+ राजा श्वेतवाहन, जम्बू-स्वामी, प्रीतिंकर मुनि, कल्कि-पुत्र अजितंजय, प्रलय-काल, आगामी तीर्थंकर -
पर्व - 76

  कथा 

कथा :

अथानन्‍तर-सुर-असुरों से घिरे हुए भगवान् महावीर अनेक देशोंमें विहार कर किसी दिन फिर उसी राजगृह नगर में आ पहुँचे ॥1॥

बारह सभाओं से पूज्‍यवे भगवान् विपुलाचल पर्वत पर विराजमान हुए । राजा श्रेणिक उनकी स्‍तुति के लिए गया, जाते समय उसने एक वृक्ष के नीचे शिलातल पर विराजमान धर्मरूचि नाम के मुनिराजको देखा । वे मुनिराज निस्‍तरंग समुद्र के समान निश्‍चल थे, दीपकके समान निष्‍कम्‍प थे और जल सहित मेघके समान उन्‍नत थे, उन्‍हों ने इन्द्रियों के व्‍यापारको जीत लिया था, वे पर्यंकासन से विराजमान थे, श्‍वासोच्‍छ्वासको उन्‍हों ने थोड़ा रोक रक्‍खा था, और नेत्र कुछ बन्‍द कर लिये थे ॥2-4॥

इस प्रकार ध्‍यान करते हुए मुनिराजको देखकर श्रेणिक ने उनकी वन्‍दना की परन्‍तु मुनिराजका मुख कुछ विकृत हो रहा था इसलिए उसे देखकर श्रेणिकको कुछ शंका उत्‍पन्‍न हो गई । वहाँ से चलकर वह भगवान् महावीर जिनेन्‍द्र के समीप पहुँचा । वहाँ उसने हाथ जोड़कर उनकी स्‍तुति की फिर गौतमगणधरकी स्‍तुति कर उन से पूछा कि हे प्रभो ! मैंने मार्ग में एक तपस्‍वी मुनिराज देखे हैं वे ऐसा ध्‍यान कर रहे हैं मानो उनका रूप धारण कर साक्षात् ध्‍यान ही विराजमान हो । हे नाथ ! वे कौन हैं ? यह जाननेका मुझे बड़ा कौतुक हो रहा है सो कृपा कर कहिये । इस प्रकार राजा श्रेणिकके द्वारा पूछे जा ने पर वचनोंके स्‍वामी श्रीगणधर भगवान् इस प्रकार कह ने लगे ॥5-7॥

इसी भरत क्षेत्र के अंग देश में सर्व वस्‍तुओं से सहित एक चम्‍पा नाम की नगरी है । उसमें राजा श्‍वेतवाहन राज्‍य करता था । इन्‍हीं भगवान् महावीर स्‍वामी से धर्म का स्‍वरूप सुनकर उसका चित्‍त तीनों प्रकार के वैराग्‍य से भर गया जिस से इसने विमलवाहन नामक अपने पुत्र के लिए राज्‍य का भार सौंपकर बहुत लोगों के साथ संयम धारण कर लिया । बहुत दिन तक मुनियों के समूह के साथ विहारकर अखण्‍ड संयमको धारण करते हुए वे मुनिराज यहाँ आ विराजमान हुए हैं । ये दश धर्मोंमें सदा प्रेम रखते थे इसीलिए लोगों के द्वारा धर्मरूचिके नाम से प्रसिद्ध हुए हैं सो ठीक ही है क्‍योंकि मित्रता वही है जो सर्व जीवोंमें होती है ॥8-11॥

आज ये मुनि एक महीनेके उपवासके बाद नगर में भिक्षाके लिए गये थे वहाँ तीन मनुष्‍य मिलकर इनके पास आये । उनमें एक मनुष्‍य मनुष्‍यों के लक्षण शास्‍त्रका जानकार था, उसने इन मुनिराजको देखकर कहा कि इनके लक्षण तो साम्राज्‍य पदवीके कारण हैं परन्‍तु ये भिक्षाके लिए भटकते हैं इसलिए शास्‍त्र में जो कहा है झूठ मालूम होता है । इसके उत्‍तरमें दूसरे मनुष्‍य ने कहा कि शास्‍त्रमें जो कहा गया है वह झूठ नहीं है । ये साम्राज्‍य तन्‍त्रका त्‍यागकर ऋषि हो गये हैं । किसी कारण से विरक्‍त होकर इन्‍हों ने अपना राज्‍य का भार बालक-छोटे ही वयको धारण करनेवाले अपने पुत्र के लिए दे दिया है और स्‍वयं विरक्‍त होकर इस प्रकार तपश्‍चरण कर रहे हैं । इसके वचन सुनकर तीसरा मनुष्‍य बोला कि 'इसका तप पाप का कारण है अत: इस से क्‍या लाभ है ? यह बड़ा दुरात्‍मा है इसलिए दया छोड़कर लोकव्‍यवहार से अनभिज्ञ असमर्थ बालक को राज्‍यभार सौंपकर केवल अपना स्‍वार्थ सिद्ध करने के लिए यहाँ तप करने के लिए आया है । मन्‍त्री आदि सब लोगों ने उस बालक को सांकल से बाँध रक्‍खा है और राज्‍य का विभागकर पापी लोग इच्‍छानुसार स्‍वयं उसका उपभोग करने लगे हैं' । तीसरे मनुष्‍य के उक्‍त वचन सुनकर इन मुनिका ह्णदय स्‍नेह और मान से प्रेरित हो उठा जिस से वे भोजन किये बिना ही नगर से लौटकर वनके मध्‍य में वृक्ष के नीचे आ बैठे हैं ॥12-20॥

बाह्य कारणों के मिलने से उनके अन्‍त:करण में तीव्र अनुभागवाले क्रोध कषाय के स्‍पर्धकों का उदय हो रहा है । संक्‍लेशरूप परिणामों से उनके तीन अशुभलेश्‍याओं की वृद्धि हो रही है । जो मन्‍त्री आदि प्रतिकूल हो गये हैं उनमें हिंसा आदि सर्व प्रकार के निग्रहों का चिन्‍तवन करते हुए वे संरक्षणानन्‍द नामक रौद्र ध्‍यान में प्रविष्‍ट हो रहे हैं । यदि अब आगे अन्‍तर्मुहूर्त तक उनकी ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरक आयु का बन्‍ध करने के योग्‍य हो जावेंगे ॥21-23॥

इसलिए हे श्रेणिक ! तू शीघ्र ही जाकर उसे समझा दे और कह दे कि हे साधो ! शीघ्र ही यह अशुभ ध्‍यान छोड़ो, क्रोधरूपी अग्नि को शान्‍त करो, मोह के जाल को दूर करो, मोक्ष का कारणभूत जो संयम तुम ने छोड़ रक्‍खा है उसे फिर से ग्रहण करो, यह स्‍त्री-पुत्र तथा भाई आदि का सम्‍बन्‍ध अमनोज्ञ है तथा संसार का बढ़ानेवाला है । इत्‍यादि युक्ति पूर्ण वचनों से तू उनका स्थि‍तीकरण कर । तेरे उपदेश से वे पुन: स्‍वरूप में स्थित होकर शुल्‍क-ध्‍यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मरूपी सघन अटवी को भस्‍म कर देंगे और नव केवल-लब्धियों से देदीप्‍यमान शुद्ध-स्‍वभाव के धारक हो जावेंगे ॥24-27॥

गणधर महाराज के उक्‍त वचन सुनकर राजा श्रेणिक शीघ्र ही उन मुनि के पास गया और उनके बताये हुए मार्ग से उन्‍हें प्रसन्‍न कर आया ॥28॥

उक्‍त मुनिराज ने भी कषाय के भय से उत्‍पन्‍न होनेवाली शान्ति से उत्‍पन्‍न होनेवाली सामग्री प्राप्‍त कर द्वितीय शुल्‍क-ध्‍यान के द्वारा केवलज्ञान उत्‍पन्‍न कर लिया ॥29॥

उसी समय इन्‍द्र आदि देव उन धर्मरूचि केवली की पूजा करने के लिए आये सो राजा श्रेणिक ने भी उन सब के साथ उनकी पूजा की और फिर वह भगवान् वीरनाथ के पास आया ॥30॥

आते ही उसने गणधर स्‍वामी से पूछा कि हे प्रभो ! इस भरत-क्षेत्र में सब से पीछे स्‍तुति करने योग्‍य केवलज्ञानी कौन होगा ? इसके उत्‍तर में गणधर कुछ कहना ही चाहते थे कि उसी समय वहाँ देदीप्‍यमान मुकुट का धारक विद्युन्‍माली नाम का ब्रह्मस्‍वर्ग का इन्‍द्र आ पहुँचा, वह इन्‍द्र ब्रह्मह्णदय नामक विमान में उत्‍पन्‍न हुआ था, प्रियदर्शना, सुदर्शना, विद्युद्वेगा और प्रभावेगा ये चार उसकी देवियाँ थीं, उन सभी के साथ वह वहाँ आया था । आकर उसने जिनेन्‍द्र भगवान् की वन्‍दना की । तदनन्‍तर यथास्‍थान बैठ गया । उसकी ओर दृष्टिपात कर गणधर स्‍वामी राजा श्रेणिक से कह ने लगे कि इसके द्वारा ही केवलज्ञान का विच्‍छेद हो जायगा अर्थात् इसके बाद फिर कोई केवलज्ञानी नहीं होगा । वह किस प्रकार होगा यदि यह जानना चाहते हो तो मैं इसे भी कहता हूँ, सुन । आज से सातवें दिन यह ब्रह्मेन्‍द्र, स्‍वर्ग से च्‍युत होकर इसी नगर के सेठ अर्हद्दास की स्‍त्री जिनदासी के गर्भ में आवेगा । गर्भ में आने के पहले जिनदासी पाँच स्‍वप्‍न देखेगी-हाथी, सरोवर, चावलों का खेत, जिसकी शिखा ऊपर को जा रही है ऐसी धूम रहित अग्नि और देव-कुमारों के द्वारा लाये हुए जामुन के फल । यह पुत्र बड़ा ही भाग्‍यशाली और कान्तिमान् होगा, जम्‍बूकुमार इसका नाम होगा, अनावृत देव उसकी पूजा करेगा, वह अत्‍यन्‍त प्रसिद्ध तथा विनीत होगा, और यौवन के प्रारम्‍भ से ही वह विकार से रहित होगा । जिस समय भगवान् महावीर स्‍वामी मोक्ष प्राप्‍त करेंगे उसी समय मुझे भी केवलज्ञान प्राप्‍त होगा । तदनन्‍तर सुधर्माचार्य गणधरके साथ संसार रूपी अग्नि से संतप्‍त हुए पुरूषों को धर्मामृत रूपी जल से आनन्दित करता हुआ मैं फिर भी इसी नगर में आकर विपुलाचल पर्वत पर स्थित होऊँगा । मेरे आने का समाचार सुनकर इस नगर का राजा चेलिनी का पुत्र कणिक सब परिवार के साथ आवेगा और पूजा वन्‍दना कर तथा धर्म का स्‍वरूप सुनकर स्‍वर्ग और मोक्ष का साधनभूत दान, शीलोपवास आदि धारण करेगा ॥31-42॥

उसी समय जम्‍बूकुमार भी विरक्‍त होकर दीक्षा ग्रहण करने के लिए उत्‍सुक होगा परन्‍तु भाई-बन्‍धु लोग उसे समझावेंगे कि थोड़े ही वर्षों के व्‍यतीत हो ने पर हम लोग भी तुम्‍हारे ही साथ दीक्षा धारण करेंगे । भाई-बन्‍धुओं के इस कथन को वह टाल नहीं सकेगा और उस समय पुन: नगर में वापिस आ जावेगा । तदनन्‍तर भाई-बन्‍धु लोग उसे मोह में फँसाने के लिए सुखदायी बन्‍धन स्‍वरूप उसका विवाह करना प्रारम्‍भ करेंगे सो ठीक ही है क्‍योंकि भाई-बन्‍धु लोग कल्‍याण में विघ्‍न करते ही हैं ॥43-45॥

इसी नगर में सागरदत्‍त सेठकी पद्मावती स्‍त्री से उत्‍पन्‍न हुई उत्‍तम लक्षणोंवाली पद्मश्री नाम की कन्‍या है जोकि दूसरी लक्ष्‍मी के समान जान पड़ती है । इसी प्रकार कुवेरदत्‍त सेठकी कनकमाला स्‍त्री से उत्‍पन्‍न हुई शुभ नेत्रोंवाली कनकश्री नाम की कन्‍या है । इसके अतिरिक्‍त वैश्रवणदत्‍त सेठकी विनयवती स्‍त्री से उत्‍पन्‍न हुई देखनेके योग्‍य विनयश्री नाम की पुत्री है और इसके सिवाय धनदत्‍त सेठकी धनश्री स्‍त्री से उत्‍पन्‍न हुई रूपश्री नाम की कन्‍या है । इन चारों पुत्रियोंके साथ उसका विधि पूर्वक विवाह होगा । तदनन्‍तर पाणिग्रहण पूर्वक जिसका विवाह हुआ है ऐसा जम्‍बूकुमार, उत्‍तम मणिमय दीपकोंके द्वारा जिसका अन्‍धकार नष्‍ट हो गया है, जो नाना प्रकार के रत्‍नोंके चूर्ण से निर्मित रंगावली से सुशोभित है और अनेक प्रकार के सुगन्धित फूलों के उपहार से सहित है ऐसे महलके भीतर पृथिवी तलपर बैठेगा । 'मेरा यह पुत्र राग से प्रेरित होकर विकार भावको प्राप्‍त होता हुआ मन्‍द मुसकान तथा कटाक्षावलोकन आदि से युक्‍त होता है या नहीं' यह देखनेके लिए उसकी माता स्‍नेह वश अपने आपको छिपाकर वहीं कहीं खड़ी होगी । उसी समय सुरम्‍य देश के प्रसिद्ध पोदनपुर नगर के स्‍वामी विद्युद्राज की रानी विमलमता से उत्‍पन्‍न हुआ विद्युत्‍प्रभ नाम का चोर आवेगा । वह विद्युत्‍प्रभ महापापी तथा नम्‍बर एकका चोर होगा, शूरवीरों में अग्रेसर तथा तीक्ष्‍ण प्रकृति का होगा । वह किसी कारण वश अपने बड़े भाई से कुपित होकर पाँच-सौ योद्धाओं के साथ नगर से निकलेगा और विद्युच्‍चोर नाम रखकर इस नगरी में आवेगा । वह चोर शास्‍त्र के अनुसार तन्‍त्र-मन्‍त्र के विधान से अदृश्‍य होकर किबाड़ खोलना आदि सब कार्यों का जानकार होगा और सेठ अर्हद्दास के घर के भीतर रखे हुए धन को चुराने के लिए इसीके घर आवेगा । वहाँ जम्‍बूकुमार की माता को निद्रारहित देखकर वह अपना परिचय देगा और कहेगा कि तू इतनी रात तक क्‍यों जाग रही है ? ॥46-57॥

इसके उत्‍तर में जिनदासी कहेगी कि 'मेरे यही एक पुत्र है और यह भी संकल्‍प कर बैठा है कि मैं सबेरे ही दीक्षा ले ने के लिए तपोवन को चला जाऊँगा' इसीलिए मुझे शोक हो रहा है । यदि तू बुद्धिमान् है और किन्‍हीं उपायों से इसे इस आग्रह से छुड़ाता है-इसका दीक्षा लेने का आग्रह दूर करता है तो आज मैं तुझे तेरा मनचाहा सब धन दे दूँगी । जिनदासी की बात सुनकर विद्युच्‍चोर ने यह कार्य करना स्‍वीकृत किया । तदनन्‍तर वह विचार करने लगा कि देखो यह जम्‍बूकुमार सब प्रकार की भोग-सामग्री रहते हुए भी विरक्‍त होना चाहते हैं और मैं यहाँ धन चुराने के लिए प्रविष्‍ट हुआ हूँ मुझे धिक्‍कार हो । इस प्रकार अपनी निन्‍दा करता हुआ वह विद्युच्‍चोर नि:शंक होकर, कन्‍याओं के बीच में बैठे हुए जीवन्‍धर कुमार के समीप पहुँचेगा । उस समय जिसे सद्बुद्धि उत्‍पन्‍न हुई है ऐसा जम्‍बूकुमार, उन कन्‍याओं के बीच में बैठा हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो पिंजरे के भीतर बैठा हुआ पक्षी ही हो अथवा जाल में फँसा हुआ हरिण का बच्‍चा ही हो अथवा बहुत भारी कीचड़में फँसा हुआ उत्‍तम जातिवाला गजराज ही हो, अथवा लोहे के पिंजरे में रुका हुआ सिंह ही हो । वह अत्‍यन्‍त विरक्‍त था और उसके संसार भ्रमण का क्षय अत्‍यन्‍त निकट था । ऐसे उस जम्‍बूकुमार को देखकर बुद्धिमान् विद्युच्‍चोर ऊँट की कथा कहेगा ॥58-64॥

वह कहेगा कि हे कुमार ! सुनिये, किसी समय कोई एक ऊँट स्‍वेच्‍छा से मीठे तृण चरता हुआ पहाड़के निकट जा पहुँचा । जहाँ वह चर रहा था वहाँ की घास ऊँचे स्‍थान से पड़ते हुए मधुके रस से मिल जानेके कारण मीठी हो रहा थी । उस ऊँट ने एक बार वह मीठी घास खाई तो यही संकल्‍प कर लिया कि मैं ऐसी ही घास खाऊँगा । इस संकल्‍प से वह मधुके पड़नेकी इच्‍छा करने लगा तथा दूसरी घास के उपभोग आदि से विरक्‍त होकर वहीं बैठा रहा तदनन्‍तर भूख से पीडित हो मर गया । इसी प्रकार हे कुमार ! तू भी इन उपस्थित भोगों की उपेक्षा कर स्‍वर्ग के भोगों की इच्‍छा करता है सो तू भी उसी ऊँटके समान बुद्धि से रहित है । इस प्रकार विद्युच्‍चोर के द्वारा कही हुई ऊँट की कथा सुनकर वैश्‍य-शिरोमणि जम्‍बूकुमार एक स्‍पष्‍ट दृष्‍टान्‍त देता हुआ उस चोरको उत्‍तर देगा कि एक मनुष्‍य महादाह करनेवाले ज्‍वर से पीडित था, उसने नदी, सरोवर तथा ताल आदि का जल बार-बार पिया था तो भी उसकी प्‍यास शान्‍त नहीं हुई थी सो क्‍या तृण के अग्रभाग पर स्थित जलकी बूँद से उसकी तृप्ति हो जावेगी ? इसी प्रकार इस जीव ने चिरकाल तक स्‍वर्गके सुख भोगे हैं फिर भी यह तृप्‍त नहीं हुआ सो क्‍या हाथी के कान के समान चन्‍चल इस वर्तमान सुख से यह तृप्‍त हो जायगा ? इस प्रकार जम्‍बूकुमार के वचन सुनकर विद्युच्‍चोर फिर कहेगा ॥65-72॥

कि किसी वन में एक चण्‍ड नाम का भील रहता था । उसने एक बड़े वृक्ष को आधार बनाकर अर्थात् उस पर बैठकर गाल तक धनुष खींचा और एक हाथी को मार गिराया । इतनेमें ही उस वृक्ष की कोटर से निकल कर एक साँप ने उसे काट खाया । काटते ही उस अज्ञानी भील ने उस साँपको भी मार डाला । इस तरह हाथी और साँप दोनों को मारकर वह स्‍वयं मर गया । तदनन्‍तर उन सब को मरा देखकर एक अत्‍यन्‍त लोभी गीदड़ आया । वह सोच ने लगा कि मैं पहले इन सब को नहीं खाकर धनुष की डोरी के दोनों छोड़ पर लगी हुई ताँत को खाता हूँ । ऐसा विचार कर उस मूर्ख ने ताँत को काटा ही था कि उसी समय धनुष के अग्रभाग से उसका गला फट गया और वह व्‍यर्थ ही मर गया । इसलिए अधिक लोभ करना छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार कहकर जब चोर चुप हो रहेगा तब बुद्धिमान् जम्‍बूकुमार विचार कर एक उत्‍तम बात कहेगा ॥73-77॥

