+ भगवान अनन्‍तनाथ, सुप्रभ बलभद्र, पुरुषोत्तम नारायण, मधुसूदन प्रतिनारायण चरित -
पर्व - 60

  कथा 

कथा :

अथानन्‍तर जो अनन्‍त दोषोंको नष्‍ट करनेवाले हैं तथा अनन्‍त गुणों की खान-स्‍वरूप हैं ऐसे श्री अनन्‍तनाथ भगवान् हम सबके ह्णदय में रहनेवाले मोहरूपी अन्‍धकारकी संतानको नष्‍ट करें ॥1॥

धातकीखण्‍ड द्वीप के पूर्व मेरूसे उत्‍तरकी ओर विद्यमान किसी देशमें एक अरिष्‍ट नाम का बड़ा सुन्‍दर नगर है जो ऐसा जान पड़ता है मानो समस्‍त सम्‍पदाओं के रहनेका एक स्‍थान ही हो ॥2॥

उस नगरका राजा पद्मरथ था, वह अपने गुणों से पद्मा-लक्ष्‍मी का स्‍थान था, उसने चिरकाल तक पृथिवी का पालन किया जिससे प्रजा परम प्रीतिको प्राप्‍त होती रही ॥3॥

जीवों को सुख देनेवाली उत्‍तम रूप आदिकी सामग्री पुण्‍योदय से प्राप्‍त होती है और राजा पद्मरथके वह पुण्‍यका उदय बहुत भारी तथा बाधारहित था ॥4॥

इसलिए इन्द्रियों के विषयोंके सान्निध्‍यसे उत्‍पन्‍न होने वाले सुख से वह इन्‍द्रके समान संतुष्‍ट होता हुआ अच्‍छी तरह संसार के सुख का अनुभव करता था ॥5॥

किसी एक दिन वह स्‍वयंप्रभ जिनेन्‍द्र के समीप गया । वहाँ उसने विनयके साथ उनकी स्‍तुति की और निर्मल धर्म का उपदेश सुना ॥6॥

तदनन्‍तर वह चिन्‍तवन करने लगा कि 'जीवोंका शरीर के साथ और इन्द्रियोंका अपने विषयोंके साथ जो संयोग होता है वह अनित्‍य है क्‍योंकि इस संसार में सभी जीवों के आत्‍मा और शरीर तथा इन्द्रियाँ और उनके विषय इनमेंसे एकका अभाव होता ही रहता है ॥7॥

यदि अन्‍य मतावलम्‍बी लोगोंका आशय मोहित हो तो भले ही हो मैंने तो मोहरूपी शत्रु के माहात्‍म्‍य को नष्‍ट करनेवाले अर्हन्‍त भगवान् के चरण-कमलों का आश्रय प्राप्‍त किया है । मैं इन विषयोंमें अपनी बुद्धि स्थिर कैसे कर सकता हूँ-इन विषयोंको नित्‍य किस प्रकार मान सकता हूँ' इस प्रकार इसकी बुद्धि मोहरूपी महागाँठको खोलकर उद्यम करने लगी ॥8–9॥

तदनन्‍तर जिस प्रकार चारों ओर लगी हुई वनाग्नि की ज्‍वालाओं से भयभीत हुआ हरिण अपने बहुत पुराने रहने के स्‍थान को छोड़ने का उद्यम करता है उसी प्रकार वह राजा भी चिरकाल से रहने के स्‍थान-स्‍वरूप संसाररूपी स्‍थली को छोड़ने का उद्यम करने लगा ॥10॥

उसने धनरथ नामक पुत्र के लिए राज्‍य देकर संयम धारण कर लिया और ग्‍यारह अंगरूपी सागर का पारगामी होकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्‍ध किया ॥11॥

अन्‍त में सल्‍लेखना धारण कर शरीर छोड़ा और अच्‍युत स्‍वर्गके पुष्‍पोत्‍तर विमान में इन्‍द्रपद प्राप्‍त किया ॥12॥

वहाँ उसकी आयु बाईस सागर थी, शरीर साढ़े तीन हाथका था, शुक्‍ललेश्‍या थी, वह ग्‍यारह माह में एक बार श्‍वास लेता था, बाईस हजार वर्ष बाद आहार ग्रहण करता था, मानसिक प्रवीचारसे सुखी रहता था, तम:प्रभा नामक छठवीं पृथिवी तक उसका अवधिज्ञान था और वहीं तक उसका बल, विक्रिया और तेज था । इस प्रकार चिरकाल तक सुख भोगकर वह इस मध्‍यम लोक में आनेके लिए समुम्‍ख हुआ ॥13-15॥

