी स्‍वर्गसे च्‍युत होकर इसी अपराजित राजाकी दूसरी रानी चित्रमाला के वज्रायुध नाम का पुत्र हुआ ॥240॥

श्रीधरा आर्यिका स्‍वर्गसे चयकर धरणीतिलक नगर के स्‍वामी अतिवेग राजाकी प्रियकारिणी रानी के समस्‍त लक्षणों से सम्‍पूर्ण रत्‍नमाला नाम की अत्‍यन्‍त प्रसिद्ध पुत्री हुई । यह रत्‍न माला आगे चलकर वज्रायुधके आनन्‍द को बढ़ानेवाली उसकी प्राणप्रिया हुई ॥241–242॥

और यशोधरा आर्यिका स्‍वर्गसे चयकर इन दोनों-वज्रायुध और रत्‍नमाला के रत्‍नयुध नाम का पुत्र हुई । इस प्रकारसे सब यहाँ प्रतिदिन अपने-अपने पूर्व पुण्‍यका फल प्राप्‍त करने लगे ॥243॥

किसी दिन धीरबुद्धि के धारक राजा अपराजितने पिहितास्त्रव मुनि से धर्मोपदेश सुना और चक्रायुध के लिए राज्‍य देकर दीक्षा ले ली ॥244॥

कुछ समय बाद राजा चक्रायुध भी वज्रायुध पर राज्‍य का भार रखकर अपने पिता के पास दीक्षित हो गये और उसी जन्‍ममें मोक्ष चले गये ॥245॥

अब वज्रायुधने भी राज्‍य का भार रत्‍नायुधके लिए सौंपकर चक्रायुधके समीप दीक्षा ले ली सो ठीक ही है क्‍योंकि सत्‍त्वगुणके धारक क्‍या नहीं करते ? ॥246॥

रत्‍नायुध भोगोंमें आसक्‍त था । अत: धर्म की कथा छोड़कर बड़ी लम्‍पटताके साथ वह चिरकाल तक राज्‍यके सुख भोगता रहा । किसी समय मनोरम नाम के महोद्यानमें वज्रदन्‍त महामुनि लोकानुयोग का वर्णन कर रहे थे उसे सुनकर बड़ी बुद्धिवाले, राजा के मेघविजय नामक हाथीको अपने पूर्व भवका स्‍मरण हो आया जिससे उसने योग धारण कर लिया, मांसादि ग्रास लेना छोड़ दिया और संसार की दु:खमय स्थितिका वह विचार करने लगा ॥247–249॥

यह देख राजा घबड़ा गया, उसने बड़े-बड़े मन्‍त्रवादियों तथा वैद्योंको बुलाकर स्‍वयं ही बड़े आदरसे पूछा कि इस हाथीको क्‍या विकार हो गया है ? ॥250॥

उन्‍होंने जब वात, पित्‍त और कफसे उत्‍पन्‍न हुआ कोई विकार नहीं देखा तब अनुमानसे विचारकर कहा कि धर्मश्रवण करनेसे इसे जाति-स्‍मरण हो गया है इसलिए उन्‍होंने किसी अच्‍छे बर्तनमें बना तथा घृत आदिसे मिला हुआ शुद्ध आहार उसके सामने रक्‍खा जिसे उस गजराजने खा लिया ॥251–252॥

यह देख राजा बहुत ही आश्‍चर्य को प्राप्‍त हुआ । वह वज्रदन्‍त नामक अवधिज्ञानी मुनिराज के पास गया और यह सब समाचार कहकर उनसे इसका कारण पूछने लगा ॥253॥

मुनिराजने कहा कि हे राजन् ! मैं सब कारण कहता हूँ तू सुन । इसी भरतक्षेत्र में छत्रपुर नगर का राजा प्रीतिभद्र था । उसकी सुन्‍दरी नाम की रानीसे प्रीतिंकर नामक पुत्र हुआ । राजा के एक चित्रमति नामक मंत्री था और लक्ष्‍मी के समान उसकी कमला नाम की स्‍त्री थी ॥254–255॥