कि कोई मूर्ख पथिक कहीं जा रहा था उसे चौराहे पर महा देदीप्‍यमान रत्‍नों की राशि मिली, उस समय वह उसे चाहता तो अनायास ही ले सकता था परन्‍तु किसी कारणवश उसे बिना लिये ही चला गया । फिर कुछ समय बाद उसे ले ने की इच्‍छा करता हुआ उस चौराहे पर आया सो क्‍या वह उस रत्‍नराशिको पा सकेगा ? अर्थात् नहीं पा सकेगा । इसी प्रकार जो मनुष्‍य संसार रूपी समुद्रमें दुर्लभ गुण रूपी मणियोंके समूहको पाकर भी उसे स्‍वीकृत नहीं करता है सो क्‍या वह उसे पीछे भी कभी पा सकेगा ? अर्थात् नहीं पा सकेगा ॥78-80॥

जम्‍बूकुमार के द्वारा कही हुई बातको ह्णदय में रखकर विद्युच्‍चोर अन्‍यायको सूचित करनेवाली एक दूसरी कथा क‍हेगा ॥81॥

वह कहेगा कि एक श्रृगाल मुख में मांसका टुकड़ा दाबकर पानीमें जा रहा था वहाँ क्रीड़ा करती हुई मछलीको पकछ़नेकी इच्छा से उसने वह मांसका टुकड़ा छोड़ दिया और पानीमें कूद पड़ा । पानीके प्रवाहका वेग अधिक था अत: वह उसीमें वह कर मर गया उसके मरनेके बाद दीर्घायु मछली पानीमें सुख से रह ने लगी । इसी प्रकार जो मूर्ख, श्रृगालके समान लोभी होता है वह अवश्‍य ही नष्‍ट होता है । इस तरह विद्युच्‍चोर की बात सुनकर निकट भव्‍य हो ने के कारण जिसे कुछ भी आकुलता नहीं हुई है ऐसा जम्‍बूकुमार कहेगा कि निद्रालु प्रकृतिका एक वैश्‍य नींदके सुख से विमोहित होकर सो गया और चोरों ने उसके घर में घुसकर सब बहुमूल्‍य रत्‍न चुरा लिये । इसी दु:ख से वह मर गया । इसी प्रकार यह जीव विषयजन्‍य थोड़े से सुखोंमें आसक्‍त हो रहा है और राग रूपी चोर इसके ज्ञान-दर्शन तथा चारित्र रूपी रत्‍न चुरा रहे हैं । इन रत्‍नों की चोरी हो ने पर यह जीव निर्मूल नष्‍ट हो जाता है । इसके उत्‍तरमें वह चोर कहेगा कि कोई स्‍त्री सासुके दुर्वचन सुनकर क्रोधित हुई और मरनेकी इच्छा से किसी वृक्ष के नीचे जा बैठी । वह सब आभूषणों से सुशोभित थी परन्‍तु फाँसी लगाना नहीं जानती थी इसलिए उसका चित्‍त बड़ा ही व्‍याकुल हो रहा था ॥82-89॥

उसी समय सुवर्णदारक नाम का मृदंग बजानेवाला पापी मृत्‍यु से प्रेरित हो वहाँ से आ निकला । वह उस स्‍त्रीके आभूषण लेना चाहता था इसलिए वृक्ष के नीचे अपना मृदंग रखकर तथा उसपर चढ़कर अपने गलेमें फाँसीकी रस्‍सी बाँध उसे मरनेकी रीति दिखला ने लगा । उसने अपने गलेमें रस्‍सी बाँधी ही थी कि किसी कारण से नीचेका मृदंग जमीन पर लुढ़क गया । फाँसी लग जा ने से उसका गला फँस गया और आँखें निकल आईं । इस प्रकार वह मरकर यमराज के घर गया । उसका मरण देख वह स्‍त्री उस दु:खदायी मरण से डर गई और अपने घर वापिस आ गई । कहनेका अभिप्राय यह है कि आपको उस मृदंग बजानेवालेके समान बहुत भारी लोभ नहीं करना चाहिये ॥90-93॥

इस प्रकार उस चोरका वाग्‍जाल जम्‍बूकुमार सहन नहीं कर सकेगा अत: उत्‍तरमें दूसरी कथा कहेगा । वह कहेगा कि ललितांग नाम के किसी धूर्त व्‍यभिचारी मनुष्‍य को देखकर किसी राजाकी रानी काम से विह्णल हो गई । उसने किसी भी उपाय से उस पथिकको लानेके लिए एक धाय नियुक्‍त की और धाय भी उसे गुप्‍त रूप से महलके भीतर ले गई । महारानी उसके साथ इच्‍छानुसार रमण करने लगी । बहुत समय बाद अन्‍त:पुरकी रक्षा करनेवाले शुद्ध खोजा लोगों ने रानीकी यह बात जान ली और उनके कह ने से राजा को भी रानी के इस दुराचारका पता लग गया ॥94-97॥

राजा ने इस दुराचारकी बात जानकर किसी भी उपाय से उस जारको पकड़नेके लिए सेवकोंको आज्ञा दी । यह जानकर रानी ने उसे टट्टीमें ले जाकर छिपा दिया । वहाँ की दुर्गन्‍ध और कीड़ों से वह वहाँ बहुत दु:खी हुआ तथा पाप कर्म के उदय से इसी जन्‍ममें नरक वासके दु:ख भोग ने लगा ॥98-99॥

इसी प्रकार थोड़े सुखकी इच्‍छा करनेवाले पुरूष नरकमें पड़ते हैं और वहाँ के दुस्‍तर, अपार तथा भयंकर दु:ख उठाते हैं ॥100॥

इसके बाद भी वह एक ऐसी कथा और कहेगा जिसके कि द्वारा सत्‍पुरूषोंको संसार से शीघ्र ही निर्वेग हो जाता है ॥101॥

वह कहेगा कि एक जीव संसार रूपी वन में घूम रहा था । एक मदोन्‍मत्‍त हाथी क्रोधवश उसे मारनेकी इच्छा से उसके पीछे-पीछे दौड़ा । वह जीव भय से भागता-भागता मनुष्‍य रूपी वृक्ष की आड़में छिप गया । उस वृक्ष के नीचे कुल, गोत्र आदि नाना प्रकारकी लताओं से भरा हुआ एक जन्‍म रूपी कुआँ था । वह जीव उस जन्‍मरूपी कुएँमें गिर पड़ा परन्‍तु आयुरूपी लतामें उसका शरीर उलझ गया जिस से नीचे नहीं जा सका । वह आयुरूपी लताको शुल्‍कपक्ष और कृष्‍णपक्षके दिनरूपी अनेक चूहे कुतर रहे थे । सातों नरकरूपी सर्प ऊपरकी ओर मुँह खोले उसके गिरनेकी प्रतीक्षा कर रहे थे । उसी वृक्षपर पुत्रादिक इष्‍ट पदार्थों से उत्‍पन्‍न हुआ सुखरूपी मधुका रस टपक रहा था जिसे खानेके लिए वह बड़ा उत्‍सुक हो रहा था । उस मधु रसके चाट ने से उड़ी हुईं भयंकर आपत्तिरूपी मधुकी मक्खियाँ उसे काट रही थीं परन्‍तु वह जीव मधु-बिन्‍दुओं के उस सेवनको सुख मान रहा था । इसी प्रकार संसार के समस्‍त प्राणी बड़े कष्‍ट से जीवन बिता रहे हैं । जो मूर्ख हैं वे भले ही विषयोंमें आसक्‍त हो जाये परन्‍तु जो बुद्धिमान् हैं वे क्‍यों ऐसी प्रवृत्ति करते हैं ? उन्‍हें तो स‍ब परिग्रहका त्‍यागकर कठिन तपश्‍चरण करना चाहिये ॥102-107॥

जम्‍बूकुमारकी यह बात सुनकर उसकी माता, वे कन्‍याएं, और वह चोर सब, संसार शरीर और भोगों से विरक्‍त होंगे ॥108॥

तदनन्‍तर चकवा को चकवीके समान कुमार को दीक्षाके साथ मिलाता हुआ अपनी किरणों से कुमार के मनको स्‍पर्शकर प्रसन्‍न करता हुआ, तपश्‍चरणके लिए श्रेष्‍ठ उद्यमके समान सब अन्‍धकार को नष्‍टकर उदयाचलकी शिखरपर सूर्य उदित होगा ॥109-110॥

उस समय वह सूर्य किसी अन्‍यायी राजाकी उपमा धारण करेगा क्‍योंकि जिस प्रकार अन्‍यायी राजा सर्व सन्‍तापकृत् होता है उसी प्रकार वह सूर्य भी सबको संताप करने वाला था, जिस प्रकार अन्‍यायी राजा तीक्ष्‍णकर होता है अर्थात् कठोर टैक्‍स लगाता है उसी प्रकार वह सूर्य भी तीक्ष्‍णकर था अर्थात् उष्‍ण किरणोंका धारक था, जिस प्रकार अन्‍यायी राजा क्रूर अर्थात् निर्दय होता है उसी प्रकार वह सूर्य भी क्रूर अर्थात् अत्‍यन्‍त उष्‍ण था, जिस प्रकार अन्‍यायी राजा अनवस्थित रहता है-एक समान नहीं रहता है-कभी संतुष्‍ट रहता है और कभी असंतुष्‍ट रहता है उसी प्रकार वह सूर्य भी अनवस्थित था-एक जगह स्थिर नहीं रहता था और जिस प्रकार अन्‍यायी राजा कुवलयध्‍वंसी होता है अर्थात् पृथ्‍वी मण्‍डल को नष्‍ट कर देता है उसी प्रकार वह सूर्य भी कुवलयध्‍वंसी था अर्थात् नीलकमलों को नष्‍ट करनेवाला था ॥111॥

अथवा वह सूर्य किसी उत्‍तम राजा को जीतनेवाला होगा क्‍योंकि जिस प्रकार उत्तम राजाका नित्‍योदय होता है अर्थात् उसका अभ्‍युदय निन्‍तर बढ़ता रहता है उसी प्रकार वह सूर्य भी नित्‍योदय होता है अर्थात् प्रतिदिन उसका उदय होता रहता है, जिस प्रकार उत्‍तम राजा बुधाधीश होता है अर्थात् विद्वानोंका स्‍वामी होता है उसी प्रकार वह सूर्य भी बुधाधीश था अर्थात् बुधग्रहका स्‍वामी था, जिस प्रकार उत्‍तम राजाका मण्‍डल अर्थात् बिम्‍ब भी विशुद्ध और अखण्‍ड था, जिस प्रकार उत्‍तम राजा पद्माह्लादी होता है अर्थात् लक्ष्‍मी से प्रसन्‍न रहता है उसी प्रकार सूर्य भी पद्माह्लादी था अर्थात् कमलों को विकसित करनेवाला था और जिस प्रकार उत्‍तम राजा प्रवृद्धोष्‍मा होता है अर्थात् बढ़ते हुए अहंकार को धारण करता है उसी प्रकार वह सूर्य भी प्रवृद्धोष्‍मा था अर्थात् उसकी गर्मी निरन्‍तर बढ़ती जाती थी ॥112॥

जम्‍बूकुमार संसार से विमुख-विरक्‍त हुआ है यह जान कर उसके सब भाई-बन्‍धु, कुणिक राजा, उसकी अठारह प्रकारकी सेनाएं और अनावृत देव आवेंगे तथा सब लोग मांगलिक जल से उसका दीक्षा-कल्‍याणकका अभिषेक करेंगे ॥113-114॥

उस समयके योग्‍य वेषभूषा धारण कर वह कुमार देव निर्मित पालकी पर सवार होकर बड़े वैभव के साथ विपुलाचल की शिखर पर पहुँचेगा । वहाँ विराजमान देखकर वह मेरे ही पास आवेगा । उस समय बड़े-बड़े मुनि हमारी सेवा कर रहे होंगे । वह आकर बड़ी भक्ति से प्रदक्षिणा देगा और विधिपूर्वक नमस्‍कार करेगा ॥115-116॥

तदनन्‍तर शान्‍त चित्‍तको धारण करनेवाला वह जम्बूकुमार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य इन तीन वर्णोंमें उत्‍पन्‍न हुए अनेक लोगों के साथ तथा विद्युच्‍चर चोर और उसके पाँच सौ भृत्‍योंके साथ सुधर्माचार्य गणधरके समीप संयम धारण करेगा । जब केवलज्ञान के बारह वर्ष बाद मुझे निर्वाण प्राप्‍त होगा तब सुधर्माचार्य केवली और जम्‍बूकुमार श्रुतकेवली होंगे । उसके बारह वर्ष बाद जब सुधर्माचार्य मोक्ष चले जावेंगे तब जम्‍बूकुमार को केवलज्ञान होगा । जम्‍बूस्‍वामी का भव नाम का एक शिष्‍य होगा, उसके साथ चालीसवर्ष तक धर्मोपदेश देते हुए जम्‍बूस्‍वामी पृथिवीपर विहार करेंगे । इस प्रकार गौतम स्‍वामी ने जम्‍बू स्‍वामी की कथा कही । उसे सुनकर वहीं पर बैठा हुआ अनावृत नाम का यक्ष कह ने लगा कि मेरे वंशका यह ऐसा अद्भुत माहात्‍म्‍य है कि कहीं दूसरी जगह देखनेमें भी नहीं आता । ऐसा कहकर उसने आनन्‍द नाम का उत्‍कृष्‍ट नाटक किया ॥117-122॥

यह देख, राजा श्रेणिक ने बड़ी विनयके साथ गौतम गणधर से पूछा कि इस अनावृत देवका जम्‍बू स्‍वामी के साथ भाईपना कै से है ? इसके उत्‍तरमें गणधर भगवान् स्‍पष्‍ट रूप से कह ने लगे ॥123॥

कि जम्‍बूकुमार के वंश में पहले धर्मप्रिय नाम का एक सेठ था । उसकी गुणदेवी नाम की स्‍त्री से एक अर्हद्दास नाम का पुत्र हुआ था ॥124॥

धन और यौवनके अभिमान से वह पिताकी शिक्षाको कुछ नहीं गिनता हुआ कर्मोदय से सातों व्‍यसनोंमें स्‍वच्‍छन्‍द हो गया था । इन खोटी चेष्‍टाओं के कारण जब उसकी दुर्गति हो ने लगी तब उसे पश्‍चात्‍ताप हुआ और 'मैंने पिताकी शिक्षा नहीं सुनी' यह विचार करते हुए उसकी भावना कुछ शान्‍त हो गई ॥125-126॥

तदनन्‍तर कुछ पुण्‍यका संचय कर वह अनावृत नाम का वयन्‍तर देव हुआ है । इसी पर्यायमें इस ने सम्‍यग्‍दर्शन धारण किया है ॥127॥

इस प्रकार जब गौतम स्‍वामी कह चुके तब राजा श्रेणिक ने पुन: उन से दूसरा प्रश्‍न किया । उसने पूछा कि हे भगवन् ! यह विद्युन्‍माली कहाँ से आया है ? और इस ने पूर्वभवमें कौनसा पुण्‍य किया है क्‍योंकि अन्तिम दिन में भी इसकी प्रभा कम नहीं हुई है । इसके उत्‍तरमें गणधर भगवान् अनुग्रहकी बुद्धि से इस प्रकार कह ने लगे ॥128-129॥

इसी जम्‍बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्‍कलावती देशके अन्‍तर्गत एक वीतशोक नाम का नगर है । वहाँ महापद्म नाम का राजाराज्‍य करता था । उसकी रानीका नाम वनमाला था । उन दोनोंके शिवकुमार नाम का पुत्र हुआ था । नवयौवन से सम्‍पन्‍न हो ने पर किसी दिन वह अपने साथियोंके साथ क्रीड़ा करने के लिए वन में गया था । वहाँ क्रीड़ा कर जब वह वापिस आ रहा था तब उसने सब ओर बडे संभ्रमके साथ सुगन्धित पुष्‍प आदि मंगलमय पूजा की सामग्री लेकर आते हुए बहुत से आदमी देखे । उन्‍हें देखकर उसने बड़े आश्‍चर्यके साथ बुद्धिसागर नामक मन्‍त्रीके पुत्र से पूछा कि 'यह क्‍या है ?' ॥130–133॥

इसके उत्‍तरमें मन्‍त्रीका पुत्र कह ने लगा कि 'हे कुमार ! सुनिये, मैं कहता हूँ, दीप्‍त नामक तपश्‍चरण से प्रसिद्ध सागरदत्‍त नामक एक श्रुतकेवली मुनिराज हैं । उन्‍हों ने एक मासका उपवास किया था, उसके बाद पारणाके लिए आज उन्‍हों ने नगर में प्रवेश किया था । वहाँ सामसमृद्ध नामक सेठ ने उन्‍हें विधिपूर्वक भक्ति से आहार दान देकर पन्‍चाश्‍चर्य प्राप्‍त किये हैं । वे ही मुनिराज इस समय मनोहर नामक उद्यानमें ठहरे हुए हैं, कौतुक से भरे हुए नगरवासी लोग बड़ी भक्ति से उन्‍हींकी पूजा-वन्‍दना करने के लिए जा रहे हैं' । इस प्रकार मन्‍त्रीके पुत्र ने कहा । यह सुनकर राजकुमार ने फिर पूछा कि इन मुनिराज ने सागरदत्‍त नाम, अनेक ऋद्धियाँ, तपश्‍चरण और शास्‍त्रज्ञान किस कारण प्राप्‍त किया है ? इसके उत्‍तरमें मन्‍त्र–पुत्र ने भी जैसा सुन रक्‍खा था वैसा कहना शुरू किया । वह कह ने लगा कि पुष्‍कलावती देशमें पुण्‍डरीकिणी नाम की नगरी है । उसके स्‍वामी का नाम वज्रदत्‍त था । वह वज्रदन्‍त चक्रवर्ती था इसलिए उसने चक्ररत्‍न से समस्‍त पृथिवी अपने आधीन कर ली थी ॥134–139॥

जब उसकी यशोधरा रानी गर्भिणी हुई तब उसे दोहला उत्‍पन्‍न हुआ और उसी दोहलेके अनुसार वह कमलमुखी बड़े वैभवके साथ जहाँ सीतानदी समुद्रमें मिलती है उसी महाद्वार से जलक्रीड़ा करने के लिये समुद्रमें गई । व‍हीं उसने निकट कालमें मोक्ष प्राप्‍त करनेवाला पुत्र प्राप्‍त किया । चुँकि उस पुत्रका जन्‍म सागर-समुद्रमें हुआ था इसीलिए परिवारके लोगों ने उसका सागरदत्‍त नाम रख दिया । तदनन्‍तर यौवन अवस्‍था प्राप्‍त हो ने पर किसी दिन वह सागरदत्‍त महलकी छतपर बैठा हुआ अपने परिवारके लोगों के साथ नाटक देख रहा था, उसी समय अनुकूल नामक एक सेवक ने कहा कि हे कुमार ! यह आश्‍चर्य देखो, यह बादल मन्‍दरगिरिके आकार से कैसा सुन्‍दर बना हुआ है ? यह सुनकर प्रीति से भरा राजकुमार ज्‍योंही ऊपरकी ओर मुँह कर उस नयनाभिराम दृशयको देखनेके लिए उद्यत हुआ त्‍योंही वह बादल नष्‍ट हो गया । उसे नष्‍ट हुआ देखकर कुमार विचार करने लगा कि जिस प्रकार यह बादल नष्‍ट हो गया है उसी प्रकार यह यौवन, धन-सम्‍पदा, शरीर, आयु और अन्‍य सभी कुछ नष्‍ट हो जानेवाले हैं, ऐसा विचारकर वह संसार से विरक्‍त हो गया ॥140–146॥