उस समय इस जम्‍बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्रकी अयोध्‍यानगरी में इक्ष्‍वाकुवंशी काश्‍यपगोत्री महाराज सिंहसेन राज्‍य करते थे ॥16॥

उनकी महारानी का नाम जयश्‍यामा था । देवों ने उसके घर के आगे छह-माह तक रत्नों की श्रेष्‍ठ धारा बरसाई ॥17॥

कार्तिक कृष्‍णा प्रतिपदाके दिन प्रात:काल के समय रेवती नक्षत्र में उसने सोलह स्‍वप्‍न देखने के बाद मुँह में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा ॥18॥

अवधिज्ञानी राजा से उन स्‍वप्‍नों का फल जाना । उसी समय वह अच्‍युतेन्‍द्र उसके गर्भ में आकर स्थित हुआ जिससे वह बहुत भारी सन्‍तोषको प्राप्‍त हुई ॥19॥

तदनन्‍तर देवों ने गर्भ-कल्‍याणक का अभिषेक कर वस्‍त्र, माला और बड़े-बड़े आभूषणोंसे महाराज सिंहसेन और रानी जयश्‍यामा की पूजा की ॥20॥

जयश्‍यामा का गर्भ सुख से बढ़ने लगा । नव माह व्‍यतीत होने पर उसने ज्‍येष्‍ठ कृष्‍णा द्वादशी के दिन पूषायोग में पुण्‍यवान् पुत्र उत्‍पन्‍न किया ॥21॥

उसी समय इन्‍द्रों ने आकर उस पुत्रका मेरू पर्वत पर अभिषेक किया और बड़े हर्ष से अनन्‍तजित् यह सार्थक नाम रखा ॥22॥

श्रीविमलनाथ भगवान् के बाद नौ सागर और और पौन पल्‍य बीत जाने पर तथा अन्‍तिम समय धर्म का विच्‍छेद हो जाने पर भगवान् अनन्‍त जिनेन्‍द्र उत्‍पन्‍न हुए थे, उनकी आयु भी इसी अन्‍तराल में शामिल थी ॥23॥

उनकी आयु तीन लाख वर्ष की थी, शरीर पचास धनुष ऊँचा था, देदीप्‍यमान सुवर्ण के समान रंग था और वे सब लक्षणों से सहित थे ॥24॥

मनुष्‍य, विद्याधर और देवों के द्वारा पूजनीय भगवान् अनन्‍तनाथ ने सात लाख पचास हजार वर्ष बीत जाने पर राज्‍याभिषेक प्राप्‍त किया था ॥25॥

और जब राज्‍य करते हुए उन्‍हें पन्‍द्रह लाख वर्ष बीत गये तब किसी एक दिन उल्‍कापात देखकर उन्‍हें यथार्थ ज्ञान उत्‍पन्‍न हो गया ॥26॥

वे सोचने लगे कि यह दुष्‍कर्मरूपी वेल अज्ञानरूपी बीजसे उत्‍पन्‍न हुई है, असंयमरूपी पृथिवीके द्वारा धारण की हुई है, प्रमादरूपी जलसे सीचीं गई है, कषाय ही इसकी स्‍कन्‍धयष्टि है-बड़ी मोटी शाखा है, योगके आलम्‍बनसे बढ़ी हुई है, तिर्यंच गतिके द्वारा फैली हुई है, वृद्धावस्‍थारूपी फूलोंसे ढकी हुई है, अनेक रोग ही इसके पत्‍ते हैं, और दु:खरूपी दुष्‍ट फलोंसे झुक रही है । मैं इस दुष्‍ट कर्मरूपी वेल को शुक्‍ल ध्‍यानरूपी तलवारके द्वारा आत्‍म-कल्‍याणके लिए जड़-मूलसे काटना चाहता हूँ ॥27-29॥

ऐसा विचार करते ही स्‍तुति करते हुए लौकान्तिक देव आ पहुँचे । उन्‍होंने उनकी पूजा की, विजयी भगवान् ने अपने अनन्‍तविजय पुत्र के लिए राज्‍य दिया, देवों ने तृतीय-दीक्षा-कल्‍याणक की पूजा की, भगवान् सागरदत्‍त नामक पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में गये और वहाँ वेला का नियम लेकर ज्‍येष्‍ठ कृष्‍ण द्वादशी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये ॥30-32॥