कमलाके विचित्रमति नाम का पुत्र हुआ । एक दिन राजा और मंत्री दोनोंके पुत्रों ने धर्मरूचि नाम के मुनिराजसे धर्म का उपदेश सुना और उसी समय भोगों से उदास होकर दोनोंने तप धारण कर लिया । महामुनि प्रीतिंकरको क्षीरास्‍त्रव नाम की ऋद्धि उत्‍पन्‍न हो गई ॥256–257॥

एक दिन वे दोनों मुनि क्रम-क्रम से विहार करते हुए साकेतपुर पहुंचे । उनमेंसे मंत्रिपुत्र विचित्रमति मुनि उपवासका नियम लेकर नगर के बाहर रह गये और राजपुत्र प्रीतिंकरमुनि चर्याके लिए नगर में गये । अपने घर के समीप जाता हुआ देख बुद्धिषेणा नाम की वेश्‍याने उन्‍हें बड़ी विनय से प्रणाम किया ॥258–259॥

और मेरा कुल दान देने योग्‍य नहीं है इ‍सलिए बड़े शोक से अपनी निन्‍दा करती हुई उसने मुनिराजसे पूछा कि हे मुने, आप यह बताइये कि प्राणियोंको उत्‍तम कुल तथा रूप आदिकी प्राप्ति किस कारणसे होती है ? 'मद्य मांसादिके त्‍यागसे होती है' ऐसा कहकर वह मुनि नगरसे वापिस लौट आये । दूसरे विचित्रमति मुनि ने उनसे आदरके साथ पूछा कि आप नगर में बहुत देर तक कैसे ठहरे ? ॥260–262॥

उन्‍होंने भी वेश्‍याके साथ जो बात हुई थी वह ज्‍यों की त्‍यों निवेदन कर दी । दूसरे दिन मंत्रिपुत्र विचित्रमति मुनि ने भिक्षाके समय वेश्‍याके घर में प्रवेश किया । वेश्‍या मुनि को देखकर एकदम उठी तथा नमस्‍कार कर पहलेके समान बड़े आदरसे धर्म का स्‍वरूप पूछने लगी ॥263–264॥

परन्‍तु दुर्बुद्धि विचित्रमति मुनि ने उसके साथ काम और राग सम्‍बन्‍धी कथाएँ ही कीं । वेश्‍या उनके अभिप्रायको समझ गई अत: उसने उनका तिरस्‍कार किया ॥265॥

विचित्रमति वेश्‍यासे अपमान पाकर बहुत ही क्रुद्ध हुआ । उसने मुनिपना छोड़ दिया और राजाकी नौकरी कर ली । वहाँ पाकशास्‍त्रके कहे अनुसार बनाये हुए मांससे उसने उस नगर के स्‍वामी राजा गन्‍धमित्रको अपने वश कर लिया और इस उपायसे उस बुद्धिषेणाको अपने आधीन कर लिया । अन्‍त में वह विचित्रमति मरकर तुम्‍हारा हाथी हुआ है ॥266–267॥

मैं यहाँ त्रिलोकप्रज्ञाप्तिका पाठ कर रहा था उसे सुनकर इसे जाति-स्‍मरण हुआ है । अब यह संसार से विरक्‍त है, निकट भव्‍य है और इसीलिए इसने अशुद्ध भोजन करना छोड़ दिया है ॥268॥

भोगके लिए धर्म का त्‍याग करना ऐसा है जैसा कि काचके लिए महामणिका और दासीके लिए माताका त्‍याग करना है इसलिए विद्वानोंको चाहिये कि वे भोगों का सदा त्‍याग करें ॥269॥

यह सुनकर राजा कहने लगा कि 'धर्म को दूषित करनेवाले कामको धिक्‍कार है, वास्‍तवमें धर्म ही परम मित्र है' ऐसा कहकर वह धर्म में तत्‍पर हो गया ॥270॥

उसने उसी समय अपना राज्‍य पुत्र के लिए दे दिया और माताके साथ संयम धारण कर लिया । तपश्‍चरण कर मरा और आयु के अन्‍त में सोलहवें स्‍वर्ग में देव हुआ ॥271॥