दूसरे दिन ही वह मनोहर नाम के उद्यानमें स्थित अमृतसागर नामक तीर्थंकरके समीप पहुँचा, वहाँ उसने धर्म का स्‍वरूप सुना । समस्‍त पदार्थों की स्थितिका निर्णय किया और भाई-बन्‍धुओं को विदाकर अनेक लोगों के साथ संयम धारण कर लिया । तदनन्‍तर मन:पर्यय आदि अनेक ऋद्धियों रूप सम्‍पदा पाकर धर्मोपदेश देते हुए सब देशोंमें विहार कर वे ही सागरदत्‍त मुनिराज यहाँ पधारे हैं ॥147–149॥

इस प्रकार मन्‍त्री-पुत्र के वचन सुनकर वह राजकुमार-शिवकुमार बहुत ही प्रसन्‍न हुआ, उसने शीघ्र ही स्‍वयं मुनिराज के पास जाकर उनकी स्‍तुति की, धर्मरूपी अमृत का पान किया और तदनन्‍तर बड़ी विनय से पूछा कि हे स्‍वामिन् ! आपको देखकर मुझे बड़ा भारी स्‍नेह उत्‍पन्‍न हुआ है इसका क्‍या कारण है ? आप कहिये । इसके उत्‍तरमें मुनिराज कह ने लगे कि- ॥150–151॥

इसी जम्‍बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्‍बन्‍धी मगधदेशमें एक वृद्ध नाम का ग्राम था । उसमें राष्‍ट्रकूट नाम का वैश्‍य रहता था । उसकी रेवती नामक स्‍त्री से दो पुत्र हुए थे । एक भगदत्‍त और दूसरा भवदेव उनमें बड़े पुत्र भगदत्‍त ने सुस्थित नामक मुनिराज के पास जाकर दीक्षा धारण कर ली । तदनन्‍तर उन्‍हीं गुरूके साथ बड़ी विनय से अनेक देशोंमें विहार कर वह अपनी जन्‍मभूमिमें आया ॥152–154॥

उस समय उनके सब भाई-बन्‍धु बड़े हर्ष से उनके पास आये और उन मुनिकी प्रदक्षिणा तथा पूजाकर उन्‍हें नमस्‍कार करने के लिए उद्यत हुए ॥155॥

उसी नगर में एक दुर्मर्षण नाम का गृहस्‍थ रहता था । उसकी स्‍त्री का नाम नागवसु था । उन दोनोंके नागश्री नाम की पुत्री उत्‍पन्‍न हुई थी । उन दोनों ने अपनी पुत्री, भगदत्‍त मुनिराज के छोटे भाई भवदेव के लिए विधिपूर्वक प्रदान की थी । बड़े भाईका आगमन सुनकर भवदेव बहुत ही हर्षित हुआ । वह भी उनके समीप गया और विनयके साथ बार-बार प्रणाम कर वहीं बैठ गया । उस समय मुनिराज के उपदेश से उसके परिणाम बहुत ही आर्द्र हो रहे थे ॥156–158॥

धर्म का यथार्थ स्‍वरूप और संसार की विरूपता बतलाकर मुनिराज भगदत्‍त ने अपने छोटे भाई भवदेवका हाथ पकड़कर एकान्‍तमें कहा कि तू संयम ग्रहण कर ले ॥159॥

इसके उत्‍तरमें भवदेव ने कहा कि मैं नागश्री से छुट्टी लेकर आपका कहा करूँगा ॥160॥

यह सुनकर मुनिराज ने कहा कि इस संसार में स्‍त्री आदिकी पाशमें फँसा हुआ यह प्राणी आत्‍मा का हित कै से कर सकता है ? ॥161॥

इसलिए तू स्‍त्री का मोह छोड़ दे । बड़े भाईके अनुरोध से भवदेव चुप रह गया और उसने दीक्षा धारण करनेका विचार कर लिया ॥162॥

करानेवाली दीक्षा ग्रहण करवा दी सो ठीक ही है क्‍योंकि सज्‍जनोंका भाईपना ऐसा ही होता है ॥163॥

उस मुर्ख ने द्रव्‍यसंयमी होकर बारह वर्ष तक गुरूओं के साथ विहार किया । एक दिन वह अकेला ही अपनी जन्‍मभूमि वृद्ध ग्राममें आया और सुव्रता नाम की गणिनीके पास जाकर पूछ ने लगा कि हे माता ! इस नगर में क्‍या कोई नागश्री नाम की स्‍त्री रहती है ? ॥164–165॥

गणिनी ने उसका अभिप्राय समझकर उत्‍तर दिया कि हे मु ने ! मैं उसका वृत्‍तान्‍त अच्‍छी तरह नहीं जानती हूँ । इस प्रकार उदासीनता दिखा‍कर गणिनी ने उस द्रव्‍यलिंगी मुनि को संयममें स्थिर करने के लिए गुणवती नाम की दूसरी आर्यिका से निम्‍नलिखित कथा कहनी शुरू कर दी ॥166–167॥

वह कह ने लगी कि एक सर्वसमृद्ध नाम का वैश्‍य था । उसके शुद्ध ह्णदयवाला दारूक नाम का दासी-पुत्र था । किसी एक दिन उसकी माता ने उस से कहा कि तू हमारे सेठका जूठा भोजन खाया कर । इस तरह कहकर उसने जबर्दस्‍ती उसे जूँठा भोजन खिला दिया । वह खा तो गया परन्‍तु ग्‍लानि आ ने से उसने वह सब भोजन वमन कर दिया । उसकी माता ने वह सब वमन काँसेकी थालीमें ले लिया और जब उस दारूकको भूख लगी और उसने माता से भोजन माँगा तब उसने काँसेके पात्रमें रक्‍खा हुआ वही वमन उसके साम ने रख दिया । दारूक यद्यपि भूख से पीडित था तो भी उसने वह अपना वमन नहीं खाया । जब दासी-पुत्र ने भी अपना वमन किया हुआ भोजन नहीं खाया तब मुनि छोड़े हुए पदार्थ को किस तरह चाहते हैं ? ॥168-171॥

'अब मैं एक कथा और कहती हूँ तू चित्‍त स्थिर कर सुन' यह कहकर गणिनी दूसरी कथा कह ने लगी । उसने कहा कि एक नरपाल नाम का राजा था । कौतुकवश उसने एक कुत्‍ता पाल रक्‍खा था । वह मीठे-मीठे भोजनके द्वारा सदा उसका पालन करता था और सुवर्ण के आभूषण पहिनाता था । जब वह वन विहार आदि कार्योंके लिए जाता था, तब वह मन्‍दबुद्धि उसे सोनेकी पालकीमें बैठाकर ले जाता था । एक दिन वह नीच कुत्‍ता, पालकीमें बैठा हुआ जा रहा था कि अकस्‍मात् उसकी दृष्टि किसी बालककी विष्‍ठापर पड़ी । दृष्टि पड़ते ही वह, उस विष्‍ठाको प्राप्‍त करने की इच्छा से उसपर कूद पड़ा । यह देख राजा ने उसे डण्‍डे से पीटकर भगा दिया ॥172-175॥

किसी उत्‍तम वन में कोई पथिक सुगन्धित फल-पुष्‍प आदि लानेके लिए सुख से जा रहा था परन्‍तु वह अच्‍छा मार्ग छोड़कर महासंकीर्ण वन में जा पहुँचा । वहाँ उसने भूखा, अतिशय दुष्‍ट और मारनेकी इच्छा से साम ने आता हुआ एक व्‍याघ्र देखा । उसके भय से वह दुर्बुद्धि पथि‍क भागा और भागता-भागता एक भयंकर कुएँमें जा पड़ा । वहाँ पाप-कर्म के उदय से उसे शीत आदिके कारण वात-पित्‍त–कफ-तीनों दोष उत्‍पन्‍न हो गये । बोलना, देखना-सुनना तथा चल ने आदिमें बाधा हो ने लगी । इनके सिवाय उसे सर्प आदिकी भी बाधा थी । वह पथिक उस कुएँ से निकलनेका उपाय भी नहीं जानता था । दैववश कोई एक उत्‍तम वैद्य वहाँ से आ निकला । उस पथिकको देखकर उसका ह्णदय दया से आर्द्र हो गया । उसने बड़े आदर से किसी उपायके द्वारा उसे कुएँ से बाहर निकलवाया और मन्‍त्र तथा औषधिके प्रयोग से उसे ठीककर दिया । उसके पाँव पसर ने लगे, सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍म रूप देखनेके योग्‍य उसके नेत्र खुल गये, उसके दोनों कान सब बातें साफ-साफ सुन ने लगे तथा उसकी जिह्वा से भी वचन स्‍पष्‍ट निकल ने लगे ॥176-183॥

यह सब कर चुकनेके बाद उत्‍तम वैद्य ने उसे मार्ग दिखाकर सर्वरमणीय नामक नगरकी ओर रवाना कर दिया सो ठीक ही है क्‍यों कि जिनका अभिप्राय निर्मल है ऐसे पुरूष किसका उपकार नहीं करते ? ॥184॥

इसके बाद वह दुर्बुद्धि पथिक फिर से विषयोंमें आसक्‍त हो गया, फिर से दिशा भ्रान्‍त हो गया और फिर से उसी पुरा ने कुएँके पास जाकर उसमे गिर पड़ा । इसी प्रकार ये जीव भी संसार रूपी कुएँमें पड़कर मिथ्‍यात्‍व आदि पाँच कारणों से वाधिर्य-बहिरापन आदि रोगोंको प्राप्‍त हो रहे हैं, तथा क्षुधा, दाह आदि से पीडित हो रहे हैं । उन्‍हें देखकर उत्‍तम ज्ञान के धारक तथा धर्म का व्‍याख्‍यान करने में निपुण गुरू रूपी वैद्य दयालुताके कारण इन्‍हें इस संसार-रूपी कुएँ से बाहर निकालते हैं । तदनन्‍तर जैनधर्मरूपी औषधिके सेवन से इनके सम्‍यग्‍दर्शन रूपी नेत्र खोलते हैं, सम्‍यग्‍ज्ञान रूपी दोनों कान ठीक करते हैं, सम्‍यक् चारित्ररूपी पैरोंको फैलाते हैं, दयारूपी जिह्वाको विधिपूर्वक प्रकट करते हैं, और पाँच प्रकार के स्‍वाध्‍याय रूपी वचन कहलाकर उन्‍हें स्‍वर्ग तथा मोक्ष के मार्ग में भेजते हैं । वे गुरूरूपी वैद्य अत्‍यन्‍त बुद्धिमान् और उत्‍तम प्रकृतिके होते हैं ॥185-190॥

उनमें से बहुत से लोग पापकर्म के उदय से दीर्घसंसारी होते हैं । जिस प्रकार सुगन्धि से भरे विकसित चम्‍पाके समीप रहते हुए भी भ्रमर उसकी सुगन्धि से दूर रहते हैं उसी प्रकार जो सम्‍यग्‍यदर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान तथा सम्‍यक्‍चारित्रके समीपवर्ती होकर भी उनके रसास्‍वादन से दूर रहते हैं वे पार्श्‍वस्‍थ कहलाते हैं ॥191-192॥

जो कषाय, विषय, आरम्‍भ तथा लौकिक ज्ञान के वशीभूत होकर जिह्णा, इन्द्रिय सम्‍बन्‍धी छह रसोंमें आसक्‍त रहते हैं वे दुष्‍ट अभिप्राय वाले कुशील कहलाते हैं ॥193॥

जो निषिद्ध द्रव्‍य और भावोंमें लोभी रहते हैं वे संसक्‍त कहलाते हैं । जिनके ज्ञान, चारित्र आदि घटते रहते हैं वे अवसन्‍न कहलाते हैं और जो सदाचार से दूर रहते हैं वे मृगचारी कहलाते हैं । ये सब लोग महामोहका त्‍याग नहीं हो ने से संसाररूपी अगाध कुएँमें बार-बार पड़ते हैं । गणिनीकी ये सब बातें सुनकर भवदेव मुनि को भी शान्‍त भाव की प्राप्ति हुई । यह जानकर गणिनीने, दुर्गतिके कारण जिसकी खराब स्थिति हो रही थी ऐसी नागश्रीको बुलवाकर उसे दिखाया । भवदेव ने उसे देखकर संसार की स्थिति का स्‍मरण किया, अपने आपको धिक्‍कार दिया, अपनी निन्‍दाकर फिर से संयम धारण किया और बड़े भाई भगदत्‍त मुनिराज के साथ आयु के अन्‍त में अनुक्रम से चारों आराधनाओं का आश्रय लिया । मरकर अपने भाईके ही साथ माहेन्‍द्रस्‍वर्गके बयभद्र नामक विमान में सात सागर की आयु वाला सामानिक देव हुआ ॥194-199॥

वहाँ से चयकर बड़े भाई भगदत्‍तका जीव मैं हुआ हूँ और छोटे भाई भवदेवका जीव तू हुआ है । इस प्रकार मुनिराजका कहा सुनकर शिवकुमार विरक्‍त हुआ ॥200॥

वह दीक्षा ले ने के लिए तैयार हुआ परन्‍तु माता-पिता ने उसे रोक दिया । जिसे आत्‍मज्ञान प्रकट हुआ है ऐसा वह कुमार यद्यपि नगर में गया तो भी उसने निश्‍चय कर लिया कि मैं अप्रासुक आहार नहीं ग्रहण करूँगा । यह बात सुनकर राजा ने सभा में घोषणा कर दी कि जो कोई कुमार को भोजन करा देगा मैं उसे इच्‍छानुसार धन दूँगा । राजाकी यह घोषणा जानकर सात धर्मक्षेत्रोंका आश्रयभूत दृढवर्मा नामक श्रावक कुमार के पास आकर कह ने लगा कि हे कुमार ! अपने और दूसरेके आत्‍माको नष्‍ट करने में पण्डित तथा पाप के कारण ये कुटुम्‍बी लोग तेरे शत्रु हैं इसलिए हे भद्र ! भाव-संयमका नाश नहीं कर प्रासुक भोजनके द्वारा मैं तेरी सेवा करूँगा । जो परिवारके लोगों से विमुक्‍त नहीं हुआ है अर्थात् उनके अनुराग में फँसा हुआ है उसकी संयममें प्रवृत्ति होना दुर्लभ है, इस प्रकार हितकारी वचन कहे । कुमार ने भी उसकी बात मानकर निर्विकार आचाम्‍ल रसका आहार किया ॥201-206॥

वह यद्यपि सुन्‍दर स्त्रियों के समीप रहता था तो भी उसका चित्‍त कभी विकृत नहीं होता था वह उन्‍हें तृणके समान तुच्‍छ मानता था । इस तरह उसने बारह वर्ष तक तीक्ष्‍य तलवारकी धारापर चलते हुए के समान कठिन तप धारणकर आयु के अन्‍त समयमें संन्‍यास धारण किया जिसके प्रभाव से ब्रह्मस्‍वर्ग में यह अपने शरीर की कान्ति से दिशाओं को व्‍याप्‍त करता हुआ विद्युन्‍माली देव हुआ है । यह कथा कह ने के बाद राजा श्रेणिकके पूछनेपर गौतम गणधर फिर कह ने लगे कि इस विद्युन्‍माली देवकी जो स्त्रियाँ हैं वे सेठोंकी पुत्रियाँ होकर जम्‍बूकुमारकी चार स्त्रियाँ होंगी और उसीके साथ संयम धारण कर अन्तिम स्‍वर्ग में उत्‍पन्‍न होंगी तथा वहाँ से आकर मोक्ष प्राप्‍त करेंगी । सागरदत्‍तका जीव स्‍वर्ग जावेगा, फिर वहाँ से आकर जम्‍बूकुमार की दीक्षा ले ने के समय मुक्‍त होगा । इस प्रकार गणधरोंमें प्रधान गौतम स्‍वामी के द्वारा कही हुई यह सब कथा सुनकर मगधदेशका स्‍वामी राजा श्रेणिक बहुत ही प्रसन्‍न हुआ । अन्‍त में उसने वर्धमान स्‍वामी और गौतम गणधर दोनोंको नमस्‍कार किया सो ठीक ही है क्‍योंकि ऐसे कौन सज्‍जन हैं जो कि कल्‍याण मार्गका उपदेश दे ने वाले को नहीं मानते हों-उसकी विनय नहीं करते हों ॥207–213॥

अथानन्‍तर-दूसरे दिन राजा श्रेणिक फिर संसार के पारगामी भगवान् महावीर स्‍वामी के समीप पहुँचा और पूजा तथा प्रणाम कर वहीं बैठ गया । वहाँ उसने ताराओंमें चन्‍द्रमा के समान प्रकाशमान तेजके धारक, तथा प्रीतिकी पताका स्‍वरूप प्रीतिंकर मुनि को देखकर गणधर देव से पूछा कि पूर्व जन्‍ममें इन्‍हों ने ऐसा कौन-सा कार्य किया था जिस से कि ऐसा रूप प्राप्‍त किया है ? इसके उत्‍तरमें गणधर इस प्रकार कह ने लगे कि इसी मगध देशमें एक सुप्रतिष्‍ठ नाम का नगर है । राजा जयसेन उसका लीलापूर्वक पालन करता था । उसी नगर में एक सागरदत्‍त नाम का सेठ रहता था । उसकी स्‍त्री का नाम प्रभाकरी था । उन दोनोंके दो पुत्र हुए-उनमें नागदत्‍त बड़ा था और छोटा कुबेरकी समता रख ने वाला कुबेरदत्‍त था । नागदत्‍तको छोड़कर उसके घर के सब लोग श्रावक हो गये थे सो ठीक ही है क्‍योंकि पुण्‍यहीन मनुष्‍य समुद्रमें भी उत्‍तम रत्‍नको नहीं प्राप्‍त करता है ॥214-219॥

इस तरह उन सबका समय सुख से व्‍यतीत हो रहा था । किसी समय धरणिभूषण नामक पर्वत के प्रियंकर नामक उद्यानमें सागरसेन नामक मुनिराज आकर विराजमान हुए । यह सुन राजा जयसेन आदि ने जाकर उनकी पूजा-वन्‍दना की तथा धर्म का यथार्थ स्‍वरूप पूछा ॥220-221॥

उत्‍तरमें मुनिराज इस प्रकार कह ने लगे कि जिन्‍हों ने सम्‍यग्‍दर्शन-रूपी नेत्र प्राप्‍त कर लिये हैं ऐसे पुरूष दान, पूजा, व्रत, उपवास आदिके द्वारा पुण्‍यबन्‍ध कर स्‍वर्गके सुख पाते हैं और संयम धारण कर मोक्ष के सुख पाते हैं । यदि मिथ्‍या-दृष्टि जीव दानादि पुण्‍य करते हैं तो स्‍वर्ग-सम्‍बन्‍धी सुख प्राप्‍त करते हैं । वहाँ कित ने ही मिथ्‍यादृष्टि जीव अपने शान्‍त परिणामोंके प्रभाव से कालादि लब्धियाँ पाकर स्‍वयमेव अथवा दूसरेके निमित्‍त से समीचीन धर्म को प्राप्‍त हो ने के योग्‍य हो जाते हैं । यह बात निकट कालमें मोक्ष प्राप्‍त करनेवाले मिथ्‍यादृष्टि जीवोंकी है परन्‍तु जो तीव्र मिथ्‍यादृष्टि निरन्‍तर भोगोंमें आसक्‍त रहकर हिंसा, झूठ, पर-धनहरण, पर-नारी-रमण, आरम्‍भ और परिग्रहके द्वारा पाप का संचय करते हैं वे संसार-रूपी दु:खदायी कुएँमें गिरते हैं ॥222-226॥

इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर बहुत लोगों ने धर्म धारण कर लिया । इसके पश्‍चात् सेठ सागरदत्‍त ने अपनी, आयु की अवधि पूछी सो मुनिराज ने उसकी आयु तीस दिनकी बतलाई । यह सुनकर सेठ ने नगर में प्रवेश किया और बड़े हर्ष से आष्‍टाह्निक पूजाकर अपना पद अपने बड़े पुत्र के लिए सौंप दिया । तदनन्‍तर समस्‍त भाई-बन्‍धुओं से पूछकर उसने विधिपूर्वक बाईस दिनका संन्‍यास धारण किया और अन्‍त समयमें देव पद प्राप्‍त किया । किसी दूसरे दिन अनन्‍तानुबन्‍धी लोभ से प्रेरित हुए नागदत्‍त ने कुबेरदत्‍तको बुलाकर दुर्भावना से पूछा कि क्‍या पिताजी तुम्‍हें सारभूत-श्रेष्‍ठ धन दिखला गये हैं ? ॥227-231॥

'यह तीव्र लोभ से आसक्‍त हो रहा है' ऐसा समझकर कुबेरदत्‍त ने उत्‍तर दिया कि क्‍या पिताजीके पास अलग से ऐसा कोई धन था जिसे हम दोनों नहीं जानते हों । वे विधिपूर्वक संन्‍यास धारण कर स्‍वर्ग गये हैं अत: उनपर दूषण लगाना बड़ा पाप है । भाई ! यह बात न तो तुझे कह ने के योग्‍य है और न मुझे सुननेके योग्‍य है । इस तरह कुबेरदत्‍त ने नागदत्‍तकी सब दुर्बुद्धि दूर कर दी । सब धनका बाँट किया, अनेक चैत्‍य और चैत्‍यालय बनवाये, अनेक तरहकी जिनपूजाएँ कीं, तीनों प्रकार के पात्रोंके लिए भक्तिपूर्वक चार प्रकार का दान दिया । इस प्रकार जिनकी परस्‍पर में प्रीति बढ़ रही है ऐसे दोनों भाई सुख से समय बिता ने लगे । किसी एक दिन कुबेरदत्‍त ने अपनी स्‍त्री, धन, मित्रों के साथ सागरसेन मुनिराज के लिए शक्तिपूर्वक आहार दिया । आहार देनेके बाद नमस्‍कार कर उसने मुनिराज से पूछा कि क्‍या कभी हम दोनों पुत्र लाभ करेंगे अथवा नहीं ? ॥232-237॥

यदि नहीं करेंगे तो फिर हम दोनों जिन-दीक्षा धारण कर लें । इसके उत्‍तरमें मुनिराज ने कहा कि आप दोनों, महापुण्‍यशाली तथा चरमशरीरी पुत्र अवश्‍य ही प्राप्‍त करेंगे । इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर उन दोनोंका ह्णदय आनन्‍द से भर गया । वे प्रसन्‍नचित्‍त होकर बोले कि यदि ऐसा है तो वह बालक आप पूज्‍यपादके चरणोंमें क्षुल्‍लक होवे । उसके उत्‍पन्‍न होते ही हम दोनों उसे आपके लिए समर्पित कर देंगे । इस तरह सुख का उपभोग करते हुए उन दोनों ने कुछ मास सुख से बिताये । कुछ मास बीत जानेपर उन्‍हों ने उत्‍तम पुत्र प्राप्‍त किया । 'यह पुत्र अपने गुणों से समस्‍त संसार को सन्‍तुष्‍ट करेगा' ऐसा विचार कर उन्‍हों ने उसका बड़े हर्ष से प्रीतिंकर नाम रक्‍खा ॥238-241॥

पुत्र-जन्‍म के बाद पाँच वर्ष बीत जानेपर उक्‍त मुनिराज धान्‍यपुर नगर से फिर इस नगर में आये । कुबेरदत्‍त और धनमित्रा ने जाकर उनकी वन्‍दना की तथा कहा कि 'हे मुनिराज ! यह आपका क्षुल्‍लक है, इसे ग्रहण कीजिए' इस प्रकार कहकर वह बालक उन्‍हें सौंप दिया । मुनिराज भी उस बालक को लेकर फिर से धान्‍यपुर नगर में चले गये ॥242-243॥

वहाँ उन्‍हों ने उसे लगातार दस वर्ष तक समस्‍त शास्‍त्रोंकी शिक्षा दी । वह बालक निकटभव्‍य था अत: संयम धारण करने के लिए उत्‍सुक हो गया परन्‍तु गुरूओं ने उसे यह कह कर रोक दिया कि हे आर्य ! यह तेरा दीक्षा-ग्रहण करनेका समय नहीं है । प्रीतिंकरने भी गुरूओंकी बात स्‍वीकृत कर ली । तदनन्‍तर वह भक्ति-पूर्वक उन्‍हें नमस्‍कार कर अपने माता-पिता के पास चला गया । वह अपने द्वारा पढ़े हुए शास्‍त्रोंका मार्ग में शिष्‍ट पुरूषोंको उपदेश देता जाता था । इस प्रकार वह छात्रका वेष रखकर अपने समस्‍त बन्‍धुओं के पास पहुँचा । जब राजा को उसके आनेका पता चला तब उसने उसका बहुत सत्‍कार किया । अपने आपको कुल आदिके द्वारा असाधारण मानते हुए प्रीतिंकरने विचार किया कि जब तक मैं बहुत-सा श्रेष्‍ठ धन नहीं कमा लेता हूँ तब तक मैं पत्‍नीको ग्रहण नहीं करूँगा ॥244-248॥

किसी दिन कित ने ही नगरवासी लोग जलयात्रा-समुद्रयात्रा करने के लिए तैयार हुए । उनके साथ प्रीतिंकर भी जानेके लिए उद्यत हुआ । उसने इस कार्यके लिए अपने सब भाई-बन्‍धुओं से पूछा । सम्‍मति मिल जानेपर उत्‍कृष्‍ट बुद्धिका धारक प्रीतिंकर नमस्‍कार करने के लिए अपने गुरूके पास गया । गुरू ने अपने अभिप्रेत अर्थको सूचित करनेवाले अक्षरों से परिपूर्ण एक पत्र लिखकर उसे दिया । उसने वह पत्र बड़े आदरके साथ लेकर कानमें बाँध लिया तथा शकुन आदिकी अनुकूलता देख मित्रों के साथ जहाज पर बैठकर समुद्रमें प्रवेश किया । तदनन्‍तर कुछ दिनोंके बाद वह पुण्‍यात्‍मा वलयके आकारवाले पर्वत से घिर हुए भूमितिलक नाम के नगर में पहुँचा ॥249-252॥

उस समय शंख, तुरही आदि बाजे बजाते हुए लोग साम ने ही नगर के बाहर निकल रहे थे उन्‍हें देखकर श्रेष्‍ठ वैश्‍यों ने भयभीत हो यह घोषणा की कि नगर में जाकर तथा इस बात का पता चलाकर वापिस आनेके लिए कौन समर्थ है ? यह घोषणा सुनकर प्रीतिंकर कुमार ने कहा कि मैं यह कार्य करने के लिए समर्थ हूँ । वैश्‍यों ने उसी समय उसे दालचीनीकी छाल से ब ने हुए रस्‍से से नीचे उतार दिया ॥253-255॥

आश्‍चर्य से चारों ओर देखते हुए कुमार ने नगर में प्रवेश किया तो सब से पहले उसे जिन-मन्दिर-दिखाई दिया । उसने मन्दिरकी प्रदक्षिणा देकर स्‍तुति की । उसके बाद आगे गया तो क्‍या देखता है कि जगह-जगह शस्‍त्रोंके आघात से बहुत लोग मरे पड़े हैं । उसी समय उसे सरोवर से निकलकर घरकी ओर जाती हुई एक कन्‍या दिखी । यह कौन है ? इस बात का पता चलानेके लिए वह कन्‍याके पीछे चला गया । घर के आँगनमें पहुँचनेपर कन्‍या ने प्रीतिंकरको देखा तो उसने कहा, हे भद्र ! यहाँ कहाँ से आये हो ? यह कह कर उसके बैठनेके लिए एक आसन दिया ॥256–258॥

कुमार ने उस आसन पर बैठ कर कन्‍या से पूछा कि कहो, यह नगर ऐसा क्‍यों हो गया है ? इसके उत्‍तरमें कन्‍या ने कहा कि यह कह ने के लिए समय नहीं है । हे भद्र ! तुम यहाँ से शीघ्र ही चले जाओ क्‍योंकि यहाँ तुम्‍हें बहुत भारी भय उपस्थित है । कन्‍याकी बात सुनकर निर्भय रहनेवाले कुमार ने कहा कि यहाँ जो मेरे लिए भय उत्‍पन्‍न करेगा उसके क्‍या हजार भुजाएँ हैं ? कुमारका ऐसा भयरहित गम्‍भीर उत्‍तर सुनकर जिसका भय कुछ दूर हो गया है ऐसी कन्‍या विस्‍तार से उसका कारण कह ने लगी । उसने कहा कि इस विजयार्ध पर्वत की उत्‍तर दिशामें जो अलका नाम की नगरी है उसके स्‍वामी तीन भाई थे । हरिबल उनमें बड़ा था, महासेन उस से छोटा था और भूतिलक सब से छोटा था । हरिबलकी रानी धारिणी से भीमक नाम का पुत्र हुआ था और उसीकी दूसरी रानी श्रीमती से हिरण्‍यवर्मा नाम का दूसरा पुत्र हुआ था । महासेनकी सुन्‍दरी नामक स्‍त्री से उग्रसेन और वरसेन नाम के दो पुत्र हुए और मैं वसुन्‍धरा नाम की कन्‍या हुई ॥259-265॥

किसी एक समय मेरे पिता पृथिवी पर विहार करने के लिए निकले थे उस समय इस मनोहरी विशाल नगरको देख कर उनकी इच्‍छा इसे स्‍वीकृत करने की हुई । पहले यहाँ कुछ व्‍यन्‍तर देवता रहते थे, उन्‍हें युद्धमें जीतकर हमारे पिता यहाँ भूतिलक नामक भाई के साथ सुख से रह ने लगे । यहाँ रहनेवाले राजा लोग उनकी सेवा करते थे । इस प्रकार पुण्‍यका संचय करते हुए उन्‍हों ने यहाँ कुछ काल व्‍यतीत किया ॥266-268॥

उधर इन्द्रियोंको जीतनेवाले विद्वान् राजा हरिबलको वैराग्‍य उत्‍पन्‍न हुआ । उसने अपने छोटे पुत्र हिरण्‍यवर्माके लिए विद्या दी और बड़े पुत्र भीमकको अलकापुरीका राज्‍य दिया । संसार से भयभीत हो ने के कारण विरक्‍त होकर उसने समस्‍त कर्मों का क्षय करने के लिए विपुलमति नामक चारण मुनिराज के पास जाकर उसने दीक्षा ले ली और शुक्‍लध्‍यान रूपी अग्निके द्वारा आठों दुष्‍ट कर्मों को जलाकर आठ गुणों से सहित हो इष्‍ट आठवीं प्राप्‍त कर ली (मोक्ष प्राप्‍त कर लिया) ॥269–271॥

इधर भीमक राज्‍य करने लगा उसने किसी छल से हिरण्‍यवर्माकी विद्याएँ हर लीं । यही नहीं, वह उसे मारनेके लिए भी तैयार हो गया ॥272॥

हिरण्‍यवर्मा यह जानकर सम्‍मेदशिखर पर्वतपर भाग गया । कोधवश भीमक ने वहाँ भी उसका पीछा किया परन्‍तु तीर्थंकर भगवान् के सन्निधान और स्‍वयं तीर्थ हो ने के कारण वह वहाँ जा नहीं सका इसलिए नगर में लौट आया । तदनन्‍तर हिरण्‍यवर्मा अपने काका महासेनके पास चला गया ॥273-274॥

जब भीमक ने यह समाचार सुना तो उसने महाराज महासेनके लिए इस आशयका एक पत्र भेजा कि आप पूज्‍यपाद हैं-हमारे पूजनीय हैं इसलिए हमारे शत्रु हिरण्‍यवर्माको वहाँ से निकाल दीजिए । महाराज महासेन ने भी इसका उत्‍तर भेज दिया कि मैं उसे नहीं निकाल सकता । यह जानकर भीमक युद्धकी इच्छा से यहाँ आया । 'यह दुरात्‍मा बहुत ही क्रूर है' यह समझ कर हमारे पिता ने युद्धमें भीमकको जीत लिया तथा उसके दोनों पैर सांकल से बाँध लिये । तदनन्‍तर अनुक्रम से शान्‍त हो ने पर हमारे पिता ने विचार किया कि मुझे ऐसा करना उचित नहीं है ऐसा विचार कर उन्‍हों ने उसे छोड़ दिया और हित से भरे शब्‍दों से उसे शान्‍त कर हिरण्‍यवर्माके साथ उसकी सन्धि करा दी तथा पहलेके समान ही राज्‍य देकर उसे भेज दिया । भीमक उस समय तो चला गया परन्‍तु इस अपमानके कारण उसने हिरण्‍यवर्माके साथ वैर नहीं छोड़ा । फलस्‍वरूप उस पापी भीमक ने राक्षसी विद्या सिद्ध कर हिरण्‍यवर्माको, मेरे पिताको तथा मेरे भाइयोंको मार डाला है, इस नगरको उजाड़ दिया है और अब मुझे ले ने के उद्देश्‍य से आ ने वाला है ॥275-280॥

यह सब कथा सुनकर आश्‍चर्यको धारण करते हुए कुमार प्रीतिंकरने शय्यातलपर पड़ी हुई एक तलवारको देखकर कहा कि इस तलवारके बहुत ही अच्‍छे लक्षण हैं । यह तलवार जिसके हाथमें होगी उसे इन्‍द्र भी जीतनेके लिए समर्थ नहीं हो सकता है । क्‍या तुम्‍हारे पिता ने इस तलवारके द्वारा किसी के साथ युद्ध किया है ? इस प्रकार उस कन्‍या से पूछा । कन्‍या ने उत्‍तर दिया कि इस तलवार से पिता ने स्‍वप्‍न में भी युद्ध नहीं किया है । तदनन्‍तर प्रीतिंकर कुमार ने वह तलवार अपने हाथमें ले ली ॥281-283॥

जो निर्भय है, जिस ने अपना शरीर छिपा रक्‍खा है और जो देदीप्‍यमान दिव्‍य तलवारको धारण कर रहा है ऐसा प्रीतिंकर भीमकको मारनेके लिए गोपुरके भीतर छिप गया । उसी समय भीमक भी आ गया, उसने सब ओर देखकर तथा यह कहकर अपनी विद्याको भेजा कि गोपुरके भीतर छिपे हुए उस दुष्‍ट पुरूषको देखकर मार डालो ॥284-285॥

विद्या प्रीतिंकरके पास जाते ही डर गई, वह कह ने लगी कि यह सम्‍यग्‍दृष्टि है, सात भयों से सदा दूर रहता है, चरमशरीरी है और महाशूरवीर है; मैं इसे मारनेके लिए समर्थ नहीं हूं । इस प्रकार भयभीत होकर वह उसके पास ही इधर-उधर फिर ने लगी । यह देख, भीमक समझ गया कि यह विद्या शक्तिहीन है तब उसने 'तू सारहीन है अत: चली जा' यह कह कर उसे छोड़ दिया और वह भी अदृश्‍यता को प्राप्‍त हो गई । विद्याके चले जानेपर प्रीतिंकरको मारनेकी इच्छा से भीमक स्‍वयं तलवार उठाकर उस पर झपटा । इधर प्रीतिंकरने भी उसे बहुत भयंकर डाँट दिखाकर तथा उसके वारको वचाकर ऐसा प्रहार किया कि उसके प्राण छूट गये ॥286-289॥

तदनन्‍तर दुष्‍ट शत्रु को मारकर आते हुए कुमार को देखकर कन्‍या साम ने आई और कह ने लगी कि हे भद्र ! आप ने बहुत बड़ा साहस किया है ॥290॥

इतना कहकर उसने राजभवनके आँगनमें सुवर्ण-सिंहासनपर उसे बैठाया और जल से भरे हुए सुवर्णमय कलशों से उसका राज्‍याभिषेक किया ॥291॥

मणियोंकी कान्ति से देदीप्‍यमान मुकुट उसके सुन्‍दर मस्‍तक पर बाँधा; यथास्‍थान समस्‍त अच्‍छे-अच्‍छे आभूषण पहिनाये और विलासिनी स्त्रियों के हाथों से ढोरे हुए चमरों से उसे सुशोभित किया । यह सब देख प्रीतिंकर कुमार ने कहा कि यह क्‍या है ? इसके उत्‍तरमें कन्‍या ने कहा कि 'मैं इस नगरकी स्‍वामिनी हूँ, अपना राज्‍यपट्ट बाँध कर अपने लिए देती हूँ और यह रत्‍नमाला आपके गलेमें डालकर प्रेमपूर्वक आपकी सहधमिणी हो रही हूँ । यह सुनकर कुमार ने उत्‍तर दिया कि मैं माता-पिताकी आज्ञाके बिना तुम्‍हें स्‍वीकृत नहीं कर सकता क्‍योंकि मैंने पहले से ऐसा ही संकल्‍प कर रक्‍खा है । यदि तुम्‍हारा ऐसा आग्रह ही है तो माता-पिता से मिलनेके समय तेरा अभीष्‍ट सिद्ध हो जावेगा । कन्‍या ने प्रीतिंकरकी यह बात मान ली और बहुत-सा धन बाँधकर उस लम्‍बी रस्‍सीके द्वारा जहाजपर उतारनेके लिए कुमार के साथ किनारे पर आ गई । कुमार ने भी बड़े हर्ष से वह रस्‍सी हिलाई । रस्‍सीका हिलना देखकर नागदत्‍त बाहर आया और उस कन्‍याको तथा उसके धनको जहाजमें खींचकर बहुत संतुष्‍ट हुआ । जब जहाज चलनेका समय आया तब कुमार उस कन्‍याके भूले हुए सारपूर्ण आभरणोंको लानेके लिए फिर से नगर में गया ॥292-300॥

इधर उसके चले जानेपर नागदत्‍त ने वह रस्‍सी खींच ली और 'इस कन्‍याके साथ मुझे बहुत-सा अच्‍छा धन मिल गया है, वह मेरे मर ने तक भोगनेके काम आवेगा, मैं तो कृतार्थ हो चुका, प्रीतिंकरकुमार जैसा-तैसा रहे' ऐसा विचार कर और छिद्र पाकर नागदत्‍त अन्‍य वैश्‍योंके साथ चला गया ॥301-302॥

कन्‍या ने नागदत्‍तका अभिप्राय जानकर मौन धारण कर लिया और ऐसी प्रतिज्ञा कर ली कि मैं इस जहाजपर प्रीतिंकरके सिवाय अन्‍य किसी से बातचीत नहीं करूँगी ॥303॥

नागदत्‍त ने भी लोगों पर ऐसा प्रकट कर दिया कि यह कन्‍या गूँगी है और उसे अपनी अंगुलीके इशारे से बड़े प्रेमके साथ द्रव्‍यकी रक्षा करने में नियुक्‍त किया ॥304॥

अनुक्रम से नागदत्‍त अपने नगर में पहुँच गया । पहुँचनेपर सेठ ने उस से पूछा कि उस समय प्रीतिंकर भी तो तुम्‍हारे साथ भूतिलक नगरको गया था वह क्‍यों नहीं आया ? इसके उत्‍तरमें नागदत्‍त ने कहा कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ । आभूषण लेकर प्रीतिंकर कुमार समुद्र के तट पर आया परन्‍तु पापी नागदत्‍त उसे धोखा देकर पहले ही चला गया था । जहाजको न देखकर वह उद्विग्‍न होता हुआ नगर की ओर लौट गया ॥305-307॥