जिन्‍हें मन:पर्यय ज्ञान प्राप्‍त हुआ है और जो सामायिक संयमसे सहित हैं ऐसे अनन्‍तनाथ दूसरे दिन चर्याके लिए साकेतपुरमें गये ॥33॥

वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले विशाख नामक राजा ने उन्‍हें आहार देकर स्‍वर्ग तथा मोक्षकीं सूचना देनेवाले पंचाश्‍चर्य प्राप्‍त किये ॥34॥

इस प्रकार तपश्‍चरण करते हुए जब छद्मस्‍थ के दो वर्ष बीत गये तब पूर्वोक्‍त सहेतुक वन में अश्‍वत्‍थ-पीपल वृक्ष के नीचे चैत्र कृष्‍ण अमावस्‍या के दिन सायंकाल के समय रेवती नक्षत्र में उन्‍होंने केवलज्ञान उत्‍पन्‍न किया । उसी समय देवों ने चतुर्थ कल्‍याणक की पूजा की ॥35–36॥

पूर्वधारियोंके द्वारा वन्‍दनीय थे, तीन हजार दो सौ वाद करनेवाले मुनियों के स्‍वामी थे, उनतालीस हजार पाँच सौ शिक्षक उनके साथ रहते थे, चार हजार तीन सौ अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, वे पाँच हजार केवलज्ञानियों से सहित थे, आठ हजार विक्रियाऋद्धि के धारकों से विभूषित थे, पाँच हजार मन:पर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे, इस प्रकार सब मिलाकर छयासठ हजार मुनि उनकी पूजा करते थे । सर्वश्रीको आदि लेकर एक लाख आठ हजार आर्यिकाओं का समूह उनके साथ था, दोलाख श्रावक उनकी पूजा करते थे और चार लाख श्राविकाएँ उनकी स्‍तुति करती थीं । वे असंख्‍यात देव देवियों के द्वारा स्‍तुत थे और संख्‍यात तिर्यंचोंसे सेवित थे । इस तरह बारह सभाओंमें विद्यमान भव्‍य समूह के अग्रणी थे ॥37–42॥

पदार्थ कथंचित् सद्रूप है और कथंचिद् असद्रूप है इस प्रकार विधि और निषेध पक्ष के सद्भाव को प्रकट करते हुए भगवान् अनन्‍तजित् ने प्रसिद्ध देशों में विहार कर भव्‍य जीवों को सन्‍मार्ग में लगाया ॥43॥

अन्‍त में सम्‍मेद शिखर पर जाकर उन्‍होंने विहार करना छोड़ दिया और एक माह का निरोध कर छह हजार एक सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया । तथा चैत्र कृष्‍ण अमावास्‍या के दिन रात्रि के प्रथम भाग में चतुर्थ शुल्‍क-ध्‍यान के द्वारा परमपद प्राप्‍त किया ॥44–45॥

उसी समय देवों के समूहने आकर बड़े आदरसे विधिपूर्वक अन्‍तिम संस्‍कार किया और यह सब क्रिया कर वे सब ओर अपने-अपने स्‍थानों पर चले गये ॥46॥

जिन्‍होंने मिथ्‍यानयरूपी सघन अन्‍धकारसे भरे हुए समस्‍त लोक को सम्‍यक. नयरूपी किरणों से शीघ्र ही प्रकाशित कर दिया है, जो मिथ्‍या शास्‍त्ररूपी उल्‍लुओंसे द्वेष करनेवाले हैं, जिनकी उत्‍कृष्‍ट दीप्ति अत्‍यन्‍त प्रकाशमान है और जो भव्‍य जीवरूपी कमलों को विकसित करनेवाले हैं ऐसे श्री अनन्‍तजित भगवानरूपी सूर्य तुम सबके पापको जलावें ॥47॥

जो पहले पद्मरथ नाम के प्रसिद्ध राजा हुए, फिर तपके प्रभाव से नि:शंक बुद्धि के धारक अच्‍युतेन्‍द्र

हुए और फिर वहाँसे चयकर मरणको जीतनेवाले अनन्‍तजित् नामक जिनेन्‍द्र हुए वे अनन्‍त भवोंमें होनेवाले मरणसे तुम सबकी रक्षा करें ॥48॥