सत्‍यघोषका जीव जो पंकप्रभा नामक चौथे नरकमें गया था वहाँसे निकलकर चिरकाल तक नाना योनियोंमें भ्रमण करता हुआ अनेक दु:ख भोगता रहा ॥272॥

एक बार वह पूर्वकृत पाप के उदय से इसी क्षत्रपुर नगर में दारूण नामक व्‍याधकी मंगी नामक स्‍त्री से अतिदारूण नाम का पुत्र हुआ ॥273॥

किसी एक दिन प्रियंगुखण्‍ड नाम के वन में वज्रायुध मुनि प्रतिमायोग धारण कर विराजमान थे उन्‍हें उस दुष्‍ट भीलके लड़केने परलोक भेज दिया-मार डाला ॥274॥

तीक्ष्‍ण बुद्धि के धारक वे मुनि व्‍याधके द्वारा किया हुआ तीव्र उपसर्ग सहकर धर्मध्‍यानसे सर्वार्थसिद्धि को प्राप्‍त हुए ॥275॥

और अतिदारूण नाम का व्‍याध मुनिहत्‍याके पापसे सातवें नरकमें उत्‍पन्‍न हुआ । पूर्व धातकीखण्‍डके पश्चिम विदेहक्षेत्र में गन्धिल नामक देश है उसके अयोध्‍या नगर में राजा अर्हद्दास रहते थे, उनकी सुख देने वाली सुव्रता नाक की स्‍त्री थी । रत्‍नमालाका जीव उन दोनोंके वीतभय नाम का पुत्र हुआ । और उसी राजाकी दूसरी रानी जिनदत्‍ताके रत्‍नायुधका जीव विभीषण नाम का पुत्र हुआ । वे दोनों ही पुत्र बलभद्र तथा नारायण थे और दीर्घकाल तक विभाग किये बिना ही राजलक्ष्‍मी का यथायोग्‍य उपभोग करते रहे ॥276–279॥

अन्‍त में नारायण तो नरकायुका बंध कर शर्कराप्रभामें गया और बलभद्र अन्तिम समयमें दीक्षा लेकर लान्‍तव स्‍वर्ग में उत्‍पन्‍न हुआ ॥280॥

मैं वही आदित्‍याभ नाम का देव हूं, मैने स्‍नेहवश दूसरे नरकमें जाकर वहाँ रहनेवाले विभीषण को सम्‍बोधा था ॥281॥

वह प्रतिबोधको प्राप्‍त हुआ और वहाँसे निकलकर इसी जम्‍बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्रकी अयोध्‍या नगरी के राजा श्रीवर्माकी सुसीमा देवीके श्रीधर्मा नाम का पुत्र हुआ । और वयस्‍क होने पर अनन्‍त नामक मुनिराजसे संयम ग्रहण कर ब्रह्मस्‍वर्ग में आठ दिव्‍य गुणों से विभूषित देव हुआ । वज्रायुधका जीव जो सर्वा‍र्थसिद्धिमें अहमिन्‍द्र हुआ था वहाँसे आकर संजयन्‍त हुआ ॥282–284॥

श्रीधर्माका जीव ब्रह्मस्‍वर्गसे आकर तू जयन्‍त हुआ था और निदान बाँधकर मोह-कर्म के उदय से धरणीन्‍द्र हुआ ॥285॥

सत्‍यघोषका जीव सातवीं पृथिवीसे निकल कर जघन्‍य आयु का धारक साँप हुआ और फिर तीसरे नरक गया ॥286॥

वहाँसे निकल कर त्रस स्‍थावर रूप तिर्यंच गतिमें भ्रमण करता रहा । एक बार भूतरमण नामक वनके मध्‍य में ऐरावती नदी के किनारे गोश्रृंग नामक तापसकी शंखिका नामक स्‍त्रीके मृगश्रृंग नाम का पुत्र हुआ । वह विरक्‍त होकर पंचाग्नि तप कर रहा था कि इतनेमें वहाँसे दिव्‍यतिलक नगरका राजा अंशुमाल नाम का विद्याधर निकला उसे देखकर उस मूर्खने निदान बन्‍ध किया ॥287–289॥