चिन्‍ता से भरा प्रीतिंकर वहीं एक जिनालय देखकर उसमें चला गया । पुष्‍पादिक से उसने वहाँ विधिपूर्वक भगवान् की पूजा-वन्‍दना की । तदनन्‍तर निम्‍न प्रकार स्‍तुति करने लगा ॥308॥

''हे जिनेन्‍द्र ! जिस प्रकार रात्रिमें खुले नेत्रवाले मनुष्‍यका सब अन्‍धकार दीपकके द्वारा नष्‍ट हो जाता है उसी प्रकार आपके दर्शन मात्र से मेरे सब पाप नष्‍ट हो गये हैं ॥309॥

हे जिनेन्‍द्र ! आप, शुद्ध जीव, कर्मों से ग्रसित संसारी जीव और जीवों से भिन्‍न अचेतन द्रव्‍य, इन सबको जानते हैं तथा कर्मों से रहित हैं अत: आपकी उपमा किसके साथ दी जा सकती है ? ॥310॥

हे भगवन् ! यद्यपि आप इन्द्रिय-ज्ञान से रहित हैं तो भी इन्द्रिय-ज्ञान से सहित सांख्‍य आदि लोक प्रसिद्ध दर्शनकारोंको आप ने अकेले ही जीत लिया है यह आश्‍चर्य की बात है ॥311॥

हे देव ! आदि और अन्‍त से रहित यह तीनों लोक अज्ञान रूपी अन्‍धकार से व्‍याप्‍त होकर सो रहा है उसमें केवल आप ही जग रहे हैं और समस्‍त संसार को देख रहे हैं ॥312॥

हे जिनेन्‍द्र ! जिस प्रकार चक्षु‍सहित मनुष्‍य को पदार्थका ज्ञान होनेमें प्रकाश कारण है उसी प्रकार शिष्‍यजनोंको वस्‍तुतत्‍तवका ज्ञान होनेमें आपका निर्मल तथा सुखदायी आगम ही कारण है ॥313॥

इस प्रकार शुद्ध ज्ञान को धारण करनेवाले प्रीतिंकर कुमार ने अपने द्वारा बनाया हुआ स्‍तोत्र पढ़ा तथा कर्म के द्वारा निर्मित संसार की दशाका अच्‍छी तरह विचार किया ॥314॥

तदनन्‍तर कुछ व्‍याकुल होता हुआ वह अभिषेकशाला (स्‍नानगृह) में सो गया । उसी समय नन्‍द और महानन्‍द नाम के दो यक्ष देव, जिन-मन्दिरकी वन्‍दना करने के लिए आये ॥315॥

उन्‍हों ने जिन-मन्दिरके दर्शनकर प्रीतिंकरके कानमें बँधा हुआ पत्र देखा और देखते ही उसे ले लिया । पत्रमें लिखा था कि 'यह प्रीतिंकरकुमार तुम्‍हारा सधर्मा भाई है, इसलिए सदा प्रसन्‍न रहनेवाले इस कुमार को तुम बहुत भारी द्रव्‍यके साथ सुप्रतिष्‍ठ नगर में पहुँचा दो । तुम दोनोंके लिए मेरा यही कार्य है' इस प्रकार उन दोनों देवों ने उस पत्र से अपने गुरूका संदेश तथा अपने पूर्वभवका सब समाचार जान लिया ॥316-318॥

पहले बनारस नगर में धनदेव नाम का एक वैश्‍य रहता था । हम दोनों उसकी जिनदत्‍ता नाम की स्‍त्री से शान्‍तव और रमण नाम के दो पुत्र हुए थे ॥319॥

वहाँ हम ने ग्रन्‍थ और अर्थ से सब शास्‍त्रोंका ज्ञान प्राप्‍त किया परन्‍तु चोर शास्‍त्रका अधिक अभ्‍यास हो ने से हम दोनों दूसरे का धन-हरण करने में तत्‍पर हो गये ॥320॥

हमारे पिता भी हम लोगों को इस चोरीके कार्य से रोकनेमें समर्थ नहीं हो सके इसलिए उन्‍हों ने अत्‍यन्‍त कठिन समस्‍त परिग्रहका त्‍याग कर दिया अर्थात् मुनिदीक्षा धारण कर ली ॥321॥

इधर धान्‍यपुर नगर के समीप शिखिभूधर नामक पर्वत पर मुनिराज के माहात्‍म्‍य से वहाँपर रह ने वाले सिंह, व्‍याघ्र आदि दुष्‍ट जीव भी किसीको बाधा नहीं पहुँचाते हैं इस प्रकार लोगोंका कहना सुनकर हम दोनों ने उस पर्वतको सागरसेन नाम के अतिशय तपस्‍वी मुनिराज रहते थे हम लोगों ने भी जाकर उनके दर्शन किये, उनके समीप जैनधर्म का उपदेश सुना और मधु, मांस आदिका त्‍याग कर दिया ॥322-324॥

तदनन्‍तर वे मुनिराज सुप्रतिष्‍ठ नगर में चले जानेपर सिंह के उपद्रव से मरकर हम दोनों इस देव-पर्यायको प्राप्‍त हुए हैं ॥325॥

'यह सब गुरू महाराज से लिये हुए व्रतके प्रभाव से ही हुआ है' ऐसा जानकर हम दोनों उनके समीप गये, उनकी पूजा की और तदनन्‍तर दोनों ने पूछा कि हमारे लिए क्‍या आज्ञा है ? इसके उत्‍तरमें मुनिराज ने कहा था कि कुछ दिनोंके बाद मेरा कार्य होगा और आप दोनों उसे अच्‍छी तरह जानकर आदर से करना । सो मुनिराजका वह संदेश यही है यह कहकर वह पत्र खोलकर दिखाया ॥326-328॥

इसके पश्‍चात् उन देवों ने बहुत से धनके साथ उस प्रीतिंकरको विमान में बैठाया और सुप्रतिष्ठित नगर के समीपवर्ती धरणिभूषण नाम के पर्वतपर उसे शीघ्र ही पहुँचा दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि पुण्‍यका उदय क्‍या नहीं करता है ? प्रीतिंकर का आना सुनकर राजा, उसके भाई-बन्‍धु और नगर के लोग बड़े हर्ष से अपनी-अपनी विभूतिके साथ उसके समीप आये । उन देवों ने वह प्रीतिंकर कुमार उन सबके लिए सौंपा और उसके बाद वे अपने निवास-स्‍थानपर चले गये ॥329-331॥

प्रीतिंकरने नगर में प्रवेश कर समीचीन रत्‍नों की भेंट देकर राजाकी पूजा की और राजा ने भी योग्‍य स्‍थान तथा मान आदि देकर उसे संतुष्‍ट किया ॥332॥

अथानन्‍तर किसी दूसरे दिन प्रीतिंकर कुमारकी बड़ी माँ प्रियमित्रा अपने पुत्र के विवाहोत्‍सवमें अपनी पुत्रवधूको अलंकृत करने के लिए रत्‍नमय आभूषणोंका समूह लेकर तथा 'रथपर सवार होकर सबको दिखलानेके लिए जा रही थी । उसे देखनेके लिए वह गूँगी कन्‍या स्‍वयं मार्ग में आई और अपने आभूषणों का समूह देखकर उसने अँगुलीके इशारे से सबको बतला दिया कि यह आभूषणोंका समूह मेरा है । तदनन्‍तर वह कन्‍या रथमें बैठी हुई प्रियमित्राको रोककर खड़ी हो गई । इसके उत्‍तरमें रथपर बैठी हुई प्रियमित्रा ने सबको समझा दिया कि यह कन्‍या पगली है ॥333-336॥

तब मन्‍त्र-तन्‍त्रादिके जाननेवाले लोगों ने विधिपूर्वक मन्‍त्र-तन्‍त्रादिका प्रयोग किया और परीक्षा कर स्‍पष्‍ट बतला दिया कि न यह पागल है और न इसे भूत लगा है ॥337॥

यह सुनकर प्रीतिंकर कुमार ने उस कन्‍याके पास गुप्‍त रूप से इस आशयका एक पत्र भेजा कि हे कुमारि ! तू बिलकुल भय मत कर, राजा के पास आ, मैं भी वहां उपस्थित रहूंगा । पत्र देखकर तथा विश्‍वास कर वह कन्‍या बड़े हर्ष से राजा के समीप गई । राजा ने भी उसके आभूषणोंका वृत्‍तान्‍त जान ने के लिए धर्माधिकारियोंको बुलाकर नियुक्‍त किया ॥338-340॥

राजा ने वसुन्‍धरा कन्‍याको समीप ही आड़में बिठलाकर कुमार प्रीतिंकर से पूछा कि क्‍या आप इसका कुछ हाल जानते हैं ? ॥341॥

इसके उत्‍तरमें कुमार ने अपना जाना हुआ हाल कह दिया और फिर राजा से समझाकर कह दिया कि बाकीका हाल मैं नहीं जानता यह देवी ही जानती है ॥342॥

राजा ने कपड़ेकी आड़में बैठी हुई उस देवीकी गन्‍ध आदि से पूजा कर पूछा कि हे देवि ! तू ने जो देखा हो वह ज्‍योंका त्‍यों कह॥343॥

इसके उत्‍तरमें उस देवी ने राजा को नागदत्‍तकी सब दुष्‍ट चेष्‍टाएँ बतला दीं । उन्‍हें सुनकर तथा उनपर अच्‍छी तरह विचार कर राजा नागदत्‍त से बहुत ही कुपित हुआ । उसने कहा कि इस पापी ने पुत्रवध किया है और स्‍वामिद्रोह भी किया है । यह कहकर उसने उसका सब धन लुटवा लिया और उसका निग्रह करनेका भी उद्यम किया परन्‍तु कुमार प्रीतिंकरने यह कहकर मना कर दिया कि आपके लिए यह कार्य करना योग्‍य नहीं है । उस समय कुमारकी सुजनता से राजा बहुत ही संतुष्‍ट हुआ और उसने अपनी पृथिवीसुन्‍दरी नाम की कन्‍या, वह वसुन्‍धरा नाम की कन्‍या तथा वैश्‍योंकी अन्‍य बत्‍तीस कन्‍याएँ विधिपूर्वक उसके लिए ब्‍याह दीं ॥344-347॥

इसके सिवाय पहलेका धन, स्‍थान तथा अपना आधा राज्‍य भी दे दिया सो ठीक ही है क्‍योंकि जिन्‍हों ने पूर्वभवमें पुण्‍य किया है ऐसे मनुष्‍यों को सम्‍पदाएँ स्‍वयं प्राप्‍त हो जाती हैं ॥348॥

इस प्रकार जो अतिशय प्रसन्‍न है तथा जिसकी इच्‍छाएँ निरन्‍तर बढ़ रही हैं ऐसे प्रीतिंकर कुमार ने वहाँ अपनी इच्‍छानुसार चिरकाल तक मनचाहे काम भोगों का उपभोग किया ॥349॥

तदनन्‍तर किसी एक दिन मुनिराज सागरसेन, आयु के अन्‍त में संन्‍यास धारण कर स्‍वर्ग चले गये । उसी समय वहाँ बुद्धि-रूपी आभूषणों से सहित ऋजुमति और विपुलमति नाम के दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज मनोहर नामक उद्यानमें आये । प्रीतिंकर सेठ ने जाकर उनकी स्‍तुति की और धर्म का स्‍वरूप पूछा । उन दोनों मुनियोंमें जो ऋजुमति नाम के मुनिराज थे वे कह ने लगे कि गृहस्‍थ और मुनिके भेद से धर्म दो प्रकार का जानना चाहिए । गृहस्‍थोंका धर्म दर्शन-प्रतिमा, व्रत प्रतिमा आदिके भेद से ग्‍यारह प्रकार का है और कर्मों का क्षय करनेवाला मुनियोंका धर्म क्षमा आदिके भेद से दश प्रकार का है । धर्म का स्‍वरूप सुननेके बाद प्रीतिंकरने मुनिराज से अपने पूर्वभवोंका सम्‍बन्‍ध पूछा । इसके उत्‍तरमें मुनिराज इस प्रकार कह ने लगे कि सुनो, मैं कहता हूं-किसी समय इसी नगर के बाहर सागरसेन मुनिराज ने आतापन योग धारण किया था इसलिए उनकी वन्‍दनाके लिए राजा आदि बहुत से लोग गये थे, वे नाना प्रकारकी पूजा की सामग्री से उनकी पूजा कर शंख तुरही आदि बाजोंके साथ नगर में आये थे । उन बाजोंका शब्‍द सुनकर एक श्रृगाल ने विचार किया कि 'आज कोई नगर में मर गया है इसलिए लोग उसे बाहर छोड़कर आये हैं, मैं जाकर उसे खाऊँगा' ऐसा विचार कर वह श्रृगाल मुनिराज के समीप आया । उसे देखकर मुनिराज समझ गये कि यह भव्‍य है और व्रत लेकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्‍त करेगा । ऐसा विचार कर मुनिराज उस निकटभव्‍य से इस प्रकार कह ने लगे कि पूर्व जन्‍ममें जो तू ने पाप किये थे उनके फल से अब श्रृगाल हुआ है और अब फिर दुर्बुद्धि होकर मुनियोंका समागम मिलने पर भी उसी दुष्‍कर्मका विचार कर रहा है । हे भव्‍य ! तू दु:खदायी पापको देनेवाले इस कुकर्म से विरत हो व्रत ग्रहण कर और शुभ परिणाम धारण कर ॥350-360॥

मुनिराज के यह वचन सुनकर श्रृगालको इस बात का बहुत हर्ष हुआ कि यह मुनिराज मेरे मन में स्थित बातको जानते हैं । श्रृगालकी चेष्‍टाको जाननेवाले मुनिराज ने उस श्रृगाल से फिर कहा कि तू मांस का लोभी हो ने से अन्‍य व्रत ग्रहण करने में समर्थ नहीं है अत: रात्रिभोजन त्‍याग नाम का श्रेष्‍ठ व्रत धारण कर ले । मुनिराज के वचन क्‍या थे मानो परलोक के लिए सम्‍बल (पाथेय) ही थे । मुनिराज के धर्मपूर्ण वचन सुनकर वह श्रृगाल बहुत ही प्रसन्‍न हुआ उसने भक्तिपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा दी, उन्‍हें नमस्‍कार किया और रात्रिभोजन त्‍यागका व्रत लेकर मद्य-मांस आदिका भी त्‍याग कर दिया ॥361-364॥

उस समय से वह श्रृगाल चावल आदिका विशुद्ध आहार ले ने लगा । इस तरह कठिन तपश्‍चरण करते हुए उसने कितना ही काल व्‍यतीत किया ॥365॥

किसी एक दिन उस श्रृगाल ने सूखा आ‍हार किया जिस से प्‍यास से पीडित होकर वह सूर्यास्‍तके समय पानी पीनेकी इच्छा से सीढियोंके मार्ग-द्वारा किसी कुएँ के भीतर गया । कुएँके भीतर प्रकाश न देखकर उसने समझा कि सूर्य अस्‍त हो गया है इ‍सलिए पानी बिना पिये ही बाहर निकल आया । बाहर आनेपर प्रकाश दिखा इसलिए पानी पीनेके लिए फिर से कुएँके भीतर गया । इस तरह वह श्रृगाल दो तीन बार कुएँके भीतर गया और बाहर आया । इतनेमें सचमुच ही सूर्य अस्‍त हो गया । निदान, उस श्रृगाल ने अपने व्रतमें दृढ़ रहकर तृषा-परिषह सहन किया और विशुद्ध परिणामों से मरकर कुबेरदत्‍त सेठकी धनमित्रा स्‍त्री से प्रीतिंकर नाम का पुत्र हुआ । व्रतके प्रभाव से ही उसने ऐसा ऐश्‍वर्य प्राप्‍त किया है । इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर प्रीतिंकर संसार से भयभीत हो उठा, उसने व्रतके माहात्‍म्‍यकी बहुत भारी प्रशंसा की तथा मुनिराजको नमस्‍कार कर वह अपने घर लौट आया ॥366-371॥

आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार दुभिक्ष पड़ ने पर दरिद्र मनुष्‍य बहुत ही दु:खी होता है उसी प्रकार इस संसार में व्रतरहित मनुष्‍य दीर्घकाल तक दु:ख भोगता हुआ निरन्‍तर अपार खेदको प्राप्‍त होता रहता है ॥372॥

व्रतके कारण इस जीव का सब विश्‍वास करते हैं और व्रतरहित मनुष्‍य से सब लोग सदा शंकित रहते हैं । व्रती फल सहित वृक्ष के समान हैं और अव्रती फलरहित वन्‍ध्‍य वृक्ष के समान है ॥373॥

व्रती मनुष्‍य पर-जन्‍ममें इष्‍ट फल को प्राप्‍त होता है इसलिए कहना पड़ता है कि इस जीव का व्रत से बढ़कर कोई भाई नहीं है और अव्रत से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है ॥374॥

व्रती मनुष्‍य के वचन सभी स्‍वीकृत करते हैं परन्‍तु व्रतहीन मनुष्‍यकी बात कोई नहीं मानता । बड़े-बड़े देवता भी व्रती मनुष्‍यका तिरस्‍कार नहीं कर पाते हैं ॥375॥

व्रती मनुष्‍य अवस्‍थाका नया हो तो भी वृद्ध जन उसे नमस्‍कार करते हैं और वृद्धजन व्रतरहित हो तो उसे लोग तृणके समान तुच्‍छ समझते हैं ॥376॥

प्रवृत्ति से पाप का ग्रहण होता है और निवृत्ति से उसका क्षय होता है । यथार्थमें निवृत्तिको ही व्रत कहते हैं इसलिए उत्‍तम मनुष्‍य व्रतको अवश्‍य ही ग्रहण करते हैं ॥377॥

व्रत से सम्‍पत्तिकी प्राप्ति होती है और अव्रत से कभी संपत्ति नहीं मिलती इसलिए सम्‍पत्तिकी इच्‍छा रखनेवाले पुरूषको निष्‍काम होकर उत्‍तम व्रती होना चाहिये ॥378॥

इस जीव के लिए छोटा-सा व्रत भी स्‍वर्ग और मोक्षका कारण होता है इस विषय में जो दृष्‍टान्‍त चाहते हैं उन्‍हें प्रीतिंकर का दृष्‍टान्‍त अच्‍छी तरह दिया जा सकता है ॥379॥

जिन्‍हों ने पूर्वभवमें अच्‍छी तरह व्रतका पालन किया है वे इस भवमें इच्‍छानुसार फल भोगते हैं सो ठीक ही है क्‍योंकि बिना कारण के क्‍या कभी कोई कार्य होता हैं ? ॥380॥

जो कारण से कार्यकी उत्‍पत्ति मानता है उसे सुख-दु:ख रूपी कार्यका कारण धर्म और पाप ही मानना चाहिये अर्थात् धर्म से सुख और पाप से दु:ख होता है ऐसा मानना चाहिये । जो इस से विपरीत मानते हैं उन्‍हें विपरीत फलकी ही प्राप्ति होती देखी जाती है ॥381॥

यदि वह मूर्ख, व्‍यसनी, निर्दय, अथवा नास्तिक नहीं है तो धर्म और पापको छोड़कर सुख और दु:खका कारण कुछ दूसरा ही है ऐसा कौन कहेगा ? ॥382॥

जो केवल इसी जन्‍म के हित अहितको देखता है वह भी बुद्धिमान् कहलाता है फिर जो आगामी जन्‍म के भी हित-अहित का विचार रखते हैं वे अत्‍यन्‍त बुद्धिमान् क्‍यों नहीं कहलावें ? अर्थात् अवश्‍य ही कहलावें ॥383॥