अथानन्‍तर-इन्‍हीं अनन्‍तनाथ के समयमें सुप्रभ बलभद्र और पुरूषोत्‍तम नामक नारायण हुए हैं इसलिए इन दोनोंके तीन भवोंका उत्‍कृष्‍ट चरित्र कहता हूँ ॥49॥

इसी भरत क्षेत्रके पोदनपुर नगर में राजा वसुषेण रहते थे उनकी महारानीका नाम नन्‍दा था जो अतिशय प्रशंसनीय थी ॥50॥

उस राजा के यद्यपि पाँच सौ स्त्रियाँ थीं तो भी वह नन्‍दा के ऊपर ही विशेष प्रेम करता था सो ठीक ही है क्‍योंकि वसन्‍त-ऋतु में अनेक फुल होने पर भी भ्रमर आम्रमंजरी पर ही अधिक उत्‍सुक रहता है ॥51॥

मलय देश का राजा चण्‍डशासन, राजा वसुषेण मित्र था इसलिए वह किसी समय उसके दर्शन करने के लिए पोदनपुर आया ॥52॥

पाप के उदय से प्रेरित हुआ चण्‍डशासन नन्‍दा को देखने से उसपर मोहित हो गया अत: वह दुर्बुद्धि किसी उपाय से उसे हरकर अपने देश ले गया ॥53॥

राजा वसुषेण असमर्थ था अत: उस पराभव से बहुत दु:खी हुआ, चिन्‍ता रूपी यमराज उसके प्राण खींच रहा था परन्‍तु उसे शास्‍त्रज्ञान का बल था अत: व‍ह शान्‍त होकर श्रेय नामक गणधरके पास जाकर दीक्षित हो गया । उस महाबलवान् ने सिंहनिष्‍क्रीडित आदि कठिन तपकर यह निदान किया कि यदि मेरी इस तपश्‍चर्या का कुछ फल हो तो मैं अन्‍य जन्‍ममें ऐसा राजा होऊँ कि जिसकी आज्ञाका कोई भी उल्‍लंघन न कर सके ॥54–56॥

तदनन्‍तर संन्‍यास-मरणकर वह सहस्‍त्रार नामक बारहवें स्‍वर्ग गया । वहाँ अठारह सागर की उसकी आयु थी ॥57॥

अथानन्‍तर-जम्‍बूद्वीप के पूर्व-विदेह क्षेत्र में एक सम्‍पत्ति-सम्‍पन्‍न नन्‍दन नाम का नगर है । उसमें महाबल नाम का राजा राज्‍य करता था । वह प्रजा की रक्षा करता हुआ सुखों का उपभोग करता था, अत्‍यन्‍त धर्मात्‍मा था, श्रीमान् था, उसकी कीर्ति दिशाओं के अन्‍त तक फैली थी, और वह याचकोंकी पीड़ा दूर करनेवाला था-बहुत दानी था ॥58–59॥

एक दिन उसे शरीरादि वस्‍तुओं के यथार्थ स्‍वरूप का बोध हो गया जिससे वह उनसे विरक्‍त मोक्ष प्राप्‍त करने के लिए उत्‍सुक हो गया ॥60॥

उसने अपने पुत्र के लिए राज्‍य दिया और प्रजापाल नामक अर्हन्‍तके समीप संयम धारण कर सिंह निष्‍कीडित नाम का तप किया ॥61॥

अन्‍त में संन्‍यास धारण कर अठारह सागर की स्थितिवाले सहस्‍त्रार स्‍वर्ग में उत्‍पन्‍न हुआ । वहाँ चिरकाल तक भोग भोगता रहा । जब अन्तिम समय आया तब शान्‍तचित्‍त होकर मरा ॥62॥

और इसी जम्‍बूद्वीप सम्‍बन्‍धी भरत क्षेत्रकी द्वारवती नगर के स्‍वामी राजा सोमप्रभकी रानी जयवन्‍तीके सुप्रभ नाम का सुन्‍दर पुत्र हुआ ॥63॥