अन्‍त में मर कर इसी भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वत की उत्‍तर श्रेणी-सम्‍बन्‍धी गगनवल्‍लभ नगर के वज्रद्रंष्‍ट्र विद्याधरकी विद्युत्‍प्रभा रानी के विद्युद्दंष्‍ट्र नाम का पुत्र हुआ । इसने पूर्व वैरके संस्‍कारसे कर्मबंध कर चिरकाल तक दु:ख पाये और आगे भी पावेगा ॥290-291॥

इस प्रकार कर्म के वश होकर यह जीव परिर्वतन करता रहता है । पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र माता हो जाता है, माता भाई हो जाती है, भाई बहन हो जाता है और बहन नाती हो जाती है सो ठीक ही है क्‍योंकि इस संसार में बन्‍धुजनों के सम्‍बन्‍धकी स्थिरता ही क्‍या है ? इस संसार में किसने किसका अपकार नहीं किया और किसने किसका उपकार नहीं किया ? इसलिए वैर बाँधकर पाप का बन्‍ध मत करो । हे नागराज-हे धरणेन्‍द्र ! वैर छोड़ो और विद्युद्दंष्‍ट्रको भी छोड़ दो ॥292–294॥

इस प्रकार उस देव के वचनरूप अमृतकी वर्षासे धरणेन्‍द्र बहुत ही संतुष्‍ट हुआ । वह कहने लगा कि हे देव ! तुम्‍हारे प्रसादसे आज मैं समीचीन धर्म का श्रद्धान करता हूँ ॥295॥

किन्‍तु इस विद्युद्दंष्‍ट्रने जो यह पाप का आचरण किया है वह विद्याके बलसे ही किया है इसलिए मैं इसकी तथा इसके वंशकी महाविद्याको छीन लेता हूँ' यह कहा ॥296॥

उसके वचन सुनकर वह देव धरणेन्‍द्रसे फिर कहने लगा कि आपको स्‍वयं नहीं तो मेरे अनुरोधसे ही ऐसा नहीं करना चाहिये ॥297॥

धरणेन्‍द्रने भी उस देव के वचन सुनकर कहा कि यदि ऐसा है तो इसके वंशके पुरूषोंको महाविद्याएँ सिद्ध नहीं होंगी परन्‍तु इस वंशकी स्त्रियाँ संजयन्‍त स्‍वामी के समीप महाविद्याओं को सिद्ध कर सकती हैं । यदि इन अपराधियोंको इतना भी दण्‍ड नहीं दिया जावेगा तो ये दुष्‍ट अहंकार से खोटी चेष्‍टाएँ करने लगेंगे तथा आगे होने वाले मुनियों पर भी ऐसा उपद्रव करेंगे ॥298–299॥

इस घटनासे इस पर्वत परके विद्याधर अत्‍यन्‍त लज्जित हुए थे इसलिए इसका नाम 'हृीमान्' पर्वत है ऐसा कहकर उसने उस पर्वत पर अपने भाई संजयन्‍त मुनिकी प्रतिमा बनवाई ॥300॥

धर्म और न्‍यायके अनुसार कहे हुए शान्‍त वचनों से विद्युद्दंष्‍ट्रको कालुष्‍यरहित किया और उस देवकी पूजा कर अपने स्‍थान पर चला गया ॥301॥

वह देव अपनी आयु के अंतमें उत्‍तर मथुरा नगरी के अनन्‍तवीर्य राजा और मेरूमालिनी नाम की रानी के मेरू नाम का पुत्र हुआ ॥302॥

तथा धरणेन्‍द्र भी उसी राजाकी अमितवती रानी के मन्‍दर नाम का पुत्र हुआ । ये दोनों ही भाई शुक्र और बृहस्‍पतिके समान थे ॥303॥

तथा अत्‍यन्‍त निकट भव्‍य थे इसलिए विमलवाहन भगवान् के पास जाकर उन्‍होंने अपने पूर्वभव के सम्‍बन्‍ध सुने एवं दीक्षा लेकर उनके गणधर हो गये ॥304॥