ऐसा मानकर शुद्ध बुद्धि के धारक पुरूषको चाहिये कि वह जिनेन्‍द्रदेव के द्वारा कहा हुआ व्रत लेकर उद्यम प्रकट करता हुआ स्‍वर्ग और मोक्ष के सुख प्राप्‍त करने के लिए प्रयत्‍न करे ॥384॥

तदनन्‍तर विरक्‍त बुद्धि को धारण करनेवाले प्रीतिंकरने अपनी स्‍त्री वसुन्‍धराके पुत्र प्रियंकरके लिए अभिषेकपूर्वक अपनी सब सम्‍पदाएँ समर्पित कर दीं और अने‍क सेवक तथा भाई-बन्‍धुओं के साथ राजगृह नगर में भगवान् महावीर स्‍वामी के पास आकर संयम धारण किया है ॥385-386॥

निश्‍चय और व्‍यवहार रूप मोक्षका साधन, सम्‍यग्‍दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्गकी भावना ही है । सो इसके बल से ये प्रीतिंकर मुनिराज घातिया कर्मों को नष्‍ट कर अनन्‍तचतुष्‍टय प्राप्‍त करेंगे और फिर अघातिया कर्मों को नष्‍ट कर परमात्‍मपद प्राप्‍त करेंगे ॥387-388॥

इस प्रकार श्रीमान् गणधरदेवकी कही कथा से राजा श्रेणिक बहुत ही प्रसन्‍न हुआ तथा उन्‍हें नमस्‍कार कर अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ नगर में चला गया ॥389॥

अथानन्‍तर किसी दूसरे दिन क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन को धारण करनेवाले राजा श्रेणिक ने हाथ जोड़कर गणधरदेव को नमस्‍कार किया तथा उन से बाकी बची हुई अपसर्पिणी काल की स्थिति और आनेवाले उत्‍सर्पिणी काल की समस्‍त स्थिति पूछी ॥390-391॥

तब गणधर भगवान् अपने दाँतोंकी किरणोंके प्रसार से सभाको संतुष्‍ट करते हुए गम्‍भीर-वाणी द्वारा इस प्रकार अनुक्रम से स्‍पष्‍ट कह ने लगे ॥392॥

उन्‍हों ने कहा कि जब चतुर्थ काल के अन्‍तके तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रह जावेंगे तब भगवान् महावीर स्‍वामी सिद्ध होंगे ॥393॥

दु:षमा नामक पन्‍चम काल की स्थिति इक्‍कीस हजार सागर वर्षकी है । उस कालमें मनुष्‍य उत्‍कृष्‍ट रूप से सौ वर्षकी आयु के धारक होंगे ॥394॥

उनका शरीर अधिक से अधिक सात हाथ ऊँचा होगा, उनकी कान्ति रूक्ष हो जायगी, रूप भद्दा होगा, वे तीनों समय भोजन में लीन रहेंगे और उनके मन काम-सेवन में आसक्‍त रहेंगे ॥395॥

कालदोषके अनुसार उनमें प्राय: और भी अनेक दोष उत्‍पन्‍न्‍ा होंगे क्‍योंकि पाप करनेवाले हजारों मनुष्‍य ही उस समय उत्‍पन्‍न होंगे॥396॥

शास्‍त्रोक्‍त लक्षणवाले राजाओं का अभाव हो ने से लोग वर्णसंकर हो जावेंगे । उस दु:षमा काल के एक हजार वर्ष बीत जानेपर धर्म की हानि हो ने से पाटलिपुत्र नामक नगर में राजा शिशुपालकी रानी पृथिवीसुन्‍दरीके चतुर्मुख नाम का एक ऐसा पापी पुत्र होगा जो कि दुर्जनोंमें प्रथम संख्‍याका होगा, पृथिवी को कम्‍पायमान करेगा और कल्कि राजा के नाम से प्रसिद्ध होगा । यह कल्कि मघा नाम के संवत्‍सरमें होगा ॥397-399॥

आक्रमण करनेवाले उस कल्किकी उत्‍कृष्‍ट आयु सत्‍तर वर्षकी होगी और उसका राज्‍यकाल चालीस वर्ष तक रहेगा ॥400॥

पाषण्‍डी साधुओं के जो छियानवे वर्ग हैं उन सबको वह आज्ञाकारी बनाकर अपना सेवक बना लेगा और इस तरह समस्‍त पृथिवी का उपभोग करेगा ॥401॥

तदनन्‍तर मिथ्‍यात्‍वके उदय से जिसका चित्‍त भर रहा है ऐसा पापी कल्कि अपने मन्त्रियों से पूछेगा कि कहो इन पाषण्‍डी साधुओंमें अब भी क्‍या कोई ऐसे हैं जो हमारी आज्ञा से पराड्.मुख रहते हों ? इसके उत्‍तरमें मन्‍त्री कहेंगे कि हे देव ! निर्ग्रन्‍थ साधु अब भी आपकी आज्ञा से बहिर्भूत हैं ॥402-403॥

यह सुनकर राजा फिर पूछेगा कि उनका आचार कैसा है ? इसके उत्‍तरमें मन्‍त्री लोग कहेंगे कि अपना हस्‍तपुट ही उनका बर्तन है अर्थात् वे हाथमें ही भोजन करते हैं, धनरहित होते हैं, इच्‍छारहित होते हैं, अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए वस्‍त्रादिका आवरण छोड़कर दिगम्‍बर रहते हैं, तपका साधन मानकर शरीर की स्थितिके लिए एक दो उपवासके बाद भिक्षाके समय केवल शरीर दिखलाकर याचनाके बिना ही अपने शास्‍त्रोंमें कही हुई विधिके अनुसार आ‍हार ग्रहण करने की इच्‍छा करते हैं, वे लोग अपना घात करनेवाले अथवा रक्षा करनेवाले पर समान दृष्टि रखते हैं, क्षुधा तृषा आदिकी बाधाको सहन करते हैं, कारण रहते हुए भी वे अन्‍य साधुओं के समान दूसरेके द्वारा नहीं दी हुई वस्‍तुकी कभी अभिलाषा नहीं रखते हैं, वे सर्प के समान कभी अपने रहनेका स्‍थान बनाकर नहीं रखते हैं, ज्ञान-ध्‍यानमें तत्‍पर रहते हैं और जहाँ मनुष्‍योंका संचार नहीं ऐसे स्‍थानोंमें हरिणोंके साथ रहते हैं । इस प्रकार उस राजा के विशिष्‍ट मन्‍त्री अपने द्वारा देखा हुआ हाल कहेंगे ॥404-409॥

यह सुनकर राजा कहेगा कि मैं इनकी अक्रम प्रवृत्तिको सहन करने के लिए समर्थ नहीं हूं, इसलिए इनके हाथमें जो पहला भोजनका ग्रास दिया जाय वही कर रूपमें इन से वसूल किया जावे ॥410॥

इस तरह राजा के कह ने से अधिकारी लोग मुनियों से प्रथम ग्रास माँगेंगे और मुनि भोजन किये बिना ही चुप चाप खड़े रहेंगे । यह देख अहंकार से भरे हुए कर्मचारी राजा से जाकर कहेंगे कि मालूम नहीं क्‍या हो गया है ? दिगम्‍बर साधु राजाकी आज्ञा माननेको तैयार नहीं हैं ॥411-412॥

कर्मचारियोंकी बात सुनकर क्रोध से राजा के नेत्र लाल हो जावेंगे और ओंठ फड़क ने लगेगा । तदनन्‍तर वह स्‍वयं ही ग्रास छीननेका उद्यम करेगा ॥413॥

उस समय शुद्ध सम्‍यग्‍दर्शनका धारक कोई असुर यह सहन नहीं कर सकेगा इसलिए राजा को मार देगा सो ठीक ही है क्‍योंकि शक्तिशाली पुरूष अन्‍यायको सहन नहीं करता है ॥414॥

यह चतुर्मुख राजा मरकर रत्‍नप्रभा नामक पहली पृथिवीमें जावेगा, वहाँ एक सागर प्रमाण उसकी आयु होगी और लोभ-कषायके कारण चिरकाल तक दु:ख भोगेगा ॥415॥

प्रभावशाली मनुष्‍य धर्म का निर्मूल नाश कभी नहीं सहन कर सकते और कुछ सावद्य (हिंसापूर्ण) कार्यके बिना धर्म-प्रभावना हो नहीं सकती इसलिए सम्‍यग्‍दृष्टि असुर अन्‍यायी चतुर्मुख राजा को मारकर धर्म की प्रभावना करेगा ॥416॥

वाला है, और धर्म ही उन्‍हें निर्मल तथा निश्‍चल मोक्ष पदमें धारण करनेवाला है ॥417॥

धर्म का नाश हो ने से सज्‍जनोंका नाश होता है इसलिए जो सज्‍जन पुरूष हैं वे धर्म का द्रोह करनेवाले नीच पुरूषोंका निवारण करते ही हैं और ऐसे ही सत्‍पुरूषों से सज्‍जन-जगत् की रक्षा होती है ॥418॥

आठ प्रकार के निमित्‍तज्ञान, तपश्‍चरण करना, मनुष्‍यों के मनको प्रसन्‍न करनेवाले धर्मोपदेश देना, अन्‍यवादियोंके अभिमानको चूर करना, राजाओं के चित्‍तको हरण करनेवाले मनोहर तथा शब्‍द और अर्थ से सुन्‍दर काव्‍य बनाना, तथा शूरवीरता दिखाना इन सब कार्योंके द्वारा सज्‍जन पुरूषोंको जिन-शासनकी प्रभावना करनी चाहिये ॥419-420॥

चिन्‍तामणि रत्‍नके समान अभिलषित पदार्थों को देकर धर्म की प्रभावना करनेवाले, बुद्धिमानोंके द्वारा पूज्‍य धन्‍य पुरूष इस संसार में दुर्लभ हैं ॥421॥

जैन-शासनकी प्रभावना करने में जिसकी रूचि प्रवर्तमान है मानो मुक्ति उसके हाथमें ही स्थित है ऐसा जिनागममें कहा जाता है ॥422॥

जो जिन-शासनकी प्रभावना करनेवाला है वही वैयाकारण है, वही नैयायिक है, वही सिद्धान्‍तका ज्ञाता है और वही उत्‍तम तपस्‍वी है । यदि वह जिन-शासनकी प्रभावना नहीं करता है तो इन व्‍यर्थकी उपाधियों से क्‍या लाभ है ? ॥423॥

जिस प्रकार सूर्य के द्वारा जगत् प्रकाशमान हो उठता है उसी प्रकार जिसके द्वारा जैन शासन प्रकाशमान हो उठता है उसके दोनों चरणकमलों को धर्मात्‍मा अपने मस्‍तक पर धारण करते हैं ॥424॥

जिस प्रकार समुद्र रत्‍नों की उत्‍पत्तिका कारण है और मलयगिरि चन्‍दनकी उत्‍पत्तिका स्‍थान है उसी प्रकार जिन-शासनकी प्रभावना करनेवाला श्रीमान् पुरूष धर्म की उत्‍पत्तिका कारण है ॥425॥

जिस प्रकार राजा राज्‍यके कंटकोंको उखाड़ फेंकता है उसी प्रकार जो सदा धर्मके कंटकोंको उखाड़ फेंकता है और सदा ऐसा ही उद्योग करता है वह लक्ष्‍मी का धारक होता है ॥426॥

आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि हर्ष-रूपी फूलों से व्‍याप्‍त मेरे मन-रूपी रंगभूमिमें जिनेन्‍द्र प्रणीत समीचीन धर्म की प्रभावनाका अभिनय रूपी महानट सदा नृत्‍य करता रहे ॥427॥

तदनन्‍तर उस कल्किका अजितंजय नाम का बुद्धिमान् पुत्र, अपनी बालना नाम की पत्‍नीके साथ उस देवकी शरण लेगा तथा महामूल्‍य सम्‍यग्‍दर्शन रूपीरत्‍न स्‍वीकृत करेगा । देव के द्वारा किया हुआ जिनधर्म का माहात्‍म्‍य देखकर पापी पाखण्‍डी लोग उस समय से मिथ्‍या अभिमान छोड़ देंगे और जिनेन्‍द्रदेव के द्वारा कहा हुआ धर्म कुछ काल तक अच्‍छी तरह फिर से प्रवर्तमान होगा ॥428-430॥

इस प्रकार दुष्‍षमा नामक पन्‍चम कालमें एक एक हजार वर्ष के बाद जब क्रमश: बीस कल्कि हो चुकेंगे तब अत्‍यन्‍त पापी जलमन्‍थन नाम का पिछला कल्कि होगा । वह राजाओं में अन्तिम राजा होगा अर्थात् उसके बाद कोई राजा नहीं होगा । उस समय चन्‍द्राचार्य के शिष्‍य वीरांगज नाम के मुनि सब से पिछले मुनि होंगे, सर्वश्री सब से पिछली आर्यिका होंगी, अग्निल सब से पिछला श्रावक होगा और उत्‍तम व्रत धारण करनेवाली फल्‍गुसेना नाम की सब से पिछली श्राविका होगी ॥431-433॥

वे सब अयोध्‍याके रहनेवाले होंगे, दु:षमा काल के अन्तिम धर्मात्‍मा होंगे और पन्‍चम काल के जब साढ़ेआठ माह बाकी रह जावेंगे तब कार्तिक मास के कृष्‍णपक्षके अन्तिम दिन प्रात:काल के समय स्‍वातिनक्षत्र का उदय रहते हुए वीरांगज मुनि, अग्निल श्रावक, सर्वश्री आर्यिका और फल्‍गुसेना श्राविका ये चारों ही जीव, शरीर तथा आयु छोड़कर सद्धर्मके प्रभाव से प्रथम स्‍वर्ग में जावेंगे । मध्‍याह्नके समय राजाका नाश होगा, और सायंकाल के समय अग्निका नाश होगा । उसी समय षट्कर्म, कुल, देश और अर्थके कारणभूत धर्म का समूल नाश हो जावेगा । ये सब अपने-अपने कारण मिलने पर एक साथ विनाशको प्राप्‍त होंगे । तदनन्‍तर अतिदु:षमा काल आवेगा । उसके प्रारम्‍भमें मनुष्‍य बीस वर्षकी आयुवाले, साढ़ेतीन हाथ ऊँचे शरीर के धारक, निरन्‍तर आहार करनेवाले पापी, नरक अथवा तिर्यन्‍च इन दो गतियों से आनेवाले और इन्‍हीं दोनों गतियोंमें जानेवाले होंगे । कपास और वस्‍त्रोंके अभाव से कुछ वर्षों तक तो वे पत्‍ते आदिके वस्‍त्र पहिनेंगे परन्‍तु छठवें काल के अन्‍त समयमें वे सब नग्‍न रह ने लगेंगे और बन्‍दरोंके समान दीन होकर फलादिका भक्षण करने लगेंगे ॥434-441॥

कालदोषके कारण मेघों ने इक्‍कीस हजार वर्ष तक थोड़ी थोड़ी वर्षा की सो ठीक ही है क्‍योंकि काल का कोई उल्‍लंघन नहीं कर सकता ॥442॥

मनुष्‍यों की बुद्धि बल काय और आयु आदिका अनुक्रम से ह्लास होता जावेगा । इस काल के अन्तिम समयमें मनुष्‍यों की आयु सोलह वर्षकी और शरीर की ऊँचाई एक हाथकी रह जावेगी ॥443॥

उस समय नामकर्मकी प्रकृतियोंमें से अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियाँ ही फल देंगी । उस समयके मनुष्‍य काले रंगके होंगे, उनके शरीर की कान्ति रूखी होगी, वे दुर्भग, दु:स्‍वर, खल, दु:ख से देखनेके योग्‍य, विकट आकार वाले, दुर्बल तथा विरल दाँतोंवाले होंगे । उनके वक्ष:स्‍थल, गाल और नेत्रोंके स्‍थान, भीतरको धँ से होंगे, उनकी नाक चपटी होगी, वे सब प्रकार का सदाचार छोड़ देंगे, भूख प्‍यास आदि से पीडित रहेंगे, निरन्‍तर रोगी होंगे, रोगका कुछ प्रतिकार भी नहीं कर सकेंगे और केवल दु:खके स्‍वादका ही अनुभव करनेवाले होंगे ॥444-446॥

इस प्रकार समय बीत ने पर जब अतिदु:षमा काल का अन्तिम समय आवेगा तब समस्‍त पानी सूख जावेगा, और शरीर के समान ही नष्‍ट हो जावेगा ॥447॥

पृथिवी अत्‍यन्‍त रूखी-रूखी होकर जगह-जगह फट जावेगी, इन सब चीजोंके नाश हो जानेकी चिन्‍ता से ही मानो सब वृक्ष सूखकर मलिनकाय हो जावेंगे ॥448॥

प्राय: इस तरह समस्‍त प्राणियोंका प्रलय हो जावेगा । गंगा सिन्‍धु नदी और विजयार्थ पर्वत की वेदिकापर कुछ थोड़े से मनुष्‍य विश्राम लेंगे और वहाँ नदी के मुख में उत्‍पन्‍न हुए मछली, मेंढक, कछुए और केंकड़ा आदिको खाकर जीवित रहेंगे । उनमें से वहत्‍तर कुलोंमें उत्‍पन्‍न हुए कुछ दुराचारी दीन-हीन जीव छोटे-छोटे बिलोंमें घुसकर ठहर जावेंगे ॥449-450॥

तदनन्‍तर मेघ सात-सात दिन तक क्रम से सरस, विरस, तीक्ष्‍ण, रूक्ष, उष्‍ण, विष-रूप और खारे पानीकी वर्षा करेंगे । इसके बाद पृथिवी की विषमता ( ऊँच-नीचपना ) नष्‍ट हो जायगी, सब ओर भूमि चित्रा पृथिवीके समान हो जावेगी और यहीं पर अपसर्पिणी काल की सीमा समाप्‍त हो जायगी ॥451-453॥

इसके आगे उत्‍सर्पिणी काल का अतिदु:षमा काल चलेगा, वह भी इक्‍कीस हजार वर्ष का होगा । इसमें प्रजाकी वृद्धि होगी । पहले ही क्षीर जातिके मेघ सात-सात दिन बिना विश्राम लिये जल और दूधकी वर्षा करेंगे जिस से पृथिवी रूक्षता छोड़ देगी और उसी से पृथिवी अनुक्रम से वर्णादि गुणोंको प्राप्‍त होगी । इसके बाद अमृत जातिके मेघ सात दिन तक अमृतकी वर्षा करेंगे जिस से औषधियाँ, वृक्ष, पौधे और घास पहलेके समान निरन्‍तर होंगे ॥454-457॥

तदनन्‍तर रसाधिक जातिके मेघ रसकी वर्षा करेंगे जिस से छह रसोंकी उत्‍पत्ति होगी । जो मनुष्‍य पहले बिलोंमें घुस गये थे वे अब उन से बाहर निकलेंगे और उन रसोंका उपयोग कर हर्ष से जीवित रहेंगे । ज्‍यों–ज्‍यों कालमें वृद्धि होती जावेगी त्‍यों-त्‍यों प्राणियोंके शरीर आदिका ह्लास दूर होता जावेगा-उनमें वृद्धि हो ने लगेगी ॥458-459॥