वह सुप्रभ दूसरे विजयार्ध के समान सुशोभित हो रहा था क्‍योंकि जिस प्रकार विजयार्ध महायति बहुत लम्‍बा है उसी प्रकार सुप्रभ भी महायति-उत्‍तम भविष्‍यसे सहित था, जिस प्रकार विजयार्ध समुतुंग-ऊँचा है उसी प्रकार सुप्रभ भी समुतुंग उदार प्रकृति का था, जिस प्रकार विजयार्ध देव और विद्याधरों का आश्रय-आधार-रहनेका स्‍थान है उसी प्रकार सुप्रभ भी देव और विद्याधरोंका आश्रय-रक्षक था और जिस प्रकार विजयार्ध श्‍वेतिमा-शुक्‍लवर्ण को धारण करता है उसी प्रकार सुप्रभ भी श्‍वेतिमा शुक्‍लवर्ण अथवा कीर्ति सम्‍बन्‍धी शुल्‍कताको धारण करता था ॥64॥

यही नहीं, वह सुप्रभ चन्‍द्रमा को भी पराजित करता था क्‍योंकि चन्‍द्रमा कलंक-सहित है परन्‍तु सुप्रभ कलंक-रहित था, चन्‍द्रमा केवल रात्रि के समय ही कान्‍त (सुन्‍दर) दिखता है परन्‍तु सुप्रभ रात्रिदिन सदा ही सुन्‍दर दिखता था, चन्‍द्रमा सबके चित्‍त को हरण नहीं करता-चकवा आदिको प्रिय नहीं लगता परन्‍तु सुप्रभ सब के चित्‍तको हरण करता था-सर्वप्रिय था, और चन्‍द्रमा पद्मानन्‍दविधायी नहीं है -कमलों को विकसित नहीं करता परन्‍तु सुप्रभ पद्मानन्‍दविधायी था-लक्ष्‍मी को आनन्दित करनेवाला था ॥65॥

उसी राजा की सीता नाम की रानी के वसुषेण का जीव पुरूषोत्‍तम नाम का पुत्र हुआ जो कि अनेक गुणों से मनुष्‍यों को आनन्दित करने वाला था ॥66॥

वह पुरूषोत्‍तम सुमेरू पर्वत के समान सुन्‍दर था क्‍योंकि जिस प्रकार सुमेरूपर्वत समस्‍त तेजस्वियों-सूर्य चन्‍द्रमा आदि देवों के द्वारा सेव्‍यमान है उसी प्रकार पुरूषोत्‍तम भी समस्‍त तेजस्वियों-प्रतापी मनुष्‍यों के द्वारा सेव्‍यमान था, जिस प्रकार सुमेरू पर्वत की महोन्‍नत्ति-भारी ऊँचाईका कोई भी उल्‍लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार पुरूषोत्‍तमकी महोन्‍नत्ति-भारी श्रेष्‍ठता अथवा उदारताका कोई भी उल्‍लंघन नहीं कर सकता और जिस प्रकार सुमेरू पर्वत महारत्‍नों-बड़े-बड़े रत्‍नों से सुशोभित है उसी प्रकार पुरूषोत्‍तम भी महारत्‍नों-बहुमूल्‍य रत्‍नों अथवा श्रेष्‍ठ पुरूषोंसे सुशोभित था ॥67॥

वे बलभद्र और नारायण क्रमश: शुल्‍क और कृष्‍ण कान्ति के धारक थे, तथा समस्‍त लोक -व्‍यवहारके प्रवर्तक थे अत: शुक्‍लपक्ष और कृष्‍णपक्षके समान सुशोभित होते थे ॥68॥

उन दोनों का पचास धनुष ऊँचा शरीर था, तीस लाख वर्ष की दोनों की आयु थी और एक समान दोनों को सुख था अत: साथ ही साथ सुखोपभोग करते हुए उन्‍होंने बहुत-सा समय बिता दिया ॥69॥

अथानन्‍तर-पहले जिस चण्‍डशासन का वर्णन कर आये हैं वह अनेक भवों में घूमकर काशी देश की वाराणसी नगरी का स्‍वामी मधुसूदन नाम का राजा हुआ । वह सूर्य के समान अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी था, उसने समस्‍त शत्रुओं के समूह को दण्डित कर दिया था तथा उसका बल और पराक्रम बहुत ही प्रसिद्ध था ॥70–71॥

नारद से उस असहिष्‍णु ने उन बलभद्र और नारायण का वैभव सुनकर उसके पास खबर भेजी कि तुम मेरे लिए हाथी तथा रत्‍न आदि कर स्‍वरूप भेजो ॥72॥