अब यहाँ इनमेंसे प्रत्‍येकका नाम लेकर उनकी गति और भवोंके समूह का वर्णन करता हूँ -॥305॥

सिंहसेनका जीव अशनिघोष हाथी हुआ, फिर श्रीधर देव, रश्मिवेग, अर्कप्रभदेव, महाराज वज्रायुध, सर्वार्थसिद्धिमें देवेन्‍द्र और वहाँसे चयकर संजयन्‍त केवली हुआ । इस प्रकार सिंहसेनने आठ भवमें मोक्षपद पाया ॥306–307॥

मधुराका जीव रामदत्‍ता, भास्‍करदेव, श्रीधरा, देव, रत्‍नमाला, अच्‍युतदेव, वीतभय और आदित्‍यप्रभदेव होकर विमलवाहन भगवान् का मेरू नाम का गणधर हुआ और सात ऋद्धियों से युक्‍त होकर उसी भव से मोक्षको प्राप्‍त हुआ ॥308–309॥

वारूणीका जीव पूर्णचन्‍द्र, वैडूर्यदेव, यशोधरा, कापिष्‍ठ स्‍वर्ग में बहुत भारी ऋद्धियोंको धारण करने वाला रूचकप्रभ नाम का देव, रत्‍नायुध देव, विभीषण पाप के कारण दूसरे नरकका नारकी, श्रीधर्मा, ब्रह्मस्‍वर्ग का देव, जयन्‍त, धरणेन्‍द्र और विमलनाथका मन्‍दर नाम का गणधर हुआ चार ज्ञान का धारी होकर संसारसागरसे पार हो गया ॥310–312॥

श्रीभूति-( सत्‍यघोष ) मंत्रीका जीव सर्प, चमर, कुर्कुट सर्प, तीसरे नरकका दु:खी नारकी, अजगर, चौथे नरकका नारकी, त्रस और स्‍थावरोंके बहुत भव अति दारूण, सातवें नरकका नारकी, सर्प, नारकी, अनेक योनियोंमें भ्रमण कर मृगश्रृंग और फिर मरकर पापी विद्युद्दंष्‍ट्र विद्याधर हुआ एवं पीछेसे वैररहित-प्रसन्‍न भी हो गया था ॥313–315॥

भद्रमित्र सेठका जीव सिंहचन्‍द्र, प्रीतिंकरदेव और चक्रायुधका भव धारण कर आठों कर्मों को नष्‍ट करता हुआ निर्वाणको प्राप्‍त हुआ था ॥316॥

इस प्रकार कहे हुए तीनों ही जीव अपने-अपने कर्मोदयके वश चिरकाल तक उच्‍च-नीच स्‍थान पाकर कहीं तो सुख का अनुभव करते रहे और कहीं बिना माँगे हुए तीव्र दु:ख भोगते रहे परन्‍तु अन्‍त में तीनों ही निष्‍पाप होकर परमपद को प्राप्‍त हुए ॥317॥

जिन महानुभाव ने ह्णदय में समता रस के विद्यमान रहने से दुष्‍ट विद्याधर के द्वारा किये हुए भयंकर उपसर्ग को 'यह किसी विरले ही भाग्‍यवान् को प्राप्‍त होता है' इस प्रकार विचार कर बहुत अच्‍छा माना और अत्‍यन्‍त निर्मल शुक्‍ल-ध्‍यान को धारण कर शुद्धता प्राप्‍त की वे कर्म-मल रहित संजयन्‍त स्‍वामी तुम सब की रक्षा करें ॥318॥

जिन्‍होंने सूर्य और चन्‍द्रमा को जीतकर उत्‍कृष्‍ट तेज प्राप्‍त किया है, जो मुनियों के समूह के स्‍वामी हैं, तथा नयों से परिपूर्ण जैनागम के नायक हैं ऐसे मेरू और मंदर नाम के गणधर सदा आपलोगोंसे पूजित रहें-आपलोग सदा उनकी पूजा करते रहें ॥319॥