तदनन्‍तर दु:षमा नामक काल का प्रवेश होगा उस समय मनुष्‍यों की उत्‍कृष्‍ट आयु बीस वर्षकी और शरीर की ऊँचाई साढ़ेतीन हाथकी होगी । इस काल का प्रमाण भी इक्‍कीस हजार वर्ष का ही होगा । इसमें अनुक्रम से निर्मल बुद्धि के धारक सोलह कुलकर उत्‍पन्‍न होंगे । उनमें से प्रथम कुलकर का शरीर चार हाथमें कुछ कम होगा और अन्तिम कुलकर का शरीर सात हाथ प्रमाण होगा । कुलकरोंमें सब से पहला कुलकर कनक नाम का होगा, दूसरा कनकप्रभ, तीसरा कनकराज, चौथा कनकध्‍वज, पाँचवाँ कनकपुंगव,छठा नलिन, सातवाँ नलिनप्रभ, आठवाँ नलिनराज, नौवाँ नलिनध्‍वज, दशवाँ नलिनपुंगव, ग्‍यारहवाँ पद्म, बारहवाँ पद्मप्रभ, तेरहवाँ पद्मराज, चौदहवाँ पद्मध्‍वज, पन्‍द्रहवाँ पद्मपुंगव और सोलहवाँ महापद्म नाम का कुलकर होगा । ये सभी बुद्धि और बल से सुशोभित होंगे ॥460-466॥

इनके समय में क्रम से शुभ भावोंकी वृद्धि हो ने से भूमि, जल तथा धान्‍य आदिकी वृद्धि होगी ॥467॥

मनुष्‍य अनाचारका त्‍याग करेंगे, परिमित समयपर योग्‍य भोजन करेंगे । मैत्री, लज्‍जा, सत्‍य, दया, दमन, संतोष, विनय, क्षमा, राग-द्वेष आदिकी मन्‍दता आदि सज्‍जनोचित चारित्र प्रकट होंगे और लोग अग्निमें पकाकर भोजन करेंगे ॥468-469॥

यह सब कार्य दूसरे कालमें होंगे । इसके बाद तीसरा काल लगेगा । उसमें लोगोंका शरीर सात हाथ ऊँचा होगा और आयु एक सौ बीस वर्षकी होगी ॥470॥

तदनन्‍तर इसी कालमें तीर्थंकरोंकी उत्‍पत्ति होगी । जो जीव तीर्थकर होंगे उनके नाम इस प्रकार हैं-श्रेणिक 1, सुपार्श्‍व 2, उदंक 3, प्रोष्ठिल 4, कटप्रू 5, क्षत्रिय 6, श्रेष्‍ठी 7, शंख 8, नन्‍दन 9, सुनन्‍द 10, शशांक 11, सेवक 12, प्रेमक 13, अतोरण 14, रैवत 15, वासुदेव 16, भगलि 17, वागलि 18, द्वैपायन 19, कनकपाद 20, नारद 21, चारूपाद 22, और सत्‍यकिपुत्र 23, ये तेईस जीव आगे तीर्थकर होंगे । सात हाथको आदि लेकर इनके शरीर की ऊँचाई होगी । इस प्रकार तेईस ये तथा एक अन्‍य मिलाकर चौबीस तीर्थंकर होंगे ॥471–475॥

उनमें से पहले तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात अरत्रि ऊँचा शरीर होगा । अन्तिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व की होगी और शरीर पाँचसौ धनुष ऊँचा होगा । उन तीर्थंकरोंमें पहले तीर्थंकर महापद्म होंगे । उनके बाद निम्‍नलिखित 23 तीर्थंकर और होंगे-सुरदेव 1, सुपार्श्‍व 2, स्‍वयंप्रभ 3, सर्वात्‍मभूत 4, देवपुत्र 5, कुलपुत्र 6, उदंक 7, प्रोष्ठिल 8, जयकीर्ति 9, मुनिसुव्रत 10, अरनाथ 11, अपाप 12, निष्‍कषाय 13, विपुल 14, निर्मल 15, चित्रगुप्‍त 16, समाधिगुप्‍त 17, स्‍वयंभू 18, अनिवर्ती 19, विजय 20, विमल 21, देवपाल 22, और अनन्‍तवीर्य 23 । इन समस्‍त तीर्थंकरोंके चरण-कमलोंकी समस्‍त इन्‍द्र लोग सदा पूजा करेंगे । इसी तीसरे कालमें उत्‍कृष्‍ट लक्ष्‍मी के धारक 12 बारह चक्रवर्ती भी होंगे ॥476-481॥

उनके नाम इस प्रकार होंगे-पहला भरत, दूसरा दीर्घदन्‍त, तीसरा मुक्‍तदन्‍त, चौथा गूढ़दन्‍त, पाँचवाँ श्रीषेण, छठवाँ श्रीभूति, सातवाँ श्रीकान्‍त, आठवाँ पद्म, नौवाँ महापद्म, दशवाँ विचित्र-वाहन, ग्‍यारहवाँ विमलवाहन और बारहवाँ सब सम्‍पदाओं से सम्‍पन्‍न अरिष्‍टसेन ॥482-484॥

नौ बलभद्र भी इसी कालमें होंगे । उनके नाम क्रमानुसार इस प्रकार हैं 1 चन्‍द्र, 2 महाचन्‍द्र, 3 चक्रधर, 4 हरिचन्‍द्र, 5 सिंहचन्‍द्र, 6 वरचन्‍द्र, 7 पूर्णचन्‍द्र, 8 सुचन्‍द्र और नौवाँ नारायणके द्वारा पूजित श्रीचन्‍द्र ॥485-486॥

नौ नारायण भी इसी कालमें होंगे उनके नाम इस प्रकार होंगे । पहला नन्‍दी, दूसरा नन्दिमित्र, तीसरा नन्दिषेण, चौथा नन्दिभूति, पाँचवाँ सुप्रसिद्धबल, छठवाँ महाबल, सातवाँ अतिबल, आठवाँ त्रिपृष्‍ठ और नौवाँ द्विपृष्‍ठ नामक विभु होगा । इन नारायणोंके शत्रु नौ प्रतिनारायण भी होंगे । उनके नाम अन्‍य ग्रन्‍थों से जान लेना चाहिए ॥487-489॥

तदनन्‍तर इस काल के बाद सुषम-दुष्‍षम काल आवेगा उसके प्रारम्भमें मनुष्‍यों की ऊँचाई पाँचसौ धनुष होगी और कुछ अधिक एक करोड़ वर्षकी आयु होगी । इसके बाद कुछ वर्ष व्‍यतीत हो जानेपर यहाँपर जघन्‍यभोगभूमिके आर्य जनों के समान सब स्थिति आदि हो जावेंगी ॥490-491॥

फिर पन्‍चम काल आवेगा । उसमें मध्‍यम भोगभूमिकी स्थिति होगी और उसके अनन्‍तर छठवाँ काल आवेगा उसमें उत्‍तम भोगभूमिकी स्थिति र‍हेगी ॥492॥

जम्‍बूद्वीप के भरतक्षेत्रके सिवाय और जो बाकी नौ कर्मभूमियाँ हैं उनमें भी इसी प्रकारकी प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार जो काल हो चुके हैं और जो आगे होंगे उन सबमें कल्‍पकाल की स्थिति बतलाई गई है अर्थात् उत्‍सर्पिणीके दश कोड़ा-कोड़ी सागर और अवसर्पिणीके 10 कोड़ा-कोड़ी सागर दोनों मिलाकर बीस कोड़ा-कोड़ी सागरका एक कल्‍पकाल होता है और यह सभी उत्‍सर्पिणियों तथा अव‍सर्पिणियोंमें होता है । सभी विदेहक्षेत्रों में मनुष्‍यों की ऊंचाई पाँचसौ धनुष प्रमाण होती है और आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व प्रमाण रहती है । वहाँ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र और नारायण अधिक से अधिक हों तो प्रत्‍येक एक सौ साठ, एक सौ साठ होते हैं और कम से कम हों तो प्रत्‍येक बीस-बीस होते हैं । भावार्थ-अढ़ाई द्वीप में पाँच विदेह क्षेत्र हैं और एक-एक विदेहक्षेत्रके बत्‍तीस-बत्‍तीस भेद हैं इसलिए सबके मिलाकर एक सौ साठ भेद हो जाते हैं, यदि तीर्थंकर आदि शलाकापुरूष प्रत्‍येक विदेह क्षेत्र में एक-एक होवें तो एक सौ साठ हो जाते हैं और कम से कम हों तो एक-एक महाविदेह सम्‍बधी चार-चार नगरियोंमें अवश्‍यमेव हो ने के कारण बीस ही होते हैं ॥493-496॥

इस प्रकार सब कर्मभूमियोंमें उत्‍पन्‍न हुए तीर्थंकर आदि महापुरूष अधिक से अधिक हों तो एक सौ सत्‍तर हो सकते हैं । इन भूमियोंमें चारों गतियों से आये हुए जीव उत्‍पन्‍न होते हैं और अपने-अपने आचारके वशीभूत होकर मोक्षसहित पाँचों गतियोंमें जाते हैं । सभी भोग-भूमियोंमें, कर्मभूमिज मनुष्‍य और संज्ञी तिर्यन्‍च ही उत्‍पन्‍न होते हैं । भोगभूमिमें उत्‍पन्‍न हुए जीव मरकर पहले और दूसरे स्‍वर्ग में अथवा भवनवासी आदि तीन निकायोंमें उत्‍पन्‍न होते हैं । यह नियम है कि भोगभूमिके सभी मनुष्‍य और तिर्यन्‍च नियम से देव ही होते हैं । भोगभूमिमें उत्‍पन्‍न होनेवाले मनुष्‍य उत्‍तम ही होते हैं और कर्मभूमिमें उत्‍पन्‍न होनेवाले मनुष्‍य अपनी-अपनी वृत्तिकी विशेषता से तीन प्रकार के कहे गये हैं-उत्‍तम, मध्‍यम और जघन्‍य । शलाकापुरूष, कामदेव तथा विद्याधर आदि, जो देवपूजित सत्‍पुरूष हैं वे दिव्‍य मनुष्‍य कहलाते हैं तथा छठवें काल के मनुष्‍य कहलाते हैं । इनके सिवाय एक पैरवाले, भाषा रहित, भाषा रहित, शंकुके समान कानवाले, कानको ही ओढ़ ने-बिछानेवाले अर्थात् लम्‍बे कानवाले, खरगोशके समान कानवाले, घोड़े आदिके समान कानवाले, अश्‍वमुख, सिंहमुख, देखनेके अयोग्‍य महिषमुख, कोलमुख (शूकरमुख), व्‍याघ्‍नमुख, उलूकमुख, वानरमुख, मत्‍स्‍यमुख, कालमुख, गोमुख, मेषमुख, मेघमुख, विद्युन्‍मुख, आदर्शमुख, हस्तिमुख, पूँछवाले, और सींगवाले ये कुभोगभूमिके मनुष्‍य भी नीच मनुष्‍य कहलाते हैं । ये सब अन्‍तर्द्वीपोंमें रहते हैं । सब म्‍लेच्‍छखण्‍डों और विजयार्ध पर्वतोंकी स्थिति तीर्थकरोंके समयके समान होती है और वृद्धि ह्लास सदा कर्मभूमियोंमें ही रहता है । इस प्रकार श्रेणिक राजा के प्रश्‍नके अनुसार इन्‍द्रभूति गणधर ने वचन रूपी किरणोंके द्वारा अन्‍त:करणके अन्‍धकारसमूहको नष्‍ट करते हुए यह हाल कहा । उन्‍हों ने यह भी कहा कि भगवान् महावीर भी बहुत से देशोमें विहार करेंगे ॥497-508॥

अन्‍त में वे पावापुर नगर में पहुँचेंगे वहाँके मनोहर नाम के वनके भीतर अनेक सरोवरोंके बीच में मणिमयी शिलापर विराजमान होंगे । विहार छोड़कर निर्जराको बढ़ाते हुए वे दो दिन तक वहाँ विराजमान रहेंगे और फिर कार्तिककृष्‍ण चतुर्दशी के दिन रात्रिके अन्तिम समय स्‍वातिनक्षत्र में अतिशय देदीप्‍यमान तीसरे शुक्‍लध्‍यानमें तत्‍पर होंगे । तदनन्‍तर तीनों योगोंका निरोधकर समुच्छिन्‍नक्रियाप्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्‍लध्‍यानको धारण कर चारों अघातिया कर्मों का क्षय कर देंगे और शरीररहित केवलगुणरूप होकर एक हजार मुनियों के साथ सबके द्वारा वान्‍छनीय मोक्षपद प्राप्‍त करेंगे ॥509-512॥

इनके बाद नन्‍दी मुनि, श्रेष्‍ठ नन्‍दीमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और महातपस्‍वी भद्रबाहु मुनि होंगे । ये पाँचों ही मुनि अतिशय विशुद्धिके धारक होकर अनुकम से अनेक नयों से विचित्र अर्थोंका निरूपण करने वाले पूर्ण श्रुतज्ञान को प्राप्‍त होंगे अर्थात् श्रुतकेवली होंगे । इनके बाद विशाखार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और बुद्धिमान् धर्मसेन ये ग्‍यारह अनुक्रम से होंगे तथा द्वादशांगका अर्थ कहनेमें कुशल और दश पूर्वके धारक होंगे ॥513-522॥

ये ग्‍यारह मुनि भव्‍योंके लिए कल्‍पवृक्ष के समान तथा जैनधर्म का प्रकाश करनेवाले होंगे । उनके बाद नक्षत्र, जयपाल, पाण्‍डु, ध्रुवसेन और कंसार्य ये ग्‍यारह अंगोंके जानकार होंगे । उनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, प्रकृष्‍ट बुद्धिमान्, यशोबाहु और चौथे लोहाचार्य ये चार आचारांगके जानकार होंगे । इन सब तपस्वियोंकी यह परम्‍परा जिनेन्‍द्रदेव के मुखकमल से निकले हुए, पवित्र तथा पापोंका लोप करनेवाले शास्‍त्रोंका प्ररूपण करेंगे । इनके बाद बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंको धारण करनेवाले जिनसेन, वीरसेन आदि अन्‍य तपस्‍वी भी श्रुतज्ञान के एकदेशका प्ररूपण करेंगे । प्राय: कर श्रुतज्ञान का यह एकदेश दु:षमा नामक पन्‍चम काल के अन्‍त तक चलता रहेगा ॥523-528॥

भरत, सागर, मनुष्‍यों के द्वारा प्रशंसनीय सत्‍यवीर्य, राजा मित्रभाव, सूर्य के समान कांतिवाला मित्रवीर्य, धर्मवीर्य, दानवीर्य, मघवा, बुद्धवीर्य, सीमन्‍धर, त्रिपृष्‍ठ, स्‍वयम्‍भू, पुरूषोत्‍तम, पुरूषपुण्‍डरीक, प्रशंसनीय सत्‍यदत्‍त, पृथिवी का पालक कुनाल, मनुष्‍योंका स्‍वामी नारायण, सुभौम, सार्वभौम, अजितन्‍जय, विजय, उग्रसेन, महासेन और आगे चलकर जिनेन्‍द्रका पद प्राप्‍त करनेवाला तू, गौतम स्‍वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! ये सभी पुरूष श्रीमान् हैं, धर्म सम्‍बन्‍धी प्रश्‍न करनेवालोंमें श्रेष्‍ठ हैं, और निरन्‍तर चौबीस तीर्थंकरोंके चरण-कमलोंकी सेवा करनेवाले हैं ॥529-533॥

भगवान् महावीर स्‍वामी का जीव पहले पुरूरवा नाम का भील था, फिर पहले स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर भरतका पुत्र मरीचि हुआ, फिर ब्रह्मस्‍वर्ग में देव हुआ, फिर जटिल नाम का ब्राह्मण हुआ ॥534॥

फिर सौधर्म स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर पुष्‍यमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ, फिर अग्निसम नाम का ब्राह्मण हुआ ॥535॥

फिर सनत्‍कुमार स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर अग्निमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ, फिर माहेन्‍द्र स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर भारद्वाज नाम का ब्राह्मण हुआ, फिर माहेन्‍द्र स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर वहाँ से च्‍युत होकर मनुष्‍य हुआ, फिर असंख्‍यात वर्षों तक नरकों और त्रस स्‍थावर योनियोंमें भ्रमण करता रहा ॥536-537॥

वहाँ से निकलकर स्‍थावर नाम का ब्राह्मण हुआ, फिर चतुर्थ स्‍वर्ग में देव हुआ, वहाँ से च्‍युत होकर विश्‍वनन्‍दी हुआ, फिर त्रिपृष्‍ठ नाम का तीन खण्‍ड़का स्‍वामी-नारायण हुआ, फिर सप्‍तम नरकमें उत्‍पन्‍न हुआ वहाँ से निकल कर सिंह हुआ ॥538-539॥

फिर पहले नरकमें गया, वहां से निकल कर फिर सिंह हुआ, उसी सिंहकी पर्यायमें उसने समीचीन धर्म धारण कर निर्मलता प्राप्‍तकी, फिर सौधर्म स्‍वर्ग में सिंहकेतु नाम का उत्‍तम देव हुआ, फिर कनकोज्‍वल नाम का विद्याधरोंका राजा हुआ, फिर सप्‍तम स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर हरिषेण राजा हुआ, फिर महाशुक्र स्‍वर्ग में देव हुआ, फिर प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती हुआ, फिर सहस्‍त्रार स्‍वर्ग में सूर्यप्रभ नाम का देव हुआ, वहाँ से आकर नन्‍द नाम का राजा हुआ, फिर अच्‍युत स्‍वर्गके पुष्‍पोत्‍तर विमान में उत्‍पन्‍न हुआ और फिर वहाँ से च्‍युत होकर वर्धमान तीर्थंकर हुआ है ॥540-543॥

जो पन्‍चकल्‍याण रूप महाऋद्धिको प्राप्‍त हुए हैं तथा जिन्‍हें मोक्ष लक्ष्‍मी प्राप्‍त हुई है ऐसे वे वर्धमान स्‍वामी गुणभद्रके लिए अथवा गुणों से श्रेष्‍ठ समस्‍त पुरूषोंके लिए सर्व प्रकार के मंगल प्रदान करें॥544॥

इस प्रकार अच्‍छी कथाके रस से मधुर तथा भक्ति से आस्‍वादित, गौतम स्‍वामी के मुखकमलमें सुशोभित सरस्‍वती देवीके वचन रूपी अमृतसे, वह सभा तथा मगधेश्‍वर राजा श्रेणिक दोनों ही, समस्‍त अर्थ रूप सम्‍पदाओं को देनेवाले एवं ज्ञान और दर्शन को पुष्‍ट करनेवाले बड़े भारी सन्‍तोषको प्राप्‍त हुए ॥545॥

जो निर्मल मोक्षमार्ग में रात-दिन लक्ष्‍मी से बढ़ते ही जाते हैं, जिन्‍हों ने इस कलिकालमें भी धर्म तीर्थका भारी विस्‍तार किया है, और जिन्‍हों ने अन्तिम तीर्थंकरको भी जीत लिया है ऐसे श्रीवर्धमान जिनेन्‍द्र को मैं स्‍तुतिके मार्ग में लिये जाता हूँ-अर्थात् उनकी स्‍तुति करता हूँ ॥546॥

हे ईश ! अर्थी लोग-कुछ पानेकी इच्‍छा करने वाले लोग, किसी स्‍तुत्‍य अर्थात् स्‍तुति करने के योग्‍य पुरूष की जो स्‍तुति करते हैं सो उसे प्रसन्‍न करने के लिए ही करते हैं परन्‍तु यह बात आपमें नहीं है क्‍योंकि आप मोहको जीत चुके हैं इसलिए मैं किसी वस्‍तुकी आकांक्षा रखकर स्‍तुति नहीं कर रहा हूँ, मुझे तो सिर्फ स्‍तुति करने योग्‍य जिनेन्‍द्रकी स्‍तुति करनेका ही अनुराग है, मैं सब प्रयोजनों से विमुख हूँ ॥547॥