वायु से ही क्षुभित हो उठा हो, वह प्रलय काल के यमराज के समान दुष्‍प्रेक्ष्‍य हो गया और अत्‍यन्‍त क्रोध करने लगा ॥73॥

बलभद्र सुप्रभ भी दिशाओंमें अपने नेत्रोंकी लाल-लाल कान्ति को इस प्रकार बिखेरने लगा मानो क्रोधरूपी अग्निकी ज्‍वालाओं के समूहको ही बिखेर रहा हो ॥74॥

वह कहने लगा -मैं नहीं जानता कि कर क्‍या कहलाता है ? क्‍या हाथ को कर कहते हैं ? जिससे कि खाय जाता है । अच्‍छा तो मैं जिसमें तलवार चमक रही है ऐसा कर (हाथ) दूँगा वह सिर से उसे स्‍वीकार करे ॥75॥

वह आवे और कर ले जावे इसमें क्‍या हानि है ? इस प्रकार तेज प्रकट करनेवाले दोनों भाइयों ने कटुक शब्‍दों के द्वारा नारद को उच्‍च स्‍वरसे उत्‍तर दिया ॥76॥

तदनन्‍तर यह समाचार सुनकर मधुसूदन बहुत ही कुपित हुआ और उन दोनों भाइयों को मारने के लिए चला तथा वे दोनों भाई भी क्रोध से उसे मारने के लिए चले ॥77॥

दोनों सेनाओं का ऐसा संग्राम हुआ मानो सब का संहार ही करना चाहता हो । शत्रु-मधुसूदन ने पुरूषोत्‍तम के ऊपर चक्र चलाया परन्‍तु वह चक्र पुरूषोत्‍तम का कुछ नहीं बिगाड़ सका । अन्‍त में पुरूषोत्‍तमने उसी चक्र से मधुसूदन को मार डाला ॥78॥

दोनों भाई चौथे बलभद्र और नारायण हुए तथा तीन खण्‍ड़ के आधिपत्‍य का इस प्रकार अनुभव करने लगे जिस प्रकार कि सूर्य और चन्‍द्रमा ज्‍योतिर्लोक के आधिपत्‍य का अनुभव करते हैं ॥79॥

आयु के अन्‍त में पुरूषोत्‍तम नारायण छठवें नरक गया और सुप्रभ बलभद्र उसके वियोग से उत्‍पन्‍न शोकरूपी अग्नि से बहुत ही संतप्‍त हुआ ॥80॥

सोमप्रभ जिनेन्‍द्रने उसे समझाया जिससे प्रसन्‍नचित्‍त होकर उसने दीक्षा ले ली और अन्‍त में क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ होकर उस बुद्धिमान् ने मोक्ष प्राप्‍त कर लिया ॥81॥

पुरूषोत्‍तम पहले पोदनपुर नगर में वसुषेण नाम का राजा हुआ, फिर तप कर शुल्‍क-लेश्‍या का धारक देव हुआ, फिर वहाँ से चयकर अर्ध-भरत-क्षेत्र का स्‍वामी, तथा शत्रुओं का नष्‍ट करनेवाला पुरूषोत्‍तम नाम का नारायण हुआ एवं उसके बाद अधोलोक में सातवीं पृथिवी में उत्‍पन्‍न हुआ ॥82॥

मलयदेश का अधिपति पापी राजा चण्‍डाशासन चिरकाल तक भ्रमण करता हुआ मधुसूदन हुआ और तदनन्‍तर संसाररूपी सागर के अधोभाग में निमग्‍न हुआ ॥83॥

सुप्रभ पहले नन्‍दन नामक नगर में महाबल नाम का राजा था फिर महान् तप कर बाहरवें स्‍वर्ग में देव हुआ, तदनन्‍तर सुप्रभ नाम का बलभद्र हुआ और समस्‍त परिग्रह छोड़कर उसी भव से परमपद को प्राप्‍त हुआ ॥84॥

देखो, सुप्रभ और पुरूषोत्‍तम एक ही साथ साम्राज्‍य के श्रेष्‍ठ सुखों का उपभोग करते थे परन्‍तु उनमें से पहला सुप्रभ तो मोक्ष गया और दूसरा-पुरूषोत्‍तम नरक गया, यह सब अपनी वृत्ति-प्रवृत्ति की विचित्रता है ॥85॥