हे सुमुख ! जिनका प्रमाण अर्थात् ज्ञान, प्रमेय अर्थात् पदार्थ से रहित है-जो समस्‍त पदार्थों को नहीं जानते हैं वे हिताभिलाषी लोगोंकी स्‍तुतिके विषय नहीं हो सकते । हे अर्हन् ! आप समस्‍त पदार्थों को जानते हैं-समस्‍त पदार्थों का जानना ही आपका स्‍वरूप है और आप ही उन समस्‍त पदार्थों के वक्‍ता हैं-उपदेश देनेवाले हैं इसलिए हिताभिलाषी लोगों के द्वारा आप ही स्‍तुति किये जानेके योग्‍य हैं ॥548॥

हे जिनेन्‍द्र ! यद्यपि आप स्‍तुतिका फल नहीं देते हैं तो भी स्‍तुति करनेवाला मनुष्‍य विना किसी याचनाके शीघ्र ही स्‍तुतिका बहुत भारी श्रेष्‍ठ भारी श्रेष्‍ठ फल अवश्‍य पा लेता है इसलिए दीनता से बहुत डरनेवाला और श्रेष्‍ठ फलकी इच्‍छा करनेवाला मैं आपका स्‍तवन क्‍यों न करूँ ? ॥549॥

हे जिनेन्‍द्र ! यदि इस संसार में कोई किसी के लिए विना कारण तृणका एक टुकड़ा भी देता है तो वह मूर्ख कहलाता है परन्‍तु आप विना किसी कारण मोक्ष लक्ष्‍मी तक प्रदान करते हैं (इसलिए आपको सब से अधिक मूर्ख कहा जाना चाहिये) परन्‍तु आप बुद्धिमानोंमें प्रथम ही गि ने जाते हैं यह महान् आश्‍चर्य की बात है ॥550॥

इस संसार में कित ने ही अन्‍य लोगों ने अपना सर्वस्‍व-धन देकर याचक जनों के लिए छलरहित स्‍थायी धन से श्रेष्‍ठ बनाया है और हे जिनेन्‍द्र ! आप केवल वचनोंके द्वारा ही दान करते हैं फिर भी आश्‍चर्य की बात है कि चतुर मनुष्‍य उन सबका उल्‍लंघन कर एक आपको ही उत्‍कृष्‍ट दाता कहते हैं । भावार्थ-धन सम्‍पत्तिका दान करनेवाले पुरूष संसार में फँसानेवाले हैं परन्‍तु आप वैराग्‍य से ओत-प्रोत उपदेश देकर जीवों को संसार-समुद्र से बाहर निकालते हैं अत: सच्‍च और उत्‍कृष्‍ट दानी आप ही हैं ॥551॥

हे जिन ! विषयोंका अर्जन करना ही जिनकी बुद्धि अथवा पुरूषार्थ रह गया है तथा समस्‍त विषयों का निरन्‍तर उपभोग करना ही जिन्‍हों ने सुख मान रखा है उन दोनों से विरूद्ध रहनेवाला आपका शासन, उन लोगों के कानको फोड़नेवाला क्‍यों नहीं होगा ? अवश्‍य होगा ॥552॥

हे जिनेन्‍द्र ! आप ने जिस पुण्‍यका उपदेश दिया है वही ज्ञान आदिके द्वारा परम निर्वाणका साधन हो ने से इष्‍ट है तथा भव्‍य जीवों के द्वारा करने के योग्‍य है । देवों के समस्‍त सुख प्रदान करनेवाला जो पुण्‍य है वह पुण्‍य नहीं है क्‍योंकि वह बन्‍धका देनेवाला है, विषयोंमें फँसानेवाला है और अभीष्‍ट (मोक्ष) का घात करनेवाला है ॥553॥

हे भगवन् ! समवसरणमें आपके जो शरीरादिक विद्यमान हैं वे निष्‍फल नहीं है क्‍योंकि उत्‍तम शिष्‍य आपके वचन सुनकर तथा साक्षात् आपके दर्शन कर इसी लोक में परम आनन्‍द को प्राप्‍त होते हैं सो ठीक ही है क्‍योंकि जित ने फल हैं उन सबमें परोपकार करना ही मुख्‍य फल है ॥554॥

हे भगवन् ! ज्ञान दर्शनादिरूप लक्षणोंका घात करनेवाला जो नामादि कर्म आपकी आत्‍मामें विद्यमान है वह क्‍या आपके उपयोगको नष्‍ट कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता । हे जिनेन्‍द्र ! आत्‍मामें कर्मोंकी सत्‍ता हो ने से जो आपको असिद्ध-अमुक्‍त मानता है वह यह क्‍यों नहीं मान ने लगता है कि निरन्‍तर ऊध्‍र्वगमन न हो ने से शरीर रहित सिद्ध भगवान् भी अभी सिद्धिको प्राप्‍त नहीं हुए हैं । भावार्थ-यद्यपि अरहन्‍त अवस्‍था में नामादि कर्म विद्यमान रहते हैं परन्‍तु मोहनीयका योग न हो ने से वे कुछ कर स‍कनेमें समर्थ नहीं है अत: उनकी जीवन्‍मुक्‍त अवस्‍था ही मान ने योग्‍य है ॥555॥

हे प्रभो ! गणधरादिक देव, आपको आदिसहित, अन्‍त रहित, आदिरहित, अन्‍तसहित, अनादि-अनन्‍त, पापसहित, पापरहित, दु:खी, सुखी और दु:ख-सुख दोनों से रहित कहते हैं इसलिए जो मनुष्‍य नयों से अनभिज्ञ हैं वे आपको नहीं जान स‍कते हैं-उनके द्वारा आप अज्ञेय हैं । भावार्थ-आत्‍माकी जो सिद्ध पर्याय प्रकट होती है वह पहले से विद्यमान नहीं रहती इसलिए सिद्ध पर्यायकी अपेक्षा आप सादि हैं तथा सिद्ध पर्याय एक बार प्रकट होकर फिर कभी नष्‍ट नहीं होती इसलिए आप अन्‍तरहित हैं । आपकी संसारी पर्याय आदिरहित है अत: उसकी अपेक्षा अनादि हैं और कर्म क्षय हो जा ने पर संसारी पर्यायका अन्‍त हो जाता है उसकी अपेक्षा अन्‍तसहित हैं । द्रव्‍यार्थिक नयकी अपेक्षा सामान्‍य जीवत्‍वभाव से आप न आदि हैं और न अन्‍त हैं अत: आप आदि और अन्‍त दोनों से रहित हैं । हिंसादि पापोंका आप त्‍याग कर चुके हैं अत: अनवद्य हैं-निष्‍पाप हैं और असातावेदनीय आदि कितनी ही पाप प्रकृतियों का उदय अरहन्‍त अवस्‍था में भी विद्यमान है अत: सावद्य हैं-पाप प्रकृतियों से सहित है । अरहन्‍त अवस्‍था में असातावेदनीयका उदय विद्यमान रह ने से कारणकी अपेक्षा आप दुखी हैं, मोह कर्म का अभाव हो जा ने से आकुलताजन्‍य दु:ख नष्‍ट हो चुका है इसलिए सुखी हैं, और आप अव्‍यावाधगुण से सहित हैं अत: सुखी और दुखी इन दोनों व्‍यवहारों से रहित हैं । इस प्रकार भिन्‍न-भिन्‍न नयोंकी अपेक्षा आप अनेक रूप हैं । जो इस नयवादको नहीं समझता है वह आपके इन विविध रूपोंको कै से समझ सकता है ? ॥556॥

हे देव ! जीवों के भाव दो प्रकार के हैं एक संयोग से उत्‍पन्‍न होनेवाले और दूसरे स्‍वाभाविक । जो संयोग से उत्‍पन्‍न होनेवाले भाव हैं वे संयोगके नष्‍ट हो जानेपर नष्‍ट हो जाते हैं, उनके नष्‍ट हो ने से ज्ञानादिक स्‍वाभाविक भावोंमें आत्‍माकी जो स्थिति है वही परमनिर्वृति या परम मुक्ति कहलाती है परन्‍तु यह मार्ग आपके वचनों से दूर रहनेवाले अन्‍य दर्शनकारोंको कठिन है ॥557॥

हे भगवन् ! आप अनादि कर्मबन्‍धनको छेदकर जो अन्‍तरहित मुक्ति प्रदान करते हैं वह बात तो दूर ही रही किन्‍तु स्‍नेह आदि कारणों से रहित होकर भी समस्‍त प्राणियोंकी रक्षा करने में जो आपकी दक्षता है वही आपकी आप्‍तता सिद्ध करने के लिए बहुत है ॥558॥

हे भगवन्‍ ! क्‍या आपका ज्ञान समस्‍त पदार्थों के देखनेके कौतूहल से सहित नहीं है ? क्‍या अपरिमित पदार्थों के निरूपण करने में आपकी वचन-कुशलता नहीं है ? क्‍या परपदार्थों से पराड्.मुख रह ने वाले आप स्‍वार्थरूप सम्‍पदाके सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं और क्‍या सज्‍जनोंके बीच एक आप ही पूज्‍य नहीं हैं ? ॥559॥

हे नाथ ! समस्‍त संसार को देखनेके लिए फैलनेवाले आपके अनन्‍तवीर्यके व्‍यापारका पार कभी नहीं प्राप्‍त किया जा सकता है तो भी आश्‍चर्य है कि सज्‍जन लोग आपको ही सुखियोंमें सब से अधिक सुखी बतलाते हैं परन्‍तु उनकी यह भक्ति है अथवा यथार्थज्ञान है सो जान नहीं पड़ता है ॥560॥

हे जिनेन्‍द्र ! आपकी जितनी चेष्‍टाएँ हैं वे सभी भक्‍त जीवों के मोक्ष सिद्ध करने के लिए हैं परन्‍तु आपको उसके किसी फलकी इच्‍छा नहीं है इसलिए कहना पड़ता है कि वचनामृतरूपी जलकी वृष्टि से संसार को तृप्‍त करते हुए एक आप ही अकारण बन्‍धु हैं ॥561॥

यह जीव प्रकट हुए उपयोगरूपी गुणों के द्वारा जाना जाता है और उस उपयोगको नष्‍ट करनेवाले चार घातिया कर्म हैं । उन घातिया कर्मों को नष्‍ट करने से आपका उपयोगरूपी पूर्ण लक्षण प्रकट हो चुका है इसलिए हे जिनेन्‍द्र ! आप ही कहिए कि ऐसे आत्‍मलक्षणवाले आपको सिद्ध कै से न कहें ? ॥562॥

हे भगवन् ! आपके गुण साधारण नहीं हैं यह मैं मानता हूँ परन्‍तु उन असाधारण गुणों के रहते हुए भी आप साक्षात् दिखते नहीं हैं यह आश्‍चर्य है, यदि आपके साक्षात् दर्शन हो जावें तो वह भक्ति उत्‍पन्‍न होती है जिसके कि द्वारा बहुत भारी पुण्‍यका संचय होता है और बहुत भारी पाप नष्‍ट हो जाते हैं ॥563॥

हे देव ! मोहनीय कर्म का घात हो ने से आपके अवगाढ़ सम्‍यग्‍दर्शन हुआ था और अब ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणका क्षय हो जा ने से परमावगाढ़ सम्‍यग्‍दर्शन प्रकट हुआ है । अवगाढ़ सम्‍यग्‍दर्शनमें चारित्रकी पूर्णता होती है और परमावगाढ़ सम्‍यग्‍दर्शनमें समस्‍त पदार्थों के जाननेकी सामर्थ्‍य होती है इस तरह दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणकी पूर्णताके कारण आप वन्‍दनीय हैं-वन्‍दना करने के योग्‍य हैं ॥564॥

हे भगवन् ! आप ने प्रबल घातिया कर्मोंकी सेना को तो पहले ही नष्‍ट कर दिया था अब अघातिया कर्म भी, जिसका बाँध टूट गया है ऐसे सरोवरके जलके समान निरन्‍तर बहते रहते हैं-खिरते जाते हैं । हे नाथ ! इस तरह व्‍यवहार-रत्‍नत्रयके द्वारा आपको निश्‍चय-रत्‍नत्रयकी सिद्धि प्राप्‍त हुई है और समीचीन धर्मचक्रके द्वारा आप तीनों लोकों के एक स्‍वामी हुए हैं ॥565॥

हे कामदेव के मानको मर्दन करनेवाले प्रभो ! आपका शरीर विकार से रहित है और आपके वचन पदार्थ के यथार्थ स्‍वरूपको देखनेवाले हैं यदि कदाचित् ये दोनों ही नेत्र और कर्ण इन्द्रियके विषय हो जावें तो वे दोनों ही, राग-द्वेष से रहित तथा समस्‍त पदार्थों को जाननेवाले आपको किसके मन में शीघ्र ही स्‍थापित नहीं कर देंगे अर्थात् सभीके मन में स्‍थापित कर देंगे । भावार्थ-आपका निर्विकार शरीर देखकर तथा पदार्थ के यथार्थ स्‍वरूपका निरूपण करनेवाली आपकी वाणी सुनकर सभी लोग अपने ह्णदय में आपका ध्‍यान करने लगते हैं । आपका शरीर निर्विकार इसलिए है कि आप वीतराग हैं तथा आपकी वाणी पदार्थ का यथार्थ स्‍वरूप इसलिए कहती है कि आप सब पदार्थों को जाननेवाले हैं-सर्वज्ञ हैं ॥566॥

हे विद्वानोंके पालक ! क्‍या इस संसार में वस्‍तुका स्‍वरूप अन्‍वय रूप से नित्‍य है अथवा निरन्‍वय रूप से क्षणिक है । कैसा है सो कहिए, इसका स्‍वरूप कहनेमें बुद्धादिक गर्भ में बैठे हुए बच्‍चेके समान हैं, वास्‍तविक बात यह है कि इन सबका ज्ञान पदार्थज्ञान से विमुख है ॥567॥

हे देव ! आपका अनन्‍तचतुष्‍टय कपिलादिके विषयभूत नहीं है यह बात तो दूर रही परन्‍तु नि:स्‍वेदत्‍व आदि जो आपके स्‍वाभाविक अतिशय हैं उनमें से क्‍या कोई भी कपिलादि से किसी एकके भी संभव है ? अर्थात् नहीं है; फिर भला ये बेचारे कपिलादि आप्‍तकी पंक्तिमें कै से बैठ सकते हैं ? आप्‍त कै से कहला सकते हैं ? ॥568॥

हे भगवन् ! यद्यपि आप ने तीनों वेदोंको नष्‍ट कर दिया है फिर भी मुनिगण आपको परमपुरूष कहते हैं सो क्‍या परमौदारिक शरीर की संगति से कहते हैं ? या मोह रूपी लताके भस्‍म करने से कहते हैं ? या सिद्धता गुणरूप परिणमन करने से कहते हैं या गुणों के गौरव से कहते हैं ? ॥569॥

हे भगवन् ! यद्यपि अभी आप ने औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंको नष्‍ट नहीं किया है तो भी शुद्धि, शक्ति और अनुपम धैर्यके सातिशय प्रकट हो ने से आप सिद्ध हो चुके हैं । हे स्‍वामिन् ! आप अपने द्वारा कहे हुए विशाल एवं समीचीन मार्ग में चलनेवाले लोगों को परमात्‍म-अवस्‍था प्राप्‍त करा देते हैं यही आपकी सब से अधिक विशेषता है ॥570॥

हे देव ! यद्यपि आपके औदयिक भाव है परन्‍तु चूँकि आप मोह से रहित हैं अत: वह बन्‍धका कारण नहीं है मात्र योगोंके अनुरोध से आपके सातावेदनीय नामक पुण्‍य प्रकृतिका थोड़ा-सा बन्‍ध होता है पर वह आपका कुछ भी विघात नहीं कर सकता इसलिए आपको यथार्थमें बन्‍धरहित ही कहते हैं ॥571॥

हे भगवन् ! आपके चरण-कमलों का भ्रमर बन ने से जो पुण्‍य प्राप्‍त हुआ था उसी से यह देवताओं का समूह गणनीय (माननीय) गिना गया है और उसी कारण से उसकी लक्ष्‍मी संख्‍या से बाहर हो गई है । यही कारण है कि नखोंकी ऊपरकी ओर उठनेवाली किरणों से जिसका मुख देदीप्‍यमान हो रहा है ऐसा यह इन्‍द्र मुकुट झुका कर आपके चरणोंके सम्‍मुख हो रहा है-आपके चरणों की ओर निहार रहा है ॥572॥

हे जिनेन्‍द्र ! आपका उत्‍कृष्‍ट शरीर प्रथम भाव की चरम सीमा से परिपूर्ण है, आप क्रम तथा इन्द्रियों से रहित केवलज्ञानरूपी तेजके एक मात्र स्‍थान हैं, आपकी गम्‍भीर दिव्‍यध्‍वनि निश्‍चय और व्‍यवहार नय से परिपूर्ण होकर प्रकट हुई है तथा आप सबके स्‍वामी हैं इसलिए हे नाथ ! आपके परमात्‍मपदका प्रभाव बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा है ॥573॥

हे भगवन् ! यद्यपि आपका ज्ञान सर्वत्र व्‍याप्‍त है तो भी स्‍वरूपमें नियत है और वह किसी कार्य का कारण नहीं है । आपकी वाणी इच्‍छा के विना ही खिरती है तो भी वचनरहित (पशु आदि) जीवोंका भी आत्‍मकल्‍याण करने में समर्थ है । इसी प्रकार आपका जो विहार तथा ठहरना होता है वह भी अपनी इच्छा से किया हुआ । नहीं होता है और वह भी निज तथा पर किसीको भी बाधा नहीं पहुँचाता है । ऐसे हे देव ! आप मेरे निर्मलज्ञानरूपी दर्पणके तलमें ज्ञेयकी आकृतिको धारण करो अर्थात् मेरे ज्ञान के विषय होओ ॥574॥

हे भगवन् ! आप आत्‍माके स्‍वामी हैं-अपनी इच्‍छाओं को अपने आधीन रखते हैं तथा आप ने रागादि अविद्याओं का उच्‍छेद कर दिया है इसलिए आपके वचन प्रत्‍यक्षादि विरोध से रहित होकर समस्‍त संसार के लिए विना किसी बाधाके यथार्थ उपदेश देते हैं । इसी तरह हे वीर ! आप ने कामदेव के वाणोंकी शिखाकी वाचालता और शक्ति दोनों ही नष्‍ट कर दी है इसलिए मोहकी शत्रुताको जीतना आपके ही सिद्ध है अन्‍याय करनेवाले अन्‍य लोगोंमें नहीं ॥575॥

समस्‍त जगत् के द्वारा वन्‍दना करने योग्‍य देवाधिदेव श्री वर्धमान स्‍वामी सदा मेरे मस्‍तक पर विराजमान रहें और हे गणधर देव ! आप भी सदा मेरे ह्णदय में विद्यमान रहें क्‍योंकि आप ने मेरे भाग्‍योदय से करूणाकर स्‍पष्‍ट वाणीके द्वारा श्रद्धाकी वृद्धि करनेवाला यह प्रथमानुयोग कहा है सो ठीक ही है क्‍योंकि ऐसे पुरूषोंका ऐसा भाव होना स्‍वाभाविक ही है ॥576॥

इस प्रकार जिसे आगामी कालमें मोक्ष होनेवाला है जिस ने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, जो धर्म का भार धारण करनेवाला है और जिसे भारी हर्ष उत्‍पन्‍न हो रहा है ऐसा मगधपति राजा श्रेणिक, श्री वर्धमान जिनेन्‍द्र और गौतम गणधरकी स्‍तुति कर अपने नगर में प्रविष्‍ट हुआ ॥577॥

आचार्य गुणभद्र कहते हैं कि व्‍याख्‍यान करनेवाले, सुननेवाले और लिखनेवालोंको इस पुराणकी संख्‍या अनुष्‍टुप् छन्‍द से बीस हजार समझनी चाहिये ॥578॥